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वचन--भाग(११)


रात हो चली थीं लेकिन अनुसुइया जी और दिवाकर की बातें खत्म ही नहीं हो रहीं थीं और उधर सारंगी अपने कमरें में रखी टेबल कुर्सी पर बैठकर अपने कुछ कागजात देख रही थीं, तभी सारंगी बोली____
माँ!अब क्या रातभर अपने मेहमान के साथ बैठी बातें करती रहोगी,सोना नहीं है क्या?
अब क्या करूँ, तू तो दिनभर बाहर रहती है और मैं यहाँ लोगों से बात करने को तरस जाती हूँ,बहुत दिनों के बाद कोई मिला है, आज तो जरा जी भर के बातें कर लेने दे और तू मत सोना,मैं अभी तेरे लिए दूध लेकर आती हूँ, अनुसुइया जी बोलीं।।
अच्छा, ठीक है माँ! सारंगी बोली।।
और अनुसुइया जी दूध का गिलास लेकर सारंगी के पास पहुँची और सारंगी का मन लेते हुए बोलीं___
क्यों बिटिया? उसे सोने के लिए एक दरी दे देती हूँ, फर्श पर बिछाकर सो जाएगा, एक तो उसे रहने की जगह दे दी,ऊपर से खाना भी यहीं खाएगा, इतना कर दिया, काफ़ी है।।
कैसीं बातें करती हो माँ! सन्दूक में इतने रजाई गद्दे भरे पड़े हैं, एक दे दो और फर्श में क्यों सोएगा बेचारा! आँगन में जो चारपाई पड़ी है, उससे कह दो कि उठाकर अपने कमरें में डाल ले और जो टेबल फैन फालतू रखा है उसे उठाकर भी अपने कमरे रख ले और जो छोटी सी चारपाई रखी है उसे आँगन मे डाल दे और माँ! तुम्हें उसका खाना क्यों अखर रहा है? बेचारे की खुराक ही कितनीं है,तुम इतना दान करती हो ,उसे खिलाकर ये समझना कि तुमने दान कर दिया,सारंगी बोली।।
मैं तेरे मुँह से यही तो सुनना चाहती थी,अनुसुइया जी ने मन मे सोचा।।
सारंगी ने आवाज देकर दिवाकर को बुलाया___
दिवाकर... दिवाकर.. जरा इधर तो आना।
जी दीदी! क्यों बुलाया मुझे? दिवाकर ने पूछा।।
माँ! इसे उस कमरें में रखें सन्दूक में से बिस्तर देदो और टेबल फैन भी दिखा दो ले जाएगा खुदबखुद उठाकर,यहाँ कोई इनके नौकर नहीं लगे हैं,सारंगी बोली।।
आ जा बेटा! अपने सोने के लिए बिस्तर उठा ले और पंखा भी ले जा और जो आँगन वाली चारपाई है उठाकर अपने कमरें में डाल ले,अनुसुइया जी बोलीं।।
ठीक है माँ जी! शुक्रिया दीदी! दिवाकर बोला।।
हाँ...हाँ...ठीक है.. ठीक है, अब जाओ यहाँ से,अब क्या खोपड़ी पर ही खड़े रहोगे,सारंगी बोली।।
और दिवाकर सन्दूक से बिस्तर निकालने चला गया अनुसुइया जी के साथ और अनुसुइया जी कमरे मे पहुँचकर दिवाकर से बोलीं___
बेटा! मेरी बेटी दिल की बुरी नहीं है, हालातों ने उसे गुस्सैल और चिढ़चिढ़ा बना दिया है, जब ये बहुत छोटी थी तो इसके पिताजी बहुत ही कम उम्र में तपैदिक से चल बसें थें,मैं घर की सबसे छोटी बहु थी,मुझसे बड़े दो जेठ थे जिन्होंने हमारे हिस्से की बहुत सी जमीन जायदाद हथिया ली,मैं पढ़ी लिखी नहीं थी इसलिए उन लोगों ने इस बात का फायदा उठाकर सब अपने नाम कर लिया,पुरखों की दोनों हवेलियाँ अपने अपने नाम कर लीं,गाँव का एक छोटा सा घर और जमीन का एक छोटा सा हिस्सा ही हमारे हाथ आया,ये शहर वाला मकान मेरे नाम था इसलिए वो लोग इसे नहीं ले पाएं,ऐसी हालत होने पर भी मैने सारंगी का स्कूल नहीं छुड़ाया, हालात देखकर उसने भी पढ़ाई जारी रखी और ठान लिया कि वकील बनेगी ताकि लोगों को न्याय दिलवा सकें, इसलिए अपनों से और समाज से लड़ते लड़ते बेचारी का स्वभाव ऐसा हो गया है,एक लड़की के लिए समाज का सामना कर पाना बहुत मुश्किल होता है।।
सही कह रहीं हैं माँ जी आप! दिवाकर बोला।।
अच्छा, बेटा! जाओ अब आराम करो,सुबह बातें करेंगें,अनुसुइया जी बोलीं।।
ठीक है माँ जी! अब मैं जाता हूँ और इतना कहकर दिवाकर ने अपना बिस्तर बिछाया और लेट गया और मन में ये सोचने लगा कि कितना अच्छा परिवार है, कितना अच्छा हो कि सारंगी दीदी मेरी भाभी बन जाएं और यही सोचते सोचते दिवाकर सपनों की दुनिया मे खो गया।।

सुबह हुई सूरज की पहली किरन के साथ ही अनुसुइया जी उठकर साफ सफाई मे लग गई,सबसे पहले वो द्वार पर झाड़ू लगाकर उसे धोतीं है और थोड़े से गोबर के साथ लीपतीं हैं, शहर में गोबर मिलना मुश्किल है लेकिन उनकी बगल वाली पड़ोसन के यहाँ गाय है इसलिए उन्हें गोबर आसानी से मिल जाता है, द्वार को साफ करने के बाद वो इतने बड़े आँगन में झाडू़ लगातीं हैं, आँगन में कूड़ा इसलिए ज्यादा फैलता है क्योकि आँगन में अमरूद का पेड़ और कुछ और भी पौधे हैं जिनकी पत्तियाँ झड़ती हैं,दिवाकर ने उन्हें झाडू़ लगाते हुए सुना तो बाहर आकर बोला__
लाइए माँ जी! ये काम में मैं कर देता हूँ, तब तक आप कुछ और कर लीजिए,वैसे भी आपके पैर में मोच आई हैं, दिवाकर बोला।।
ना बेटा! मैं कर लूँगी, तुम जाओं, अनुसुइया जी बोलीं।।
ठीक है तो मुझे और कुछ बता दीजिए मैं कर लेता हूँ, दिवाकर बोला।।
अरे,मैं सब कर लूँगी,मुझे आदत है और मोच अब ठीक है, अनुसुइया जी बोलीं।।
सब काम निपटाकर अनुसुइया जी ने वहीं आँगन में बनी कच्ची रसोई के मिट्टी के चूल्हे को जलाकर उबालने के लिए आलू चढ़ाएं और दीवाकर से बोली,मैं नहाने जा रही हूँ जरा देख लेना।।
ठीक है माँ जी! दिवाकर बोला।।
तब तक सारंगी भी अपने कमरे से निकल कर आई और दिवाकर से बोली मैं पड़ोस वाली चाची से दूध लेने जा रही हूँ, दूध लेकर सारंगी लौटी और दूध गरम कर सबके लिए चाय बनाई,तब तक अनुसुइया जी भी नहाकर आ गई थी,उन्होंने सूर्यदेवता को जल चढ़ाया और तुलसी चौरे की पूजा करके चाय पीने बैठ गईं
तब तक आलू भी उबल गए थे और दिवाकर ने उबले आलू निकाल कर अलग तस्तरी मे रख दिए।।
माँ! क्या आज आलू के पराँठे बना रही हो नाश्ते में,सारंगी ने पूछा।।
सोच तो यही रही थी,अनुसुइया जी बोलीं।।
माँ! आज जल्दी नहीं हैं मैं आराम से आठ बजे नहीं दस बजे जाऊँगी क्योंकि आज दफ्तर नहीं जा रही सर के पास,सारंगी बोली।।
दफ्तर नहीं जाना तो फिर कहाँ जाना है? अनुसुइया जी ने पूछा।।
एक गरीब औरत है उसके ससुरालवालों ने सब छीन लिया है और उसको उसके पति के साथ घर से निकाल दिया है, अभी मायके में रह रही है, उसके पास केस लड़ने के लिए पैसे नहीं है इसलिए कोई भी वकील उसका केस लेने को तैयार नहीं है, तो मेरे सर ने कहा कि तुम अब इस काबिल हो गई हो कि केस लड़ सकती हो,इसी बहाने ,तुम्हारी प्रैक्टिस भी हो जाएगी और मुझे पता भी चल जाएगा कि मैं तुम्हें कितना सिखा पाया हूँ, इसलिए मुझे उसी औरत से मिलने जाना है, मैने जुम्मन चाचा को कल बोल दिया था कि अपना ताँगा लेकर दस बजे आ जाइएगा,सारंगी बोली।।
अच्छा! ठीक है, लेकिन बिटिया इस बेचारे को भी कोई काम दिलवा दे,अनुसुइया जी बोलीं।।
अरे,हाँ! सही कहा जुम्मन चाचा के साथ चले जाना वो तुम्हें कोई ना कोई काम जरूर दिलवा देंगें, सारंगी बोली।।
ठीक है तो मैं भी तैयार होकर आपके साथ चलता हूँ,दिवाकर बोला।।
अच्छा ठीक है चलो! सारंगी बोली।।
अनुसुइया जी ने जल्दी से सिल्बट्टे पर हरे धनिए की टमाटर वाली चटनी पीसी और गरमागरम आँलू के पराँठे सेंकने लगी,तब तक सारंगी और दिवाकर भी तैयार होकर नाश्ता करने बैठे,आँगन की खुली हवा और मिट्टी के चूल्हे में सेंके पराँठे खाकर दिवाकर को गाँव की याद आ गई, उसका मन उदास सा हो गया लेकिन वो चुपचाप पराँठे खाने लगा,तभी अनुसुइया जी बोलीं____
और दूँ बेटा।।
ना माँ जी! बस, पेट भर गया,दिवाकर बोला।।
अच्छा! एक ले ले छोटा सा ,देख इसे कितना सारा आलू भरकर बनाया है, अनुसुइया जी बोली।।
नहीं रहने दीजिए, दिवाकर बोला।।
अरे,ले लो ना ! क्यों भाव खा रहें हो,अच्छा चलो आधा आधा ले लेते हैं, सारंगी बोली।।
ठीक है दीदी! दिवाकर बोला।।
और दोनों के खाकर उठने के बाद अनुसुइया जी भी खाने बैठ गई, दोनों तैयार होकर आँगन की चारपाई पर बैठे ही थे कि इतने में जुम्मन चाचा ने दरवाज़े से आवाज दी___
तैयार हो गई बिटिया!
हाँ,चाचा! अभी आई और दोनों दरवाज़ा खोलकर बाहर आकर ताँगे में बैठे ही थे कि जुम्मन चाचा ने पूछा___
तुम कौन हो मियाँ?
तभी सारंगी बोल पड़ी___
मेरा फुफेरा भाई है चाचा! अभी कल ही शहर आया है नौकरी की तलाश मे,अगर आप इसे कोई नौकरी दिलवा सकें तो___
तो बरखुरदार! आप नौकरी की तलाश में आएं हैं, कोशिश करते हैं आपके लिए नौकरी ढ़ूढ़ने की,जुम्मन चाचा बोले।।
और बातों ही बातों में सारंगी जिससे मिलने आई थीं, वहाँ पहुँच गई और ताँगे से उतरकर बोली___
चाचा !अब आप जाइएं, मैं दूसरा ताँगा लेकर घर चली जाऊँगी,
तो ठीक है, आज हम इन बरखुर्दार को अपने साथ ताँगे में बैठाकर शहर दिखा देते हैं ये गाँव से आएं हैं तो इन्होंने शहर तो देखा ना होगा,जुम्मन चाचा बोले।।
हाँ.. हाँ...क्यों नहीं, सारंगी बोली।।
और जुम्मन चाचा ने दिवाकर को ताँगे में बैठाकर शहर घुमाते घुमाते ना जाने कितनी बातें की___
आपको पता है बरखुरदार, जब हम छोटे थें तब ये शहर ऐसा नहीं था ,तब यहाँ गोरों का हुक्म चलता था,फिर हमारे जवान होने पर गोरों को देश छोड़ना पड़ा,पता है बँटवारे के समय कितनी अफरा तफरी हुई थी,वो मंज़र याद आता हैं तो दिल दह़ल जाता हैं हमारा,खैर छोड़ो मनहूसियत भरी बातों को फिर हम जवान हुए तो अल्लाह कसम क्या नूर था हमारे चेहरे पे,मोहतरमाएं हमें देखकर आहें भरती थी कोई कोई तो गश़ खाकर गिर ही जातीं थीं, मशाल्लाह हम थे भी बहुत खूबसूरत, वैसे अभी भी खूबसूरती में कोई कमी नहीं आई हैं बस बाल और मूँछे थोड़े सुफेद हुए हैं और उस समय जो गज़लो और नज्मों की महफ़िलें सजा करती थीं, सूरज के ढ़लने के साथ शुरू होतीं थीं और सूरज के उगने पर खत्म होतीं थीं,तब नवाबों की अलग ही शान हुआ करती थी,वो बघ्घियों पर सवार होकर जाते थे,तब मोटरें ज्यादा नहीं चला करतीं थीं,खैर छोड़िए ये सब भी।।
अब क्या बताएं मियाँ, जवानी में एक रईस घराने की लड़की से इश्क़ हो गया,ना रात को सुकून ना दिन को आराम,किताबें बेंच बेंच कर हम उनकी ख्वाहिशें पूरी करने लगे लेकिन जिस दिन अब्बाहुजूर के कानों तक ये बात पहुँची,उसके दूसरे ही दिन अब्बाहुजूर ने अपने किसी खा़स दोस्त की लड़की के साथ हमारा निकाह पढ़वा दिया और हमारा इश़्क परवान चढ़ने से पहले ही कब्र मे दफ़्न हो गया।।
दिवाकर भी जुम्मन चाचा की बातों का बहुत ही आनंद उठा रहा था,उसे अच्छा लग रहा था आज उसे लग रहा था कि वो कैसे भँवर जाल में फँस गया था ,लोग ऐसे होते हैं जिनके बीच अभी वो रह रहा है वो दुनिया तो नकली थी ,छलावा थी लेकिन उसने मन मे सोचा कि एक बार तो आफ़रीन से जरूर पूछूँगा कि उसने उसके साथ ऐसा क्यों किया?

क्रमशः___
सरोज वर्मा___