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वचन--भाग (१०)

वचन--भाग(१०)

अनुसुइया जी,सारंगी को भीतर ले गईं,साथ में दिवाकर भी सब्जियों का थैला लेकर भीतर घुसा और उसने दरवाज़े की कुंडी लगा दी,उसे अन्दर आता हुआ देखकर सारंगी बोली____
ओ..भाईसाब! भीतर कहाँ घुसे चले आ रहो हो?
मैं यहाँ का किराएदार हूँ और कहाँ जाऊँ,दीदी! दिवाकर बोला।।
फिर से दीदी! मुझे दीदी मत कहो,सारंगी बोली।।
अच्छा! अब तू चुप होगी,मेरी भी कुछ सुन ले या खुद ही अपना हुक्म चलाती रहेंगी,अनुसुइया जी बोलीं।
अच्छा,बोलो माँ! क्या कहना चाहती हो? सारंगी ने पूछा।।
कुछ नहीं, बस इतना ही कि आज सब्जियां लेने बाजार गई थी,किसी मोटर ने आकर टक्कर मार दी तभी इस लड़के ने आकर मुझे उठाया और पैर में मोच आ गई थी इसलिए घर छोड़ने आ गया,इसके पास रहने का ठिकाना नहीं था तो मैने कहा कि आँगन के उस ओर वाला भाग खाली पड़ा है किसी भी कमरे में रह ले,बस इतनी सी बात है और तू राईं का पहाड़ बना रही है, अनुसुइया जी बोलीं।।
तो माँ! तुम किसी भी अन्जान को अपने घर में रहने की जगह दे दोगीं और मैने तुमसे बाजार जाने को मना किया था ना!फिर तुम क्यों बाजार गई,तुम्हें कुछ हो जाता तो,उस मोटर की टक्कर तुम्हें जोर से लग जाती तो,तुम ना हर काम अपनी मर्जी से करती हो,मेरी कहाँ सुनती हो,सारंगी बोली।।
बेसहारा है बेचारा और मेरी इतनी मदद की,मुझे तो नेकदिल लगा इसलिए घर में रहने के लिए कह दिया,अनुसुइया जी बोली।।
अब मैं क्या कर सकतीं हूँ जब तुमने इजाज़त देदी और कल को कुछ हो जाए तो मुझसे मत कहना,अभी मेरा मन और बहस करने का नहीं है,मैं हाथ मुँह धोने जा रही हूँ,ऐसा कहकर सारंगी ने अपना पर्स आँगन में पड़ी चारपाई पर पटका और गुसलखाने में घुस गई।।
माँ जी! बहुत ख़तरनाक है आपकी बेटी,दिवाकर बोला।।
चुप रह बेटा! सुन लेगी तो तेरी और मेरी आफ़त कर देगी,अनुसुइया जी ने धीरे धीरे खुसरपुसर करके दिवाकर से कहा।।
गुसलखाने से हाथ मुँह धोकर निकलकर बोली___
हाँ,माँ! आज मन्दिर गई थीं, ये रहा प्रसाद लो तुम खा लो और अपने मेहमान को भी खिला दो,सारंगी ने पर्स से प्रसाद निकालते हुए कहा।।
अब तू लाईं है तो तू ही दे दे,ज्यादा पुण्य मिलेगा, अनुसुइया जी बोलीं।।
तुम कहती हो तो ठीक है और सारंगी ने दिवाकर के पास जाकर दिवाकर को प्रसाद दिया और दिवाकर ने सारंगी के पैर छू लिए___
हाँ...हाँ... बस..बस रहने दो,ये सब करने की जुरूरत नहीं है, तुम इस घर में रह सकते हो,सारंगी बोली।।
धन्यवाद दीदी!...आपका बहुत बहुत धन्यवाद, दिवाकर बोला।।
रात हो चली थीं, अनुसुइया जी ने खाना तैयार कर लिया था,तब उन्होंने सारंगी और दिवाकर को खाने के लिए कहा___
दोनों साथ में खाने बैठे,तभी दिवाकर बोला___
माँ जी!आप खाना नहीं खाएंगी।।
तुम दोनों खा लो,तुम दोनों के खाने के बाद खा लूँगी, अनुसुइया जी बोलीं।।
जब मेरी माँ थीं तो वो भी यही कहा करती थी,मै,मेरे बड़े भइया और बाबूजी हम सब एक साथ बैठकर खाना खाते थे,दिवाकर बोला।।
और अब सब कहाँ हैं,सारंगी ने पूछा।।
माँ,बाबूजी रहे नहीं और बड़े भइया गाँव में रहतें हैं, दिवाकर बोला।।
ऐसे ही दोनों बातें करते करते खाना खाते रहे,अब सारंगी दिवाकर से गुस्सा नहीं थी।।

और उधर आफ़रीन उदास सी अपने बिस्तर पर बैठी थी, आज दिवाकर के घर से जाने से उसे बहुत तकलीफ़ हो रही थी,लेकिन क्या करें उसकी वजह से दिवाकर का भविष्य खराब हो रहा था और फिर प्रभाकर भाईजान से किए हुए वादे को भी तो पूरा करना है, वो यही सोच रही थी कि समशाद ने आकर खाने के लिए पूछा___
दीदी! खाना बन गया है, खाना खा लीजिए।।
तू खा ले और ढ़ककर टेबल पर रखकर जा के सो जा,जब मेरा मन करेगा, तब खा लूँगी, आफ़रीन बोली।।
अच्छा, ठीक है दीदी! और इतना कहकर समशाद चली गई।।
तभी दरवाज़े की घंटी बजी___
आफ़रीन ने समशाद से कहा कि___
जरा,देखना तो कौन है?
समशाद ने दरवाज़ा खोला तो देखा शिशिर सामने खड़ा था__
दीदी! शिशिर साहब हैं, समशाद बोली।।
उनसे कह दे कि अभी यहाँ से तशरीफ़ ले जाएं,अभी मेरा मन उनसे बात करने का नहीं है, आफ़रीन बोली।।
दीदी! कह रहीं हैं कि अभी आपसे नहीं मिलना चाहतीं, समशाद ने शिशिर से कहा।।
मैं भी देखता हूँ कि कैसे नही मिलना चाहती,शिशिर ऐसा कहकर भीतर चला आया।।
शिशिर भीतर जाता देखकर समशाद ने टोका भी कि आप कहाँ चले जा रहें हैं लेकिन शिशिर नहीं माना और आफ़रीन के पास जाकर बोला___
मुझसे क्यों नहीं मिलना चाहती ।।
आप यहाँ से तशरीफ़ ले जाएं शिशिर साहब! अब मेरा आपसे कोई वास्ता नहीं है, आफरीन ने जवाब दिया।।
लेकिन क्यों, दिवाकर के सामने तो बड़ा प्यार जताया जा रहा था,शिशिर बोला।।
वो तो मैं दिवाकर को दिखाने के लिए नाटक कर रही थी कि वो यहाँ से चला जाएं,आफ़रीन बोली।।
नाटक! नाटक तो तुम बहुत अच्छा कर लेती हूँ, अब मैं तुम्हें असली ड्रामा दिखाऊँगा, रुक जाओ मेरा भी वक्त आएगा और इतना कहकर शिशिर आफ़रीन के घर से चला आया।।

और उधर गाँव में बिन्दवासिनी सूखकर काँटा हो चली है, चेहरे की सारी रंगत ना जाने कहाँ गई, उसकी हँसी उसकी मुस्कुराहट तो जैसे खो सी गई है,अब तो वो बाहर भी नहीं निकलती,बस काम करती रहती है कि ब्यस्त रहें वो इसलिए कि दिवाकर की उसे याद ना आएं उसकी ऐसी दशा देखकर हीरालाल जी उदास हो उठते है और उसकी माँ सुभद्रा भी हमेशा हीरालाल जी कहती रहती है कि ना जाने हमारी बिन्दू को क्या हो गया,विश्वास नहीं होता कि ये वही बिन्दू है जो देवा के साथ इस डाल से उस डाल और उस डाल से इस डाल फुदकती रहती थी,कितना खुश रहते थे दोनों एकदूसरे के साथ लेकिन जब से दिवाकर गया है, हमारी बिन्दू की तो जैसे हँसी ही चली गई है।।
हाँ,सुभद्रा! मैं भी तो वहीं सोच रहा था,मुझसे भी बिन्दू का दुःख नहीं देखा जाता,काश दिवाकर फिर से गाँव लौट आएं और फिर से सबकुछ पहले की तरह अच्छा हो जाएं, हीरालाल जी बोले।।
हाँ,बिन्दू के बाबू,मैं भी यही चाहती हूँ, सुभद्रा बोली।।
और प्रभाकर भी जब से गया है उसकी भी कोई खब़र नहीं आई,ना जाने उसे देवा मिला के नहीं, देवा के क्या हाल चाल हैं? हीरालाल जी बोले।।
मैं तो कहतीं हूँ कि तुम शहर क्यों नहीं चलें जाते,शहर जाकर पता करो कि दोनों कहाँ हैं, सुभद्रा बोली।।
लगता है तुम सही कह रही हो सुभद्रा! यही करता हूँ, अभी त्यौहारों का समय हैं तो दुकानदारी ठीक से चल रही है अभी दुकान छोड़कर नहीं जा सकता लेकिन कुछ दिनों के बाद कोशिश करता हूँ शहर जाने की,हीरालाल जी बोले।।
हाँ,यही सही रहेगा आखिर वो दोनों तुम्हारे पुराने मित्र के बच्चे हैं,इतना फ़र्ज तो तुम निभा ही सकते हो,सुभद्रा बोली।।
सही कह रही हो,आखिर इंसानियत भी तो कुछ होती है, हीरालाल जी बोले।।
वही तो मै भी कह रही हूँ, सुभद्रा बोली।।
तुम चिंता मत करो,मैं शहर जाने के विषय में कुछ करता हूँ, हीरालाल जी बोले।।
और इसी तरह हीरालाल जी और सुभद्रा के बीच बातें चलतीं रहीं___

प्रभाकर शहर के मशहूर ज्वैलर्स सेठ दीनानाथ के यहाँ मुनीम का काम करने लगा,क्योंकि उसे दुकानदारी का बहुत तजुर्बा था,वो ग्राहक को कभी खाली हाथ नहीं लौटने देता था ,जिससे सेठ दीनानाथ उससे बहुत खुश रहते थें, प्रभाकर ईमानदार भी था और वो किसी भी नौकर को बेईमानी नहीं करने देता था,
सेठ दीनानाथ की शहर के सबसे बड़े अमीरों में गिनती हुआ करती थी,उनके पास ना बंगलो की कमी थी ,ना मोटरों की कमीं थीं और ना जायदाद की कमी थी लेकिन वो अपने बेटे से बहुत दुखी थे,इकलौता लड़का था,बड़ी मन्नतें मानने पर पाँच लड़कियों के बाद हुआ था,उसे सेठ जी और उनकी पत्नी ने इतना प्यार और दुलार दिया कि वो इतना बिगड़ गया कि फिर ना सम्भला।।
स्कूल की पढ़ाई तो उसने पूरी की ,लेकिन काँलेज की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी,उसकी दिन और रातें दिनभर तवायफों के कोठों और शराबखाने में गुजरने लगी,उसे बिगड़ता हुआ देखकर सेठानी बोली की इसकी शादी कर देतें हैं, शायद जिम्मेदारियां का बोझ पड़ने पर सुधर जाए लेकिन ऐसा ना हुआ,अब तो शादी के बाद वो और भी बिगड़ गया,पत्नी पर भी हाथ उठाता है और शराब पीकर उससे भी गाली गलौज करता है।।
बस,इसी कारण सेठ जी उदास रहते हैं लेकिन आज वो बहुत ही खुश नज़र आ रहे थे और प्रभाकर के पास आकर बोले__
ये लो प्रभाकर!न्यौता।।
लेकिन किस खुशी में सेठ जी? प्रभाकर ने पूछा।।
पोता हुआ है, उसी का नामकरण है, कल हमारे बंगले पर भव्य समारोह हैं, कम से कम आधे से ज्यादा शहर निमंत्रित है, सेठ दीनानाथ जी बोले।।
बहुत बढ़िया,बधाई हो सेठ जी! दिवाकर बोला।।
ऐसे नहीं भाई! कल शाम को घर आना होगा,सेठ दीनानाथ बोले।।
हाँ...हाँ...जुरूर, क्यों नहीं, प्रभाकर बोला।।
और दूसरे दिन प्रभाकर ने बच्चे के लिए एक अच्छा सा उपहार खरीदा और सेठ जी के बंगले पहुँच गया___
सेठ जी ने प्रभाकर को सबसे मिलवाया लेकिन उनका बेटा शराब के नशे में धुत्त सोफे मे बेहोश सा पड़ा था तभी सेठ जी ने अपनी बहु को बुलाया और सेठ जी की बहु को देखकर प्रभाकर सन्न रह गया,ये और कोई नहीं सुनैना थी,जिसने कभी उससे शादी के लिए मना कर दिया था क्योंकि उसके पास ना दौलत थी और ना शौहरत लेकिन उसने प्रभाकर के अच्छे दिल को अनदेखा कर दिया था ___
सुनैना भी हतप्रभ थी प्रभाकर को देखकर, दोनों ने कुछ देर बातें की,एकदूसरे का हाल पूछा___
कैसी हो ,प्रभाकर ने पूछा।।
जैसा एक स्वार्थी इंसान को होना चाहिए था,मुझे दौलत और शौहरत तो मिली लेकिन प्यार नहीं और वो मिल भी कैसे सकता था क्योंकि किसी सच्चे इंसान का प्यार जो ठुकराया था मैने,उसकी सजा तो मुझे मिलनी चाहिए थीं,तुम बताओ कि कैसे हो? सुनैना ने पूछा।।
मैं भी ठीक हूँ, माँ बाबूजी रहे नहीं इसलिए शहर आकर तुम्हारी दुकान में मुनीमगीरी कर रहा हूँ, प्रभाकर बोला।।
सुनैना और प्रभाकर के बीच ऐसे ही औपचारिक सी बातें होतीं रहीं फिर कुछ देर बाद प्रभाकर खाना खाकर धर्मशाला चला आया......
बिस्तर पर लेटकर प्रभाकर सुनैना के बारें में सोचने लगा कि वो कितना चाहता था सुनैना को,कितना विश्वास था उसे सुनैना पर लेकिन सुनैना ने केवल दौलत और शौहरत के लिए उसका प्यार ठुकरा दिया और यही सोचते सोचते प्रभाकर को नींद आ गई।।

क्रमशः___
सरोज वर्मा___