Feeling of love (part-2) books and stories free download online pdf in Hindi

प्रेम की भावना (भाग-2)

अपना लैटर पोस्ट कर मैं आफिस पहुंचा।जैसे-तैसे दिन बिताया रात निकाली।अगले दिन बड़े उत्साह के साथ मैं आफिस पहुंचा।अरे अपनी..!!!...... नही, नही अपनी क्या..?मेरी भावना का लैटर जो आया होगा।
जैसे मैं आफिस में घुसा मैंने अपनी खोजी नज़रो से सबसे पहले पवन को खोजा।इधर-उधर नज़र घुमा ही रहा था कि आफिस के कोने में खड़ा चाय पीते पवन बाबू नज़र आये।चाय देखकर तो मैं एक पल के लिए भावना और उसके लैटर को भी भूल गया था।
मैं तुरंत पवन बाबू के पास पहुंचा।भावना का लैटर लेने के लिए।अब कुछ भी कहो अगर हम कुछ खा-पी रहे होते हैं तो अपने साथ वाले को भी पूछते ही हैं।वही काम पवन ने किया।पवन ने अपनी चाय का कप मेरी और बढ़ाते हुए कहा, "लीजिये प्रेम बाबू ,चाय पीजियेगा क्या..?"पवन ने ऊपरी मन से मुझे चाय के लिए पूछा लेकिन मुझे उसके ऊपरि या भीतरी मन से क्या करना..?मैं तो ठहरा चाय का दीवाना फट से ले लिया चाय का कप। पवन बाबू को उम्मीद नही थी शायद की मैं ले लूंगा चाय।
जब मैं चाय पी रहा था तब वो खा जाने वाली नज़रों से देख रहा था मुझे।पर मुझे क्या..?मैं तो चाय का आनंद लेते हुए उसे चिढ़ा रहा था।कि तभी मैंने देखा पवन के होठों पर एक रहस्यमयी मुस्कान आ गयी।उसकी मुस्कान देख चाय मेरे गले मे ही अटक गई।मेरा माथा ठनका।इसकी मुस्कान की वजह क्या है..?
तभी मुझे ध्यान आया, "अरे बाप रे..!!ये मैंने क्या कर दिया..?मेरी भावना का लैटर है इसके पास तो।अब ये मुझे छकायेगा लैटर लेने के लिए।" मेरे चेहरे का तो रंग ही उड़ गया।लेकिन उसे शायद दया आ गयी थी मुझ पर। लैटर मेरे हाथों में थमाते हुए कहा, "ये लो तुम भी क्या याद करोगे प्रेम बाबू, किस बड़े दिलवाले से पाला पड़ा।"
उसको धन्यवाद कर मैं अपने केबिन में आ गया।और लैटर निकाल लिया पढ़ने के लिए।पिछली बार की तरह इस बार भी फिर उसी महक से सांसे महक उठी।
इस बार तो भावना ने बेहद ही खतरनाक पत्र लिखा था।देख कर ही मेरे होंश उड़ गए।भावना ने लिखा था,

प्रिय पतिदेव
सही कहा आपने आपकी उम्मीद के अनुरूप कुशल ही हूँ।आखिर अपने मायके में जो हूँ।माँ के आंचल में बच्चा सुखी ही रहता है।आप भी अपनी माँ के आंचल में सुखी रहिए।मेरे साथ तो सूख रहे थे आप। जब सामने होती थी आपके तब तो सिर्फ गुस्सा और नाराज़गी होती थी मुझ पर।अब बड़ा प्यार आ रहा है।माफी मांगी जा रही है।दो-तीन बार लेने क्या आ गए बड़ा अहसान जता रहे हो।और मैं जो सब छोड़छाड़ के आपके साथ आई उसका क्या..?जितना प्रेम लैटर लिखते वक्त आता है मुझ पर उतना जब मैं सामने होती थी तब ही दिखा देते।अब दिखाते रहना अपना प्यार दुलार कमरे की दीवारों को। जानती हूँ आपको मेरी याद आ रही होगी।धुलने के कपड़ों का ढेर जो लगा होगा।पूरा कमरा अस्तव्यस्त कर रखा होगा।सामान समय और जगह पर नही मिलता होगा।ऐसे में याद तो आएगी ही।अब मम्मी जी से तो बनती नही होगी कि आपके कपड़े धो दें।रही बात सुधा की तो अभी उसकी हालत ऐसी नही है कि वो ज्यादा देर गीले में हाथ-पैर करे।अब बचे आप और अंगद भैया। तो आप तो किसी किसी रियासत के महाराज समझते हैं खुद को।सामने धरि हुई चीज तो उठाई नही जाती कपड़े क्या खाक धोएंगे।कमरा क्या व्यवस्थित करेंगे।बेचारे अंगद भैया अच्छा हुआ जो जॉब के लिए दूसरे शहर चले गए वरना तो कामवाली बाई ही बना देते उनको।
खैर, ये सब छोड़िए।आज डॉक्टर को दिखा लेना।पंद्रह दिन हो गए हैं ट्रीटमेंट हुए।कुछ समय और यहीं रुकने की इच्छा है।उसके बाद सोचूंगी वापस आना है या कहीं ओर चली जाऊँ।वैसे मेरी मामी कई दिनों से याद कर रही है तो सोच रही हूँ उनके पास भी पंद्रह-बीस दिन रुक कर आऊँ।तब तक आप अपना ध्यान रखियेगा।और हाँ किसी की आदत मत लगाया कीजिये।तकलीफ होती है बहुत।जब आदत दर्द बन जाती है।मुझे भी इतना याद करने की जरूरत नही है।क्या पता..!आप याद ही करते रहे जाओ, और मैं लौटकर आऊँ ही ना......!!!!
बहुत लिख दिया आज।कुछ मन का मेल और गुस्सा भी उतार दिया कागज पर।आप जब सामने होते हैं तो बोलने की हिम्मत नही होती इस लिए यहां बोल रही हूँ।
अपना और घर पर सबका ध्यान रखिएगा।

आपकी और सिर्फ आपकी
भावना
"प्रेम की भावना"






आज तो भावना का पत्र पढ़कर मेरे चेहरे पर ना जाने कितने ही भाव आ जा रहे थे।समझ नही आता ये पत्नियां ऐसे क्यों होती है।मतलब अगर पति प्यार करता है या जताता है तो इन्हें ये ही क्यों लगता है कि कोई काम करवाना है इसलिए ही इतना प्रेम उमड़ रहा है।
पर पत्र पढ़कर एक बात तो समझ आ गयी।भावना ने बड़े ही गर्मजोशी से गुस्से में भरकर पत्र लिखा है।ये पत्र पढ़ते समय मुझे उसके गुस्से की अनुभूति स्पष्ट रूप से हो रही थी।कि अगर मैं उसके सामने ही होता तो वो गुस्से में मेरा क्या हाल करती।अच्छा ही हुआ जो सामने नही था।
इस बार मैंने सोचा लिया था भावना के इस लैटर का मैं कोई जवाब नही देने वाला।भला ये कोई बात होती है कि, कौन सा तरीका है ये लैटर लिखने का।मैंने कितने प्रेमपूर्वक उसे रिप्लाई दिया था लैटर का । माफी मांगी उससे, लव यू लिखा उससे।अपना ईगो साइड रख के। हुह...!
मैं भी अब जवाब नही दूंगा।आखिर सेल्फ-रिस्पेक्ट भी कोई चीज़ होती है। हालांकि ये बात में सिर्फ अपने मन को समझाने के लिए बोल रहा था।बाकी में डर रहा था भावना को जवाब देने में। कितना गुस्सा और नाराज़गी भारी हुई थी उसके अंदर इसका एक छोटा सा डेमो तो मैंने आज के पत्र में देख ही लिया था। अब मुझे कुछ जवाब सूझ ही नही रहा था।क्या लिखूं..!इसलिए सोच लिए नही लिख रहा कोई प्रत्युत्तर पत्र आज।
अभी भावना के पत्र में मुझे पत्नी रूप नही बल्कि चंडिका देवी रूप नज़र आ रहा था।
मैंने सोचा अगर मैंने उसको कोई पत्र लिखा और उसने कुछ उल्टा-सुल्टा सोच लिया तो.....!! ना रे बाबा..!! अब कोई रिस्क नही। वैसे ही वो देवी तलाक़ के पेपर लेकर भेजी है।कहीं ऐसा ना हो अगली बार पत्र को जगह तलाक़ के पेपर्स ही आ जाए सीधे।
मैंने पत्र को वापस लिफाफे में डाल दिया और उसी ड्रावर में रख दिया जहां भावना का पहला पत्र रखा हुआ था।

मैंने कुर्सी से अपना सिर टिका लिया और भावना के लिखे पत्र के हर शब्दों पर विचार करने लगा।क्या लिखा भावना ने...मैंने कपड़ो का ढेर लगा रखा होगा..! कैसे पता चल गया इसको ये। वास्तव में मैंने कपड़ों का ढेर ही लगाया हुआ था धुलने के लिए।
एक बार जब कोई भी धुली शर्ट नही बची तब मैंने मम्मी से कहा था कपड़े वाशिंग मशीन में डालने को।मम्मी ने मेरे सारे कपड़े और साथ ही अपने भी कुछ कपड़े मशीन में डाल दिये।जब मम्मी ने मशीन से कपड़े बाहर निकाले तो कपड़ों के साथ मेरे चेहरे का रंग भी उड़ गया।
कसम से सारे नए पुराने कपड़े एक हो गए थे।समझ ही नही आ रहा था कौन से कपड़े नए और कौन से पुराने हैं..? इस का रंग उस पर चढ़ गया ।
अब मैं मम्मी से भी कुछ नही कह सकता था।मम्मी से कुछ कहना मतलब, "आ बैल मुझे मार" वाली कहावत चरितार्थ करना। मम्मी उल्टा मुझे ही गालियां सुनाती।आखिर मैंने ही जो बोला था उन्हें कपड़े धुलने को।
अगर भावना होती तो मेरे सारे कपड़े अपने हाथों से धोती।भावना सिर्फ घर की चादरें, कवर, पर्दे वगेरह ही मशीन में धुलती थी। मेरे कपड़े तो उसने हमेशा हाथ से ही धोए।

अचानक से एक मुस्कान आ गयी मेरे होठों पर और थोड़ी देर बाद हंसी। ये सोचकर कि भावना को पता चलेगा उस दिन मैंने और मम्मी ने मिलकर कपड़ों का क्या हाल किया है,उसका क्या हाल होगा।
जिस दिन से भावना मेरे जीवन मे आयी ना उसी दिन मैंने अपने आपको उसे सौंप दिया।सच कहूं तो प्रत्येक काम के लिए पूरी तरह से उसी पर निर्भर रहने लगा था मैं। मेरा हर छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा काम वही किया करती थी। तो आदत हो गयी मुझे भी।मुझसे कह रही है आदत सुधारने की...!और आदत किसने लगाई ये बात नही कही।

सच कहूं तो सिर्फ काम के लिए ही नही जिम्मेदारी के लिए भी मैं उसी पर निर्भर हो गया था । मेरे घर की पूरी जिम्मेदारी ले ली थी उसने।कोई भी काम, "अरे..!! भाई नही है तो क्या हुआ..?भाभी है ना।उनसे करवालो।" निश्चिंत हो गया था मैं भावना के होने से घर की जिम्मेदारियों से।
अब बड़े ही सब्र और धैर्य से काम लेना है मुझे।मैं तो भावना को पत्र लिख नही रहा।परसो उसका पत्र आना ही है।तो बस अब परसो का इंतज़ार है।जितनी जल्दी हो सके ये दिन निकले अब तो बस.......

(2)

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ज्योति प्रजापति