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वचन--भाग(१३)

वचन--भाग(१३)

प्रभाकर को ये सुनकर बहुत खुशी हुई कि उससे मिलने देवा आया था,आखिर उसे अपने भाई की याद आ ही गई और कैसे ना मेरी याद आती?सगा भाई जो है मेरा,प्रभाकर इतना खुश था कि इतना थका हुआ होने के बावजूद भी रात के खाने में उसने खीर पूड़ी बनाई और रात को आज बहुत दिनों बाद चैन की नींद सोने वाला था वो,लेकिन पगले ने अपना पता ठिकाना दे दिया होता तो ढ़ूढ़ने में आसानी रहती,फिर भी मैं बहुत खुश हूँ कि वो मुझे ढ़ूढ़ते हुए यहाँ आ पहुँचा,प्रभाकर ये सोचते सोचते कब सपनों में खो गया उसे पता ही नहीं चला।।
उधर दिवाकर को भी घर पहुँचने में थोड़ी देर हो गई थीं,अँधेरा भी हो गया था, उसने दरवाज़ा खटखटाया,सारंगी ने दरवाज़ा खोलते ही पूछा___
बहुत देर कर दी,दिवाकर! माँ परेशान हो रही थीं।।
हाँ,दीदी! किसी से मिलने से चला गया था ,मैं उनका इंतजार करता रहा लेकिन वो समय से अपने काम से नहीं लौट पाएं और मैं उनसे मिले बिना ही वापस आ गया,दिवाकर ने सारंगी को जवाब दिया।।
कौन हैं वो,सारंगी ने पूछा।।
मेरे गाँव के हैं, दिवाकर ने जवाब दिया।।
अच्छा ठीक है, सुबह खबर तो करके जाते कि उनसे मिलने जा रहे हो तो माँ परेशान ना होती,सारंगी बोली।।
दिवाकर के पहुँचने तक अनुसुइया जी खाना तैयार कर चुकीं थीं,उन्होंने दिवाकर को देखते ही कहा___
आ गया बेटा! चल जा हाथ मुँह धो लें,मैं खाना परोसती हूँ।।
ठीक है माँ जी और इतना कहकर दिवाकर हाथ मुँह धोने चला गया,वापस आकर खाना खाने बैठ गया,खाते खाते अनुसुइया जी ने दिवाकर से पूछा___
जिनसे मिलने गए थे,वो तुम्हारे रिश्तेदार हैं।।
हाँ ,माँ जी! बहुत करीबी हैं, वो मेरे,दिवाकर ने जवाब दिया।।
कोई लड़की तो नहीं है, सारंगी ने दिवाकर को छेड़ते हुए कहा।।
ना दीदी! ऐसा कुछ नहीं है,वो मेरे बड़े भाई समान है,मैने कभी उनका बहुत दिल दुखाया था,उसी की माफ़ी माँगने गया था उनके पास लेकिन मेरा जाना फिजूल हो गया,वो मुझे मिले ही नहीं, दिवाकर बोला।।
दिल छोटा ना करो बेटा! तुम्हारा इरादा नेक है तो वो तुम्हें जरूर मिलेंगे और चिंता करते हुए खाना नहीं खाया करते,तन मे नही लगता,अनुसुइया जीं बोलीं।।
जी,माँ जी! मैं चिंता नहीं कर रहा लेकिन मिल जाते तो मन से बहुत बड़ा बोझ हट जाता,दिवाकर बोला।।
और ऐसे ही खाने के साथ साथ सबकी बातचीत चलती रही.......

और ऐसे ही दिवाकर को ताँगा चलाते हुए काफी दिन बीत गए लेकिन वो उस दिन के बाद चाहते हुए भी प्रभाकर से मिलने ना जा पाया क्योंकि शाम के समय दो तीन लोगों ने उसके ताँगे को आँफिस से घर जाने के लिए लगा रखा था,इसलिए शाम को उसे काम से लौटने पर देर हो जातीं थी इसलिए वो प्रभाकर से मिलने नहीं जा पा रहा था और दोपहर के समय उसे फुरसत होती तो उस समय प्रभाकर सर्राफा बाजार में रहता।।
इधर चंपानगर गाँव में एक दिन सुभद्रा ने अपने पति हीरालाल जी से कहा कि___
क्योंकि जी! अब तो तुम्हें दुकानदारी से फुरसत हो गई हैं, तो शहर जाकर दोनों बच्चों का हाल चाल ले आते और बिन्दवासिनी की भी तबियत भी ठीक सी नहीं रहती,मारे चिंता के घुली जाती हैं तो इसे भी शहर के डाँक्टर को दिखा देते,पता तो चले आखिर इसे क्या तकलीफ़ है, वैसे इसकी सबसे बड़ी तकलीफ़ तो दिवाकर है,उसके ही कारण इसका ऐसा हाल हुआ है, शायद देवा से मिले तो ठीक हो जाएं।।
हाँ,भाग्यवान! तुम एकदम सही कहती हो,कल ही शहर जाने का बंदोबस्त करता हूँ और तुम भी संग चलो,सयानी बिटिया है और शहर का मामला,औरतजात ही औरत को भली प्रकार समझ सकती है, कुछ ही दिनों की तो बात है इसी बहाने तुम भी शहर घूम लेना और तुम्हें मैं वहाँ का स्नू,पाउडर और लाली भी दिलवा दूँगा,जिसे लगाकर तुम बिल्कुल मैम लगोगी....मैम..हीरालालजी ने सुभद्रा से ठिठोली करते हुए कहा।।
अरे,हठो जी! बुढ़ापे में तुम भी सठिया गए, ना जाने कैसीं बातें करते हो? ये क्या मेरी कोई स्नू पाउडर लगाने की उमर हैं,सुभद्रा बोली।।
अरे,तुम तो अब भी मेरे लिए वहीं सोलह साल वाली सुभद्रा हो,जैसी शादी के समय थी,हीरालाल जी बोले।।
चलो हठो जी! अपना काम करो,आज क्या लेकर बैठ गए, बुढ़ौती समय तुम्हें भी ना जाने कौन सा शौक चर्राया है,ये रसियापना छोड़ो और जाकर,हम तीनों के शहर जाने का बंदोबस्त करो,तब तक मैं बोरिया बिस्तर बाँधने का काम करती हूँ, सुभद्रा बोली।।
हाँ,भाई जाता हूँ....जाता हूँ, सब समय समय की बात है, कभी ऐसा समय था कि तुम मेरे बिन एक दिन भी ना रह पाती थी और आज ऐसा कहती हो,हीरालाल जी बोले।।
तभी बिन्दवासिनी कुएंँ से पानी भरके वापस आ गई थी,बिन्दू को देखकर हीरालाल जी बोले___
अच्छा,तो मैं इंतज़ाम करके आता हूँ।।
ठीक है, सुभद्रा बोली।।
माँ! बाबूजी किस चीज का इंतज़ाम करने जा रहे हैं, बिन्दवासिनी ने पूछा।।
टिकट का इंतज़ाम करने,सुभद्रा बोली।।
अच्छा, तो बाबूजी शहर जा रहे हैं, बिन्दू बोली।।
ना! बिटिया! हम सब शहर जा रहें हैं, सुभद्रा बोली।।
ये सुनकर बिन्दू के चेहरे पर मुस्कान आ गई और मुस्कुराते हुए वो भीतर चली गई।।
दूसरे दिन ही दोपहर की गाड़ी से सब शहर की ओर रवाना हो चलें,हीरालाल जी ने सीटें पहले से आरक्षित करवा ली थीं इसलिए सफ़र में असुविधा नहीं हुई ,हीरालाल जी को सब पता था क्योंकि वो अक्सर शहर जाते रहते हैं, रातभर के सफर के बाद रेलगाड़ी दूसरे दिन सुबह ग्यारह बजे शहर के रेलवें स्टेशन पर पहुँच गई,हीरालाल जी परिवार सहित रेलगाड़ी से सामान लेकर उतरें प्लेटफार्म से बाहर आकर एक जगह बैठाकर बिन्दू और सुभद्रा से रूकने को कहा और बोले कि तुम दोनों यहीं बैठो,मैं ताँगा तय करके आता हूँ और हाँ जरा समान देखना,इतना कहकर हीरालाल जी थोड़ा और बाहर आएं और ताँगा ढू़ढ़ने लगे,
और वहीं पर दिवाकर भी अपना ताँगा लेकर अन्य ताँगे वालों के साथ कतार में खड़ा था,हीरालाल जी ने दिवाकर को देखा और पहचान लिया___
अरे,देवा बेटा तुम! और ये सब क्या है? हीरालाल जी ने दिवाकर से पूछा।।
जी,अपनी करनी का फल भुगत रहा हूँ और सबका बहुत दिल दुखाया है उसी का प्रायश्चित करना चाहता हूँ इसलिए जो काम मिला,वहीं कर लिया और आपको मेरी वजह से शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं हैं,मैं इसी लायक हूँ, बहुत दिल दुखाया है मैने आप सब का,ना पढ़ाई छोड़ता और ना ये दिन देखना पड़ता,दिवाकर ने हीरालाल जी कहा।।
अरे,बेटा!जो हुआ सो हुआ,मिट्टी डालों,ये अच्छा हुआ कि तुम्हें समय रहतें अकल आ गई और तुम सही राह पर आ गए, हीरालाल जी बोलें।
और सब कैसे हैं घर में,दिवाकर ने पूछा।।
सब ठीक हैं बेटा,सब यही हैं, मेरे साथ ही आए हैं,हीरालाल जी बोलें।।
और बिन्दू भी आई है, दिवाकर बोला।।
हाँ वो भी आई हैं और प्रभाकर कैसा है?हीरालाल जी ने पूछा।।
जी,मैं नहीं मिला उनसे,एक बार गया था उनके पास लेकिन मुलाकात नहीं हो पाईं,दिवाकर बोला।।
क्या कहा? एक जगह रहकर भी दोनों भाई आपस में अभी तक मिले,हीरालाल जी बोले।।
अच्छा, बाकी़ बातें बाद में कर लेंगें,पहले आप सुभद्रा काकी और बिन्दू को ले आइए,दिवाकर ने हीरालाल जी से कहा।।
ठीक है और इतना कहकर हीरालाल जी ने सुभद्रा और बिन्दू के पहुँचकर दिवाकर का सारा हाल कह सुनाया,दोनों थोड़ी दुखी भी हुई लेकिन खुश भी थी कि दिवाकर अब सुधर गया है।।
बिन्दू ने दिवाकर को देखा और खुशी से उसकी आँखें भर आईं लेकिन दिवाकर मारे शरम के बिन्दू से नज़रे नहीं मिला पा रहा था।।
दिवाकर बोला,कहाँ ठहरें हैं काका?
अभी तो कुछ सोचा नहीं, तुम्ही कुछ सुझा दो,हीरालाल जी बोले।।
नारायण मंदिर की धर्मशाला में ठहर जाइएं,भइया भी वहीं ठहरें हैं, दिवाकर बोला।।
जब तुम्हें पता है कि दिवाकर कहाँ रहता है तो अब तक मिलने क्यों नहीं गए, हीरालाल जी ने पूछा।।
काका बताया तो आपको कि एक बार गया था लेकिन मुलाकात नहीं हो पाई और उस दिन के बाद समय नहीं निकाल पाया उनसे मिलने के लिए,दिवाकर बोला।।
दिवाकर,हीरालाल जी को धर्मशाला लेकर गया लेकिन वहाँ के मालिक ने दो चार दिन के लिए कमरा देने से मना कर दिया,बोले अगर महीने भर रहना है तो बताओ,लेकिन हीरालाल जी तो केवल दो चार दिन के लिए ही शहर रहने आएं थे इसलिए उन्हें कमरा नहीं मिला,एक दो धर्मशालाएँ और देखीं लेकिन वहाँ पर भी वही हाल था,थक हारकर दिवाकर बोला,आप मेरे साथ चलिए,जहाँ मैं रहता हूँ, माँजी बहुत अच्छी हैं, अपने मकान मे वो दो चार दिन के लिए ठहरने की जगह दे ही देंगीं ।।
अब क्या करें?इसके सिवाय कोई चारा भी तो नहीं और दोपहर भी होने को आई,अभी तक स्नान भी नहीं हुआ,सुभद्रा बोली।।
हाँ काकी! आप मेरे साथ ही चलिए,दो चार दिन की बात है, माँ जी को आप लोगों के आने से अच्छा लगेगा, दिवाकर बोला।।
और दिवाकर हीरालाल जी के परिवार के साथ घर पहुंँचा और अनुसुइया जी को सारा हाल कह सुनाया,
अनुसुइया जी बोली,बस,इतनी सी बात,इतना बड़ा मकान पड़ा है, दो चार दिन मेहमानों के रहने से भला मुझे क्या हर्ज है, उल्टा मै तो खुश हूँ कि घर भरा भरा लगेगा और जैसी मेरी सारंगी वैसी ही ये बिटिया।।
जी,बहन! आपका बहुत बहुत धन्यवाद, सुभद्रा बोली।।
हाँ बहन!हम परायों पर भरोसा करके बहुत बड़ा उपकार किया आपने,नहीं तो सयानी बिटिया को लेकर कहाँ जाता, हीरालाल जी बोले।।
कैसा उपकार भइया! इंसान ही तो इंसान के काम आता है, अनुसुइया जी बोलीं।।
सही कहा बहन! सब इंसान की ही माया है, अब दिवाकर का ही घर देख लो,जब से मेरा मित्र और भाभी इस दुनिया को छोड़कर गए हैं और ये दोनों भाई यहाँ शहर आ गए है तब से घर बिल्कुल वीरान सा लगता है,नहीं तो उस घर में चमन बरसता था....चमन,हीरालाल जी बोले।।
क्या कहा आपने ?दोनों भाई! अनुसुइया जी ने पूछा।।
क्या आपको नहीं पता,हीरालाल जी ने पूछा।।
अच्छा, ये बातें तो बाद में होती रहेंगीं, पहले आप लोग स्नान कर लीजिए, दिवाकर बोला।।
हाँ..आप लोग स्नान कर लीजिए,तब तक मैं आप लोगों के खाने का इंतजाम करती हूँ, अनुसुइया जी बोलीं।।
अनुसुइया जी के जाने के बाद दिवाकर ने सबसे कहा कि इन्हें अभी कुछ भी मालूम नहीं है और समय आने पर मैं सब कुछ बता दूँगा, सबने कहा ठीक है हमें कोई दिक्कत नहीं है,इतना कहकर दिवाकर बोला अब मैं काम पर जाता हूँ, आप लोग खाना खाकर मेरे कमरे मे आराम कर लीजिएगा।।
कुछ समय बाद अनुसुइया जी ने खाना तैयार कर दिया और सब खाकर आराम करने चले गए।।
शाम को सारंगी आई और घर में उन सब को देखकर अनुसुइया जी से उन सबके बारें में पूछा,अनुसुइया जी ने उनकी समस्या कह सुनाई।।
सारंगी को थोड़ा बुरा लगा लेकिन जब उसने बिन्दू का व्यवहार देखा और उसकी रसोई के कामों में कार्यकुशलता देखी तो वो सारा गुस्सा भूल गई।।
आज सारा खाना बिन्दू ने बनाया था और खाना वाकई बहुत अच्छा बना था,उसने ही खाना बनाकर रसोई समेटी और बरतन धोने आँगन में बैठ गई, अनुसुइया जी ने मना भी किया लेकिन बिन्दू नहीं मानीं, वो आज बहुत खुश थी,अपने पुराने देवा को पाकर.......

क्रमशः___
सरोज वर्मा___