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सिक्स इडियट्स

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१.
अमेरिका के सेन-फ्रांसिस्को, कॅलिफोर्निया स्थित “ग्राहम ऑडिटोरियम” में अमेरिकन इंस्टिट्युट ऑफ आर्किटेक्टस का वार्षिक अधिवेशन चल रहा था। स्वागत समारंभ अर्थात मेहमानों के स्वागत के बाद विख्यात आर्किटेक्टस के भाषण हुए। सभी मंत्रमुग्ध से इस अधिवेशन का आनंद ले रहे थे। आर्किटेक्चर के स्टुडंट्स तो मानो इस रुपहले समां में कहीं खो से गये थे..! वे सबसे पिछे खडे होकर अपने पसंदिदा आर्किटेक्टस को, विशाल पर्दे पर बोलता देख रहे थे। जिनके बारे में सिर्फ सुना था या किताबों में पढा था, वे आज साक्षात देवों के भांती स्टेज पर विराजमान थे।
विद्यार्थी जीवन बडा सुहाना होता और आर्किटेक्चर विभाग तो मानो इंजीनियरींग कॉलेज के स्वर्ग के भाँती होता है। चारों ओर अप्सराए विचरण करती दिखायी देती है, फैशन के सारे लेटैस्ट ट्रेंड आपको इस विभाग में दिखने को मिल जाते है। साठ प्रतिशत अप्सराओं की सेवा में चालिस प्रतिशत देवगण, किसी पार्टी में माइनॉरिटीज के समान दिखायी पडते है। कॅंटिन के बिल से लेकर कॉलेज कि असाइन्मेंट्स तक, रोटरिंग ईंक से लेकर ड्रॉईंग शीट्स लेने तक, लगभग सारे काम ये देवगण, घर से अतिरिक्त ‘महँगाई भत्ते’ की माँग कर, अपनी जेब से खर्च कर, इन अप्सराओं की सेवा में लीन रहते है। और ऐवज में पाते है, एक मीठा सा थैंक्स..! और इसे ही वे – “आज तो लाईफ बन गयी..!” कहकर दोस्तों के बीच अपनी कॉलर टाईट करते नहीं थकते..!
तभी स्टेज से एक अनाउन्समेंट हुआ और अगली वक्ता, कैलिफोर्निया कॉलेज ऑफ आर्किटेक्चर की डॉ.अंजली का नाम पुकारा गया..! सामने बैठी व्हि.आय.पी. गेस्ट, जिनका नाम हँसीका था, ये नाम सुनकर चौंक पडी और आने वाली वक्ता के चेहरे को गौर से देखने लगी..!
“इसे कहीं देखा है..!” वे मन ही मन बडबडाने लगी।
अंजली... ये नाम परीचित मालुम होता है..! कहीं ये अपनी क्लासमेट तो नही..? कितनी सीधी-सादी रहती थी कॉलेज के दिनों में..!! किसी को भी मना नहीं करती थी... तभी तो सभी उसे बुद्धू कहा करते थी। उसकी सहेलियाँ उसे समझाती थी, “अंजली, कभी तो ‘ना’ बोलना सीख ले..! कैसे जी पायेगी इस खुदगर्ज दुनिया में..?”
अंजली मुस्कुरा कर बात को टाल देती, “किसी ने कुछ माँगा, तो ये हमारा फर्ज बनता है कि उसकी पुरजोर मदद करें..!” ये बात शायद उसके खून में थी, सो वह कभी किसी को मना नही कर पाती थी। हँसीका उससे मिलने को उतावली हो रही थी। वह सिर्फ अंजली को देखे जा रही थी। उसके शब्द तो मानो वह सुन ही नही रही थी। उसकी आँखों के सामने कॉलेज के पुराने दिन घुमने लगे... वह तीस साल पुर्व फ्लैशबैक में गुम सी गयी..!
तीस साल पहले करीब १९९० में नागपुर स्थित कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग में स्थित डिपार्टमेंट ऑफ आर्किटेक्चर का प्रांगण, स्टुडंट्स की भीड से भरा हुआ था। हर कोई अपने आप को इस कॉलेज में सिलेक्ट होने पर गौरवांवित महसुस कर रहा था। मानों उनका सपना सच हो गया हो। कितने प्रयत्न के बाद यहाँ प्रवेश मिल पाता था। और फिर डिपार्टमेंट की अपनी खुद की प्रवेश परिक्षा भी पास करनी होती थी। तब कहीं जाकर प्रथम तीस बच्चों को अंतीम फेरी में प्रवेश मिल पाता था। यहाँ प्रवेश मिलना मतलब सफलता की पहली पायदान पर कदम रखने के समान था। यहाँ केवल मेरीट स्टुडंट्स ही कदम रख पाते थे। सौ एकड में फैला यह कैंपस जिसमें इंजीनियरींग के सभी शाखाएँ मौजुद थी। इसके अलावा विहंगम लाईब्ररी, जिमखाना, बडी सी कैंटीन, क्रिकेट ग्राऊँड और अन्य छोटे-छोटे खेलों के लिये अलग मैदान मौजुद थे। सभी प्रोफेसर्स के लिये बडे-बडे बंगले, लडके लडकियों के लिये अलग से हॉस्टेल भी बने थे। यहाँ तक की प्रशासकिय विभाग में काम करने वाले कर्मचारीयों के लिये रो-हाऊस भी बने हुए थे। राज्य ही नही, देश-विदेश से बच्चे यहाँ प्रवेश लेने के इच्छुक रहते थे।
आर्किटेक्चर विभाग के प्रवेश सुची में सबसे ऊपर राघव शास्त्री का नाम था। राघव एक मेधावी छात्र होने की वजह से यहाँ सिलेक्ट हुआ था। वह मध्य प्रदेश के एक दुरस्त गाँव से आया था। उसे छात्रवृत्ती भी मिलने वाली थी। किंतु वह एक गरीब परिवार से आया था, अतः उसके पास मात्र एक साईकिल ही थी। फीस में तकरीबन छुट मिल जाने के बावजुद वह हॉस्टेल में प्रवेश नहीं पा सका। अतः उसने पास ही एक कॉलोनी में एक छोटा सा कमरा किराये पर ले रखा था। आज कॉलेज का पहला दिन था, वह अपनी बाईसिकल हाथ में लिये डिपार्टमेंट में आ रहा था। सभी नें उसे अनदेखा कर दिया, जैसे वह कॉलेज का कोई चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी हो। जबकी राघव का नाम एडमिशन की मेरीट लिस्ट में सबसे ऊपर था। पर यह बात बाकी छात्रों को थोडी पता थी। उसने अपनी साईकिल दुर एक कोने में खडी कर दी। सिर्फ एक लडकी उसे गौर से देख रही थी। वह दूर स्टेप्स पर बैठी थी और सभी आने जाने वालों को देख रही थी। उसके बाल खुले थे, ज्यादा लंबे तो नहीं किंतु बहुत छोटे भी नहीं थे। उसकी आँखे राघव की गतीविधियों को एकटक देख रही थी। राघव सबसे किनारा काटता हुआ एन्ट्रंस पोर्च के समीप खडा हो गया। उसे वही लडकी अपनी ओर देखती हुई प्रतीत हुई, किंतु उसने उसे अनदेखा कर दिया। वह पहले से ही जरा सहमा हुआ सा था। इतना बडा कॉलेज, स्कुटर और कार में आने वाले बच्चे, इन सब को देख कर उसका मन घबराने लगा था।
बेल बजते ही सभी, जिनमें अधिकांश फ्रेशर्स थे, अपनी नयी क्लासरूम में जाने लगे। करीब तीस बच्चे अपने आप को कंफरटेबल बनाने की कोशिश कर रहे थे। कोई अपने लिये मनपसंद जगह ढुँढने में लगा था तो कोई खिडकी के पास का टेबल पकडे बैठा था। उन्हें यह भुलने में समय लग रहा था कि वे अब स्कुल से निकल कर महाविद्यालय में आ गये हैं। इंसान की आदतें बदलते जरा देर लगती है।
“हाय, मैं हंसिका पटेल..,” बगल की टेबल से वही सुबह वाली लडकी राघव की ओर अपना हाथ बढाते हुए मुस्कुरा कर बोली।
“मैं, राघव..,” वह झिझकते हुए बोला। हंसिका उसका हाथ अब भी थामे उसे देख रही थी।
“तो तुम हो इस क्लास के टॉपर बॉय..!” हंसिका चहकते हुए बोली। उसके सफेद दाँत मोतीयों से चमक रहे थे और बालों की एक लट उसके गुलाबी गालों को मानों चुम रही थी। थोडी देर के लिये राघव उनमें खो सा गया। तभी अचानक उसने अपना हाथ खिंच लिया। पहली ही भेंट में इतनी नजदिकियाँ ठिक नहीं। उसे अपनी हदें पता थी। वह जानता था कि किससे कितनी दुरी बनायें रखनी है।
कुछ ही समय में क्लास टिचर आ पहुँचे और सभी शांत हो गये। “अंजली लोणकर, आप इस क्लास की मॉनिटर बनाई जाती है।“ सर ने ऐलान कर दिया। एक लडकी खडी हो गयी और सभी अंजली की ओर देखने लगे। सर ने उसे बुलाया और कहा, “ये लो रोल-कॉल और आज से तुम्हे ही सभी की उपस्थिती दर्ज करनी है।“
अंजली, एक औसत कद की महाराष्ट्रियन लडकी थी। जिसके तीखे नयन-नक्श थे। वह सुरत से ही जरा तेज-तर्रार लडकी लग रही थी। चुँकी क्लास में लगभग सत्तर प्रतिशत लडकियाँ ही थी अतः ऐसी ही किसी लडकी को क्लास प्रमुख की भुमिका अदा करनी लाजमी थी। फिर सभी का एक दुसरे के साथ परिचय हुआ। अंजली, लिस्ट के अनुसार रजिस्टर पर अल्फाबेटिक ऑर्डर में सभी के नाम लिख रही थी। बाकी सभी उसकी ओर देख रहे थे, मानों थोडी देर में वही अगली क्लास लेने वाली हो। सभी के नाम लिखने के पश्चात अंजली ने रोल-कॉल लेना शुरू किया। राघव का नाम आते ही अंजली एक क्षण को रुकी और उसे देखने लगी। उसने सभी के सामने कहा, “मिलिये हमारे इस साल की प्रवेश सुची में पहले क्रमांक के छात्र – राघव शास्त्री से..! अंजली के साथ साथ सभी ने उसके सम्मान में तालियाँ बजाई। राघव की झिझक कुछ कम हुई। उसने सभी का शुक्रिया अदा किया। किंतु उसे इस बात का जरा भी अभीमान नही हुआ। वह विनयशील और मितभाषी लडका था। तभी तो वह बहुत जल्दी सभी का चहेता बन जाता था।
अगले सप्ताह ‘फ्रेशर्स-डे’ मनाया जाने वाला था। सभी फ्रेशर्स को उस दिन अपने सिनीयर्स के सामने खुद का परिचय, एक खास अंदाज में देना होता था। वह जो भी अच्छा कर सकता हो, उसे करके दिखना पडता था। सभी अपना-अपना बेस्ट करने की तैयारी कर रहे थे। सीनीयर्स के साथ-साथ टिचर्स भी इस समारोह में शामिल होने वाले थे। ताकी सभी एक दुसरे को जान सके। एक दुसरे से पहचान बढा सके।
बच्चे फ्रेशर्स-डे का एक तैल-रंग से रंगा बैनर बाँधने में लगे थे। लग रहा था जैसे फ्रेशर्स को खुद ही अपने आयोजन की तैयारी करनी थी। कुछ दिवारों पर ‘ग्राफिती’ बनाने में लगे थे। किसी ने बोनी-एम के लीड सिंगर ‘बॉबी-फैरल’ की आऊट लाईन बनानी शुरू कर दी। फैंटम की तरह चेहरा और बडे-बडे घुँघराले बाल..! ब्लैक आऊट लाईन, जो सामान्यतः वॉटर-प्रुफ इंक और एक इंच फ्लैट सेबल ब्रश से बनाया जाता है। इसे वॉल-आर्ट भी कहा जाता है। डिपार्टमेंट के ऑडिटोरियम में सजावट की जा रही थी जो कि उन दिनों पार्किंग से सट कर लगा था। वहाँ कुछ रंगीन पर्दे भी टाँगे जा रहे थे, जो बादल या समुद्र की लहरो को दर्शा रहे थे। कुछ ही समय बाद कार्यक्रम की शुरूआत हो गयी। सभी एक-एक कर अपना परिचय देते हुए अपना पसँदिदा एक्ट करके दिखा रहे थे। कुछ ग्रुप में परफॉम कर रहे थे। उनमें एक बंदा था, ‘थाई’ जो बहुत अच्छा गिटार बजा रहा था। थाई, विदेश से यहाँ पढने आया था। कुछ लडकियाँ उन दिनों के लोकप्रिय बॉलीवुड गीत गा रहीं थी। किंतु भारतीय गझल और पाश्चात्य संगीत को एक साथ एक ही धरातल पर पसंद करने वाले बंदे यदी आप देखना चाहते हो तो आर्किटेक्चर डिपार्टमेंट में आपका स्वागत है। किसी दिन बोनी-एम, पिंक-फ्लाँईड या केनी-जी के गीत बजते थे, तो किसी दिन सभी गुलाम-अली और जगजीत-चित्रा सिंह के काफिये गुनगुनाते रहते थे। सभी निर्विकार भाव से इन ध्वनी लहरीयों को अपने में से गुजरने देते थे।
शरीर की सारी इंद्रियाँ पुरी शिद्दत से ड्रॉईंग शीट बनाने में लगी रहती थी। किसी को गीत के भाव से कोई मतलब नहीं था। बस कान में संगीत पडता जाये और हम अपना काम करते जाये..! चुँकी कान का ड्रॉईंग बनाने में कोई योगदान नहीं होता, अतः वे अपने हिस्से का काम करके, अपने आपको हाथ और आँखों का अभिन्न अंग बना लेते थे। पेट बेचारा जब चीखता चिल्लाता था तब – “चलो कैंटीन..!” का नारा लगता था। तो सबसे पहले जो घर से डिब्बा लाते थे, उनका खाना सफाचट किया जाता था, तब फ्रेशर्स की बारात कैंटिन की ओर कूच करती। सभी कुछ ना कुछ ऑर्डर करते थे और फिर जिसके पास उस दिन की जितनी पॉकेट मनी होती जमा की जाती और कम ज्यादा कर कैंटीन के गल्ले पर बैठे ‘अन्ना’ को हस्तांतरित किया जाता और आते हुए काऊँटर पर रखी सारी सौंफ और मिश्री की डलीयाँ खतम कर दी जाती..! अन्ना भी निश्काम भाव से उन कटोरियों को फिर से भर देता, मानों कुछ हुआ ही ना हो। रोज लगभग यही क्रम चला करता था।
जिस दिन किसी की सालगिरह होती, तब तो बेचारे को सभी का बील भरना पडता। वह भी उस दिन निश्चय कर लेता कि बेटा जिस दिन तुम्हारा नंबर आयेगा, उस दिन तो मैं घर से कुछ भी खाकर नहीं आऊँगा..!
साल खत्म होते होते वार्षिक स्नेह सम्मेलन का समय आ पहुँचता, जिसका नाम रखा गया था, ‘आरोही..!’ यह सारे डिपार्टमेंट्स का मिला-जुला आयोजन होता था। इसमें सभी छात्र बढ चढ कर हिस्सा लेते थे। उस साल के निबँध प्रतियोगिता का विषय था – “क्या देश की सीमाएँ मानव सभ्यता के समग्र विकास में बाधा नहीं है..?”
पहले हर डिपार्टमेंट के भीतर यह प्रतियोगिता करवाई गयी और उनमें से सर्वश्रेष्ठ को अगले लेवल के लिये भेजने का निश्चय किया गया। अंजली को आर्किटेक्चर विभाग से कॉलेज लेवल पर भेजने का निश्चय किया गया। इंटर-डिपार्टमेंटल कॉम्पिटिशन में उसका लेखन सबसे उत्कृष्ट रहा। अब उसके निबंध में कुछ तकनीकी सुधार की जरुरत थी, ताकी वह आगे भी जीत सके। सबने मिलकर आपस में एक चर्चा सत्र का आयोजन किया, जिसमें विषय की बारीकियों पर ध्यान आकृष्ट करने का फैसला किया गया। सबसे पहले अंजली को बोलने को कहा गया। उसने अपने निबंध की विशेषताओं को एक-एक कर सबके सामने रखना शुरू किया।
जब मानव सभ्यता का उदय हुआ था, तब वह बिना किसी रोक-टोक के कहीं भी आ जा सकता था। जिसकी जितनी जरूरत होती थी, वह उसके अनुसार जमीन पर कब्जा कर सकता था, क्यों कि उस समय लोग बहुत थोडे थे। जैसे-जैसे जनसंख्या बढने लगी, मनुष्य का मोहजाल भी बढने लगा और वह अपनी जगह का अधिपत्य जग जाहिर करने लगा।
तब उसने अपनी जमीन पर अधिकार जमाने हेतु उसका विलगीकरण करना शुरू कर दिया। उसने अपनी पहचान कायम करने हेतु वृक्षो पर निशान लगाने शुरू कर दिये। ताकी कोई उसके भीतर अनाधिकृत प्रवेश ना कर सके।
यहाँ से मनुष्य ने एक-दुसरे के प्रति अविश्वास दिखाना शुरू कर दिया। कुछ उपद्रवी मनुष्यओं ने दुसरे के जमीन को छीनना भी शुरू कर दिया, जो कमजोर या महिलाओ के संरक्षण में आती थी। तब उसने अपनी जमीन की सीमा पर लगे पेडों के बीच कंटिले बाड लगाने शुरू कर दिये और इस तरह पहली बार जमीन पर सीमाएँ खिंचनी शुरू हो गयी।
जब मनुष्य कुछ शिक्षित हुआ, तब जमीन के दस्तावेज बनने शुरू हो गये। और सीमाएँ अब मोहरबद्ध होने लगी। यही प्रक्रिया गाँव की सीमारेखा खिंचने के उपयोग में आने लगी। और धीरे-धीरे राज्य और देशों के बीच भी सीमाएँ बनने लगी।
सीमाओं के साथ-साथ मनुष्य का ज्ञान भी उसके भीतर ही सिमट कर रह गया। क्यों की उसका प्रचार व प्रसार दूर तक पहुँच नहीं पा रहा था। अब एक क्षेत्र से दुसरे क्षेत्र में जाने के लिए सीमा शुल्क देना पडता था। तो मेधावी किंतु दरिद्र मनुष्य और उनके जैसी संताने एक मर्यादा तक ही सिमित रह गये। उनका ज्ञान रूपी खजाना उनके साथ चला गया। जो धनवान थे वे सात समुद्र पार परदेस जाकर ज्ञानार्जन कर सकते थे। अपने ज्ञान का विकास कर सकते थे।
एक और बात यह भी थी जिसकी वजह से सीमाएँ बनायी गयी और वह यह थी कि जिस प्रकार जंगली जानवरों से अपने खेत खलिहान की रक्षा हेतु चारों ओर काँटो की बाड लगायी जाती थी, लगभग वैसी ही सुरक्षा पडौसी दुश्मन से बचने के लिये हमने अपने देश के चारों ओर बना ली।
अब जबकी सबके सामने लगभग सारे तथ्य पेश किये जा चुके है, आप खुद ही तय कर सकते है कि क्या सचमुच सीमाओं के रहते मानव सभ्यता का, उसके ज्ञान का समग्र विकास संभव है..?” अंजली ने अपनी बात समाप्त करते हुए कहा।
सभी ने तालीयों के साथ उसका अभीवादन किया। विराज सर ने कहा, “ठिक है, ये सब तो विषय का एक पहलू है। अब तुम्हें दुसरे पहलू पर भी विचार करना चाहिए।“
“कौन सा सर..?” अंजली ने पुछा।
“फर्ज करो, कि आने वाले समय में दुनिया की तमाम सीमाएँ यदी मिटा दी जाये, क्या तब मानव सभ्यता का विकास आज के मुकाबले ज्यादा समग्र होगा..?” विराज सर ने प्रश्न रखा।
“सर, मैंने एक मानसशास्त्री का रिसर्च पेपर पढा था, जिसमें वे करीब तीन साल तक एस्किमो प्रजाती के लोगों के बीच अध्ययन हेतु उनके साथ रहे।“ अंजली ने एक साँस ली, वह आगे बोली, “उनकी खोज में बहुत अद्भुत तथ्य सामने आये है। एस्किमो की सोच हमारी आधुनिक सभ्यता से बहुत आगे की है।“ सभी साँस रोके अंजली की बात सुनने को उत्सुक थे।
अंजली ने कहना शुरू किया, “जब भी एस्किमो से उसके किसी वस्तु की तारीफ की जाये या यों कहे कि किसी वस्तु के प्रति आसक्त हो जाये तो एस्किमो तुरंत वह वस्तु उसे दे देता जिसने उसमें रूची दिखाई थी। कहने का मतलब वस्तु लेने वाले के मन में अब कोई आस्क्ति ना रही। अतः एस्किमो में चोरी यह कृत्य कभी होता ही नहीं..! किसी को यदी भुख लगी हो तो वह सिर्फ इशारा भर कर दे, उसे खाना मिल ही जाता है। कितनी अद्भुत जीने का सिद्धांत है यह..!”
“तो जब चोरी ही नहीं होगी तो किसी को झुठ भी नहीं बोलना पडेगा। कोई अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह भी नहीं करेगा। सत्य और अहिंसा अपने आप जीवन में प्रविष्ठ होने लगेगी..! तब मनुष्य को सीमाओं में बँध कर रहने की कोई जरूरत नहीं पडेगी। कोई भी, कहीं भी बेरोकटोक भ्रमण कर सकेगा। फसलों की चोरी या बरबादी नहीं होगी, लोग उतना ही उगायेंगे, जितनी जरूरत है। सारा ज्ञान सभी के लिये खुला हो जायेगा और किसी को कुछ भी छुपाने की कोई जरूरत नहीं पडेगी। किसी भी दो देशों के बीच कोई सीमा नही रहेगी। उस दिन मानव सभ्यता का विकास अपने चरम पर होगा।“ अंजली ने उपसंहार किया।
विराज सर सहित सभी ने अंजली के कथन का अनुमोदन किया और उसे फाईनल्स के लिये शुभकामनाएँ भी दी।
कहना न होगा, अंजली को अपने निबंध के लिये प्रथम पुरस्कार भी मिला। उसके सहपाठियों ने उसे सर-आँखों पर बिठा लिया..! समाचार पत्र में भी अंजली का गुणगाण किया गया।
२.
सभी की प्रथम वर्ष की परिक्षाएँ खत्म हो चुकी थी। और वे कुछ दिनों के लिए अपने-अपने घर गये थे। परिक्षाफल भी अनुरूप ही आया था। सभी छात्र प्रथम वर्ष उत्तीर्ण हो कर द्वितिय वर्ष की ओर अग्रसर थे। एक महीने की छुट्टीयों के बाद सभी नयी कक्षा में, अपनी नयी जगह पर बैठने को उत्सुक थे। सब कुछ नया था। फिर से नये बच्चे फस्ट ईयर में प्रवेश हेतु आ रहे थे। राघव, अंजली, हंसिका अपनी कक्षा में टॉप पर थे। नये साल में उनके सामने नयी चुनौतीयाँ आने वाली थी।
नये साल की पहली क्लास... अंजली तेजी से अपने डिपार्टमेंट की सिढीयाँ चढती हुई सेकंड ईयर स्टुडियो की ओर लगभग भागती हुई पहुँची। विराज सर, जो डिझाईन स्टुडियो ले रहे थे, ने उसे देखते हुए सर हिला कर अंदर आने को कहा। विराज सर, कॉलेज में ‘स्टुडंट्स फ्रैंडली’ टिचर के रूप में प्रख्यात थे। वे हमेशा से स्टुडंट्स की तरफदारी किया करते थे। चुँकी वे भी इसी डिपार्टमेंट से पास-आऊट थे, अतः वे स्टुडंट्स की समस्याओं से अच्छी तरह वाकिफ थे। किंतु वे काम के समय कोई भी बहाना सुनने के आदी नहीं थे। जिस दिन का असाइनमेंट उसी दिन सब्मिट होना ही चाहिये, ये उनका पहला और आखरी नियम था। फिर कॉलेज खत्म होने के बाद, देर रात तक रुकना ही क्यों ना पडे, परवाह नहीं, काम करके ही घर जाना है। उनकी छत्रछाया से निकले बच्चे आज नामी-गिरामी आर्किटेक्टस के रूप में, देश-विदेश में कार्यरत है।
विराज सर ने सबकी ओर अपनी गहरी निगाहों से देखा और अपने चिर-परिचित अंदाज में कहा, “सबका काम हो पुरा हो गया, मुझे आज की तारीख में सबके सब्मिशन्स चाहिये।“ कहते हुए वे क्लास से बाहर निकल गये। जिनके काम नहीं हुए थे वे एक्सटेंशन लेने हेतु उनके पिछे-पिछे भागे।
“सर-सर, एक दिन की और मोहलत दे दिजिये, प्लिज..!” राघव ने गिडगिडाते हुए कहा। विराज सर ने उसे अपने ऑफिस में आने को कहा।
“कहो, क्या बात है राघव ?” सर ने अपने मेज पर रखे ‘ए-फोर साईज’ के कोरे कागज पर बिना स्केल लिये कुछ सीधी और आढी रेखायें खिंचते हुए कुछ बक्से बनाये और उसमें वे इस हफ्ते की अपनी सभी क्लासेस की अपडेट्स लिखते-लिखते बात कर रहे थे।
“सर, आप तो जानते ही है, मैं अपने गाँव के घर की परेशानीयों से कुछ परेशान हुँ, इस वजह से रूम पर काम नहीं हो पाता मेरा..!” राघव एक साँस में बोलता गया।
“तब तो तुम आर्किटेक्ट बनने के काबिल नहीं हो बच्चे..!” सर अपना काम करते-करते बोले।“ तुम अपनी क्लास के टॉपर स्टुडंट हो राघव, तुम्हें बाहर की दुनीयाँ के परेशानीयों से डगमगाना नहीं चाहिये। खुद को और मजबुत बनाओ, अपने काम पर फोकस करना सीखो। खुद को इतना सशक्त बनाओ कि कोई तुम्हें अपने लक्ष्य से भटका ना सके।“
विराज सर, राघव की आँखों में आँखें डाल कर उसे परख रहे थे। राघव ‘यस सर’ कहता हुआ, धीमें कदमों से अपने स्टुडियो की चल रहा था। अंदर आते ही अंजली उसके पास आ पहुँची। वह राघव से एक्सटेंशन के बारे में जानना चाहती थी। राघव अपने बोर्ड के पास सिर पकड कर बैठ गया।
“सर ने क्या कहा राघव..?” अंजली ने राघव से धीरे से पुछा।
“आज ही सब्मिट करना है अंजली..!” राघव रूआँसे स्वर में बोला।
“हम मिल कर काम करेंगे राघव, आज नाईट स्टुडियो की परमिशन ले लेंगे, क्या कहते हो..?“
“उसके लिये सारी क्लास का होना जरूरी है, फिर डीन सर से भी परमिशन लेनी होगी..!” राघव परेशान सा बोल रहा था।
अंजली डायस पर चढती हुई, क्लास से मुखातीब होते हुए, ताली बजा कर बोली, “हे गायीज लिसन, आज रात कौन-कौन नाईट स्टुडियो ज्वाईन करना चाहता है, क्या सबका काम पुरा हो गया है..?”
आधे से ज्यादा बच्चों के हाथ समर्थन में उठ खडे हुए।
“गुड, अब फटाफट एच.ओ.डी. को हम सभी का साईन किया हुआ अप्लिकेशन भेजना होगा, ताकी शाम होने से पहले हमें नाईट स्टुडियो का परमिशन मिल सके। कम ऑन गायीज, वी हेव टु डू इट फास्ट..!” अंजली किसी कुशल प्रबंधक की तरह हरकत मे आ गयी। एक कागज पर तीन-चार लाईनें लिखकर उसने कागज सिग्नेचर लेने के लिये आगे बढा दिया। साईन होते ही वह उसे विराज सर के ऑफिस में ले गयी और उनके सामने वह अप्लिकेशन रख दिया।
“क्या सबका काम इनकम्पलिट है अंजली..?” विराज सर ने उसकी ओर घुरते हुए पुछा।
“यस सर, लगभग सभी का, इस बहाने काम में कुछ इंप्रुवायझेशन भी हो जायेगा सर..!” अंजली ने साहस करते हुए कहा। विराज सर कुछ देर सोचते रहे, फिर अप्लिकेशन पर साईन करते हुए कहने लगे,
“माना की तुम अपने क्लास की मॉनिटर हो और तुममें लिडरशीप के गट्स भी है, किंतु तुम्हें पता है ना यह कितना रिस्की हो सकता है। हमें सेफ्टी रूल्स फॉलो करने होंगे। एक अटेंडंट भी रात भर के लिये अपॉईंट करना होगा और किसी टिचर को रात में एक विझिट भी करनी होगी। कोई आऊट-साईडर अलाऊड नहीं होगा और नो कमप्लेंटस फ्रॉम एनी वन..! इज देट क्लिअर मिस अंजली..?”
“यस सर..!” अंजली अपने चेहरे पर मुस्कुराहट बिखेरती हुई दृढ़ता पुर्वक बोली। विराज सर ने वह अप्लिकेशन एच.ओ.डी. तक ले जाने को कहा।
शाम पाँच बजे तक परमिशन भी मिल गयी। अंजली की आँखे खुशी से नाच उठी। यह उसकी पहली जीत थी। राघव भी अब समाधानी लग रहा था। उसे अब अपने सब्मिशन्स पुरे होते दिखायी दे रहे थे। वह ‘थाई’ के बोर्ड की तरफ बढा और उसकी ओर देख कर मुस्कुरा दिया। थाई, एक विदेशी छात्र था; जो स्कॉलरशीप लेकर यहाँ पढने आया था। उसकी रेंडरिंग बहुत अच्छी थी और पुरी क्लास में उससे अच्छी शिट्स किसी की भी नहीं होती थी। हर कोई अपनी शिट्स की रेंडरिंग उससे करवाना चाहता था।
“चल थाई, केन्टिन चलते है..!” राघव उससे बोला। दोनों केन्टिन की ओर चल दिये जो कि करीब दो सौ मिटर की दुरी पर था। केन्टिन पहुँच कर राघव अपने लिये कुछ खाने को मँगवाता है। उसे रात भर काम जो करना था।
“तू कुछ खायेगा थाई..?” राघव ने पुछा।
“नो, होस्टल मेस मे खा लेगा..!” वह टुटी-फुटी हिंदी में बोला करता था।
शाम होने वाली थी। जो बच्चे डेस्की थे अपने-अपने घर जाकर खाना खा कर लौटने वाले थे। इस बहाने घर पर फ्रेश होने को भी मिलेगा। इस सबमिशन्स के मार्कस फाईनल रिजल्ट में काऊँट होने वाले थे। करीब सात बजे सभी वापस आ चुके थे। थाई अपने साथ होस्टेल से टेप-रिकॉर्डर ले आया, उसके पास वेस्टर्न म्युजिक के कई टेप्स थी, जिसमें ‘आबा, बोनी-एम, केनी-जी और पिंक-फ्लॉइड के गिटार के बेहतरीन पीस थे। उसने वह टेप-रिकॉर्डर सर के टेबल पर रखा और बोनी-एम की टेप चला दी। एक गाना ‘सनी...’ चल रहा था। सभी रोमांचित हो सुर में सुर मिला रहे थे। हर अंतरे के आखिर के तीन शब्द – ‘आई लव यु..!’ तो माना हर कोई दोहरा रहा था। कुछ देर बाद वॉल्युम अपने आप बढाया जाने लगा। सभी अपने-अपने काम में मशगुल हो गये थे। अंजली का काम लगभग पुरा हो चुका था, बस लेटरींग और क्लिनींग बाकी थी, सो वह राघव के बोर्ड की तरफ बढी और उसके अधुरे काम को ध्यान से देखने लगी।
“राघव, क्या-क्या काम बाकी है तुम्हारा..?” अंजली ने पुछा।
“एलिवेशन्स, सेक्शंस और साईट-प्लान बाकी है।“
“लाओ, मैं एलिवेशन्स और सेक्शंस, बना देती हुँ। मुझे सारे प्लान्स दे दो और तुम साईट-प्लान पर कॉनसंट्रेट करो।“ अंजली उसके प्लान्स की शिट्स अपने बोर्ड की तरफ ले गयी और उस पर एक नई ट्रेसींग लगा कर उन्हे टी-स्केल और सेट-स्कवेयर से अलाईन करने लगी, ताकी वे सभी प्रॉपर ९० डिग्री में सेट हो जाये, और वह अपना काम शुरू कर सके। सब ठिक हो जाने के बाद वह मुँह से सेलो टेप काट-काट कर शिट्स चिपकाने लगी, मन ही मन वह ‘ब्राउन गर्ल इन द रिंग... ला ल ला ल ला...!’ यह गीत गुनगुना रही थी। सभी के कदम उस गाने पर अपने आप थिरकने लगे।
रात नऊ के करीब सभी को चाय पीने की इच्छा हो रही थी।
“चाय कौन-कौन पियेगा..?” अंजली ने सबकी ओर देखते हुए पूछा। सभी ने एक साथ हाँ कर दी।
“चलो चँद्रमा..!” किसी ने कहा। चँद्रमा, होस्टल के पास ही एक ऐसी जगह थी, जहाँ रात भर चाय और नाश्ता मिलता था। कॉलेज स्टाफ का कोई बंदा था, जिसके माँ-बाऊजी उसे रात में चलाया करता था। होस्टेल के बच्चे वहीं अपनी नींद भगाने की दवा करते थे।
“नहीं, आज नहीं..!” अंजली ने कहा, “बहुत काम पडा है। किसी को भेज देते है।“
“हाँ, ये ठिक रहेगा,” सबने एक सुर में कहा।
सबने कॉन्ट्रिब्युशन कलेक्ट किया और बाहर बैठे अटेंडंट से, जो की उबासीयाँ ले रहा था, सबके लिये चाय लाने को कहा। उतने में होस्टल की तरफ से कुछ सीनीयर्स आ रहे थे। डिपार्टमेंट की लाईट और म्युजिक की मंद आवाज सुन कर वे स्टुडिओ में दाखिल हुए। सभी, उनके सम्मान में गुड-इवनिंग कहते हुए खडे होने लगे।
“किसका नाईट-स्टुडिओ है आज..?” एक बंदे ने उनसे बैठे रहने का इशारा किया।
“विराज सर का..!” अंजली ने बताया, “हमें आज ही सब्मिशन्स सबमिट करना है, इसलिये काम कर रहे है।“
“ओके, किप इट अप..! एनी थिंग एल्स..?” उन्होने पुछा।
“नो सर, इट्स ऑल फाईन..!” अंजली ने बताया। वे पुछ कर वापस चले गये।
इतने में चाय भी आ गयी। सभी ने पेपर कप्स में चाय पी। अब उनमें कुछ तरावट आ चुकी थी। वे सब पुरे जोश से काम करने में जुट गये।
“थाई, तेरा काम हो गया क्या..?” राघव ने उसके पास आकर पुछा।
“हाँ, लगभग हो ही चुका है..!”
“मेरी शिट्स में थोडी रेंडरिंग कर दे ना यार..!” राघव ने उससे विनंती की।
“ओके, पंद्रह मिनिट में आता हुँ..!” थाई ने अपनी शिट्स को फाईनल टच देते हुए कहा।
सभी ‘आबा’ का फर्नान्डो इस गीत का आनंद ले रहे थे। ग्यारह बजने के करीब विराज सर स्टुडिओ में दाखिल होते हुए बोले, “एक घंटे में सब्मिशन्स सबमिट करना है सबको..!”
सभी चौंक पडे, ओ तेरी..! रात के ग्यारह बज रहे थे, सभी तेजी से अपना-अपना काम पुरा करने लगे। अंजली ने राघव की शिट्स पुरी कर दी और वह अपने काम को खत्म करने लगी। लगभग सभी के काम पुरे होने को था। हर कोई पुरी मुतैदी से अपना-अपना काम खत्म करने में लगा था। बारह बजने से पुर्व ही सभी के काम समाप्त हो गये थे। विराज सर ने अटेंडंट को सभी की शिट्स जमा करके अपने ऑफिस में रखने को कहा। अटेंडंट ने शिट्स की तह बना कर सर के ऑफिस रख कर ताला लगा दिया।
सभी ग्रुप्स बना कर अपने-अपने घर या होस्टल की ओर चल दिये। राघव ने अंजली को थैक्स कहते हुए हाथ मिलाया और अपनी बाईसिकल से अपने रूम की ओर जाने लगा। अंजली गर्लस होस्टल की ओर मुड गयी।
“चलो, मैं तुम्हे होस्टल तक ड्रॉप कर देता हुँ।“ राघव ने अंजली से कहा। उसने अंजली को अपने साईकिल पर बैठने को कहा। अंजली ने देखा, उसके साईकिल की पिछली सीट नहीं है। उसने कहा, “मैं कैसे बैठ पाऊँगी राघव..?”
“कोई बात नही.. तुम आगे बैठ सकती हो..!” राघव ने अंजाने में कह तो दिया, फिर सोचने लगा, वह उसके बारे में क्या सोच रही होगी।
“चलो, पैदल ही चलते है..! पाँच मिनीट में पहुँच जायेंगे।“ अंजली ने कहा।
“हाँ, ठिक है.., चलो..!” राघव ने कहा।
दोनो रात के अंधेरे में अकेले चले जा रहे थे। राघव ने अंजली को देखा, वह चाँद की रोशनी में और भी खुबसुरत लग रही थी। वे दोनों चुपचाप थे। सुबह से आधी रात तक काम करते-करते वे थक गये थे। भूख भी जोरो से लग रही थी।
“बहुत भूख लग रही है, कुछ खाने की इच्छा हो रही है यार..!” राघव ने अंजली से कहा।
“इस वक्त कहाँ मिलेगा खाना, राघव..!” अंजली ने उसकी ओर देखते हुए कहा।
“चंद्रमा चले..! खाने को कुछ स्नैक्स तो मिल ही जायेंगे। अब रूम पर मेरा खाने का डिब्बा तो खराब हो गया होगा..!” राघव ने संदेह व्यक्त किया।
“ठिक है, चलो..!” अंजली ने हाँ कर दी।
चँद्रमा में पहले चाय ही मिलती थी, आजकल अँकल ने बच्चों की फरमाईश पर सादे ब्रेड सैंडवीच रखने शुरू कर दिये थे, जो वे एक इलेक्ट्रिक टोस्टर पर बनाते थे। एक पुराने फ्रिज का भी जुगाड कर लिया था जिसमें चीज-स्लाईस और कोल्ड-ड्रिंक्स रखे होते थे। दोनों वहाँ पहुँचे और वहाँ के इंचार्ज अंकल से दो चीज-सैंडवीच और कॉफी लाने को कहा। देर रात पढने वाले बच्चे वहाँ चाय या सिगरेट की तलब मिटाने कभी भी आते थे। रात भर अंकल उस छोटे से रेस्त्राँ को सँभालते थे और दिन में आराम करते थे। हालाँकी एक अलग कैंटीन भी थी, लेकिन ‘चँद्रमा’ रात को ही रोशन हुआ करता था। नाम जो ‘चँद्रमा’ था..!
थोडी देर में उनका ऑर्डर आ गया। दोनों चीज-सैंडवीच और गरमा-गरम कॉफी का आनंद लेते हुए अंकल को दुआएँ दे रहे थे। उनका खाकर हो जाने के बाद राघव ने पैसे दिये और दोनों वापस अंजली के गर्लस होस्टल की ओर चल पडे।
“राघव अब मैं चल नहीं सकती..!” अंजली ने उबासी लेते हुए कहा। रात का एक बजने वाला था।
“आजा मेरी गाडी पे बैठ जा..!” राघव शरारत भरे अंदाज में उन दिनों का चर्चीत गाना गाने लगा। अंजली हँसते हुए उसकी साईकिल के डंडे पर बैठ गयी। वे दोनों जूली फिल्म के नायक-नायिका की तरह लग रहे थे। अंजली के बाल खुले हुए थे और वह बार-बार राघव के चेहरे पर बिखर रहे थे। राघव ने कभी किसी लडकी को इतने पास से महसुस नहीं किया था। उसे अंजली का सहवास अच्छा लग रहा था। अंजली भी राघव के गठिले बदन की खुशबू महसुस कर रही थी। उसने भी कभी किसी लडके को इतने पास से महसुस नहीं किया था। उसने पलट कर राघव को देखा, उसकी गर्म साँसे उसके चेहरे से टकरा गयी। उसने अपनी आँखे बंद कर ली। उसे लगा राघव उसे चुम ले..!
राघव की नजरें अँधेरे में रास्ता तलाश रही थी। थोडी देर में एक तीराहा आ गया, जहाँ से दाँयी तरफ गेस्ट-हाऊस और बाँयी तरफ से एंट्रन्स गेट आता था। उसी के बगल में गर्लस होस्टल स्थित था। करीब सौ मिटर की दूरी बाकी थी, तभी अंजली ने राघव से पुछा, “क्या तुम मुझे पसँद करते हो..?”
“हाँ, क्यों नही..! तुम मेरी एक अच्छी दोस्त हो और दोस्त को तो सभी पसँद करते है..?” राघव ने सादगी से कहा।
“वैसे नहीं.., तुम समझे नहीं मेरा मतलब..!” अंजली ने धीरे से कहा। उसका होस्टल आ चुका था, वह उतरी और राघव से गले लगते हुए कहा, “मैं तुम्हे चाहती हुँ राघव..!” और उसने राघव के घुँघराले बालों में अपना गोरा नाजुक हाथ घुमाया। उसकी आँखे राघव की आँखों में अपना जवाब ढुँढ रही थी। राघव ने भी उसके बालों को सहलाया और अपना सर हिला कर उसके प्यार को कुबूल किया। अंजली की सारी नींद हवा हो गयी, सारी थकान छू मंतर हो गयी थी। वह किसी तितली की भाँती उडती हुई गेट तक पहुँची। उसने गेट-पास दिखा कर अंदर प्रवेश किया और अपना हाथ हिला कर राघव को विदा किया।
अगले दिन से अंजली राघव के ज्यादा करीब रहने लगी। उसने अपना डेस्क-बोर्ड भी राघव के बगल में शिफ्ट कर लिया था, ताकी वह ज्यादा से ज्यादा उसके करीब रहे। राघव का भी यह पहला प्यार था, इसलिये वह भी बहुत खुश था। उसे अंजली जैसी खुबसुरत और होशियार आर्किटेक्ट पार्टनर जो मिल गयी थी। अक्सर दोनों एक दुसरे की आँखों में खोये रहते थे। कोई उन्हें बुलाये या बात करना चाहे, उन्हें किसी की कोई चिंता नहीं थी। बडी मुश्किल से वे अपना ध्यान क्लास में लगा पाते थे। धीरे-धीरे पुरी क्लास को उनके इस नये-नये प्यार के बारे में पता चल ही गया। कुछ खुश थे तो कुछ जल रहे थे। उन्हीं में से एक थी हँसिका, जो मन ही मन राघव को चाहती थी, लेकिन कह नहीं पायी। उसे लगा शायद राघव उसकी किस्मत में नहीं था।
“तो तुम दोनों डेट पर कब जा रहे हो..?” हंसिका ने उन दोनों से पुछा।
“क्या ऐसा करना जरूरी है..?” राघव ने हँसते हुए पुछा।
“जरूरी है भी और नहीं भी..!” हँसिका ने अपनी भँवे उठा कर दार्शनिक अंदाज में कहा।
राघव और अंजली दोनों शर्माने लगे। दोनों ने एक दुसरे को देखा और मन ही मन डेट पर जाना तय किया। अगले संडे, उन्होंने डेट पर जाने का ऐलान कर दिया।
*****
कहना ना होगा आज अंजली बेहद खुश दिखायी दे रही थी। राघव से आज वह कैफे कॉफी डे में मिलने वाली थी। हल्की हल्की धुप आज उसे सुहा रही थी अतः उसने एक पेस्टल सन ड्रेस पहनने का विचार किया। 'राघव को ये ड्रेस जरूर पसंद आयेगी,' उसने सोचा। स्लिव-लेस, बडी सी नेक-लाईन वाली यह ड्रेस कमर में टाईट थी जो पिछे की ओर लेस से बँधी थी और जिसके नीचे की ओर सुंदर फुल बने थे। घुटनों तक लंबे इस ड्रेस में वह किसी राजकुमारी से कम नहीं लग रही थी। वह सीसीडी के अंदर ए.सी. में बैठी थी, किंतु उसकी नजरें अलंकार टॉकिज मेट्रो स्टेशन से उतर रही सिढीयों पर लगी थी। उसका एक हाथ झुके हुए चेहरे पर और कोहनी टेबल पर थी और दुसरे हाथ से वह सामने पडे मेन्यू के पन्ने पलट रही थी। आँखे पन्नों पर छपे चित्रों को देख रही थी किंतु मन कहीं और किसी को याद कर रहा था। उतने में वेटर आया और उसने धीरे से झुक कर पुछा, "क्या आप कुछ ऑर्डर करना पसँद करेगी..?"
"हँ...!" वह चौंक कर उसकी ओर देखते हुए बोली, मानों किसी सपने से जागी हो। उसके हाथ पन्नों को पलटते-पलटते रूक गये और उसकी नजरें रुके हुए एक पन्नें पर बने एक पेय पर रूक गयी।
"सिमर विथ ब्लूबेल्विन..!" उसके मुँह से बेसाख्ता निकल गया। वह वेटर को ताकने लगी।
"येस मिस..!" वेटर अदब से सिर झुका कर बोला और उसका ड्रिंक लेने चला गया।
कुछ ही देर में उसकी ड्रिंक टेबल पर आ गयी। एक लंबे से ग्लास में नीले रंग का पेय अंजली को बहुत अच्छा लग रहा था। तभी सामने से उसे खाकी कॉटन की स्क्वेयर्ड कॉलर की शर्ट और ब्लैक ट्राऊजर्स पहने राघव आता दिखायी दिया। वह अपलक उसे देख रही थी। बिखरे बाल और चेहरे पर हल्की हल्की दाढी बढी हुयी थी और उस पर एक दिलकश स्माईल थी। वह किसी रोबदार व्यक्तीमत्व का स्वामी लग रहा था। अंजली अनायास ही उठ खडी हुयी और जरा बाहर निकल कर वह दो कदम आगे बढी और राघव को आहिस्ते से हग किया।
"तुम बहुत सुंदर लग रहे हो राघव..!" वह धीरे से उसके कानों में फुसफुसाई।
"और तुम भी गजब की हसीं लग रही हो अंजली..!" राघव उसके चेहरे की ओर देखते हुए बोला। सभी प्रशंसा भरी नजरों से उन दोनों को देख रहे थे। दोनों बैठ गये।
"कैसी हो तुम..?" राघव ने अंजली से युँ ही पुछा। अभी कल ही तो मिले थे कॉलेज में..! फिर भी आज सब कुछ नया सा लग रहा था।
"फाईन... तुम कैसे हो..?" अंजली उसकी आँखों में आँखे डालती हुयी बोली।
"फाईनली आज हम ऑफिशियली डेट पर मिल ही गये..!" राघव उसकी उडती हुयी लटों की ओर देखते हुए बोला।
"क्लास में सभी को पता होगा कि हम आज यहाँ मिलने वाले है..!" अंजली शर्माते हुए अपने ग्लास के बाहर जमी ठंडी बुँदों को उँगलीयों से छु रही थी। हम रोज ही तो मिलते है कॉलेज में, फिर आज यह कैसा अहसास है..! वह समझ नहीं पा रही थी।



३.
इस साल नासा में पार्टिसिपेट भी करना था। नासा, अर्थात नैशनल असोसिएशन ऑफ स्टुडंट्स ऑफ आर्किटेक्चर एक ऐसी संस्था है, जहाँ भारत भर से आर्किटेक्चर के स्टुडंट्स एकत्रित होते है और अपना बेहतरीन काम प्रदर्शित करते है। उसमें तीन-चार कैटेगरी होती है, जिसके तहत काम करना पडता है। सभी कॉलेजेस से एंट्रीज आती है, और ज्युरी मेंबरान सबसे अच्छे एंट्री को ट्रॉफी से नवाजते है। किसी के भी छात्र जीवन में नासा की ट्रॉफी को जीतना अर्थात ऑस्कर एवार्ड जीतने के बराबर था। यह भारत में आर्किटेक्चर छात्रों को मिलने वाला सबसे प्रतिष्ठित अवार्ड माना जाता है। नासा की तारीख और व्हेन्यु डिक्लेयर हो गये थे। सभी क्लास से ऐसे बच्चे चुने गये, जिनकी ड्राफ्टिंग सबसे अच्छी थी। इसमें तीन प्रकार के संकाय होते है, जिसमें से सबसे अच्छी एंट्री को एक ट्रॉफी दी जाती है। ग्रुप ‘ए’ में रुबेंस ट्रॉफी पर काम किया जाता है। ग्रुप ‘बी’ में लूईस आई. कान, जी.सेन, हडको ये ट्रॉफीज सम्मिलित की गई है और ग्रुप ‘सी’ में छह प्रकार की ट्रॉफीज होती है जिसमें, इंडस्ट्रियल, लैंडस्केप, क्राफ्ट पर्सन, राईटिंग आर्किटेक्चर, गृह और लौरी-बेकर, ये ट्रॉफीज होती है। इसके अलावा कुछ स्पेशल ट्रॉफिज भी होती है, जैसे नरी गाँधी ट्रॉफी, डाँस, फैशन और म्युजिक बैंड प्रतियोगिता के लिये भी ट्रॉफी मिलती थी। छात्र जीवन में ये सभी ट्रॉफीज मानी अत्यंत प्रतिष्ठित मानी जाती है। इन सभी ट्रॉफीज में बच्चे अपनी जी-जान लगा देते है, क्यों की ये उनके जीवन भर की बौद्धिक संपदाओं में से एक होती है। उनका बौद्धिक विकास किस ओर अग्रसर है, यह भी इसके विवेचन से पता चलता है। वर्ष भर नासा के माध्यम से सेमीनार और वर्कशॉप का भी आयोजन किया जाता है। यह एक ऐसा मंच है जहाँ विभिन्न प्रदेशों और परीवेश से आये बच्चों का एक दुसरे के साथ संभाषण और परिसंवाद होता है। सबसे पहला नासा १९५७ में बंबई में शुरू हुआ था। १९९५ में इस डिपार्टमेंट को भी नासा के आयोजन का सुनहरा अवसर प्राप्त हुआ था। सभी बच्चे बेहद खुश थे। आयोजन के सुत्रधार विराज सर को बनाया गया। चुँकी उन्हें इसका अच्छा अनुभव था, अतः वे ही इस राष्ट्रिय आयोजन के प्रमुख बनें। सभी शिक्षकों और छात्रों का उन्हें सहयोग प्राप्त था। सबसे पहले एक समिती का गठन किया गया। इसमें अन्य राज्यों से आये प्रतिभागीयों के रहने, खाने का इंतजाम होना था। इसके लिये दो होस्टेल ब्लॉक खाली किये गये। एक लडकों के लिये दुसरा लडकियों के लिये। साथ में आये शिक्षकगण गेस्ट हाऊस में ठहराये गये। शहर का प्रतिष्ठित ऑडिटोरियम बुक किया गया। सबसे अच्छी केटरिंग सर्विस वाले को ऑर्डर दिया गया था।
नासा में मेजबान कॉलेज के छात्रों को प्रत्येक विभाग से संबंधित विषयों से अवगत करवाया गया। प्रत्येक कार्य के लिये अलग-अलग छात्रों का समुह बनाया गया और जोर-शोर से काम शुरू किया गया। चुँकी मेजबान कॉलेज के छात्रों को किसी भी प्रतियोगिता में भाग लेने की मनाई होती है, अतः वे सिर्फ आयोजकों की ही भुमिका निभा सकते है।
नासा के काम के दौरान अनेक दिलचस्प वाकिये घटित हुए। एक बार देर रात काम करने के बाद कुछ सिनियर्स को भुख लगी। रात के तीन बज रहे थे। सभी बच्चे घर या अपने होस्टल जा चुके थे। सिर्फ वे तीन सिनियर्स ही बचे थे। अब क्या किया जाये। शाम को खाना भी नहीं खा पाये थे। तो सभी ने तय किया कि उनमें से एक के खेत पर जाते है और वहाँ जो कुछ भी मिले बना कर खा लेंगे। तीनों बंदे एक स्कुटर पर ट्रिपल सीट सवार होकर नागपुर से बाहर जाने वाले हाई-वे पर चल पडे। करीब आधे घंटे के बाद वे अपने गंतव्य तक पहुँचे। खेत पर उनका नौकर बाहर सो रहा था। उसे जगाया गया, और खाने-पीने के इंतजाम के बारे में पुछा गया। उसने बताया कि अभी तो खेत में गेहुँ लगा है और सुखा भुट्टा है। उसकी चौकी में भी कुछ खास नजर नहीं आ रहा था सिवाय मोटे चावल के..! दिखने में यह चावल भले ही मटमैला हो, किंतु बिना पॉलिश का होने की वजह से अत्यंत पौष्टिक और खाने में जरा भारी था। कुछ ही दूरी पर मुर्गीयों का दडबा था। तीनों ने एक दुसरे की ओर देखा और उस नौकर को दो मुर्गीयाँ निकाल कर लाने को कहा। फिर क्या था, घंटे भर में पतीला भर चावल और भुनी मुर्गीयाँ उनके पेट में जगह बना रही थी। खा-पी कर सभी वापसी को निकले। सुबह के पाँच बज रहे थे। लोग सुबह टहलने निकल रहे थे और वे तीनों उबासीयाँ लेते हुये सोते-जागते डिपार्टमेंट पहुँच रहे थे।
इस आयोजन के अंतीम पडाव पर फैशन शो, म्युझिकल बैंड और डाँस की प्रतियोगिताओं का भी आयोजन होता था। इस प्रकार विद्यार्थी के सर्वांगीन विकास को परखा और निखारा जाता था। पहले वर्ष इस नासा में भाग लेने वाले बच्चों को इससे प्रेरणा मिलती थे और वे अगले साल पुरी तैयारी के साथ फिर आते थे और एक नया मील का पत्थर अपने कॉलेज के नाम को प्रतिस्थापीत करके जाते थे। अक्सर महानगरों से आये छात्र ही ज्यादा से ज्यादा ट्रॉफीज बटोर कर ले जाते थे। थोडा बहुत भाई -भतीजावाद का पुट यहाँ भी नजर आता था और यही अवधारणा आने वाले समय में अपना प्रभाव कहीं न कहीं देखने को मिल ही जाता था।
डाँस की प्रतियोगिता में राघव के सुपर सिनीयर्स ने भाग लिया था, जिसमें विराज सर के छोटे भाई स्वराज सर और उनकी क्लासमेट रिचा मँम ने जबरदस्त बॉल डाँस किया था। उन्होंने इसके लिये कई दिनों की प्रैक्टिस की थी। एक वेस्टर्न म्युजिक पर उन्होंने बेहतरीन डाँस का प्रदर्शन किया था और डाँस की ट्रॉफी अपने नाम कर ली थी। सभी ने उनका जोरदार स्वागत किया था। कालांतर में दोनों ने विवाह भी किया था और रिचा मँम, आजकल एक आर्किटेक्चर कॉलेज में प्राचार्य के पद पर कार्यरत है। दोनों अपने सुखी संसार में खुश है।
*****
अंतीम वर्ष से पुर्व सभी को थिसीस के चयन हेतु ‘सिनॉप्सिस’ लिख कर सबमिट करने को कहा गया। उसके बाद सभी को छह माह की ऑफिशियल ट्रैनींग के लिये जाना होता था। जहाँ वे वास्तविक प्रोजेक्ट पर काम करते थे और प्रैक्टिकल नॉलेज हासील करते थे। तब कहीं जाकर उन्हें आर्किटेक्चर की डिग्री से नवाजा जाता था।
अंजली ने “हार्बर प्लानिंग इन पोर्ट सिटीज ऑफ इंडिया” इस विषय पर अपनी थिसीस लिखने की इच्छा जाहिर की थी। सभी को इस नये और अनुठे विषय को लेकर बहुत जिज्ञासा थी। विराज सर ने अंजली से कहा, “नो डाऊट, तुम्हारे थिसीस का विषय जरा हट कर है, किंतु इस सब्जेक्ट पर बहुत काम करना पडेगा..! तुम्हें भारत के सभी पोर्ट-सिटीज की केस स्टडिज करनी पडेगी, जिसमें खर्च भी बहुत होगा और समय भी कंस्यूम होगा। डेटा कलेक्ट करने में ज्यादा समय लगने का मतलब थिसीस के एनालिसीस में देरी...! कुल मिला कर तुम्हें एक्सटेंशन भी लेना पड सकता है। और तुम्हें किसी की कंपनी ही लगेगी, हाऊ विल यू मैंनेज ऑल दिज..?”
“सर मैं मैंनेज कर लुँगी..! मैं एक फ्लो-चार्ट बना कर आपको सबमिट करती हुँ, आप उसके अनुसार मेरे थिसीस का रिव्यु ले सकते है।“ अंजली ने अपनी बात कही।
“ओके, जो भी करना है, जस्ट डू इट फास्ट..!” विराज सर कहते हुए अपनी अगली क्लास लेने चले गये।
“अंजली, तुम अकेली ट्रैवल कर लोगी..?” हँसिका ने आश्चर्य से उसकी ओर देखते हुए पुछा।
“बिल्कुल, मैंने पुरी तैयारी के बाद ही इस विषय को हाथ में लिया है..!” अंजली कॉन्फिडंट लग रही थी, “मेरे अंकल बॉम्बे पोर्ट ट्रस्ट में काम करते है। मुँबई पहुँच कर मैं उनकी मदद से आगे का काम करूँगी..!”
“ठिक है, तुम्हारा पहला रिव्ह्यु पँद्रह दिन बाद रखा जायेगा। तुम्हें अपने काम का डेटा कलेक्शन करके उसे प्रॉपरली प्रेझेंट करना है।“ विराज सर ने कहा।
अंजली जल्द ही मुँबई रवाना हो गई। बंबई पोर्ट ट्रस्ट का पुरा मुआयना करने के बाद वह अपने अंकल के साथ मद्रास, कोचीन और विशाखापट्टनम पोर्ट ट्रस्ट देखने गयी। यहाँ की सभी जानकारीयों को उसने एक चार्ट में इंगीत किया। जैसे कि कौन सा पोर्ट खुले में है और कौन सा ऊपर से ढका हुआ, पानी के भीतर की संरचना, जो की सामान्यतः लकडी की बनी होती है, उसमें किसी प्रकार का डिफेक्ट जैसे कि समुद्री किडों द्वारा उन्हें खराब किया जाना इत्यादी जानकारी भी वह नोट करते जा रही थी। फिर साल भर का यातायत का विवरण, देश और विदेश से कितने जहाज आते-जाते है, बंदरगाह से कितने अंतर पर कौन-कौन से उत्पादों का निर्माण होता है। उनके भविष्य में घटने या बढने की क्या संभावनाये है। जहाजों के रखरखाव और उनकी मरम्मत के लिये स्थान कितना उपयुक्त है। कार्गो को बेहतर ढँग से रखने के लिए स्टोरेज शेड्स की आवश्यकता और भविष्य की अन्य योजनाओं के बारे में विचार करना, इत्यादी सभी बातों का उसने विश्लेषण किया। उसने सभी बातों के फोटोज भी ले लिये थे। ताकी वह अपनी बात लिख कर और चित्रों के द्वारा जाहिर कर सके।
वह अपने पहले रिव्ह्यु के लिये तैयार थी। उसने फटाफट ए-वन साईज के सेंचुरी पेपर पर स्केच पेन से सभी बातों को लिखना शुरू कर दिया। वह अपने काम से संतुष्ट थी।
इधर राघव और हंसिका के विषय एक-दुसरे से काफी मिलते-जुलते थे, अतः दोनों मिल कर काम कर रहे थे। राघव ‘मल्टी मोडल ट्रांसपोर्ट हब’ पर काम कर रहा था और हँसिका ‘इन्ट्रिग्रेटेड एअरपोर्ट डिझाईन’ पर काम कर रही थी। दोनों साथ-साथ मिल कर नागपुर के ‘मिहान और गजराज ट्रांसपोर्ट हब’ की साईट पर साथ ही आते-जाते थे। चुँकी हँसिका के पास कार थी, अतः वह राघव को अपने साथ ले जाती थी। राघव भी उसके प्रोजेक्ट के लिये अपनी तरफ से मदद कर रहा था।
हँसिका एक गुजराती व्यापारी परीवार से ताल्लुक रखती थी, अतः उसमें दुसरों से काम करवाने के सभी गुण मौजुद थे। वह अपना काम भी राघव से करवा लेती थी। बदले में वह राघव की जरूरतों का पुरा ख्याल रखती थी। मसलन, उसके लिए खाना लाना, रास्ते में रुक कर किसी रेस्ट्रॉ में ले जाना, कोल्ड-डिंक्स और स्नैक्स से उसे अपनी तरफ झुकाये रखना, यह उसे अच्छे से आता था। राघव को भी कोई ऐतराज न था, उसे भी यह सब अच्छा लग रहा था, दुर किसी गाँव से आये बंदे को दो ही चीजों की जरूरत होती है, पैसा और वक्त पर खाना। यदी यह दोनों ही इच्छायें पुरी हो जाये तो वह और ज्यादा मेहनत करने से भी पीछे नहीं हटता। छात्र जीवन में बडी-बडी बातें इन्हीं अनुभवो ही सीखने को मिल जाती है। यही सीख उसे अपने आने वाले जीवन में भी काम आती है। और फिर अपने काम के साथ-साथ दोस्तों की मदद करना कोई गुनाह तो नहीं..?
खैर, हँसिका और राघव का काम एक ही तरह का होने की वजह से वे अक्सर साथ रहते थे। यह बात अंजली महसुस कर रही थी। राघव अब अंजली से ज्यादा बातचीत नहीं कर पाता था। अंजाने में ही सही, अंजली को राघव का यह रुखापन खल रहा था। हँसिका को तो राघव पहले दिन से ही पसँद था, वह तो अंजली ने बाजी मार ली, अन्यथा राघव को फाँसने का पुरा प्लान हँसिका ने बना रखा था। देर से ही सही, हँसिका अब राघव के समीप आती जा रही थी। वह जानबुझ कर खुद का राघव से स्पर्श करवा देती थी। कभी राघव की तरफ की कार की खिडकी के काँच ऊपर करने के बहाने तो कभी अपने बालों को राघव के चेहरे पर बिखेरते हुए..! वह कोई मौका छोडना नही चाहती थी। राघव उसके लिये चिडी का गुलाम बन कर रह गया था, जो भविष्य में उसके पारिवारिक बिझनेस को बुलँदियों तक ले जा सकता था।
हँसिका का आर्किटेक्चर में आने का मकसद ही यही था कि एक होनहार, गरीब और जरूरतमंद आर्किटेक्ट को अपने जाल में फँसाना और उसे अपनी ओर आकृष्ट करना। चार साल के बाद उसे यह मौका मिल रहा था, तो वह इसे कैसे छोडने वाली थी।
पहले रिव्ह्यु की तारीख पास आ पहुँची। सभी के रिव्ह्यु पसँद किये गये और उन्हें अब अगला टास्क दिया गया, और वह यह था कि प्राईमरी और सेकंडरी डेटा कलेक्ट करना। उसे कम्प्युटर में फीड करना और ग्राफ के माध्यम से उनका परीमाणात्मक और गुणात्मक विश्लेषण करना और किसी नतीजे पर पहुँचना। वह नतीजा ही आपके थिसीस का उपसंहार निर्धारित करने वाला था। नतीजा ही आपकी थिसीस का मुल्यांकन करने वाला था।
राघव और हँसिका पुनः एक साथ सरकारी अफसर और नैशनल सैंपल सर्व्हे के दफ्तर में जाकर प्रारंभिक सुचनाएँ एकत्रित करने में लग गये। कहना ना होगा हँसिका को इस दौरान राघव की और ज्यादा निकटता हासिल करने में कामयाबी मिल रही थी। हँसिका की निकटता उसे भी भा रही थी। वह ज्यादा हसीन और पैसे वाली थी। वह राघव का पुरा ख्याल रख रही थी। उसके लिए रोज घर से कुछ ना कुछ खाने के लिए लेकर आती थी। राघव ने तो लगभग रूम पर खाना बनाना ही छोड दिया था। मेस के भी पैसे बच जाते थे। उसे थिसीस के लिये पैसों की बहुत आवश्यकता थी, शिट्स, पेन, पेंसील, मॉडेल और पर्सपेक्टिव व्हियु इत्यादी के लिये उसे ज्यादा पैसों की जरूरत थी। सो, वह घर से आने वाले पैसों को बचा कर रख रहा था और रोजमर्रा के खर्चे वह हँसिका के थिसीस के काम के बदले पा रहा था। दोनों के बीच अब एक म्युचुअल अंडरस्टैंडिंग बन गयी थी। दोनों को एक दुसरे की जरूरत थी। यदी जरूरते पुरी हो रही हो तो यही एक ‘सफल सौदा’ कहलाती है। ‘एक सक्सेसफुल डील..!’
मर्द और औरत के बीच यदी ऐसा कोई सौदा तय हो सके तो मजाल है किसी की जो उन दोनों के बीच दरार डाल सके..! जिंदगी जीने के लिये केवल प्यार ही काफी नही होता, दोनों में एक ‘आपसी समझ’ भी जरूरी है। ध्यान रहें, समझदारी खुद के जीने का सबब नहीं बनना चाहिए। जब तक हम अपने समकक्ष की समझदारी की हद में रह कर अपनी समझ का इम्तेहान ना दे, तब तक यह सफल सौदे में बदल नहीं सकती। दो बंदे, चाहे वे औरत हो या मर्द, तब तक एक धरातल पर एक दुसरे को सहन नहीं कर सकते, जब तक की उनमें आपसी समझ बहुत गहरी नहीं हो जाती, कोई रिश्ता सफल नहीं बन सकता।
*****
दुसरे रिव्ह्यु में सभी अपनी-अपनी ऐनालिसीस को प्रेझेंट करने आये थे। सॉफ्ट बोर्ड पर हर तरफ एक्सेल में डेटा चार्ट और ग्राफ के प्रिंट-आऊट्स लगे हुए थे। उनके नीचे उस ग्राफ से निकले निष्कर्षों को लिखा गया था, ताकी सेमीनार में बोलते हुए कुछ भुल ना जाये। अंजली का रिव्ह्यु सबसे अच्छा हुआ था। दुसरे नंबर पर राघव और हँसिका रहे थे। हँसिका को उम्मीद थी कि उसका रिव्ह्यु पहले क्रमांक पर रहेगा, लेकिन अंजली की खोज-बीन ज्यादा प्रभावशाली रही थी। उसने भविष्य की कई योजनाओं को अपने प्रबंध में डाला था। उसने देश के साथ-साथ विदेश के बंदरगाहों पर भी स्टडी की थी। दुसरी ओर राघव और हँसिका सिर्फ देश के भीतर के एअरपोर्टस को ही अपने ऐनालिसीस में सम्मिलित किया था। विराज सर ने उन्हें विदेशों के हवाई अड्डों का भी अभ्यास कर उन्हें अपने अंतीम रिव्ह्यु में प्रस्तुत करने को कहा।
अंजली ने इस रिव्ह्यु में उन दोनों से बाजी मार ली थी। वह मन ही मन खुश हो रही थी। उसने अब उन दोनों से ज्यादा बाते करना भी बंद कर दिया था। वह अपना बदला निकालना चाहती थी। वह मन ही मन हँसिका को कोसने लगी। जबकी हँसिका तो उन दोनों के बीच पनप रहे प्यार को भली-भाँती जानती थी। पुरी क्लास उन दोनों के प्यार के बारे में जानती थी। फिर भी हँसिका ने आखरी ओवर में धुँआधार बल्लेबाजी करते हुए प्यार के इस खेल को अपनी ओर मोड लिया। अंजली ने भी इस बात को ज्यादा तूल देने की कोशिश नहीं की। वह अपने थिसीस के माध्यम से उनसे आगे निकलना चाहती थी। वह ये दिखा देना चाहती थी कि वह अकेली उन दोनों पर भारी पड सकती है।
हँसिका अब अपनी आखरी चाल चलने को तैयार थी। एक दिन जब क्लास में ज्यादा बच्चे नहीं थे, हँसिका ने देखा कि अंजली क्लास के भीतर आ रही थी तभी उसने राघव को अपनी बाँहो में भर लिया और उसके होटों को चुमने का दिखावा करने लगी। अंजली की तरफ उसकी पीठ थी, लेकिन राघव अंजली को देख सकता था। उसने हँसिका को अपने से दूर करना चाहा। हँसिका तो दिखावा भर कर रही थी, उसने राघव को जोर से अपनी ओर खिंच लिया। कुछ क्षणों के लिये राघव भी असंमज में पड गया कि यह हो क्या रहा था। अंजली उन्हें देख कर गुस्से से बाहर निकल गयी। राघव उसे बुलाना चाहता था, किंतु वह जा चुकी थी। हँसिका ने अपनी राह का काँटा निकाल कर अलग कर दिया। अब उसके और राघव के बीच कोई नहीं था।
राघव ने हँसिका को अपने से अलग किया और उसे धक्का देते हुए बोला, “ये क्या कर रही थी हँसिका, अंजली ने हमें देख लिया..! वह हमारे बारे में क्या सोच रही होगी..?” राघव अपने बालों को ऊँगलीयों से पिछे खिंचते हुए झुँझला कर बोला।
“वह नहीं तो मैं ही सही..!” हँसिका ने अपनी कुटील मुस्कुराहट बिखेरते हुए कहा।
“नहीं हँसिका, मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकता। माना कि तुमने मेरे लिए बहुत कुछ किया है, मुझे बडा आधार दिया है, लेकिन उसके बदले में इतना बडा धोखा मैं अंजली को नहीं दे सकता।
“तो क्या तुम कभी भी शादी नहीं करोगे..?” यदी हाँ, तो मुझमें क्या कमी है..? क्लास में सबसे सुँदर हुँ, पैसे वाली हुँ, तुम्हारे सारे सपने पुरे करवा सकती हुँ मैं..! पास आऊट होने के बाद पहले ही दिन तुम हमारे मेगा प्रोजेक्ट के आर्किटेक्ट बन सकते हो। मेरा पुरा परिवार रियल ईस्टेट के बिझनेस में अग्रणी कंपनीयों में से एक है..! तुम्हे जरा भी स्ट्रगल नहीं करनी पडेगी राघव..! पहले ही दिन तुम चीफ आर्किटेक्ट बना दिये जाओगे..!” हँसिका ने अपना आखरी दाँव खेला।
“हँसिका, तुम्हें पता था कि मैं और अंजली पहले से ही एंगेज थे, फिर भी तुम ये कैसे कर सकती हो..?” राघव ने गुस्से में कहा।
“युद्ध और प्यार में सब कुछ जायज है, डियर..!” हँसिका अपने बालों को सँवारते हुए बोली।
“नहीं हँसिका, माना कि मैं तुम्हारे अहसानों के तले दबा हुआ हुँ, किंतु मेरा भी एक आत्म सम्मान है..! आज के बाद हमारे बीच कुछ भी अनैतिक नहीं होने पाये, इस बात का ध्यान रहे। मैं तुम्हें इस तरह मझधार में नहीं छोडुँगा। तुम्हारी थिसीस पुरी करने में तुम्हारी मदद करता रहुँगा..! उसके बाद तुम अपने रास्ते और मैं अपने..! ठिक है..! इट्स ए डील..!” राघव ने अपना हाथ आगे बढाते हुए कहा।
हँसिका की आँखे भर आयी, उसने अपना हाथ बढा कर डील को मुहरबंद कर दिया।
अंजली ने उन दोनों से बात करना बंद कर दिया। राघव ने भी अपनी गलती मान कर उसका सम्मान किया और अपने और अंजली के बीच पनप रहे रिश्ते को वहीं विराम देने का फैसला कर लिया। वे तीनों अपनी अपनी थिसीस पर अपना ध्यान देने लगे और सभी ने अच्छे नंबरों से अपना ग्रैजुएशन पुरा किया।
४.
अपना ग्रैजुएशन खत्म कर राघव ने नागपुर में ही एक फर्म ज्वाईन कर ली थी। वह अपने पोस्ट ग्रेजुएशन के लिये दिल्ली जाने से पहले अपनी माली हालात कुछ ठिक कर लेना चाहता था। उसे वहाँ एडमिशन के लिये कुछ पैसे की जरूरत थी। अतः वह कुछ काम करके इसे पुरा करना चाहता था। इस नये ऑफिस में उसे काम करते करीब एक साल होते आ रहा था। वह अपने लिये एक बाईक खरीदना चाहता था, किंतु दिल्ली जाने के बाद वह उसके किसी काम की ना थी। क्या पता वह दिल्ली से कहीं और या फिर पीएच. डी. हेतु विदेश भी चला जाये। इसलिये उसने बाईक के स्थान पर एक लेपटॉप खरीद लिया, जो की भविष्य में उसके ज्यादा काम आने वाला था।
आज राघव अपने ऑफिस में जरा देर से ही पहुँचा था। जबकी आज उसे सबसे पहले पहुँचना चाहिये था, क्यों की ऑफिस की चाबी उसी के पास थी। कल उसने ऑफिस में देर तक काम किया था और करीब साढे बारह-एक बजे ताला लगाया था। आँख जरा देर से खुली थी और इसी चक्कर में उसने आज खाना भी नहीं खाया था, बल्की मेस का डिब्बा अपनी साईकिल पर टँगा कर लाया था। ऑफिस के बाहर चार-पाँच लोगों का स्टाफ उसी की राह देख रहा था।
"क्या राघव सर, आज देर तक सोये लगता है..?" रिसेप्शनिस्ट ने हँसते हुए उससे पुछा। राघव खिसे निपोरता हुआ झट ऑफिस की चाबी निकाल कर उसे दे दी।
"आज पीने का पानी भी नहीं मिलेगा, राघव सर..!" ऑफिस बॉय भुनभुनाता हुआ बडबडा रहा था। पानी वाला अभी-अभी वापस गया था। किंतु राघव की नजर दूर एक बंद दुकान की स्टेप्स पर बैठी, एक क्युट सी दिखने वाली लडकी पर टिकी हुयी थी। वह इन सभी को बडे ध्यान से देख रही थी। वह डेनिम की लाँग स्कर्ट और उस पर मैंचिंग टॉप पहने थी। उसके बाजु में एक बैग रखा था। और वह घुटनों पर अपने एक हाथ की कोहनी रखे हथेली पर अपनी ठुड्डी टिकाये उसी की ओर देख रही थी। राघव ने तुरंत अनदेखा कर ऑफिस के अंदर कदम रखा और रिसेप्शन में सोफे पर बैठ गया, क्यों की अभी साफ-सफाई होनी बाकी थी। बंद ऑफिस में घुटन भरी हवा भरी थी। तेज पँखे की हवा से उस दुर्गंध में थोडी राहत मिल रही थी। राघव आज के अखबार पर एक सरसरी नजर दौडा रहा था। तभी उस नयी लडकी ने धीरे से अंदर कदम रखा। राघव ने उसे एक नजर देखा, वह साँवली किंतु गजब की खुबसुरत नजर आ रही थी। उसके चेहरे पर एक पिंपल आया हुआ था, जो उसने अपने कर्ली बालों से छुपा रखा था। उसके शोखी भरे चेहरे पर एक छुपी मुस्कान बिखरी थी, जो राघव की नजरों से बच ना सकी।
कुछ ही देर में सर आ गए। सभी ने खडे होकर उनका अभीवादन किया। सर की नजर उस नयी लडकी पर भी पडी। "अरे, राघव..." उन्होंने राघव से मुखातिब होते हुए कहा, "ये नयी ट्रेनी है, यह हमारे यहाँ ट्रेनिंग करेगी। इसे काम समझा देना..।"
"हलो..!" राघव ने धीरे से कहा।
"हाय..! कहते हुए उसने अपनी नजरें झुका दी।
"मैं राघव..! और तुम..?" राघव ने उससे पुछा।
"मैं... सिया.., सिया सेन..!" उसने झुकी आँखे उठा कर कहा।
"कौन सा कॉलेज..?" राघव ने उसे पहले कभी नहीं देखा था। क्यों कि वह अपने सभी जुनियर्स को जानता था। नासा में भी उसने उसे कभी पार्टिसिपेट करते हुए नहीं देखा था।
"मैं, एल.ई.डी. कॉलेज से इंटेरियर का कोर्स कर रही हुँ..!" उसने धीमें से कहा।
"तुम इस ऑफिस में कैसे..?" राघव ने उससे पुछा।
"सर और मेरे पापा, दोनों दोस्त है, सो उन्होंने यहीं ट्रेनिंग लेने को कहा।"
"तुमने आर्किटेक्चर क्यों नहीं किया..?" ड्राफ्टिंग सेक्शन में अपने बगल के बोर्ड पर बैठने का ईशारा करते हुए राघव ने पुछा।
"शुरू से ही मेरे पापा मुझको लेकर बहुत प्रोटेक्टिव रहें है, गर्लस स्कुल से पढाई पुरी कर, मुझे मजबुरन गर्लस कॉलेज में ही पढना पढा। और यहाँ लडकियों के लिये अलग से कोई आर्किटेक्चर कॉलेज नहीं होने की वजह से मुझे इंटेरियर डिझाईन में अपनी डिग्री करनी पडी।" सिया कुछ उदास होकर बोली।
"कोई नहीं, तुम इसमें भी अपना करियर बना सकती हो..!" राघव उसे चीअर-अप करते हुए बोला। सिया का चेहरा खिल गया, उसे पहली बार किसी ने बढावा दिया था। उसे लगा, वह सही जगह पर आ पहुँची है, जहाँ उसकी और उसके काम की कद्र हो, उसे आगे बढने का प्रोत्साहन मिले। शुरू से ही सिया अपने मन का काम करने की इच्छुक रही थी। किंतु उसके रुढिवादी माता-पिता ने बमुश्किल उसे टेक्निकल फिल्ड में जाने की इजाजत दी थी। वे तो उसे बि.ए. या बि.कॉम. करने को कह रहे थे, किंतु वह तो आर्किटेक्चर करना चाहती थी। करना वह बहुत कुछ चाहती थी; मसलन, पहाडों पर चढना, हवाई-जहाज उडाना, डाँस करना, उसे बचपन से ही क्लासिकल डाँस सीखने का बडा मन था। किंतु वह अपना मन मार कर रह जाती थी। माँ उसके मन की बात जानती थी, लेकिन वह भी उसके पिता के बदमिजाजी स्वभाव के आगे चुप ही रहा करती थी।
सिया का जन्म कई साल के इंतजार के बाद हुआ था। उसकी माँ ने ना जाने कहाँ-कहाँ मन्नतें माँगी थी, तब कहीं जाकर बारह साल बाद सिया का जन्म हुआ था। पापा की लाडली बेटी का नाम भी उन्होंने ही रखा था, 'सिया..!' किंतु समय के साथ 'प्रजापती दक्ष' की तरह उनका भी स्वभाव बदलता चला गया। सिया ने तो राम की सर्वांगी होने हेतु इस जगत में जन्म लिया था, किंतु उसके पिता समय के साथ स्वार्थी बनते चले गये। पहले उसे को-एड से वंचित रखा, फिर बडी होने पर इसी चिंता में उसे गर्लस कॉलेज में दाखिला दे दिया की अब वह लडकों के बीच एडजेस्ट नहीं कर पायेगी। शुरूआत में की एक भुल या यों कहें अपने बच्चे पर विश्वास कि वह इस दुनिया में अपनी जगह बना सकता है, के अभाव में माता-पिता अपने बच्चों के प्रति अंजाने में अन्याय कर बैठते है।
सिया मन मरोस कर रह गयी। पिता का अत्यावश्यक लाड-प्यार उसकी प्रगती में बाघक बन रहा था। हाई-स्कुल में सिया का दिल्ली में हर साल होने वाली गणतंत्र दिवस की परेड हेतु चयन हुआ था। तब भी उसके बाप ने उसे यह कह कर जाने नहीं दिया था कि वह अकेले कैसे रह पायेगी। जबकी वास्तविकता तो ये थी कि 'वे' अपनी बेटी से कैसे दूर रह पायेंगे। वे यह भुल गये थे कि जाने-अंजाने में अपनी ही बेटी का अहित कर रहे थे। जिसका दूरगामी परिणाम सिया के आने वाली जिंदगी पर एक नकारात्मक छाप छोडने वाला था।
"कहाँ खो गयी सिया..?" राघव ने उसकी तंद्रा को तोडते हुए पुछा।
"कुछ नहीं, बस यों ही...!" उसने राघव की आँखों में देखते हुए कहा। वह उनकी गहराईयो में अपने लिये थोडी सी जगह बनाना चाहती थी। ताउम्र जिल्लतों भरी जिंदगी जीने के बाद सिया अपने आप को एक नयी दुनीयाँ में खडा पा रही थी। उसे लगा जैसे किसी ने उसकी बेसहारा पतंग को अचानक थाम लिया हो, जैसे किसी माही ने उसकी हिचकोले खाती नाँव की पतवार थाम ली हो और उसे भँवर में जाने से रोक रहा हो। वह अब खुद को बेहतर महसुस कर रही थी। वह सुबह की घटना के बारे में सोचने लगी जब उसने पहली बार राघव को देखा था।
*****
अगले दिन सिया ऑफिस जरा देर से पहुँची। आज उसकी स्कुटी शुरू नहीं हो रही थी। बडी मुश्किल से किसी तरह शुरू करवा कर वह भागी दौडी चली आयी थी। सर ने उसे केबिन में आने को कहा और कहा, "क्या बात है, इतनी देर क्यों कर दी..?"
"सर वो..." सिया अपनी बात किसी तरह संक्षिप्त में समझाना चाह रही थी। किंतु वह आगे कुछ कह सके, इससे पहले सर ने उसकी बात काटते हुए उसके सामने एक कागज रखा और कहा, "यह एक बंगले का प्लान है, इसका इंटेरियर करना है..!" फिर वे खुद एक पेंसील लेकर उसमें फर्निचर प्लेस करने लगे। कुछ सोचते हुए उन्होनें ड्रॉईंग हॉल में सोफा और टी.वी की जगह फिक्स की। फिर बेडरूम में खिडकी के समानांतर बेड को फिक्स किया और उसके बाजु में वार्डरोब की जगह फिक्स की। किचन में मॉड्युलर प्लेटफॉर्म और सिंक की जगह फिक्स कर दी। कुछ जगह छोड कर डाईनिंग टेबल फिक्स किया। टॉयलेट में डब्लु.सी. और बेसीन फिक्स किया। और फिर उस पर एक सरसरी नजर दौडा कर उसे सिया के आगे सरका दिया।
"अब इसकी डिटेलिंग करो। डायमेंशन्स पता है ना सभी फर्निचर्स के...?" सर ने एक ही साँस में अपनी बात पुरी की और बिना उत्तर की प्रतिक्षा किये कहा, "टाईम सेवर स्टैण्डर्स रेफर कर लेना..! कहीं कुछ अडचन आये तो राघव से हेल्प ले लेना, ठिक है..? आज शाम तक स्केचेस दिखाना है क्लाईंट को...! ठिक है...? अब काम पर लग जाओ..!"
सिया के माथे पर पसीने की कुछ बुँदे झलक पडी। उसने धीरे से वह कागज उठाया और कहा, "यस सर..!" और वह उस कागज पर बनी आडी-खडी रेखाओं को समझने का प्रयास करती हुई उपर के फ्लोर पर स्थित ड्राफ्टिंग सेक्शन की सिढीयाँ चढने लगी। एक-एक सिढी वह बिना कागज से नजरे हटाये, चढती जा रही थी। फिर पलटते हुए पाँच सिढीयाँ और राघव ने उसे उपर आते हुए देख लिया।
"देखना, जरा संभल कर..! इस तरह बिना नीचे देखें सिढीयाँ चढोगी तो गिर पडोगी..!" राघव ने कहा।
"हँ...!" सिया ने वहीं रूक कर उसे देखा। राघव आज लेमन एलो कलर की एच.आर.एक्स. प्रिंटेड राऊँड नेक टी-शर्ट साथ में ब्लैक ट्राऊझर्स पहने था। बिखरे बाल और हल्की सी दाढी बडी हुई थी और टी-शर्ट की बाहें कोहनी तक चढी हुई थी। वह उसे किसी फिल्म-स्टार से कम नहीं लग रहा था। एक पल को सिया उसे देखते ही रह गयी। राघव ने अपने आगे हाथ हिलाते हुए आँखों की भँवे उचकायी। सिया का ध्यान भंग हुआ और बाकी सिढीयाँ ऊपर चढते हुए उसके पास आयी और हाथ में भिंचा कागज उसके बोर्ड पर रख दिया। राघव ने एक नजर उस पर डाली और उसे देखते हुए कहा, "तो...! करो डिटेलिंग...!"
"राघव मुझे आये अभी दो दिन ही हुए है, मैं यह सब शाम तक कैसे कर पाऊँगी..?" सिया थोडी परेशान दिख रही थी।
"कोई नहीं, हम मिल कर करेंगे...! ठिक..!" राघव ने उसे ढाढस बाँधते हुए कहा। "चलो शुरू हो जाओ..! सबसे पहले इसे नये ट्रेसिंग पेपर पर 'वन ईज टू फिफ्टी' की स्केल में ड्राफ्ट कर लो, फिर आगे बताता हुँ क्या करना है, ठिक..!"
सिया ने फटाफट उस प्लान को नये ट्रेसिंग पेपर पर ड्राफ्ट करना शुरू कर दिया। दस मिनिट में वह तैयार था। "चलो अब रूम के हिसाब से फर्निचर की लिस्ट बना लो।" राघव ने आगे कहा। सिया ने लिस्ट बना ली। "इनका साईज क्या होगा..?" सिया ने पुछा।
"सोफा, ढाई फुट वाईड और प्रत्येक सीट के लिये दो फुट के हिसाब से दो या तीन सीटर के अनुपात में बढता जायेगा, ठिक...!" राघव अपना काम करते हुए बिना नजरें उठाये कहता जा रहा था और सिया उसे नोट करते जा रही थी। पुरी लिस्ट बन जाने के बाद सिया अब थोडी आश्वस्त लग रही थी। उसका मुरझाया हुआ चेहरा अब जरा सा खिल गया था। वह लगन से अपना काम करने लगी। दो घंटे बीत गये। सारे फर्निचर एकदम फिट बैठ गये थे। वह आश्चर्यचकित थी कि सर ने बिना स्केल पकडे कितनी सहजता से इन्हें कैसे फ्री-हँण्ड ड्रा किया और वह भी कितनी जल्दी..? तभी तो वे बॉस की कुर्सी पर विराजमान है...!
"चलो कुछ खा लेते है। फिर लँच के बाद रेंडरिंग करके उसे कमप्लिट करते है, ठिक...!" राघव ने सिया की विचार शृंखला तोडते हुए कहा..!
"हाँ...!" सिया को अपने पर भरोसा नहीं हो रहा था कि उसने लँच तक आधे से ज्यादा काम कर लिया था। उसने खुशी-खुशी अपने बैग से लँच-बॉक्स निकाला। "आ जाओ..!" उसने राघव से कहा।
"मैंने मेस में ही खा लिया था सिया..!" राघव ने मुस्कुराते हुए कहा।
"एक बाईट तो ले ही सकते हो राघव..! माँ ने आज बहुत अच्छी सब्जी बनायी है। तुम्हे जरूर पसँद आयेगी।" सिया ने उसे ललचाते हुए कहा।
"मेरे लिये कॉफी और स्नैक्स आते ही होंगे सिया, तुम शुरू करो..!" राघव ने कहा। किंतु सिया ने जैसे ही अपना डिब्बा खोला, राघव को एक चीर-परीचित खुशबू ने अपनी ओर खिंचा।
"भँरवा बैंगन...!" राघव के मुँह से बेसाख्ता निकला।
"हम्म... मैंने कहा था ना, टेस्ट कर लो थोडा...! मेरी माँ सबसे अच्छे भँरवा बैंगन की सब्जी बनाती है।" सिया चहकती हुई बोली। उसके मुँह पर एक बडी सी स्माईल आ गयी।
"मेरी अम्मा भी बहुत अच्छी सब्जी बनाती थी..!" राघव ने घीरे से कहा।
"थी मतलब..?" सिया ने रोटी का कौर हाथ में पकडे पुछा।
"मेरी अम्मा बचपन में गुजर गयी थी सिया, जब मैं आठवी में पढता था।" राघव मुँह नीचे करते हुए बोला।
"ओके, कोई नहीं...! तुम मेरी माँ के हाथ का खाना खाया करो राघव..!" सिया प्यार से उसकी ओर देखते हुए बोली। "चलो अब खाना खाओ मेरे साथ..!"
"सब्जी बहुत स्वादिष्ट बनी है सिया...!" राघव अपनी ऊँगलीयाँ चाटता हुआ बोला। उसे अपनी अम्मा की याद आने लगी। कैसे बचपन में उसके बाबा ने अम्मा से तलाक ले लिया था और उसे लेकर गाँव आ गये थे। गाँव बहुत ही छोटा सा था और उस समय वहाँ मुलभूत सुविधाएँ भी नहीं थी। रोशनी नहीं, पीने के पानी की व्यवस्था नहीं थी ना अच्छे स्कुल। ले दे कर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र था, जहाँ की हालत बहुत खराब थी। इंगलिश मिडियम स्कुल से सीधे हिंदी माध्यम शाला में दाखिला लेना पडा। रस्सी से कुएँ का पानी निकालना पडता था और वही पीना भी पडता था। रस्ते के नाम पर मिट्टी से बनी कच्ची सडके भर थी। हर किसी के आँगन में गाय या बैल हुआ करते थे। सुबह-सुबह गाय के गोबर से घर-आँगन लेपा जाता था।
"कहाँ खो गये राघव..?" सिया ने उसे झकझोडते हुए कहा।
"कहीं नहीं सिया, अम्मा की याद आ गयी और उससे जुडी यादे भी ताजा हो गयी।“
"ठिक है, मैं माँ से कह कर तुम्हारी मनपसँद सब्जी बनवा कर लाया करुँगी..! अब तो खुश हो जाओ..!" सिया ने राघव को खुश करना चाहा। खाना खत्म होते ही दोनो ने मिल कर ड्रॉईंग पुरी की और शाम होते होते उसे सर के टेबल पर रख दी। सर ने सिया को शाबाशी दी। कुछ तकनीकी फेरबदल करवा कर सर ने उसे प्रेझेंटेशन हेतु आगे भेज दिया। सिया बहुत प्रसन्न थी, उसकी पहली ही ड्रॉईंग पसंद कर ली गयी। कहना न होगा यह सब राघव की मदद के बिना असंभव सा था।
देखते देखते दो माह बीत गये। चुँकी फ्रेशर्स की पहले महिने की सैलरी जमा रहती है, सिया को आज उसकी पहली सैलरी मिलने वाली थी। सिया चहकते हुए दो-दो सिढीयाँ चढते हुए ऊपर दौडी चली आ रही थी। आते ही वह राघव के गले लग गयी और उसे चुमते हुए सैलरी का लिफाफा दिखायाऔर कहा, "पुरे दस हजार रूपये मिले है राघव..! इतने पैसे कहाँ मिलते है किसी ट्रेनी को...! चलो आज शाम लाँग ड्राईव पर चलते है और आज तुम्हे मेरी तरफ से ट्रिट..! क्या कहते हो डियर..!"
राघव उसकी खुशी में खुश था। वह उसके काम की तारिफ किया करता था। दो महिने में ही सिया अच्छा काम करने लगी थी। किंतु सिया इस बात से अनभिज्ञ भी नही थी कि यह सब राघव के मदद से ही संभव हुआ था।
राघव सिया की स्कुटी चला रहा था और सिया उसे कस के भिंचे उसके कान में ना जाने क्या क्या कहती जा रही थी। उसके तो मानों ‘पर’ निकल आये थे। हाईवे पर उसने अपने दोनों हाथ पँख की तरह फैला लिये और सर ऊपर कर आँखे बंद कर ली। वर्धा रोड पर उनकी स्कुटी दौडी जा रही थी कि उतने में सिया चिल्लाई, "रोको रोको... वह देखो सावजी ढाबा...! हम वहीं खाना खायेंगे..!" राघव ने स्कुटी पार्क की और दोनों भीतर जा कर ओपन एयर रेसटारेंट में कोने की टेबल पकड कर बैठ गये। सिया कुछ देर राघव को एकटक देखी जा रही थी। वह उसमें अपना भावी जीवन साथी देख रही थी।
"राघव कितना अच्छा होता कि हम दोनों इसी तरह जीवन भर साथ रहें..!" सिया भावनाओं में बह रही थी। उसे लग रहा था जैसे वह अब स्वतंत्र नारी बन गयी है और अपने पैरों पर खडी हो गयी हो..!
"सिया, यह तो सिर्फ शुरूआत है, जल्दबाजी में इतना बडा कदम उठाना ठिक नही..! माना की तुम अब कमाने लगी हो, होशियार हो और शायद अपनी खुद की प्रैक्टिस भी शुरू कर दो, किंतु जीवनसाथी बनने के लिये सामाजिक ऊँच-नीच और रीती-रिवाजों का पालन भी तो करना जरूरी है।" राघव अपनी परिपक्वता का परिचय देते हुए उसे उपदेश देने लगा।
"बिखरे हो हजार रोडे राह में, मैं तुम्हे पसंद करती हुँ राघव..!" सिया निर्भिक होकर बोली।
"खैर छोडो, हम पहले खाना खा लेते है।" राघव ने हँसते हुए विषय बदलना चाहा। उसने इशारे से वेटर को आने को कहा। "आज की मेजबान तुम हो, हम तो मेहमान है, बोलो क्या खिलाना चाहोगी..!"
"सावजी में आने के बाद कोई नॉन-वेज मिस करे, ये तो सावजी का अपमान होगा, काय म्हणता राव..!" सिया नागपुरी अँदाज में वेटर से मुखातिब होते हुए बोली।
"बरोबर बोलता ताई तुम्हीं..! एक नंबर गावराण कोंबडा हाय...! बोले तो पेय्श करूँ..?" वेटर भी अपने रंग में आ गया था।
कुछ ही देर बाद दोनों देसी मुर्गे की एक-एक टाँग चबाने में व्यस्त थे। दूर बैठे एक सज्जन उन्हें देख रहे थे। वे शायद किसी एक को जानते थे..! कौन होगा वह भला..?



५.
सिया की ट्रेनिंग को लगभग आठ-दस महिने हो रहे थे। कुछ दिनों बाद वह ऑफिस छोडने वाली थी। राघव भी अपने आगे की पढाई के लिये दिल्ली जाने वाला था। दोनों खाली समय में एक दुसरे की आँखों में खो जाया करते थे।
"क्या मुझे पहली बार देख रहे हो राघव..?" सिया ने अपनी पलके ना झपकाते हुए पुछा।
"मैं तुम्हें जी भरकर देखना चाहता हुँ सिया, ताकी तुम मेरी नस-नस में समा जाओ और मैं दिल्ली में तुम्हे मिस ना कर सकुँ..!" राघव उसे अपलक देखते हुए बोल रहा था।
ऑफिस की एक अर्जंट मिटींग हेतु सभी को मिटींग रूम में एकत्रित होने का निर्देश मिला था। सभी आ चुके थे और सर की राह देख रहे थे। सभी एक दुसरे की ओर देखते हुए अंदाज लगाना चाहते थे कि कौन सा नया प्रोजेक्ट आने वाला है जिसको लेकर सभी इतने बेसब्र हुए जा रहे थे। कुछ ही देर में सर एक फाईल लेकर भीतर आ गये। मिटींग रूम में एक निस्तब्धता छा गयी। सभी सर की तरफ एकटक देख रहे थे। सर, फाईल के पन्ने पलटा रहे थे, तभी वे एक जगह रूक कर सभी की ओर मुखातिब होते हुए बोले, "हम एक आर्किटेक्चरल डिझाईन कॉम्पिटिशन में हिस्सा लेने जा रहे है, यह एक क्लोज्ड कॉम्पिटिशन है जिसमें देश की पाँच नामांकित आर्किटेक्चरल फर्मस को इन्वाईट किया गया है। उन पाँच में से एक हम है, जो कि हमारे ऑफिस के लिये एक प्रेस्टिज की बात है।" सर ने एक ही साँस में कहा। सभी ने जोरदार तालियों से उनका स्वागत किया। वे सब साँस बाँधे उस प्रोजेक्ट के बारे में जानना चाह रहे थे।
सर ने बिना देर किये ऐलान किया, "तो... हम लोग नागपुर में एक आई.आई.एम. डिझाईन करने वाले है...!"
"इंडियन इंस्टिट्युट ऑफ मैनेजमेंट गाईज...!" राघव उत्साहित होते हुए बोला। सिया के साथ साथ सभी ने एक साथ चीअर-अप किया।
"डिझाईन टीम के चीफ, राघव होंगे और उसे पाँच असोसिएट्स दिये जायेंगे, जो उसे खुद चुनने है..!" सर ने एक ही साँस में कह दिया। "राघव यह कॉम्पिटिशन का डॉसियर है, इसे ठिक से पढ कर पुरा प्रोजेक्ट का टाईम-लाईन बनाना है और सभी को काम असाईन करना है.., ठिक है...?" सर ने प्रोजेक्ट फाईल राघव के हवाले करते हुए कहा और मिंटिग डिसमिस कर दी।
सभी राघव से हाथ मिलाते हुए उसे कॉग्रेचुलेशंस दे रहे थे। सभी के बाहर निकलने के बाद आखिर में सिया उसके करीब जाकर बोली, "सो, मि. चीफ आर्किटेक्ट... कॉग्रेट्स.., विश यु अ ग्रेट सक्सेस..!" और उसने उसे चुम लिया। वह उसकी तरफ बडे अभीमान से देख रही थी।
राघव पर अब एक बहुत बडी चुनौती थी। उसे ना केवल अपनी काबीलियत सिद्ध करनी थी वरन इस प्रोजेक्ट को भी जीतना था। यह उसके आन, बान और शान का सवाल बन चुका था। वह रूम पर भी इसी प्रोजेक्ट के बारे में ही विचार कर रहा था। वह पेंसील से एक कागज पर खाका तैयार करने लगा। बार बार फाईल पढता और सोचने लगता। अगले दिन सर ने उसे फाईल लेकर आने को कहा। वे उसके साथ मंत्रणा करने लगे कि किस थीम पर इसे आगे बढाया जाये।
“सर..,” राघव ने अपनी बात शुरू की, “क्यों ना हम भारत में स्थित सारे आई.आई.एम. की केस स्टडी करके उनकी अच्छाईयों और खामियों का आकलन करें और फिर प्राप्त निकषों पर अपने प्रोजेक्ट का डिझाईन बनाएँ..!”
“गुड स्ट्राटिजी, राघव...! गो अहेड..!” सर ने उसकी पीठ थपथपाई और कहा, “लेकिन इसमे चार से पाँच दिन से ज्यादा नहीं लगने चाहिये। हमारे पास सिर्फ पैतालिस दिनों का समय है, जिसमें ड्रॉईंग्स, व्हियुस और मॉडेल भी बनाना है। तुम ग्रुप्स में काम डिवाईड कर दो और मुझे डे-टु-डे रिपोर्टिंग करो, ओके..!”
“श्योर सर..! मैं आज ही प्रोग्राम चॉक-आऊट करता हुँ..!” राघव ने पुरे आत्मविश्वास से कहा। सर को उस पर पुरा विश्वास था।
राघव ने अपने सेक्शन में सभी को इकट्ठा होने को कहा। उसने अपने पाँच सर्वश्रेष्ठ सहयोगीयों को उनके शैली के अनुरूप काम सौंपने का फैसला किया। सिया भी उनमें से एक थी, जिसे लेटरिंग, फर्निचर और शिट लेआऊट का काम सौंपा गया। वह खुश थी कि वह एक मेगा प्रेस्टिजियस प्रोजेक्ट का हिस्सा बनने वाली थी। वह राघव की सफलता के लिये दुआएँ करने लगी।
तीन दिनों में राघव की रिपोर्ट तैयार हो गयी। उसने अपने सभी असोसिएट्स को साथ लेकर सर के साथ गहन विचार विमर्श शुरू किया और अपनी बात उनके सामने रखी। “नया आई.आई.एम. सबसे अलग और खास होगा..!” उसने कहना शुरू किया, “सर, इक्का-दुक्का प्रोजेक्ट्स को छोड दें, तो बाकी सारे नये आई.आई.एम. या तो हाई-राईज है या फिर सेंट्रलाईज्ड..! हमें एक ऐसा प्रारूप तैयार करना चाहिये जो अंतर्राष्ट्रिय मानकों पर खरा उतरे साथ ही जो क्लाईमेट रिस्पॉन्सिव हो और उसे ग्रीन बिल्डिंग की भी कम से कम प्लेटिनम या गोल्ड रैंकिंग मिले। हमें ज्यादा से ज्यादा नैचुरल लाईट और रिसोर्सेस का इस्तेमाल करना चाहिये। सर नागपुर में करीब छह महिने गर्मी पडती है और बारिश के बाद उमस बढ जाती है। तो हमें दक्षिण और पश्चिम दिशा को परगोला से कवर करना होगा, ताकी उन दिशाओं की दिवारें ठंडी रहे। हमें इन दोनों दिशाओं में लगभग पन्द्रह फीट चौडा कॉरीडोर भी देना चाहिये जो हवादार जालियों से ढका होगा, जिसमें से बाहर से आने वाली गर्म हवा पहले ठंडी हो जाये फिर क्लासरूम में प्रवेश करें। हमें दक्षिण-पश्चिम में एक तालाब का भी निर्माण भी करना चाहिये। जिस पर से बहने वाली हवा पहले ठंडी हो जाये और उसके चारो ओर स्टुडंट्स की बैठने की भी व्यवस्था हो..!” राघव साँस लेने के लिये जरा रुका।
तभी सर ने उसे टोका, “वास्तु के अनुसार तो उत्तर-पुर्व में वॉटर बॉडी होनी चाहिये..! इसे तुम ज्युरी के सामने कैसे डिफेंड करोगे..?” सर का पॉईंट एकदम जायज था। हमारे भारत में वास्तुशास्त्र को प्रधानता दी जाती है।
राघव ने दो पल को सोचा और कहना शुरू किया, “सर हम उत्तर-पुर्व से पानी के लिये बोरवेल या कुआँ खोदेंगे, जो हमारे प्रिमाइसेस को पानी सप्लाई करेगा और दक्षिण-पश्चिम में स्थित तलाब को रेन-वॉटर-हारवेस्टिंग से जोड देंगे जो वर्षा जल को जमा करेगा और लैंडस्केपिंग के काम आयेगा, मसलन पेड पौधों को इसी तलाब से सिंचा जायेगा, और जो बात हमारे फेवर में है वह ये कि साईट का नैचुरल स्लोप दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर ही है।“
“विचार बुरा नहीं है राघव..!” सर के चेहरे पर संतुष्टी के भाव थे। “और तुमने बिल्डिंग हाईट के बारे में क्या सोचा है..?”
“सर..,” राघव अब संभल कर बोल रहा था, “एरीझोना स्टेट युनिवर्सिटी, ए.एस.यु. के हाल ही में नये मापदंड प्रसिद्ध हुए है, जिसमें उन्होनें महाविद्यालयों को कुल तीन मंजील के ऊपर ना जाने की सलाह दी है। लैंडिंग से एक मंजिल ऊपर और एक मंजिल नीचे बस..! इससे ज्यादा नहीं।“
“और बिल्डिंग ओरीयनटेशन के बारे में..?” सर ने आखरी सवाल पुछा।
“सर, अपनी बिल्डिंग लम्बाई में, उत्तर-पश्चिम और दक्षिण-पूर्व दिशा में स्थित रहेगी। जिससे भीषण गर्मी से हमारी बिल्डिंग तपने से बचे। और ठंडी हवा ज्यादा से ज्यादा भीतर आ सके।“
सर ने दो क्षण को विचार किया और फिर राघव से मुखातिब होते हुए कहा, “वेल डन राघव..! हम इसे आगे ले जा सकते है। अब प्लान की डिटेलिंग शुरू कर दो..!”
सभी संतुष्ट नजर आ रहे थे। सिया तो सबसे खुश नजर आ रही थी। राघव ने अपनी काबिलियत भी सिद्ध कर दी थी। वह अपने भाग्य पर और भी इतराने लगी। उसे राघव के रूप में ना केवल एक अच्छा साथी मिला था बल्की बुद्धिमान और होशियार हमसफर भी मिला था। कोई लडकी इससे ज्यादा और क्या चाहेगी भला..!
समय बीतता गया, ड्रॉईंग बनाने का काम अपने चरम पर था। सबमिशन को सिर्फ दस दिन शेष रह गये थे। हर कोई पुरी लगन और मेहनत से काम कर रहे थे। लडके ओव्हर-टाईम कर रहे थे। मॉडेल और पर्सपेक्टिव व्हियु बनाने के लिये थर्ड पार्टी को हायर किया गया था। इससे काम करना आसान हो गया। तभी रिसेप्शन पर फोन की घंटी घनघना उठी।
“राघव सर..., आपके लिये एस.टी.डी. कॉल है..!” रिसेप्शनिस्ट ने नीचे से चिल्लाते हुए कहा। राघव फोन लेने नीचे पहुँचा। अमुमन राघव के बहुत कम कॉल आते थे। ले दे कर गाँव में पिताजी थे और तो कोई निकट संबंधी नहीं थे। तब फिर किसका फोन होगा भला..? राघव सोचने लगा।
“हलो..!” राघव ने कहा।
“आपके पिताजी का देहांत हो गया है, कृपया अंतीम संस्कार के लिये जल्द से जल्द से गाँव आ जाये।“ उसे किसी परिचित की आवाज सुनाई दी।
राघव रूआँसा होते हुए सर के केबीन में पहुँचा। सर ने उसकी बात सुनी और गाँव जाने को कहा। राघव ने तीन दिन में वापस आने की बात की। फिर सबमिशन के बाद बाकी औपचारिकता हेतु फिर गाँव चला जायेगा, ऐसा कहा। सर ने आज्ञा दे दी। राघव ने ऊपर ड्राफ्टिंग सेक्शन में आकर सभी को ये बात बतायी। सभी ने बेफिक्र होकर गाँव जाने को कहा।
“हम सब सँभाल लेंगे राघव सर..!” सभी ने एक स्वर में कहा।
राघव मध्यप्रदेश स्थित छिंदवाडा जिले के एक दूर दराज के गाँव से आया था। गाँव पहुँचने का एकमात्र साधन नैरो-गेज की ट्रेन थी ,जो करीब पाँच-छह घंटे लेती थी। राघव इतवारी रेल्वे स्टेशन पर अपनी साईकिल पार्क करके ट्रेन में बैठ गया।
तीन दिन बाद वह वापस आ गया। वह गुमसुम सा रहने लगा। वह अब किसी से ज्यादा बात नहीं करता था। कोई पुछता था, तभी बोलता था। सिया उसे खुश रखने की कोशिश कर रही थी। वह मुस्कुरा कर उसे आश्वस्त कर रहा था कि वह ठिक है।
“आज बाहर खाना खाने चले..?” सिया ने राघव से पुछा।
“मन नहीं कर रहा सिया, अभी फिर से गाँव जाकर तेरहवी निपटानी है..!” राघव ने अनमने मन से कहा। सिया ने भी ज्यादा जोर नहीं दिया।
“इस बार मैं भी तुम्हारे साथ गाँव चलुँ..?” सिया ने राघव की बाँह पकडते हुए कहा।
“नहीं सिया, तुम मेरे घर में नहीं रह पाओगी।“
“क्यों..?”
“वहाँ तुम्हारे लायक ना अच्छा घर है और ना कोई सहुलियत..! तुम मैनेज नहीं कर पाओगी..!”
“मैं कर लुँगी.., आखिर मेरी होने वाली ससुराल जो है..!” सिया शरारत भरे अंदाज में कहा।
“हाँ.., होने वाली है.., है तो नहीं...? और फिर गाँव के लोग क्या कहेंगे, बिना शादी के लडकी घुमा रहा है..!” राघव ने उसे वास्तविकता से अवगत कराया। सिया अपना मन मरोस कर रह गयी। वह मुँह फुला कर बैठ गयी।
“समझो सिया..! राघव उसके गालों को अपने हाथ से सहलाने लगा। सिया ने आँखे बंद करके उसके हाथ पर अपना हाथ रख दिया। और उसके अकेले जाने को स्विकार कर लिया।
*****
करीब तीन माह बाद कॉम्पिटिशन का रिजल्ट भी आ गया। और कहना न होगा, राघव के ऑफिस को प्रथम पुरस्कार और प्रोजेक्ट के कमिशनिंग का काम भी मिल गया। सभी बेहद खुश थे। सिया के खुशी का तो ठिकाना न था। वह इस महत्वाकाँक्षी प्रोजेक्ट का हिस्सा थी। उसका अच्छा समय शुरू हो चुका था। वह बीते दिन भुल सी गयी और उसका व्यक्तित्व और निखर के सामने आ रहा था। वह एक स्वाभिमान नारी के रूप में प्रकट होकर सामने आ रही थी। और राघव उसकी पतवार बन कर उसे जीवन भर संभालने वाला था। उसे तो सपने में भी यह खबर नही थी कि आने वाले आठ-दस महिने में उसकी जिंदगी बदलने वाली है। उसके दिल की धडकने बढती जा रही थी। कभी-कभी उसे लगता कि कहीं वह कोई सपना तो नहीं देख रही..!
अगले दिन सर ने ‘हॉटेल सेंट्रल पॉईंट’ में एक जानदार पार्टी देने की घोषणा की..! फिर क्या था, शाम को सभी सज-धज कर ‘बोगनवेलिया’ रूफ-टॉप रेस्त्रां में एकत्रित हो रहे थे। सिया ने अपना सबसे अच्छा ड्रेस पहन रखा था, वह ‘ट्विड ड्रेस’ पहन कर आयी थी। चुँकी वह जरा साँवली थी इसलिये यह ड्रेस उस पर बहुत फब रहा था। घुटनों से ऊपर का यह ड्रेस कमर में जरा टाईट था इस वजह से उसका हर अंग खिल कर सामने आ रहा था। उसने अपने बाल स्ट्रेट करवाए थे और हाथ में खुबसुरत घडी पहनी थी। उसने होंटो पर लाईट कलर की लिपस्टिक लगा रखी थी। वह अपनी कार से हॉटेल के पोर्च में उतरी। राघव उसे रिसीव करने लाऊँज में खडा था। उसने आहिस्ते से उसका हाथ पकड कर उसे हग किया।
“गजब की खुबसूरत लग रही हो सिया..!” राघव उसके कानों में फुसफुसाया। सिया ने उसका हाथ धीरे से दबा कर अपनी खुशी जाहीर की। वह उसे लिफ्ट के पास ले आया। लिफ्ट में सिया आईने में खुद को ठिक कर रही थी। राघव ने उसे चुम कर अपने प्यार का इजहार किया। सिया ने भी उसका पुरा साथ दिया। तभी लिफ्ट का दरवाजा खुला और वे सतर्क हो कर दूर खडे हो गये।
“वेलकम राघव सर..!” सभी असोसियेट्स ने उनका स्वागत किया। राघव आज की शानदार जीत का एक अहम किरदार था। उसने हाथ उठा कर सभी का अभीवादन किया। राघव और सिया जल्द ही एक सुत्र में बँधने वाले है ये बात अब ऑफिस में सभी जान चुके थे। अतः दोनों को एक साथ देख कर कोई हैरत में नही था। सर ने एक इंट्रॉडक्शन स्पीच दिया और राघव और उसे सहयोगीयों का तह-ऐ-दिल से शुक्रिया अदा किया। और पार्टी एंजॉय करने का ऐलान कर दिया। फिर वे अपने दुसरे व्हि.आय.पी. मेहमानों से मुखातिब हो गये।

६.
सिया की ट्रेनिंग समाप्त होने को आ रही थी। और राघव को भी दिल्ली से पोस्ट-ग्रेजुएशन के लिये इंटरव्हियु कॉल आ गया। दोनों का अब बिछडने का समय समीप आ रहा था। सिया राघव का हाथ अपने हाथ में लेकर ना जाने किन ख्यालों में गुम थी।
“मेरा हाथ माँगने मेरे घर आ सकते हो..?” उसने राघव की आँखों में आँखें डाल कर पुछा।
“सिया, मेरी पढाई अभी पुरी नहीं हुई है, फिर कैसे और किस मुद्दे पर बात करूँगा..? ना मेरे पास घर है, ना बैंक बैलेंस, ना प्रॉपर्टी..! लडकी के पिता को तो यही तीन मुद्दे सबसे पहले दिखायी देते है। तब क्या जवाब दुँगा..?” राघव ने सर झुका कर कहा।
“एक काम करते है, मैं माँ को तुमसे मिलवाने ऑफिस ले आती हुँ। वह तुम्हें पसंद कर लें तो बात बन सकती है..!” सिया चहकते हुए बोली। राघव ने हँस कर बात टाल दी।
अगले दिन तीन-कार बजे सिया ने माँ को ऑफिस आने को कहा और दूर से राघव की ओर इशारा किया। माँ ने राघव को देखा। राघव उन्हें नजर अंदाज करते हुए अपना काम करता रहा। उसे पता था, इस तरह बात नहीं बनेगी। सिया को ही उसके लिये रुकने का फैसला लेना था। अतः राघव ने इस बात को ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया। कुछ दिन और बीत गये, न्यु ईयर ईव को सिया ने उसे ‘स्टार रिसॉर्ट’ में आने का निमंत्रण दे डाला, ताकी वह अपने डैडी से उसे मिलवा सके। राघव दिल्ली जाने से पहले एक बार सिया से जरूर मिलना चाहता था। अतः वह नियत समय पर वहाँ पहुँच गया। अंदर जाकर उसने सिया को ढुँढना चाहा, किंतु भीड में उसे ढुँढ ना सका। तभी किसी ने अपना हाथ उसके कंधे पर रखा। राघव ने पलट कर देखा, वह सिया थी। उसकी प्यारी सिया..!। वह जिंस और टॉप में हर बार की तरह गजब की सुंदर दिख रही थी। उसने राघव की बाँह से पकड कर अपने डैडी के आगे खडा कर दिया।
“पापा, ये राघव है, आर्किटेक्ट..!” सिया ने मुस्कुरा कर कहा।
“हलो, यंग मैन...! हाऊ आर यू..?” सिया के पापा उससे हाथ मिलाते हुए बोले।
“आय एम फाईन सर...! ग्लैड टु मीट यू..!” राघव ने गर्मजोशी से उनसे हाथ मिलाया।
“पापा, मैं इन्हें डान्स फ्लोर पर ले जाऊँ..!” सिया ने बीच में ही पुछा।
“ओह, श्योर बेटा, एन्जॉय द पार्टी, ये तुम नौजवानों के लिये ही तो है..!” पापा हँस कर बोले।
“कम राघव...!” सिया उसे खिंचते हुए डांस फ्लोर पर ले गयी, जहाँ कई युवा जोडे आपस में थिरक रहे थे।
“कैसा लग रहा है राघव..!” सिया ने उसके कान में कहा। संगीत का शोर बहुत ज्यादा था। “ड्रिंक्स लोगे..?” उसने पुछा।
“चलो..!” राघव ने उसकी हाँ में हाँ मिला दी।
दोनों ड्रिंक्स लेने पब में चले गये। वहाँ कम शोर था। दोनों शैम्पेन के दो ग्लास लेकर एक टेबल पर बैठ गये।
“तुम्हें मेरी फैमिली कैसी लगी..?” सिया ने राघव से पुछा।
“फैमिली हमेशा अच्छी ही होती है सिया, बस हम उन्हें एक्सेप्ट कैसे करते है ये मायने रखता है।“
“तुम मुझसे शादी करके आगे पढ नहीं सकते..?” सिया ने सिप लेते हुए पुछा।
“शादी और पढाई एक साथ नहीं हो सकती सिया, और मुझे वहाँ होस्टेल में रहना होगा।“
“हाँ.. फिर क्या करें, माँ-पापा मेरी शादी को लेकर जल्दबाजी कर रहें है” सिया ने अपना ग्लास खाली करते हुए कहा। “अपना ग्लास फिनीश करो, एक-एक और पेग लेते है..!”
दुसरा पेग खत्म होते होते दोनों को नशे की खुमारी चढने लगी। “मेरे साथ चलो, मुझे वॉश रूम जाना है” सिया ने कहा। राघव उसके साथ चल पडा। सिया फ्रैश होकर बाहर आयी।
“राघव, यहाँ हमारी एक रूम बुक है, चलो मैं मेकअप ठिक करना चाहती हुँ।“ सिया बगल के गलियारे से होते हुए उसे अपने रूम में ले गयी। वह अपने बालों को कँघी से ठिक करने लगी। आईने में राघव उसे पिछे से देखता है और वह मुस्कुरा कर उसे पाऊच देती है। फिर पलट कर वह अपनी बाँहे फैला देती है। राघव उसके पास जाकर उसे अपनी बाँहों में भर लेता है।
राघव, सिया की गर्म साँसे अपनी छाती पर पुरजोर महसुस कर रहा था। राघव ने धीरे से उसका चेहरा अपनी ओर किया। उसकी आँखे एक पल को उससे मिली और फिर शर्म से नीचे झुक गयी। डाँस फ्लोर से डी.जे. की एक गाने की स्वर लहरीयाँ सुनाई दे रही थी... "चुरा लिया तुमने जो दिल को, नजर नहीं चुराना सनम...! बदल के मेरी तुम जिंदगानी, बदल कहीं न जाना सनम..!!"
"राघव...!" वह बस इतना ही कह सकी। उसके उखडते शब्द सारी कहानी बयाँ कर रहे थे। उसके लजराते होंट कुछ कहना चाहते थे, किंतु शायद शब्द कम पड रहे थे। उसकी तेज साँसे सब कुछ कह रही थी। उसने अपना एक हाथ राघव की खुली छाती पर रखा और उसके दिल की धडकने सुनने लगी।
"सिया..!" राघव ने उसके गालों को अपने हाथों में भर लिया। और वह उँगलीयों से उसकी लटों को कान के पिछे सवाँरने लगा, ताकी वह उसका चेहरा अच्छे से देख सके। हवा से उसकी लटें धीमें-धीमें झुल रही थी। राघव ने अपना एक हाथ उसके कमर के इर्द-गिर्द कसना चाहा। वह सिया को पुरी तरह से अपने अंदर महसुस करना चाहता था। सिया अब अपना सर्वस्व उसे समर्पित करना चाह रही थी। वह उसके और समीप आना चाहती थी। इतना कि वे दोनों बस एक हो जाये। उसने राघव को अपने दोनों हाथों से भींच लिया। राघव ने भी अब सिया को दोनो हाथों से अपने में समाहित कर लिया। दो जिस्म अब एक दुसरे में घुल-मिल जाना चाहते थे, मानो वे एक ही हो। कमरे में निरव शांतता कायम थी। सिर्फ दोनों की उठती गिरती साँसों का स्वर गुँज रहा था।
राघव ने सिया का माथा चुमते हुए कहा, "अब चलें..!" सिया चुप रही, "बस थोडी देर और..!" वह राघव के और करीब आना चाहती थी। उसके सपनों की नैया मझधार में थी। वह उसे दुसरे छोर तक ले जाना चाहती थी।
"अब चलो..., सभी हमारी राह देख रहे होंगे..!" राघव उसकी लटे सुलझाता हुआ बोला। "बहुत जल्दी हम एक सुत्र में बंध ही जायेंगे सिया, फिर इतनी जल्दी क्या है..?" सिया अपने होने वाले सपनों के शहजादे को अपलक देखती रही। उसे राघव पर अभिमान था कि क्यों कि वह उसकी भावनाओं की कद्र करना जानता था। उसने आज के इस अकेलेपन का कोई नाजायज फायदा नहीं उठाया। उसे अपनी पसँद पर अब गर्व महसुस हो रहा था कि उसे इतना अच्छा जीवन साथी मिलने वाला था।



७.
कुछ समय पश्चात ...
सेन-फ्रांसिस्को के ऑडिटोरियम कॅफे में बैठी हँसिका, अंजली को एकटक निहार रही थी। वह उसके मन के हाव भाव समझने की भरसक कोशिश कर रही थी। वह समझ सकती थी उस पर क्या बीत रही थी। कॉलेज के समय के दो प्रेमी बाद में बिछड चुके थे। हँसिका की माँग में सिंदूर भरा था और अंजली अब भी राघव की बाट जोह रही थी। अंजली, हँसिका से नजरें चुरा रही थी। हालाँकी होना उल्टा चाहिये था।
"तुम कुछ कहना चाहती हो क्या...? जो कहना है बोल दो अंजली, अपना मन हल्का कर लो..!" हँसिका ने अंजली से कहा। अंजली की आँखों की पोर नम हो गयी, वह दुसरी ओर देखने लगी। उसका अंतःरूदन बाहर फुट कर आना चाहता था, इस वजह से उसकी नाक लाल हो रही थी। वह रुमाल से अपनी नाक ढँक कर सब कुछ छुपाना चाहती थी।
"कुछ और बात करते है..!" अंजली ने विषय बदलने की चेष्टा की। "कॉफी पियोगी..?" हँसिका ने धीमें से हामी भर दी। वह अपनी ऊँगली से टेबल पर पडी पानी की बुँदों को गोलाकार घुमा रही थी। उसने वेटर से दो कॉफी लाने को कहा।
"राघव से मिलना नहीं चाहोगी..?" हँसिका ने पुछा। अंजली ने सर नीचे झुका लिया। यह उसकी 'ना' थी या 'स्विकरोक्ति,' हँसिका समझ नहीं पा रही थी। उसने भी इस नाजुक विषय को ज्यादा खिंचना उचित नहीं समझा। वह अपनी एक अच्छी सहेली से इतने बरसों बाद मिल रही थी।
“चलो, कल मिलते है..!” अंजली वहाँ से जाना चाहती थी।
“कहाँ..? ‘साऊथ बीच पार्क’ में मिले..?” हँसिका ने पुछा। अंजली ने सिर्फ हाँ में सिर हिला दिया।
अगले दिन शाम को हँसिका अपने पती के साथ साऊथ बीच पार्क में नियत समय पर पहुँची। वह जानती थी, अंजली कहाँ मिल सकती है। ‘यॉट क्लब..!’ उसे समुद्र पर तैरती नावें हमेशा से भाँती थी। उसका तो थिसीस सब्जेक्ट भी बंदरगाह ही था। वह अपने पती के साथ ‘बे-ट्रैल’ से होते हुए आगे बढ रही थे। दूर तक फैला ‘साउथ बीच हार्बर’ दिखाई दे रहा था। अनेक नावें किनारे पर बँधी हुई थी। दूर कहीं शाम का सुरज डुब रहा था। उसका सिंदूरी रंग समुद्र के पानी में प्रतिबिंबीत हो रहा था। वे दोनों चलते-चलते ‘जायंट-प्रॉमिनेड’ तक पहुँच चुके थे। वहाँ एक बेंच पर उन्होंने किसी को बैठा हुआ पाया। वह जिंस-टॉप पहने ऊपर से ‘पशमिना शॉल’ लपेटे थी। उसके बाल समुद्र से आ रही हवा में लहरा रहे थे। डुबते सुरज का सिंदूरी रंग उसके चेहरे को और भी नूरानी बना रहा था। उसका चेहरा सपाट और शांत लग रहा था। मानो कोई जोगन अधखुली आखों से अपने ईश की आराधना करते-करते समाधिस्त हो गयी हो..!
“अंजली...!” हँसिका ने उसके कँधे पर अपना हाथ रखते हुए कहा।
“हँ..!” अंजली मानों अपनी तंद्रा से जागते हुए बोली। उसने देखा हँसिका किसी पुरुष के साथ खडी थी। वह उन दोनों को एकटक देखने लगी।
“ये मेरे पती है... जिग्नेश पटेल..! रीयल ईस्टेट ब्रोकर..!” हँसिका ने उसकी बाँह पकड कर मुस्कुराते हुए कहा।
तो फिर राघव इसका पती नहीं है..? अंजली ने मन ही मन सोचा। वह उनकी ओर आश्चर्यपुर्वक देखने लगी।
“राघव मेरा पती नही है अंजली..! उसने मुझसे शादी करने से साफ मना कर दिया था” हँसिका ने एक ही साँस में सब बता दिया।
“तो फिर राघव कहाँ है..?” अंजली ने अधीर होकर उनसे पुछा।
“दिल्ली से जाने के बाद उसका कुछ भी पता नहीं अंजली..!” हँसिका ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा।
तभी पिछे से उन्हें एक आवाज सुनाई दी...! “राघव... लिसन... डोंट गो फार अवे..! कम बैक...! लिसन राघव..!” उन सभी ने देखा एक महिला अपने तीन-चार साल के बच्चे के पिछे दौड रही है।
हँसिका ने उसे रोकते हुए पुछा.., “एक्सक्युज मी.., क्या आपके बच्चे का नाम राघव है..?”
“आप..!” उसने अपने बच्चे को गोद में उठाते हुए उनसे पुछा।
“सॉरी, आप गलत ना समझे.., हम अपने एक दोस्त को ढुँढ रहें है, जो कॉलेज के बाद हमसे बिछड गया है और ये है अंजली जो अब तक उसकी बाट जोह रही है।
“क्या आपका दोस्त आर्किटेक्ट है..?” उसने पुछा।
“हाँ...! आपको कैसे पता..?” हँसिका और अंजली ने एक साथ पुछा। अंजली में तो मानो नये प्राण फुँक गये थे। “बताईये ना प्लिज..! क्या आप राघव को जानती है..?”
“यदी वे नागपुर से है तो जरूर..! मैं सिया और वे है मेरे पती – सुजय चटर्जी..!” सिया ने दूर से अपने हाथ में कुछ खाने का सामान लेकर आते हुए एक व्यक्ति की तरफ इशारा करते हुए कहा।
“क्या बात है डार्लिंग..!” उसने पास आकर पुछा। “कौन है ये लोग..?”
*****
सभी पाँचों लोग सिया के ‘रिच स्ट्रिट अपार्टमेंट’ में बैठे थे। यह एक ‘वन बेडरूम किचन’ अपार्टमेंट था। उसकी बाल्कनी माईल्ड स्टिल से बनी जाली की बनी थी, जो किचन और ड्रॉईंग हॉल में खुलती थी। ड्रॉईंग हॉल में, राघव सर की एक तस्वीर साईड टेबल पर फ्रेम करके रखी थी। अंजली ने पँद्रह साल बाद राघव की तस्वीर देखी थी। उसकी आँखे किसी अनहोनी की आशंका से भर आयी थी। हँसिका उसका हाथ अपने हाथ में लेकर उसे हौंसला बाँध रही थी। वे तीनों सिया की तरफ एकटक देख रहे थे।
सिया ने कहना शुरू किया, “नागपुर में हम दोनों एक ही ऑफिस में काम करते थे। मेरी शादी राघव के साथ लगभग तय हो चुकी थी। वह मुझसे दो साल तक रुकने के लिये कह रहा था ताकी वह अपना पोस्ट ग्रेजुएशन पुरा कर सके। किंतु मेरे माता-पिता दो साल तक रुकने को तैयार नहीं थे। मुँबई से इनका – सुजय के माता-पिता की तरफ से शादी का संदेशा आया हुआ था। मेरे माता-पिता को यह रिश्ता, राघव के मुकाबले अधिक संभावनाओ से भरा लग रहा था। फिर सुजय को कैलिफोर्निया से सॉफ्टवेयर इंजीनियर का जॉब ऑफर भी आ चुका था। इन्हें तुरंत ज्वाईन करने को कहा गया था। मैंने सुजय को, मेरे और राघव के बारे में सब कुछ बता दिया था। हम दोनों राघव को कॉन्टेक्ट करने के लिये उसके ऑफिस भी गये थे। हमने दिल्ली में उसके कॉलेज में भी फोन किया था, किंतु हमें कोई सफलता नहीं मिल पायी। तब थक हार कर हमने शादी करने का फैसला किया। मैंने शादी का कार्ड भी ऑफिस में छोडा था, पता नहीं वह उसे मिला भी या नहीं..? सुजय को भी इस बात का अफसोस है, इसलिये हमने अपने बच्चे का नाम उसी के नाम पर रखा है, ताकी मैं कुछ तो प्रायश्चित कर सकुँ..! मुझे बस इतना ही पता है” सिया ने एक ही साँस में सब कह दिया।
फिर राघव है कहाँ..? यह एक यक्ष प्रश्न बन कर सबके सामने खडा था। उन पाँचों ने राघव को ढुँढने का फैसला किया। किंतु कैसे और कहाँ से..?
“दिल्ली से शुरू करते है..!” हँसिका ने कहा।
“हाँ, ये ठिक रहेगा..!” उसके पती ने बोला। सिया और उसके पती ने भी हामी भर दी।
“दिल्ली में उसके कॉलेज से शुरू करते है..!” सिया ने सजेस्ट किया। “तुम्हारे कोई कॉन्टेक्ट है क्या अंजली..!” उसने पुछा।
“हमारे एक सिनीयर वहाँ पढाते है..!” अंजली कुछ सोचते हुए बोली। “क्या नाम था उनका हँसिका..? वही जो विराज सर के छोटे भाई थे..?”
“स्वराज सर...!” हँसिका ने चहकते हुए कहा।
“येस...! वहीं से शुरू करते है” सभी जैसे जोश से भर गये। अंजली को घुप्प अंधेरे में एक आशा की किरण नजर आने लगी। वह भी सक्रिय रूप से उन चारों के दल में शामिल हो गयी।
सबसे पहले राघव के दिल्ली कॉलेज का कॉन्टेक्ट नंबर ढुँढना था।
“इंडीया के फोन नंबर की डिरेक्टरी कहाँ मिलेगी..?” हँसिका ने सबसे पुछा।
उस समय इंटरनेट इतना पॉपुलर नहीं हुआ था ना ही तब स्मार्ट फोन हुआ करते थे। अतः सबकी नजरें सुजय पर जाकर टिकी।
“सुजय, आपको राघव को अपने ऑफिस से इंटरनेट पर ट्रेस करना होगा..!” सिया ने कहा। सभी उसकी तरफ बढी आशा भरी नजरों से देख रहे थे। अंजली तो मानों मन ही मन उसके आगे हाथ जोडे खडी थी। सब कुछ सुजय पर निर्भर था। उसने सभी को आश्वासन दिया की वह अपनी पुरी कोशिश करेगा। उसने सभी के लँड-लाईन नंबर अपने पास ले लिये ताकी वह उन्हें खबर कर सके। एक-दो दिन में वह किसी नतीजे पर पहुँच सकता है ऐसा उसने कहा।
अंजली नाईन्थ स्ट्रीट स्थित ‘राम्स हॉटेल’ में ठहरी थी। गुलाबी रंग की यह तीन मंजिला इमारत थी। हालाँकी यह एक टू-स्टार हॉटेल था फिर भी अंजली को वह अपने हिंदुस्थान की याद दिला रहा था। अभी ग्राहम ऑडिटोरियम में चल रही कॉन्फरेंस को खत्म होने में दो दिन और बचे थे। यह हॉटेल वहाँ से वॉकिंग डिसटंस पर था। वह अपने कमरे में बैठी राघव के ख्यालों में डुबी थी।
जब राघव पढाई के बाद दिल्ली से कहीं गायब हो गया, तब अंजली को पक्का यकिन हो गया था कि उसने जरूर हँसिका से ही शादी कर ली होगी और वे शादी के बाद अमेरिका चले गये होंगे, क्यों कि हँसिका को एक आर्किटेक्ट पती चाहिये था जो उनके रीयल इस्टेट बिझनेस को आगे बढा सके। कॉलेज में तो हँसिका ने राघव को उससे लगभग उससे छीन ही लिया था। और मेरे ख्याल से ऐसा करने में कोई बुराई भी नहीं, आखिर हमें अपनी पसंद का जीवन साथी पाने का पुरा हक है।
तभी अंजली के रूम की फोन की घंटी घनघना उठी। “मँम, देअर इज ए कॉल फॉर यु..!” रिसेप्शनिस्ट ने फोन पर कहा। उसे लगा राघव का कहीं सुराग मिल गया होगा..! उसने फोन रिसीव किया, उधर से हँसिका बोल रही थी। “अंजली, आज रात हमारे साथ डिनर पर आ सकती हो..? रात यहीं रूक जाना, तुमसे बहुत सी बातें करनी है..!” हँसिका उससे विनंती भरे लहजे में बोल रहे थी।
“आज नहीं हँसिका, मुझे कल नऊ बजे कॉन्फरेंस अटैंड करना है..!”
“क्यों.., तुम्हारा लेक्चर तो कल ही समाप्त हो गया था ना..? और फिर मैं भी तो चलुँगी तुम्हारे साथ..!” हँसिका ने कहा।
“लेकिन हँसिका, मेरे वजह से तुम्हें प्रॉब्लेम हो सकती है, फिर तुम्हारे पती और बेटा भी तो है..!” अंजली ने ना आने का कारण बताया।
“ओ, कमॉन... माय डियर, इतने साल बाद तुम मिली हो, अब तो बिल्डींग की डॉक्टर भी बन चुकी हो, सेलिब्रेशन तो बनता है..!” हँसिका ने कहा, “आ जाओ, प्लिज..!”
अंजली मना नहीं कर सकी, वह भी तो उसकी क्लासमेट ही थी। जितना राघव उसे प्रिय था उतनी ही हँसिका भी तो थी। यदी राघव बुलाता तो क्या वह उसे मना कर पाती..? उसके मन ने पुछा।
“ठिक है..! मैं आती हुँ..!” अंजली ने हामी भर दी।
“मैं गाडी से तुम्हें लेने आ रही हुँ..!” हँसिका ने उधर से कहा और फोन रख दिया।
लगभग आधे घंटे बाद हँसिका उसे लेने आयी। वे दोनों कार की अगली सिट पर बैठी थी।
“तुम कहाँ रहती हो..?” अंजली ने हँसिका से पुछा।
“सुजय का अपना अपार्टमेंट है ‘फ्रेंक्लीन स्ट्रीट’ पर..! ‘फ्रेंक्लीन अपार्टमेंट्स’ में..! हाल ही में उन्होंने एक बडी डील से मिले पैसों से इसे खरीदा था। राघव के मिल जाने पर तुम भी यहीं रहने आ जाना..! सिया भी तो यहीं रहती है..! क्या ख्याल है..?” हँसिका ने सुझाव दिया।
“पहले वो इडियट मिल तो जाये..! पता नहीं कहाँ गायब हो गया..!!” अंजली ने गुस्से में कहा, “छोडने वाली नहीं हुँ मैं उसे.., मराठी माणुस को कोई कम ना समझे..!”
हँसिका धीरे से मुस्कुरा दी। उसकी भी यह दिली इच्छा थी कि राधव और अंजली मिल जाये। पता नहीं वह कहाँ होगा..!
“अंजली.., यदी उसने शादी कर ली हो तो..!” हँसिका बडी-बडी आँखें करके बोली।
“मैं फिर भी नहीं छोडुँगी उसे..! समझता क्या है अपने आप को सा...!” अंजली की आँखों से शोले बरस रहे थे। हँसिका सहम गयी, उनका घर पास आ रहा था।
*****
अगले दिन शाम को सुजय ने हँसिका के घर फोन करके बताया कि राघव दिल्ली से पी.जी. करके आगे पीएच.डी. करने रोम गया था।
“अब आगे क्या किया जाये..? रोम में तो अनगिनत कॉलेजेस है..!” सुजय ने पुछा।
“एक मिनीट, सुजय क्या तुम ये पता लगा सकते हो कि राघव ने किस विधा में पी.जी. की थी, क्यों की सिर्फ उसी से संबंधित विषय में ही पीएच.डी. की जा सकती है।“ हँसिका ने अपनी बुद्धिमानी का पता देते हुए कहा।
“बिलकुल, ये जरूर पता किया जा सकता है..!” सुजय ने खुश होते हुए कहा।
“हैरिटेज एण्ड कंजर्वेशन..!” सुजय ने दो घण्टे बाद फोन पर बताया।
“ठिक, अब ये पता लगाओ कि रोम के किस युनिवर्सिटी से हैरिटेज एण्ड कंजर्वेशन पर पीएच.डी. की जा सकती है।“ हँसिका ने कहा।
“मैं ये भी पता लगा चुका हुँ..! द रोम ट्रे युनिवर्सिटी से हैरीटेज में पीएच.डी. की जा सकती है।“
“अंजली, तेरा राघव मिलने वाला है..!” कॉन्फरेंस के आखरी दिन हँसिका ने उसे बताया। “वह रोम में हो सकता है..!”
“हे, भगवान अब रोम जाना पडेगा..!” अंजली परेशान होते हुए बोली।
“ये रहे तेरे रोम जाने के टिकीट..!” हँसिका ने उसके हाथ पर टिकीट धर दिये।
“अरे, मेरी शाम की फ्लाईट है वापसी की..!”
“उसे कैंसील करवा दे..! अंजली, अभी नहीं तो कभी नहीं..! याद है ना तुझे, ये तेरे ही शब्द है कॉलेज के दिनों के..!”
“तू जा अंजली, सीधे उसके कॉलेज..! आगे की राह तुझे खुद ही ढुँढनी होगी अंजली..!” हँसिका ने बलपुर्वक कहा। “सीधे एअरपोर्ट जा, अपनी टिकीट कैंसील करवा और रोम की फ्लाईट पकड..! अब भाग जल्दी..!”
अंजली ने चेक-आऊट किया और टैक्सी से सीधे सेन-फ्रांसिको इंटरनेशनल एअरपोर्ट पहुँची। और रोम रवाना हो गयी। देर रात हवाई-जहाज की खिडकी से वह अंधेरे में राघव का चेहरा ढुँढ रही थी। करीब चौदह घंटे का सफर था। एअरपोर्ट से उसने अपने कॉलेज फोन कर, ना आने की अपनी असमर्थता प्रदर्शित की और एक हफ्ते की छुट्टी की अर्जी डाल दी। वह इन दिनों कैलिफोर्निया कॉलेज ऑफ आर्किटेक्चर में बी.आर्च. विभाग की प्रमुख थी। अपने कॉलेज की तरफ से वह ए.आई.ए. की वार्षिक अधिवेशन में भाग लेने हेतु सेन-फ्रांसिस्को आयी हुई थी।
अचानक जिंदगी के समीकरण कैसे बदल जाते है, नहीं..? अंजली ने कभी सपने में भी सोचा न था कि यह कॉन्फरेंस उसके जिंदगी में एक नया अध्याय जोडने वाली है। अगले दिन दोपहर को उसकी फ्लाईट ने रोम के फिमिसिनो स्थित ‘लिओनार्दो दा विंची इंटरनैशनल एअरपोर्ट’ पर लैंडिंग की। वह लाऊँज में फ्रेश होने गयी। उसने कपडे बदले और एअरपोर्ट के रेस्त्राँ में खाना खाया। फिर उसने सबसे पहले ‘द रोम ट्रे युनिवर्सिटी’ का पता देते हुए वहाँ के लिये एक टैक्सी बुक की और सीधे राघव से मिलने रवाना हो गयी। लेकिन अगर वह वहाँ ना मिला तो..? तो क्या, वह वापस अपने कॉलेज आ जायेगी।
टैक्सी पुरी गती से रोम की सडकों पर दौड रही थी। युनिवर्सिटी पहुँच कर उसने राघव की पुछताछ की। पता चला उसने पीएच.डी. के उपरांत कॉलेज छोड दिया था। उसके बाद वह कहाँ गया किसी को पता नहीं था। अंजली जरा निराश हो गयी। “अब कहाँ ढुँढे उस इडियट को..!” अंजली मन ही मन खुद से पुछ रही थी। समीप ही टाईबर नदी जो कि इटली की एक प्रमुख नदीयों में से एक है, दिखायी दे रही थी। उसे याद आया, राघव को रोमन आर्किटेक्चर कितना प्रिय था। वह कहता था उसे एक बार ‘रोमन पैंथियन’ को खुद अपनी आँखों से देखना है, उसे छुना है, महसुस करना है। जैसे की ताज महल..! कितना सुकून मिलता है उसे छुने से..!
शाम को अंजली ने ‘रोमन पैंथियन - विश्व देवालय’ जो की पियाज़ा डेला रोटोंडा में स्थित है, देखने का मन बनाया। शायद वहाँ पहुँच कर उसे राघव की उपस्थिती का अहसास मिल जाये। वह उन जगहों को छुना चाहे जहाँ राघव के हाथों ने उसे छुआ हो..! अंजली शाम की झुरमुट में वहाँ पहुँची। रोशनी की जगमगाहट में वह और भी खुबसुरत लग रहा था। अंजली को राघव की उपस्थिती महसुस हो रही थी। इसके पुर्व अंजली ने रोमन या ग्रीक सभ्यताओं को केवल किताबों या चित्रों में ही देखा था। रात होने को आ रही थी। अंजली ने वहीं पास ही में एक हॉटेल बुक किया। उसे हॉटेल डेल कोर्सो में एक रूम मिल गया। वह थक चुकी थी। उसे आराम की सख्त जरूरत थी। उसने अपने रूम में ही खाना मँगवाया और वह खाकर सो गयी।
सुबह देर तक वह सोती रही। तभी डोर-बेल की आवाज ने उसे जगाया। उसने आँखे मलते हुए दरवाजा खोला। बाहर रूम सर्विस बॉय चाय की ट्रे लिये खडा था। उसने ट्रे टेबल पर रखने को कहा और वह फ्रेश होने चली गयी। तरोताजा होकर उसे अब कुछ बेहतर महसुस हो रहा था। उसने देखा चाय की जगह कॉफी थी और ताजी पेस्ट्रिज भी थी। उसने सुन रखा था कि रोमन लोग भले ही हेवी ब्रेकफास्ट ना करते हो, किंतु ताजे बेक किये हुए कॉर्नेटो या पेस्ट्रिज जरूर खाते है। कॉफी के एक घुँट ने उसका मुड एकदम दुरूस्त कर दिया। उसने पेस्ट्री का एक बाईट लिया.., “ओह वॉओ.., क्या सही बनी है बॉस..!” उसके मुँह से बेसाख्ता नागपुरी लहजा निकल पडा और वह हँस दी। कितने दिनों बाद वह हँसी थी। राघव के एपिसोड ने उसकी नींद उडा दी थी। वह बाल्कनी से बाहर निकल कर चारों ओर देख रही थी। सामने कुछ ही दुरी पर उसे एक बिल्डिंग दिखी जिस पर ‘द पैंथियन इंस्टिट्युट’ का बोर्ड दिखाई दिया। उसने रूम सर्विस को फोन कर बुलाया और उस बिल्डिंग के बारे में पुछताछ की, तो उसे पता चला कि वह एक आर्किटेक्चर कॉलेज है। उसने वहाँ जाने का निश्चय किया और कुछ देर बाद वह उस बिल्डिंग की दिशा में चल पडी। कुछ दुर चलने के बाद उसने सेंट मारिया चर्च से लेफ्ट लिया और वह द पैंथियन इंस्टिट्युट के सामने खडी थी।
वह एक मध्य युगीन इमारत लग रही थी, जिसमें कुछ फेर बदल करके उसे मॉर्डन लुक देने का प्रयास किया गया था। उसने रिसेप्शन पर जाकर डॉ. राघव की पुछताछ की। उसने बताया कि वह सेन-फ्राँसिस्को से उससे मिलने आयी है। और उसके खुशी का ठिकाना ना था जब उसे पता चला कि वह इसी कॉलेज में पढाता है। फिलहाल वह स्टुडंट्स के साथ स्टडी टूर पर ‘एथेंस’ गया हुआ है और दो-तीन दिन बाद वापस पहुँचने वाला था। उसे उस रिसेप्शनिस्ट पर तब हँसी आ गयी जब वह रोमन अंदाज में राघव के नाम बडे अजीब तरीके से प्रोनाऊँस कर रही थी।
उसने एक नोट लिखा और उसे रिसेप्शनिस्ट के पास छोड दिया और वहाँ का फोन नंबर ले लिया। वह खुशी-खुशी बाहर आयी। वह सबसे पहले हॉटेल वापस आयी और उसने हँसिका को आई.एस.डी. कॉल लगाया और उसे राघव के मिलने की सुचना दी। “नहीं, अभी मुलाकात नहीं हुई है हँसिका, वह एथेंस गया है स्टडी टूर पर..! दो-चार दिन में वापस आ जायेगा..! वह इन दिनों ‘द पैंथियन इंस्टिट्युट’ में प्रोफेसरी कर रहा है..!” अंजली ने चहकते हुए कहा।
हँसिका ने पहली बार अंजली की आवाज में खुशी की झलक देखी। वह भगवान से सिर्फ एक ही प्रार्थना कर रही थी कि अब राघव शादी-शुदा ना निकले, बस..! “बावा, बहुत टेंशन आ रहा है यार..!” वह अपने आप से बात कर रही थी। मैं उससे कैसे मिलुँगी, क्या कहुँगी, वह यहाँ क्या कर रही है..! उसने मना कर दिया तो वह वापस जाकर सभी को क्या मुँह दिखायेगी। जब तक अकेली थी, तब तक तो ठिक था। किंतु अब हँसिका और सिया उसके बारे में क्या सोचेगी..! बेचारी.., प्यार की मारी..! वह बाहर घुमने निकल पडी, ताकी उसका मन लगा रहे। उसने रोम की बिग-बस की ‘हॉप ऑन-हॉप ऑफ’ टिकीट बीस युरो में खरीदी और एक बस में चढ गयी। यह बसे आपको पुरे रोम शहर की विशेष जगहों की सैर करवाती है। आप चाहे तो बीच में से कहीं भी चढ या उतर सकते है। वह सोच रही थी कि राघव कितनी सुँदर जगह पर रहता है। यह जगह उसकी पसँदिदा जगहों में से एक थी। आखिर उसने अपना सपना पुरा कर ही लिया। कितना भाग्यशाली है ना वह..! यदी वह भी उसके साथ यहाँ रहने आ जाये तो...! तब तो जिंदगी जीने का मकसद ही पुरा हो जायेगा..! उसने आँखे बंद कर उसका पुराना कॉलेज के दिनों का चेहरा याद करने लगी।
तीसरे दिन राघव वापस आया तो उसे अंजली का नोट मिला, जो वह उसके लिये छोड गयी थी। उस पर लिखा था –
“ ऑल रोड्स लीड्स टू रोम..!
अवेटिंग इगरली..!! --- डॉ. अंजली फ्रॉम इंडिया..!!! ”
राघव के होंटो पर मुस्कुराहट आ गयी..! उसे पता था अंजली ने उसे कहाँ मिलने को बुलाया है..! “कोलसियम..!” वह तुरंत उससे मिलने अपने इंस्टिट्युट से निकल पडा। आज वहाँ पर्यटकों की कुछ ज्यादा ही भीड थी। बीच की खाली जगह पर किसी कार्यक्रम की तैयारी चल रही थी। अक्सर वहाँ कोई ना कोई इवेंट होता ही रहता था। किंतु वह अंजली का चेहरा ढुँढ रहा था। इतने बरसों बाद उसका चेहरा भी तो बदल चुका होगा, तब वह उसे कैसे ढुँढ पायेगा..?
उसने सबसे ऊपर के टीयर पर एक अकेली लडकी को बैठे दिखा। वह उसे पास से देखना चाहता था। वह पीछे से उसके पास गया और कहा - “ऑल रोड्स लीड्स टू रोम..!” उसने अंजली के काँधे पर हाथ रखते हुए कहा।
अंजली ने पलट कर देखा तो राघव खडा था। “राघव...!” कहते हुए वह उसके गले लग गयी। राघव भी उसे प्यार से गले लगा लिया।
“अंजली, तुम यहाँ तक कैसे पहुँची..? तुम्हें मेरा पता कहाँ से मिला..?” राघव ने एक के पीछे एक सवाल दागने शुरू कर दिये।
“हमने सबने मिल कर तुम्हे खोज निकाला...!” हँसिका, जिग्नेश, सिया और सुजय ने एक साथ कहा।
“तुम लोग यहाँ कैसे..?” अंजली ने उन सभी से पुछा।
“परसो तुम्हारा फोन आने के बाद जिग्नेश ने यह सरप्राईज प्लान किया और देखो हम आ गये। मैंने सिया को तुम्हारे बारे में बताया तो वे भी राघव से मिलने अपने बच्चे समेत आ गये।“ हँसिका ने हँसते हुये कहा। और एक सरप्राईज है तुम्हारे लिये..! वो देखो... राघव और तुम्हारी शादी... कोलसियम में..!”
अंजली और राघव ने आश्चर्य से उनकी ओर देखा। अंजली ने राघव को वहीं प्रपोज किया..! “क्या तुम मुझसे शादी करोगे..?”
“हाँ, बिल्कुल..! अपनी सबसे अच्छी दोस्त के साथ बाकी जीवन गुजारने में हर्ज ही क्या है..?” राघव ने मुस्कुराते हुए कहा। “लेकिन तुम्हें कैसे पता कि मैंने अब तक शादी नहीं की..?”
सिंपल.., मैं तुम्हारे कॉलेज में गयी थी, तभी मैंने रिसेप्शन पर तुम्हारी पुछताछ की थी और हँसिका को फोन पर मैंने ही यह सब बताया था। लेकिन मैंने ये ना सोचा था कि तुम लोग शादी का प्लान भी चॉक-आऊट करके आओगे..!” अंजली ने हँसिका की ओर आँखे तरेरते हुए कहा।
“हमें भी खिदमत का मौका मिलना चाहिये ना मेरी जान..!” हँसिका ने अंजली को गले लगाते हुए कहा।
“और ये शादी, कोलसियम में कैसे अरेंज कर रहे हो..? परमिशन कैसे मिली..?” राघव ने उनसे पुछा।
“ये सब जिग्नेश का जुगाड है..! वह मेरी तरफ से, इन दो इडियट्स के लिये कुछ करना चाहता था। उसने ही ये प्रोग्राम फिक्स किया है।“ हँसिका ने बताया।
सिया और सुजय ने अपनी कहानी राघव को बताई। सिया ने उसे बताया कि उसने राघव को हर जगह फोन लगाया था। ऑफिस में शादी का कार्ड भी छोडा था। वे दोनों तुमसे इजाजत लेने भी आये थे। सिया ने राघव से माफी माँगी और अपने ‘ज्युनियर राघव’ से मिलवाया। राघव की आँखे भर आयी।
ऊपर वाले का खेल भी कितना महान है। सभी बिछडे हुए ‘सिक्स इडियट्स’ एक साथ एक ही जगह पर मिल रहे थे। सभी एक-दुसरे के लिये खुश थे।
“तुम सबने मेरे लिये जो कष्ट उठाये उसके लिये मैं माफी माँगता हुँ और साथ ही तह-ऐ-दिल से शुक्रिया अदा करना चाहता हुँ।“ राघव हाथ जोड कर बोला।
“चलो, इन दोनों इडियट्स को थोडी देर अकेला छोड दो..! इन्हें भी अपने गिले-शिकवे दूर करने का मौका मिलना चाहिये” हँसिका ने शरारत भरे अँदाज में कहा।
८.
ऑल रोड्स लीड्स टू रोम..! राघव ने अंजली का नोट उसे दिखाया।
“तुम्हें याद है एक बार कॉलेज में विराज सर ने हम सभी को इसका अर्थ लिख कर लाने को कहा था। और हम लाईब्ररी में बैठे किताबों में खाक छान रहे थे।“ अंजली ने कहा।
“चलो, अब तो हम दोनों डॉक्टरेट कर चुके है, अब बताओ, इस महान कहावत का तुम्हारे लिये क्या मायने है..!” राघव ने अंजली से पुछा।
“एलेन-डी-लिले की ये कहावत कि ‘सभी सड़कें रोम की ओर जाती हैं’ मध्यकालीन लैटिन से निकलती हैं। यह पहली बार ११७५ में एक फ्रांसीसी धर्मशास्त्री और कवि एलेन-डी-लिले द्वारा लिखित रूप में दर्ज किया गया था, जिसका लिबरल परबोलेरुम इसे 'सैल्युला रोमम के लिए म्यूकिन ड्यूकंट होमेन्स' (रोम के लिए हमेशा के लिए एक हजार सड़कों का नेतृत्व..!) के रूप में प्रस्तुत करता है..!” अंजली ने शायराना अंदाज में उत्तर दिया। “अब तुम बताओ..!” उसने राघव से पुछा।
“करीब, ३०० ई.पू. रोमन गणराज्य ने लंबे मार्ग और सीधी सड़कों का निर्माण शुरू किया था, इन सडक परीवहन को रोमन साम्राज्य की ताकत के पीछे एक बडा कारण माना जाता था। सड़कों के इन नेटवर्क में २९ सड़कें शामिल थीं जो केंद्र में रोम के साथ साम्राज्य के ११३ प्रांतों को जोड़ती थीं। इसलिए, यह ऐतिहासिक रूप से यह सच था कि सभी सड़कें रोम की ओर जाती हैं।“ राघव ने मुस्कुरा कर आज के संदर्भ को लेकर तकनीकी अर्थ बताया।
दोनों हाथों में हाथ डाले सिढीयाँ उतर रहे थे। वे दोनों एक दुसरे को मोहब्ब्त भरी नजरों से देख रहे थे। उन दोनों के रास्ते भी सारी दुनिया से होते हुए रोम में आकर मिल रहे थे।
दुसरे दिन राघव और अंजली की शादी थी। उनकी शादी में सभी मिले-जुले बाराती थे। उनके चार दोस्त और राघव के कॉलेज के कुछ कुलीग्स। शादी रोमन वेश-भुषा में होने वाली थी। अंजली को राघव की कुछ महिला सहकर्मीयों से सजाना शुरू किया। उसे राजसी ‘स्टोल’ पहनाया गया। उसके उपर से राजसी ‘पल्ला’, जो कि ब्रूच की सहायता से कंधे पर फिक्स किया जाता है। यह करीब ग्यारह फीट लंबा था। ‘मोतिया रंग के इस स्टोल पर सुनहरे रंग के नरगिसी फूल बुने हुए थे, जो गले के चारों ओर होते हुए सामने से नीचे मिले हुए थे। वे एक सुनहरे हार की तरह लग रहे थे। अंजली के बालों को उपर की ओर बाँध कर एक जुडा बनाया गया था और वे सुनहरे फुलों की ‘हेअर क्लिप’ से बाँधे गये थे। पुरी तैयारी के बार वह किसी राज कन्या से कम ना लग रही थी। बिल्कुल “देवी एथेना” के तरह..! रोम के अधिकांश देवी देवताएँ, ग्रीक देवी देवताओं से प्रेरीत जान पडते है या उनसे मिलते-जुलते दिखायी देते है।
उधर, राघव को उसके सहकर्मी रोमन देवता के भाँती सजा रहे थे। उसकी पोषक, जिसे रोमन भाषा में ‘टोगा’ कहते है। यह छह फीट चौडा और बारह फीट लंबा मखमली कपडा होता है जो कंधे से होकर कमर पर लपेटा जाता है। राघव किसी ‘एट्रस्कैन सभ्यता’ का विद्वान लग रहा था। आजकल हमारे हिंदुस्थान में ब्राह्मण पंडित इसी तरह का लिबास पहने दिखाई देते है, विशेषतः पुजा के समय। राघव का साज-शृंगार पुरा हुआ और वह “देवता हेलिअस” की तरह..! सुर्य की भाँती..!! सबको अपनी उर्जा से प्रकाशमान करने वाला।
अंजली और राघव का विवाह संपन्न हुआ। सभी खुश थे। इतने दिनों बाद ही सही, कबके बिछडे दो प्रेमी, आज मिल ही गये। अंजली ने कैलिफोर्निया छोड, राघव की पसंदिदा जगह, रोम में उसके साथ रहने आ गयी। समय बीतता गया, और दोनों के घर एक बेटी ने जन्म लिया..!
“क्या नाम रखे इसका..?” अंजली ने राघव के घुँघराले बालों में अपनी ऊँगली घुमाते हुए पुछा।
“कोई पौराणिक नाम कैसा रहेगा..?” राघव ने कहा।
“ऐसा, जिसे सुनते ही एक अनुठी अनुभूती हो..!” अंजली बोली।
“वैदेही कैसा रहेगा..!” राघव ने पुछा।
“जिसे राम जैसा वर मिला हो, उसे किस बात की चिंता..? राम और सिता तो साक्षात विष्णु और लक्ष्मी के अवतार थे..! हर लडकी को राम जैसा पुरूष मिले, ऐसी मनोकामना होती है, है ना..?” अंजली राघव की ओर प्यार भरी नजरों से देखते हुए बोली।
“हँम्म..!” राघव मुस्कुराते हुए अंजली और वैदेही को अपनी बाँहों में भर लेता है।
वैदेही देखते देखते बडी होती जा रही थी। पाँच-छह साल की वैदेही स्कुल जाने लगी थी। आज उसके स्कुल में वार्षिक स्नेह सम्मेलन था। उसे ‘देवी सीरीझ’ की भुमिका मिली थी। वह एक लंबा ‘स्टोल’ पहने एक हाथ में गेहुँ की बालियाँ और दुसरे हाथ में ‘हँसिया’ लिये खडी थी। उसके आगे बारह बच्चे खेती से संबंधित काम करने वालो, जैसे कि खेत जोतने वाले, जमीन बुहारने वाले, बीज बोने वाले, फसल काटने वाले, फसल संभालने वाले, फसल बाँटने वाले इत्यादी की भुमिका में, एक घुटना उठाये, नीचे बैठे थे। उनके हाथ में अपने-अपने काम करने के औजार थमे थे। वैदेही, माँ सिता की तरह ‘भुमी-पुत्री’ लग रही थी।
“राघव, तुम्हें नहीं लगता, वैदेही वास्तव में जनक-पुत्री ‘सीता’ का रोल अदा कर रही है..?” अंजली तालियाँ बजाते हुए, राघव के करीब अपना चेहरा ले जाकर उसके कानों में धीरे से कह रही थी।
“हाँ-हाँ...! बिल्कुल..!” राघव नजर भर कर अपनी होनहार बेटी को देखते हुए कहने लगा।
*****
उधर, सुजय को प्रमोट करके ‘मैनहटन’ भेज दिया गया। ये करीब सन २००० की बात होगी। उसका ऑफिस, सेंट्रल पार्क के दक्षिण दिशा में कोलंबस सर्कल के समीप एक बिल्डिंग में था। सुजय, सिया और राघव(ज्यु.) के साथ ५२५ वेस्ट, जो की ५२ स्ट्रिट पर स्थित एक अपार्टमेंट था, उसकी उपरी मंजिल पर शिफ्ट हो गया। सेन-फ्राँसिस्को से मैनहटन करीब तीन हजार मील की दुरी उन्होंने फ्लाईट से साढे पाँच घंटे में पुरी की। नई जगह, नया घर, उसे सजाना, सँवारने में ही सिया का एक हफ्ता निकल गया। उनके घर के कोने से सैंट्रल पार्क दिखाई देता था। सिया, अक्सर अपने बेटे के साथ पार्क में घुमने आती थी। जब भी वह अपने बेटे राघव को पुकारती, उसे अपने राघव की याद आ जाती थी।
उसके साथ गुजरे वे दिन, वो सुनहरे पल, जब दोनों अकेले में बिताया करते थे, उसे अक्सर याद आते थे। किसी भी लडकी को, चाहे वह अपने पिया के घर में कितनी ही खुश क्यों ना हो, अपने पहले प्यार की दरकार जरूर होती है। ‘राघव..!’ वह आँखे बंद कर उसे मन ही मन याद कर लेती थी। वह नीचे घास पर बैठी, जमीन पर ऊँगली से उसका नाम उकेर रही थी। तभी उसका बेटा खेलते-खेलते उसे पिछे से आकर गलबहियाँ लेता है। सिया चौंक कर उसे अपने सामने लाती है और उसे प्यार करने लगती है।
“राघव और अंजली कैसे है सिया..? उन्हें फोन किया था या नहीं, उनके पास तो अपना नया नंबर भी नही होगा..?” सुजय घर आकर बोला।
“हाँ, रोम में दोनो खुश है। अब तो उनकी बेटी भी आ गयी है..!” सिया अपने बेटे के कपडे बदलते हुए बोली। “दो-एक दिन में फोन करूँगी..!” उसने कहा। सुजय अपने बेटे के साथ खेल रहा था। सिया उन दोनों को देखते हुए मुस्कुरा रही थी। वह किचन से उन दोनों को देखने लगी। कितनी सुखी थी ना वह..! एक छोटा सा परीवार, मनमाफिक रहना, घुमने जाना, शॉपिंग करना, अच्छे कपडे पहनना.., सब कुछ तो था उसके पास। राघव(ज्यु.) के जन्म के बाद तो उन्हें ‘ग्रीन-कार्ड’ भी मिल गया था।
वे अब एन.आर.आई. बन चुके थे। किसी बात की कोई कमी नही थी। पती के पास एक शानदार सॉफ्टवेअर कंपनी में ‘प्रोजेक्ट मैंनेजर’ के पद पर प्रमोशन और ऑफिस के पास रहने को घर हो.., तो इससे ज्यादा किसी लडकी को और क्या चाहिये..? जितने सपने उसने शादी के पहले अपने मन में संजोये थे, यदी वे सारे पुरे हो जाये तो क्या इंसान सुख से परीपुर्ण नही हो जायेगा..? क्या उसके मन में अब भी कुछ पाने की आकांक्षा होगी..?
सिया को टीस बस एक ही बात की थी कि उसने राघव को धोका दिया। वह उसके लिये, अपने स्वार्थ हेतू रूक ना सकी। सभी के बहकावे में आकर वह अपना मन मरोस कर रह गयी और एक नये सपने के साथ आगे चली गयी और राघव को दूर पिछे छोड गयी।


९.
सिया को मैंनहटन में रहते हुए एक-डेढ साल बीत चुका था। सितंबर में ‘पतझड’ का मौसम आ चुका था। हर तरफ लाल-पीले रंग में लिपटे ‘स्विट-गम’ के पेड दिखाई दे रहे थे। हैलट नेचर सॅक्चुरी में ‘फॉल-फोलिआज’ देखने के लिये लोगों का ताँता लगा हुआ था। तालाब से घिरा हुआ यह नेचर सॅक्चुरी बहुत सुंदर लग रहा था। तालाब में कुछ लोग नौका विहार भी कर रहे थे। तालब से पुर्व में प्रसिद्ध ‘सोलोमन ग्युगनहायम म्युझियम’ है, जिसे विख्यात वास्तुविद ‘फ्रैंक लॉयड राइट’ ने डिझाईन किया था। सिया भी यहाँ अपने बेटे को साथ लेकर घुमने आई थी।
“राघव को यह म्युझियम अपनी आँखों से देखना चाहिये..! आर्किटेक्चर का बेजोड नमुना है यह..!” वह मन ही मन अपनी सोच में गुम थी।
“मम्मा, पापा आज हमारे साथ घुमने आने वाले थे ना..?” उसके बेटे ने सिया का हाथ खिंचते हुए कहा।
“हाँ बेटा, वे आने वाले थे, किंतु वे एक आवश्यक मिटिंग अटैंड करने के लिये ‘लोअर मैंनहटन’ गये हुए है।“ सिया ने उसे रेस्त्रॉ से एक चीज-बर्गर खरीद कर देते हुए कहा। सुजय आज देर रात या कल दोपहर तक वापस आने वाले थे।
देर रात को सुजय का फोन आया, “सिया, यहाँ मुझे एक और दिन रुकना पड सकता है..! कल ‘डब्लू.टी.सी.’ में एक एक्स्टेंडेड मिटिंग तय हुई है, तो मैं कल सुबह एन.वाय.सी. के लिये रवाना हो जाऊँगा और शाम की फ्लाईट से वापस आ जाऊँगा.., ठिक है..? ज्युनियर क्या कर रहा है, ज्यादा तंग तो नही कर रहा तुम्हें..?”
“नहीं.., आज सेंट्रल पार्क घुमाने ले गयी थी उसे, आते हुए घर के लिये कुछ शॉपिंग की और तुम्हारे लिये भी खाना बनाने ही वाली थी कि तुम्हारा फोन आ गया..!” सिया दुसरे हाथ से अपनी लटे कान के पिछे करते हुए बोली।
“ठिक है, टेक केअर डियर..! फोन रखता हुँ, कल अर्ली मॉर्निंग की फ्लाईट है..! बाय..!!” सुजय ने फोन रखते हुए कहा।
सिया ने बाय कहते हुए रिसीवर रख दिया और अपने बेटे को आज पापा के ना आने की बात बता दी। वह थोडा नाराज हुआ, किंतु न्यु यॉर्क से वापसी में उसके लिये एक सरप्राईज गिफ्ट की बात सुन कर उसका मुड जरा ठिक हुआ। दोनों ने तय किया कि वे हल्का-फुल्का खा कर ही रात निकाल लेंगे। सिया ने कॉर्न-सूप और स्पघेती बनाया। दोनों खाते-खाते ‘हे-एर्नोल्ड’ यह एनिमेटेड-शो देखने में मशगुल हो गये। उन दिनों यह शो बच्चों और बडों में भी काफी लोकप्रिय हुआ करता था। एर्नोल्ड अपने दोस्तों के साथ एक काल्पनिक जगह ‘हिलवूड’ में रहता था। और ये कहानी उनकी रोजमर्रा की जिंदगी से जुडी दिलचस्प घटनाओं पर आधारित थी।
राघव (ज्यु.) खुद को उनमें से एक मान लेता था और पुरे शो के दौरान अपनी ही दुनीया में खोया रहता था। वह अक्सर अपनी माँ से कहता था कि वह भी एक ऐसी ही दुनीयाँ की कामना करता है, जहाँ सभी हँसी-खुशी से अपना जीवन व्यापन कर सके। सिया को उसमें अपने राघव के सारे गुण नजर आ रहे थे। वह भी उसे बडा होकर आर्किटेक्ट बनाना चाहती थी, जो जाने अंजाने में वह नहीं बन सकी..! उसे आज भी इस बात का दुःख था कि वह खुद आर्किटेक्ट नहीं बन सकी। उसने एक ठंडी आह भरी। वह सोफे पर बैठी-बैठी अपने बेटे के बालों में उँगलीयाँ फिराने लगी। उसे ऐसा करते हुए राघव की याद आ जाती थी। उसके बालों को छुने पर ऐसी ही अनुभूती होती थी। वे दोनो वही सोफे पर सो गये। करीब आधी रात के बाद सिया ने अपने बेटे को बेडरूम में सुलाया और खुद भी उसे साथ लेकर सोने लगी, किंतु उसे नींद नही आ रही थी। युँ तो वह कई बार सुजय के बिना घर पर अकेली रहती थी, किंतु आज न जाने उसे क्यों बुरे-बुरे ख्याल आ रहे थे। वह सोचने लगी काश सुजय का एक बार और फोन आ जाये, तो वह सुकून से सो सके। इसी उधेडबुन में कब उसकी आँख लगी, उसे पता ही ना चला।
सुबह-सुबह डोर बेल की आवाज से सिया की नींद खुली। सुबह के आठ बज रहे थे। वह गाऊन पहने दरवाजा खोलने गयी, तो दरवाजे पर अखबार और दुध की बोतले रखी थी। उसने दरवाजा बंद किया और अखबार टेबल पर रख कर दूध की बोतलें फ्रिज में रखने किचन की ओर चल दी। पहले वह वॉशरूम जाकर फ्रेश हो जाना चाहती थी, ताकी आराम से दुसरे काम की शुरूआत की जा सके। करीब साढे आठ बजे उसने टी.व्ही. ऑन किया और चैनल सर्फ करने लगी। यु.एस. में भी भारतीय चैनल देखने की सुविधा हो जाने से वह कुछ समय के लिये खुद को अपने देश में महसुस कर लेती थी। उसने अपने लिये चाय का पानी रखा और अपने बेटे को जगाने बेडरूम में गयी। वह चादर के ऊपर सो रहा था। सिया ने उसके नीचे से चादर निकाल कर उसे ओढा दी और प्यार से उसके गालों को सहला दिया। वह किचन में जाकर चाय-पत्ती और शक्कर डाल कर युँ ही अखबार टटोलने लगी। थोडी देर बाद वह अपनी चाय लेने किचन में गयी और वापस आकर टी.व्ही. पर न्युज चैनल लगाने लगी कि तभी उसे वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकी हमले की जानकारी मिली। कुछ रॉ फुटेज दिखाये जा रहे थे, जिससे ये पता चल रहा था कि ‘डब्लू.टी.सी.’ पर आतंकी हमला हो चुका था और दो प्लेन हाईजैक हो चुके थे, ये भी दिखाया जा रहा था।
सिया का दिल धक से रह गया..! सुजय की तो आज यहीं पर मिटिंग होने वाली थी..! “ओह माई गॉड..! प्लिज सेव हिम..!” सिया दोनों हाथ जोड कर प्रार्थना कर रही थी। चाय का कप उसके हाथ से फिसल कर नीचे गिर पडा। उसकी आँखों से झर-झर आँसु बह रहे थे। वह फोन को अपने हाथों में लेकर उसके बजने का इंतजार करने लगी। वह भाग कर बेडरूम में गयी और अपने बेटे की ओर देखने लगी, वह उसे यह सब नही बताना चाहती थी। उसने बेडरूम का दरवाजा बाहर से बंद कर दिया और रिमोट से टी.व्ही. का आवाज सबसे कम कर दिया। उसकी धडकने तेज होती जा रही थी। वह मुँह से जोर-जोर से साँस ले रही थी। उसके माथे से पसीना चू रहा था।
जब किसी पर दुःख टुटता है तो यह वही महसुस कर सकता है। ऐसे समय में जबकी अपने साथ कोई ना हो, तो और भी ज्यादा डर लगने लगता है। सिया को कुछ भी समझ नहीं रहा था, वह कभी फोन की ओर देखती तो कभी अपने बेटे की बेडरूम की तरफ। उसे कुछ भी सुझ नही रहा था। तभी फोन की घंटी घनघना उठी..! सिया ने लपक कर रिसीवर उठाया, हडबडी में उसके हाथ से रिसीवर फिसल गया और वह लगभग रो ही पडी।
“ह...हलो..!” उसकी हिचकियाँ बँध रही थी। “कौन.., ह..हलो..!”
“सिया, मैं बोल रही हुँ..! तुम्हारी माँ... इंडिया से..!” उधर से सिया की माँ की आवाज सुनाई दी। उनकी आवाज भी जरा विचलित थी। “तुम सब ठिक तो हो..?”
“माँ, सुजय की आज ‘डब्लू.टी.सी.’ में मिटींग फिक्स थी..!” वह रोते हुए बोल रही थी। दूर देश में ब्याह कर गयी बेटी का सबसे बडा संबल होती है उसकी माँ..! और दुःख या विपदा के समय यदी यह सहारा मिल जाये तब तो बेटी का रो-रो कर बुरा हाल होता ही है। ऐसा ही कुछ सिया के साथ भी हो रहा था। वह अपनी सारी चिंता माँ के आगे कहना चाहती थी, वह उससे एक ही आश्वासन चाह रही थी कि सुजय वापस तो आ जायेंगे ना..?
“क्यों नही सिया, सुजय जरूर तुम्हे कॉल करेगा, उसे कुछ नही हुआ होगा..! तुम बिल्कुल भी चिंता मत करना सिया, हम सब तुम्हारे साथ है..! और जरूरत पडे तो तुम्हारे पापा भी वहाँ आ जायेंगे, ठिक है..?”
“हाँ माँ.., मैं फोन रखती हुँ, कही सुजय को फोन एंगेज ना मिले..!” सिया ने हडबडी में फोन रख दिया..! वह कुछ देर और माँ से बात करना चाहती थी किंतु समय उसे इजाजत नहीं दे रहा था। तभी उसे बेडरूम से दस्तक की आवाज सुनाई दी। वह दौडते हुए दरवाजा खोलने गयी और अपने बेटे से लिपट गयी। वह अपनी रूलाई रोकने की भरसक कोशिश कर रही थी। राघव (ज्यु.) उसकी कमर अपने हाथ से पकड कर उसे अपलक देख रहा था। वह यह समझने की कोशिश कर रहा था कि उसकी माँ रो क्यों रही है..?
“क्या हुआ माँ..?” उसने सिया से पुछा।
सिया को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि वह अपने बेटे को क्या बतायें, कैसे समझायें..! वह जल्दबाजी में ऐसी कोई बात अपने मुँह से नहीं निकालना चाहती थी जो उन दोनों के लिये अपशकुन का काम करें। अतः वह चुप रह जाती है और उसे कंधे से पकड कर वॉश रूम की ओर ले जाती है। राघव (ज्यु.) पिछे पलटते हुए टी.व्ही. की ओर देखता है, जहाँ उसे वह आतंकी मंजर दिखाई देता है। वह अपनी माँ की ओर देख कर कहता है, “पापा के बारे में सोच रही हो मम्मा..?”
सिया अब अपने आप को रोक नहीं पायी और वह वहीं वॉशरूम के फर्श पर बैठ कर दहाडे मार कर रोने लगी। उसने अपने दोनों हाथों से अपना मुँह ढक लिया और बच्चो के माफिक रोने लगी। उसका बेटा उसे अपने पास लेकर ढाढस बँधा रहा था।
“रो मत माँ.., हो सकता है पापा गये ही ना हो..?” उसके बेटे ने सिया का चेहरा अपने हाथों में थामते हुए कहा।
“ऐसा ही हो बेटा..!” सिया अपने बेटे के हाथ चुमते हुए बोली, “काश तुम्हारी बात सच निकले..!”
तभी फोन की घंटी बज उठी, सिया दौडती हुई ड्रॉईग हॉल में पहुँची और रिसीवर उठाया। दुसरी तरफ से उसे एक आवाज सुनाई दी, “सिया..! मैं सुजय..!”
“सुजय.., तुम ठिक तो हो..?” सिया रोते-रोते बोली।
“हाँ, बिल्कुल..! अरे, सारी डोमेस्टिक फ्लाईट्स कैंसिल हो गयी है सिया..! बच गये यार..!” सुजय काँपते हुए बोल रहा था। उसकी साँसे जोर से चल रही थी। “जैसे ही फ्लाईट्स शुरू हो जायेंगी मैं वापस पहुँच जाऊँगा सिया, तुम जरा भी चिंता मत करना..! मैं बिल्कुल ठिक हुँ डियर..!”
सिया की जान में जान आयी। उसने अपने आँसु पौंछ लिये और अपने बेटे की तरफ देखने लगी। उसने बात की और वह सच निकली। वह अपने बेटे को अपने पास लेकर उसे सहलाने लगी।
दो दिन बाद सुजय मैंनहटन वापस पहुँचा। सिया और उनका बेटा दोनों उससे लिपट गये। वे दोनों अब तक घबराये हुए थे।
“सुजय, चलो वापस इंडिया चले..! हमें यहाँ और नही रहना..!” सिया रोते हुए बोली। वह विनंती भरी आँखों से सुजय की ओर देख रही थी। सुजय ने सर हिला कर हामी भर दी। वह भी इन हालातों में यहाँ ज्यादा दिन रूकना नहीं चाहता था।
सिया ने कुछ दिनों बाद हँसिका को फोन कर अपना इंडिया वापस जाने का फैसला बताया। हँसिका ने उसे वापस सेन-फ्रांसिस्को आने को कहा या किसी और काऊँटी में शिफ्ट होने की सलाह दी। लेकिन सिया का दिल नही मान रहा था। उसके मन पर जो बीत रहा था, यह वही जान सकती थी। यह तो सुजय की किस्मत अच्छी थी कि सारी फ्लाईट्स कैंसिल हो गई, वरना उसे अपना बचा हुआ जीवन किसी बेवा की तरह गुजारना पडता..!
राघव और अंजली ने भी फोन पर उन्हें जगह बदलने की सलाह दी थी। लेकिन सिया ने वापस भारत जाने का मन बना लिया था। छह महीनों के भीतर सिया, सुजय और अपने बेटे के साथ मुँबई, अपनी ससुराल वापस आ गये। हँसिका और उसका पती जिग्नेश अब भी सेन-फ्रांसिस्को में ही रह रहे थे और राघव-अंजली रोम में पढा रहे थे।
*****
सिया को मुँबई में रहते दस साल के ऊपर हो चुके थे। वह अब पक्की मुँबईकर हो गयी थी। मुँबई की दौड-भाग भरी जिंदगी उसे रास आ गयी। वह अब इंडिपेंडंट इंटेरीयर डिझाईनर के रूप में काम में व्यस्त रहने लगी। उसने अपनी शुरूआत पहले अपने घर से ही की। घर की आंतरिक साज-सज्जा में उसने कई नये अनुप्रयोग किये, मसलन प्रकाश और छाया का अभिन्न मिश्रण कर नये आयाम स्थापित करना, सामान-असबाब की नित-नई रचनाओं को रहने योग्य बनाना इत्यादी उसे सदा भाती थी। उसके डिझाईन्स बाजार में एक ब्रॉड के रूप में प्रसिद्ध होने लगे। वह फर्निचर्स डिझाईन करने में ज्यादा समय देने लगी। सुजय ने मुँबई में ही एक सॉफ्टवेअर कंपनी ज्वाईन कर ली थी। उनके बेटे की राघव की शालेय शिक्षा खत्म होते आ रही थी। वह अपनी मम्मा का अधुरा सपना पुरा करना चाहता था। उसने यु.एस. से आर्किटेक्चर में डिग्री करने की बात अपने माता-पिता को बताई। सिया का दिल फिर से धडक उठा। उसे पंद्रह साल पहले अपने आप पर बीती उस घटना की याद आ गई, जिसके घटने से उन्हें वापस इंडिया आना पडा।
“नहीं राघव, मैं तुम्हें फिर वहीं नहीं जाने दे सकती जहाँ से हम वापस आये हो..!” सिया ने अपना एकतर्फा फैसला सुना दिया।
“अब हालात बदल चुके है सिया..!” सुजय बीच में बोला, “मैं भी तो बीच-बीच में आया जाया करता हुँ वहाँ..!”
“आपकी बात और है सुजय..! राघव अभी बच्चा है..!” सिया ने कहा।
“क्या मैं अब भी बच्चा हुँ मम्मा..!” राघव हँसते हुए बोला।
“वह मैं कुछ नहीं जानती..! तुम वहाँ फिर नहीं जाओगे..!” सिया ने तेज आवाज में कहा।
अब तो सिया के सामने दोनों की बोलती बंद हो गयी। राघव अपना सा मुँह लेकर बाल्कनी में चला गया। वह यु.एस. के एक कॉलेज का ‘ब्रॉशर’ देख रहा था। उसमें थर्ड ईयर में रोम जाकर दो साल का स्टुडंट एक्सचेंज प्रोग्राम के बारे में भी लिखा था। इटली तो वास्तुकला का विश्व केंद्र माना जाता है। वह अपना मन मरोस कर रह गया।
“मम्मा.., अमेरिकन युनिवर्सिटीज में पढने वाले बच्चों को थर्ड ईयर में रोम जाकर दो साल पढाई करने को मिलती है..! और तुमसे अच्छा ये बात कौन जान सकता है..!” राघव ने विनंती करते हुए कहा।
“अरे, तुम तो अपनी पुरी पढाई ही रोम में कर सकते हो राघव..!” सिया के दिमाग में एक विचार कौंधा..! “तुम्हें याद है जब तुम बहुत छोटे थे तब हम तीनों रोम में एक शादी में गये थे..?”
“सुजय, तुम्हें तो याद होगा ना जब हम, राघव और अंजली की शादी करवाने रोम गये थे साथ में हँसिका और जिग्नेश भी तो थे..?” सिया सुजय की तरफ मुड कर बोली।
“कितने साल हो गये उन सब से मिले..!” सुजय ने सभी को याद करते हुए कहा। “राघव और अंजली का फोन नम्बर कहाँ से मिलेगा..?”
“उनके कॉलेज का नम्बर तो मिल ही सकता है..!” सिया अपने माथे पर तर्जनी को ठकठकाते हुए बोली..!
“पहली बार दिमाग से सोचा तुमने सिया..!” सुजय ने आँख मारते हुए कहा।
“व्हॉट डू यू मीन..?” सिया, सुजय की तरफ एक तकिया उछालते हुए बोली।
“अब भगवान से प्रार्थना करो कि वे अपने पुराने इंस्टिट्युट में ही मिल जाये..!” सिया दोनों हाथ जोडते हुए बोली।
“मम्मा, अब इंटरनेट और मोबाईल का जमाना है..! किसी को भी ढुँढना अब बहुत आसान हो गया है। कॉलेज ही नहीं, प्रोफेसर्स की भी आई.डी. इंटरनेट पर अवेलेबल है..!” ज्युनियर राघव अपने दिमाग की फुर्ती दिखा कर सभी पर अपना सिक्का जमा रहा था।
सिया ने आखिर उसी को उन दोनों प्रोफेसरों को रोम में ढुँढने का ‘पेटी-कॉन्ट्रेक्ट’ दे दिया। शाम तक ज्युनियर ने अपना काम कर दिखाया और अपनी मम्मी को अपने लैपटॉप पर उन दोनों की तस्वीर सहित तमाम जानकारी दिखा दी, जो उसके पासपोर्ट पर ईटली का वीजा लगवाने में सहायक होने वाली थी।
“वैरी गुड सन..!” सिया उसका गाल चुमते हुए बोली।
“मम्मा, कितनी बार कहा है कि अब मुझे किस मत किया करो..! कितना ऑकवर्ड फील होता है..!” ज्युनियर अपना गाल रगडते हुए चिढ रहा था, “तुम तो मेरे फ्रैंड्स के सामने भी शुरू हो जाती हो..!”
सिया उसकी नाक पकडते हुए हँस पडी, “ओके बाबा, अब तुम अपने लिये एक किस करने वाली गर्ल-फ्रैंड ढुँढ लेना रोम में..!”
सुजय अखबार के पिछे से मुस्कुरा रहा था और जाती हुई सिया के साडी का पल्लु पकड कर एक किस की गुजारिश की..! सिया आँखे दिखाते हुए किचन में बडबडाती हुई चली गयी, “बेटा सेर तो बाप सवा सेर..!”
“उल्टा बोल रही हो सिया..!” सुजय उसे पिछे से पकडते हुए बोला।
“छोडो, कुछ लाज, शरम, हया..!” सिया उसे पिछे धकेलते हुए बोली।
“राघव पाँच साल के लिये रोम जाने वाला है..! सोच लो तुम..!” सुजय शरारत भरे अंदाज में बोला।
सिया ने सुजय की तरफ कडछी मार कर फेंकी, जिसे सुजय ने झुक कर अपने पिछे की ओर चार रन के लिये जाने दिया।
"फोर...!" ज्युनियर टी.व्ही. पर क्रिकेट मैच देखते हुए चिल्ला पडा..!
"रूको, तुम दोनों..! आज किसी को भी खाना नहीं मिलेगा..!" सिया तमतमाते हुए बोली।
१०.
ज्युनियर राघव अब सिनियर राघव का शिष्यत्व ग्रहण करने हेतु तैयारी कर रहा था।
“उन्हें सर कहना, अंकल नहीं..!” सिया ने ज्युनियर को समझाया, “वे ना सिर्फ एक नेक इंसान है, बल्कि ग्रेट शिक्षक भी है, समझे तुम..!”
शाम को राघव सर का रोम से फोन आने वाला था। उन्होंने ऐसा ज्युनियर को ई-मेल के रिप्लाय में लिखा था। सभी बेताबी से उनके फोन का इंतजार कर रहे थे। उनके उत्तर पर ही ज्युनियर का भविष्य निर्भर था। यहाँ तक तो ठिक था, अब सुजय का फोन आया कि वह आज रात लेट आयेगा। राघव सर से अब इन दोनों को ही बात करनी थी। सिया तो कई साल बाद राघव सर से बात करने वाली थी। उसे अपने पुराने दिन याद आने लगे, जब वे दोनों एक ही ऑफिस में काम कर रहे थे। कितने सुहाने दिन थे वे..! सिया उसके साथ बिताये उन दिनों की याद में खो गयी.., कैसे वह उसके साथ खाना खाने बाहर गयी थी..! सिया अपनी यादों में खोयी थी कि अचानक फोन की बेल बज उठी।
सिया ने चौंक कर रिसीवर उठाया, “हैलो..!” उसने कहा।
“सिया.., मैं राघव फ्रॉम रोम..!” उस तरफ से राघव सर की आवाज गुँजी..! आवाज में अब थोडा विदेशी एक्सन्ट था, “आर यू देअर सिया..”
“येस, आई एम..!” सिया ने कहा।
“ओके, तो तुम्हारा बेटा रोम आना चाहता है..?”
“तुमसे कुछ गाइडंस चाहिये था राघव..! मेरा बेटा विदेश में पढने की जिद कर रहा है..! क्या वहाँ इसे एडमिशन मिल जायेगी और रहने की जगह इत्यादी की व्यवस्था हो जायेगी..?” सिया ने पुछा।
“श्योर सिया, रोम में तो अमेरिकन युनिवर्सिटी के बच्चे कंपलसरी थर्ड ईयर कोर्स के लिये आते ही है, तो हम पुरा कोर्स यहीं से करे, इससे अच्छा और क्या हो सकता है..?” राघव सर आगे कहने लगे, “ यहाँ डिजाइन स्टूडियो, ड्राइंग और वॉटरकलर क्लासेस से लेकर आर्किटेक्चर थ्योरी और आर्किटेक्चरल हिस्ट्री तक के कोर्स के साथ इस कार्यक्रम का जोर शहरीवाद और पारंपरिक शहर, शास्त्रीय वास्तुकला और विट्रुएंसस, पल्लदियो, बोरोमीनी और बर्निनी की मिसाल के बाद की समकालीन इमारतों का शास्त्रीय तरीके से के अध्ययन करना है।“
“इटली, अपना समृद्ध इतिहास, शहरीकरण और वास्तुकला के सफल उदाहरण दुनीया को प्रदान करता रहा है; जो समय की कसौटी पर खरे भी उतरे हैं। इमारतों और शहरों के अपने ऐतिहासिक मॉडल २१वीं शताब्दी के लिए उपयुक्त वास्तुकला बनाने में एक अनमोल संसाधन हैं। यहाँ छात्रों को वास्तुकला और मूल्यवान जीवन अनुभव के गहन ज्ञान दिया जाता हैं। पूरे सत्र के दौरान, छात्र इटली के विभिन्न भागों में यात्रा करते हैं, जैसे कि लाज़ियो के भीतर दिन की यात्राएँ और टस्कनी, वेनेटो, कैम्पेनिया और सिसिली क्षेत्रों में लंबी यात्राएँ। इन यात्राओं में संकाय सदस्यों द्वारा प्रस्तुतियों के साथ ऐतिहासिक स्थलों की यात्रा, स्केचिंग का समय और शहरों का पता लगाने का कार्यक्रम शामिल किया जाता है, जो विश्व के किसी भी विश्वविद्यालय में नही होता।“
सिया और उसका बेटा फोन के स्पिकर पर राघव सर की बातें ध्यान से सुन रहे थे। ज्युनियर ने तो माँ को इशारे से अपनी हामी भर दी।
“लेकिन राघव उसके रहने खाने का इंतजाम किस तरह होगा..?” सिया ने प्रश्न किया।
“तुम उसकी चिंता मत करो, पहले साल होस्टल नहीं मिलता, सो वह हमारे घर पर रह सकता है, फिर सेकंड ईयर से वह होस्टल में शिफ्ट हो सकता है..! उसे खुद को मैंनेज करना भी सिखना होगा..!” राघव सर ने उन्हें बताया।
“तुमने तो हमारी चिंता ही दूर कर दी राघव..! तुम्हारे और अंजली के होते हुए वह यकीनन हमें मिस नहीं करेगा..!” सिया ने राहत की साँस लेते हुए कहा।
*****
राघव रोम जाने की तैयारी में व्यस्थ था। वह अपने साथ ढेर सारे कपडे ले जाने वाला था, सिया ने मना किया कि वह रोम में नये ढंग के कपडे ले सकता है क्यों बेवजह इतना बोझा ढोना चाहता है।
“मम्मा, मैं वहाँ शॉपिंग करने नहीं जा हुँ, पढने जा रहा हुँ। मैं वहाँ कोई फालतु खर्च नहीं करना चाहता।“ ज्युनियर बडों जैसी बात करके सभी को अपना नया-नया विकसित दिमाग का परिचय देना चाहता था।
“ओह, तो वहाँ अपनी गर्लफ्रैंड पर पैसे लुटाने के लिये बचत कर रहे है छोटे नवाब..!” सिया उसकी नाक खिंचते हुए बोली।
“आह, मम्मा तुम ना एक दिन मेरी नाक खिंच-खिंच कर पिनोकियो की तरह लंबी कर दोगी।“ ज्युनियर अपनी नाक सहलाते हुए बोला।
सिया उसे देखते हुए मुस्कुरा रही थी। उसने ज्युनियर को अपने पास खिंचते हुए कहा, “अब पाँच साल कहाँ मिल पाओगे तुम..?”
“वहाँ जाकर अपनी मम्मा को भुल तो नहीं जाओगे तुम..?” सिया उसे गले लगाते हुए बोली। पहली बार उसका बेटा उससे दूर हो रहा था। यु.एस. में वही तो उसके सबसे करीब था। दोनों ने मिल कर बुरे से बुरे दिन काटे थे। सुजय के कई दिनों तक बाहर रहने के समय, दोनों माँ-बेटे ही एक दुसरे का सहारा रहे थे और फिर 'ड्ब्लु.टी.सी.' के उस हादसे के दिन वह ज्युनियर ही तो था जो सिया को संभाल रहा था। छोटी सी जान, लेकिन कितने संयम का परिचय दिया था उसने..! सिया को एक-एक घटना याद आ रही थी।
“कहाँ खो गयी मम्मा..?” ज्युनियर माँ की आँखे पोंछते हुए बोला।
“कहीं नही राजा..! तुम्हारे साथ गुजरे दिनों की याद आ रही थी..!” सिया अपनी आँखें पोंछती हुई बोली।
रात में एक बार फिर राघव सर का फोन आया, जिसमें उन्होंने एक बार फिर उन सारी बातों को दोहराया, जिसे रोम आने के पहले पुरा करना था। मसलन, मार्कशीट्स की ट्रांस्क्रिप्ट्स, एजुकेशन विजा, बैंक गारंटी, साथ लाने वाले सामान की चेक-लिस्ट, मेडिकल हिस्ट्री के कागजात, दवाईयाँ, एलर्जीक दवाओं की लिस्ट, आँखों की जाँच इत्यादी।
“बाकी हम संभाल लेंगे सिया..!” राघव सर ने कहा, “रहने और खाने-पीने की बिल्कुल भी चिंता मत करना, हम उसे अपने बेटे की तरह ही अपने साथ रखेंगे..!”
“राघव सर, आपके रहते हमें कोई चिंता नही है..! हम जानते है आप उसे हमसे भी ज्यादा अच्छे से रखेंगे..!” सिया ने आत्मविश्वास से कहा, “वह आप ही का बेटा बन कर रहेगा और आपकी शागिर्दी में आप जैसा ही उच्च दर्जे का इंसान बनेगा।“
सिया की आँखों में आँसु थे, अपने बेटे के विदा होने के गम में नहीं, वरन इस खुशी में की वह ना सही, उसके जिगर का टुकडा राघव सर की छत्र छाया में एक वट वृक्ष में रुपांतरित होने जा रहा है। उसने पास खडे सुजय का हाथ अपने दोनों हाथो से थाम लिया और अपना सर उससे टेक कर सुबकने लगी। आँसुओं की चंद बुँदे सुजय का हाथ भिगो रही थी। सुजय उसकी व्यथा भली-भाँती समझ रहा था। उसे याद आ रहा था, जब सिया ने उसके और राघव के बारे में शादी से पहले सब कुछ बता दिया था। उसे सिया पर गर्व था कि उसने सब कुछ पहले ही सच-सच बता दिया था। वह सिया की ईमानदरी और सच्ची निष्ठा से प्रभावित हुआ था। उसे सिया पर गर्व महसुस हो रहा था। उसका दामन पाक-साफ था। वह एक सच्ची लडकी थी, जो उसके दिल में था वही जुबाँ पर भी था। ऐसे बहुत कम लोग हमें जीवन में मिलते और सुजय अपने आप को इस मामले में बहुत सौभाग्यशाली मानता था। उसने सिया के बालों पर से अपना हाथ फिराया और से ढाढस बँधाया।
“मम्मा, मुझे रोम जाते हुए पैरिस में करीब तीन घंटा रुकना पडेगा..! फिर वहाँ से कनेक्टेड फ्लाईट से रोम जाना पडेगा..!” ज्युनियर ने टिकीट बुक करते हुए कहा।
“तो दो घंटे पैरिस घुम लेना..!” सिया ने उसकी ओर देखते हुए कहा। ज्युनियर को बात जँच गयी और उसने एअरपोर्ट से दो घंटे के बीच की कोई अच्छी सी जगह देखने हेतु इंटरनेट सर्च किया।
“मम्मा, ये नहीं हो पायेगा, पैरिस में ‘ले-ओवर’ कम से कम सात घंटे या उससे ज्यादा का होना चाहिये। सिक्योरिटी चैक और बाकी पेपर्स क्लियर करने के लिये तीन घंटे तो एअरपोर्ट पर ही रूकना पड सकता है। बाहर जाने के लिये कम से कम सात घंटे से ज्यादा का ले-ओवर होना चाहिये या फिर एक रात का ‘स्टॉप-ओवर’ होना चाहिये। मेरे ख्याल से रोम पहुँचना मेरे लिये ज्यादा महत्वपुर्ण है, ना की पैरिस घुमना..!” ज्युनियर ने अपना बताया।
“ओह.., कितना बडा हो गया है मेरा राजा बेटा..!” कहते हुए सिया उसे चुमने आगे बडी..!
“नॉट अगेन मम्मा..!” ज्युनियर ने भागते हुए कहा।
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नियत तारीख और समय पर ज्युनियर, मुँबई इंटरनैश्नल एअरपोर्ट से रोम के लिए रवाना हो गया। सिया और सुजय ने उसे भीगी आँखों से विदा किया। सिया का तो मानो आँख का तारा उससे दूर हो रहा था। वह सुजय के साथ रोते-रोते वापस लौट रही थी। सुजय उसे संभालने का भरसक प्रयत्न रहा था।
राघव एक नए सफर पर चल पडा, अकेला, सारी दुनिया को अपना बनाने के लिए, खुद को सारी दुनिया को अर्पित करने के लिए। कहते है कि इस दुनिया में हर इंसान को एक दायित्व देकर भेजा जाता है, चाहे वह अच्छा हो बुरा..! जंगल में एक चिंटी का भी वही योगदान होता है जो किसी भीमकाय प्राणी का..! हर एक प्राणी का इस इकोलॉजी में एक समान भागीदारी होती है। यदी प्रत्येक मनुष्य को अपनी-अपनी जवाबदारी समझ में आ जाये तो यही पृथ्वी स्वर्गमय हो सकती है..! यही पर हमें दुनीया का सारा सुख प्राप्त हो सकता है। कहीं और ढुँढने की कोई जरूरत नहीं..!
करीब पँद्रह घण्टे की यात्रा के बाद राघव पैरिस होता हुआ, एफ.सी.ओ. एअरपोर्ट रोम पहुँच गया। आधा घण्टा बैगेजेस कलेक्ट करने में लग गया। डिपार्चर से बाहर उसे उम्मीद थी कि कोई उसे लेने आयेगा..! वह अपने नाम की तख्ती ढुँढने लगा। उसने एक सिरे से देखना शुरू किया। लगभग सारी तख्तीयाँ लैटिन या इतालवी भाषा में लिखी थी, सिवाय एक के जिस पर हिंदी में राघव, इंडिया लिखा था। वह उस तख्ती की ओर बढ रहा था, उसने देखा एक खुबसूरत फैशनेबल लडकी के हाथों में वह तख्ती थी। उसी की हमउम्र या थोडी छोटी होगी। उसने ऑलीव ग्रीन कलर की क्रॉप्ड ट्राऊजर्स और उस पर व्हाईट फिट टॉप पहन रखा था, जो उसने ट्राउजर्स में ‘इन’ कर रखा था। उसके बाल घुँघराले और खुले थे। वह अपने मुँह में कोई गम चबा रही थी। उसकी हरकतों से ऐसा लग रहा था कि वह काफी देर से उसका इंतजार कर रही थी। लग रहा था कि वह अब गई कि तब गई। राघव को लगा वह उसे तख्ती फेंक कर मार देगी। वह उसके पास गया और अपना हाथ उपर खडा कर उसकी ओर देखने लगा।
“पर्क्ये सय वोलुतू कोसी तैन्तो तेम्पो..?” उसने इतालवी में पुछा।
“क्या..?” राघव ने मुँह बनाते हुए पुछा।
“इतनी देर क्यों लगा दी इडियट..!” वह भडकते हुए बोली, “मैं अपनी क्लास मिस करके एक घंटे से ये तख्ती पकडे खडी हुँ..!”
“सॉरी, इसमें मेरी क्या गलती है..?” राघव ने मासुमियत से कहा।
“वैनी इन फ्रेता..!” वह चिल्लाती हुई अपने पिछे आने को बोली।
उसने कार पार्किंग तक दौड लगायी। राघव अपना सामान लेकर उसे फॉलो कर रहा था। उसे अपनी मम्मा की बात याद आयी, इतना सारा सामान ना ले जाने की..! वह उस घडी को कोसने लगा जब उसके जेहन में यह विचार आया था।
एक मिनी-कूपर उसके पास आकर खडी हुई। राघव ने अपना सामान डिक्की में रखा और अगली सीट पर आकर बैठ गया।
“हाय, मैं राघव चटर्जी..!” उसने अपना हाथ आगे बढाया।
“मैं वैदेही शास्त्री..!” उसने सामने देखते हुए कार के एक्सिलरेटर को पैर से पुरा दबा दिया।
राघव लगभग गिरते-गिरते बचा। उसे अब रोम में आने का अपना फैसला गलत लग रहा था। उसने आधे घंटे के सफर में वैदेही से कुछ भी बात नहीं की। वह उसे कुछ समय देना चाहता था ताकी उसका दिमाग ठंडा हो सके। जल्दी ही वे उसके घर तक आ पहुँचे।
“प्रेंदिती क्युरा देल त्युओ प्रिंसिपे..!” वह कार की चाबीयाँ सोफे पर फेंकते हुए अपनी मम्मी से बोली। उसे अपनी क्लास को देर हो रही थी।
“नमस्ते आँटी..!” राघव ने अंजली के पैर छुते हुए कहा।
“नमस्ते बेटा..!” अंजली ने उसे कंधे से उठाते हुए अपने गले लगाया, “रास्ते में कुछ परेशानी तो नहीं हुई..?”
“कुछ खास नहीं..!” राघव ने मुस्कुराते हुए कहा। उसे यहाँ पाँच साल गुजारने थे। वह अपनी वजह से कोई बखेडा नहीं खडा करना चाहता था। उसे अपने माँ-बाप का नाम रोशन करना था, ना कि खराब..!
“गेस्ट-रूम में तुम्हारा रहने का इंतजाम कर दिया है, जब भुख लगे बता देना। आज आराम कर लो फिर कल तुम्हारे नए कॉलेज जाकर बाकी की फॉरमालिटीज पुरी करनी होगी।“ अंजली ने उसका कमरा दिखाते हुए कहा।
“आँटी, ये वैदेही ने आते वक्त क्या कहा था..?” राघव ने पुछा।
“तुम उसकी बातों पर ध्यान मत देना, वह जरा तुनक-मिजाज लडकी है। अकेली है, इसलिए थोडी मनमानी करती है। लेकिन दिल की साफ है, वह अपने अंदर कुछ भी नहीं छुपाती, जो मन में होता है वही उसके जुबाँ पर भी होता है..!” अंजली ने उसके कमरे का ए.सी. ऑन करते हुए कहा।
“येस आँटी मैं इस बात का पुरा ध्यान रखुँगा।“ राघव ने कहा।
शाम को राघव सर से उसकी मुलाकात हुई। उन्होंने राघव को अनेक आशिर्वाद के साथ अपनी पढाई ध्यान से पुरी करने को कहा। उन्होंने उसे आश्वस्त किया कि वह यहाँ कम से कम एक साल आराम से रह सकता है और उसे इस दौरान पढाई से संबंधित किसी भी दिक्कत को वह बेझिझक पुछ सकता है। इस दौरान राघव का वैदेही से दो-एक बार सामना हुआ, किंतु उसने उसे टालना ही बेहतर समझा।
अगले दिन राघव अपने नये कॉलेज ‘युनिवर्सिटी ऑफ नॉत्रे देमस’ में गया। उसे अपना नया कॉलेज बहुत पसँद आया। यह कोलसियम के निकट, वाया ‘ओस्तिलिया’ पर स्थित है। यह एक कैथोलिक संस्था द्वारा पुरी दुनिया में आठ भिन्न-भिन्न इंस्टिट्युट के रूप में फैला हुआ है। यह अपने गेट-वे के द्वारा उनके किसी भी इंस्टिट्युट में दो साल का एक्सचेंज प्रोग्राम में भाग ले सकता है। इससे फायदा यह होता है कि छात्रों को नई जगह और नए वातावरण में कुछ नया पढने और देखने को मिलता है।
राघव को यह कॉलेज भा गया। राघव सर उसके लोकल गार्जियन बन गये। दिन पर दिन बितते गये। राघव पुरी लगन और निष्ठा से अपनी पढाई कर रहा था। वैदेही से अब उसकी अनबन नहीं होती थी। वैदेही को समझ में आ गया था कि उसे राघव से उतना खतरा नहीं जितना पहले वह समझ रही थी। चुँकी राघव उसके रास्ते के बीच कभी नहीं आता था, अतः अनबन का कोई सवाल ही नहीं उठ रहा था। वैसे भी वैदेही राघव से तीन साल छोटी थी और अभी उसकी स्कुलिंग खत्म नहीं हुई थी। सो उसे राघव के किसी काम में अडंगा डालने की समझ नहीं थी। राघव भी उसे स्कुल की पढाई में पुरी सहायता करता था। धीरे-धीरे दोनों के बीच की गलतफहमीयाँ दूर होती चली गयी और वे दोनों अच्छे दोस्त बन गये।
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उधर सिया खुद को व्यस्त रखना चाहती थी, जिससे वह अपने बेटे को लेकर ज्यादा चिंता ना करे। बीच-बीच में वह राघव और अंजली से फोन पर बात कर लिया करती थी। राघव भी उन्हें फोन कर लेता था। देखते देखते राघव का एक साल बीत गया। वह कुछ दिनों के लिये इंडिया आना चाहता था, ताकी वह अपने मम्मी-पापा से मिल सके। उसने राघव सर और अंजली आंटी की तरफ से रोम की कुछ भेंट वस्तु भी साथ रख ली थी। अंजली ने सिया के लिये हाथ से पैंट की गई सिरेमिक की कुछ वस्तुये दी और राघव ने सुजय के लिये डिझाईनर कपडे भेंट में भेजे। राघव, वैदेही से मिलने उसके कमरे में गया। वैदेही अपनी स्कुल की पढाई में व्यस्त थी। राघव ने उससे पुछा, “तुम्हारे लिये इंडिया से क्या लाऊँ..!”
“कुछ नहीं.., कहते हुए उसने अपने पास रखे कलात्मक चॉकलेट का एक डिब्बा उसे थमा दिया। “इसे अंकल-आँटी को मेरी तरफ से दे देना..!”
“थैंक्स वैदेही..!” राघव ने उसकी ओर अपना हाथ बढाया।
वैदेही ने भी अपना हाथ उसकी ओर बढा दिया। उसे पहली बार एक अलग अहसास होने लगा। राघव के हाथ में एक गर्माहट थी अपनेपन की..! वह एकटक उसे देखने लगी।
“रघू, आई वील मीस यू..!” वैदेही ने कहा।
“सेम हीयर..!” राघव ने कहते हुए उसके गालों को छुआ। वैदेही को उसका स्पर्श अच्छा लगा। उसने मुस्कुराते हुए राघव को विदा किया।
११.
राघव को लेने एअरपोर्ट पर उसके मम्मी-पापा आए थे। करीब एक साल के बाद वह वापस आया था। सिया का तो खुशी का ठिकाना न था। उसने सबके सामने राघव को चुम लिया..! राघव आँखे दिखाता हुआ उससे लिपट गया। घर वापस आकर उसे बहुत अच्छा लग रहा था। सिया ने तो घर का नक्शा ही बदल दिया था। उसके नये ब्राँड के फर्निचर्स घर पर सजे हुए थे। राघव यह सब देख कर बहुत खुश हो रहा था। उसे अपनी मम्मा पर गर्व और अभिमान हो रहा था।
“मम्मा, तुमने पिछले एक साल में अच्छी खासी प्रगती कर ली..!” राघव एक ईझी चेअर पर बैठता हुआ बोला।
सिया, उसके करीब बैठते हुए बोली, “सब तुमसे बिछडने के कारण हुआ है..!” उसने अपनी ठुड्डी पर हाथ रखते हुए कहा।
“ओह मम्मा, यू आर सिम्पली ग्रेट..!” राघव ने कहा, “देखो, अंकल-आँटी ने आप दोनों के लिये क्या गिफ्ट्स भेजे है..?” उसने बैग खोलते हुए कहा।
“और ये है आर्टिसन चॉकलेट का बॉक्स, आप सभी के लिये, खास वैदेही की तरफ से..!” राघव ने उन्हें इटालियन चॉकलेट्स का बॉक्स देते हुए कहा।
“सो नाईस ऑफ हर..! वह अब काफी बढी हो गयी होगी ना..?” सिया ने सिरेमिक की तश्तरी और पॉट्स को निहारते हुए कहा।
“चाहे कितनी भी बडी क्यों ना हो जाये, मुझसे तीन साल छोटी ही रहेगी..!” राघव ने हँसते हुए कहा।
“ओह.. तो बात यहाँ तक बढ गयी है..! तुम्हें पसंद है क्या वो..?” सिया ने उसकी नाक खिंचते हुए पुछा।
“नहीं मम्मा, ऐसी कोई बात नहीं है..!” राघव खिसियाते हुए बोला और अपने कमरे की तरफ चला गया।
सिया अपने बेटे में आये बदलाव को महसुस कर रही थी। उसे अपने बेटे और वैदेही के रिश्ते से जरा भी अडचन नही थी। वह मंद-मंद मुस्कुराते हुए किचन की ओर चल दी।
सिया ने सुजय को अभी कुछ भी बताना उचित नहीं समझा। ‘वक्त से पहले, किस्मत से ज्यादा, किसी को मिला है ना किसी को मिलेगा।‘ यह उक्ति उसे पता थी। उसके खुद के जीवन में उपरोक्त उक्ति ने कई बार जिंदगी के समीकरणों को बदलते देखा था। और उसे यह भी समझ में आ गया था कि वक्त तभी आता है जब आपकी मेहनत पुरी हो जाये। बिना मेहनत के तो अच्छा वक्त भी साथ नहीं देता। सभी ने मेहनत की थी, जिसके अच्छे व मनचाहे परिणाम भी मिले थे। सभी को अच्छी नौकरी, परदेस में रहने का सुअवसर..! यह सब कडी मेहनत के बाद ही मिलता है। किस्मत तो एक प्रतिशत काम करती है, बिजली के बटन दबाने जैसा..! और देखते ही देखते चारों ओर रोशनी की जगमगाहट से घर संसार कैसे दमक जाता है, नहीं..!
शाम को सभी खाना खाने बाहर गये। उन्होंने राघव, अंजली और वैदेही के लिये रिटर्न गिफ्ट्स खरीदे। सुजय ने राघव द्वारा भेजी गयी डिझाईनर ड्रेस पहन रखी थी। राघव तो जैसे अपनी एक साल पहले छोडी हुई मुँबई को भुल ही गया था। उसे सब पहले जैसा ही लग रहा था। उसके माता-पिता बेहद खुश नजर आ रहे थे।
“वापस कब जाने वाले हो राघव..?” सुजय ने पुछा।
“एक महीने की छुट्टियाँ है पापा..!” राघव ने कहा, “इस बार होस्टल में रहना पडेगा।“ राघव का एक साल गुजर चुका था और अब वह होस्टल में प्रवेश के लिये एलिजिबल था। छात्र जीवन का सुनहरा अनुभव होस्टल में बीते दिनों से सबसे ज्यादा आता है। वहाँ हमें दुनियादारी सीखने को मिलती है, लाईफ-मैनेजमेंट का पहला पाठ ‘होस्टल’ से ही शुरू होता है, जब आप अपने अजनबी सहपाठी के साथ पुरा साल गुजारने के लिये बाध्य होते है। अपनी आदतों में सुधार, बात करने का तरीका, काम करने का तरीका और अपनी चीजों को कितना, किसके साथ और कैसे शेयर करें, यह भी सीखने को मिलता है। संगत का असर हमारे जीवन पर सबसे ज्यादा पडता है। तो अच्छे और बुरे व्यक्ति के बीच का अंतर करना हमें यहाँ सीखने को मिलता है। कितना भी गुस्सा आ जाये, हमेशा मुस्कुराते हुए आगे बढना सीखना हो तो होस्टल में रहने आईये..! घर से आए पैसों का बजट बनाना हो या फिजुलखर्ची से बचना, यह सब हमें होस्टल से ही सीखने को मिलता है। समुह में रहने वाला हमेशा तर जाता है और अकेले रहने वालों का डुबना, लगभग निश्चित माना जाता है तो भाई, यह होस्टल से ही तो सीखने को मिलता है। घर पर खाने के चोचले करने वालों को होस्टल में जरूर रहना चाहिए। रोज-रोज आलु की सब्जी खाकर, माँ के हाथ के खाने का मुल्य समझ में आता है। एक साल में ही बच्चा जब घर आता है तो करेले की सब्जी भी वह मोहनभोग की तरह खाने लगता है। साल भर अपने बेटे की बाट जोहने वाली माँ भी अपने बच्चे में आए इस परिवर्तन को देख कर दंग रह जाती है।
ऐसी अनेक प्रसंग देखने को मिलते है जब बंदा होस्टल में रह कर, एक आदर्श व्यक्ति के रूप में समाज में प्रतिस्थापित हो जाता है। तब उसे ऑफिस में बॉस की और घर पर बीवी की डाँट का भी कोई प्रभाव नहीं पडता। वह निर्विकार भाव से अपने कर्म पथ पर एकला चलो रे की तर्ज पर चला जाता है, चला जाता है.., बिना किसी से कोई शिकायत करे, बिना किसी को परेशान करें..!
राघव यानी की वैदेही का ‘रघू’ अब अपने जीवन का एक नया पाठ पढने जा रहा था। आज तक माता-पिता के साये में वह एक सुरक्षित दायरे में रह रहा था। अमेरिका में जन्मा, मुँबई में बढा हुआ और रोम में उच्च शिक्षा लेने को तैयार रघू खुद को मानसिक रूप से तैयार कर रहा था। रघू के माता-पिता भी कभी होस्टल में नहीं रहे थे, अतः उन्हें भी अब थोडी चिंता होने लगी थी। सिया ने सुजय से अपने बेटे को राघव और अंजली के घर पर ही रहने की सलाह दी।
देर रात उन्होंने राघव और अंजली से इस बारे में बात की तो उन्होंने भी इसका ऐतराज नहीं किया। रघू उन्हें एक अच्छा लडका लगा था। उसका स्वभाव सभी को पसंद आ गया था, अतः वे मना नहीं कर पाये, किंतु रघू को यह नामंजुर था। होस्टल में रहने का उसका अपना फैसला था और एक साल पहले ही यह तय हो चुका था कि एक साल बाद वह होस्टल में शिफ्ट हो जायेगा। अतः सभी ने उसकी बात का सम्मान करते हुए उसे सेकंड ईयर से होस्टल में रहने की अनुमती दे दी।
रघू वापस रोम आ पहुँचा और सीधे अपने होस्टल पहुँच गया, जहाँ उसने पिछले साल ही एक सीट के लिए अर्जी दे रखी थी। इस बार उसे लेने के लिये वैदेही नहीं आयी थी। अब तो वह रोम के चप्पे चप्पे से वाकिफ हो चुका था। कहते है कि रोम को अगर नजदिक से जानना हो तो उसे जितना हो सके पैदल चलते हुए देखो। जहाँ आपको कभी भी, कहीं भी रूकने, खाने-पीने की पुरी आजादी होती है। ईसा पुर्व के पुराने फोरम और कैथोलिक चर्च के बीच नई वास्तुकला के बेजोड नमुने आपको जगह-जगह पर देखने को मिल जायेंगे। वापसी में आप रोशनी से नहाये प्रसिद्ध जगहों पर, बागीचों में या फवारों के बीच अपनी सारी थकान भुला सकते है। चाहे जो खा-पी लो, रात की रंगीनियों का मजा ले लो, और देर रात अपने रैन बसेरे में लौट जाओ, इतालवी वाईन के साथ डाईन करो और एक सार्थक दिन को याद करते हुए नींद की मदहोशी में खो जाओ..!
प्रत्येक वास्तुविद का यह सपना होता है कि वह जिंदगी में एक बार रोम या ग्रीस जाकर अपनी आँखों से, अपने हाथों से उन सभी जगहों को छुकर महसुस करें, जिन्हें उसने या तो किताबों के पन्नों में देखा था या फिर इम्तिहान में उन्हे पेंसील से रेखांकित किया था। रघू उन सभी खुशनसीबों में से एक था, जो अपना संपुर्ण छात्र जीवन ही ‘आर्किटेक्चर के मदीने’ में गुजार रहा था। सिया की नागपुरी भाषा में बोले तो, “खूप नशीब काढलं बावा या पोरानं..!” मतलब, खूब नसीब लेकर आया है ये लडका..!
होस्टल में रघू की अपने नये रूम-मेट से मुलाकात हुई, वह एक इतालवी लडका था जो ‘फ्लोरेंस’ से पढने आया था। फ्लोरेंस में प्रसिद्ध ‘सांता मारिया नॉवेला’ चर्च है, जो पर्यटकों को अनायास ही अपनी ओर आकर्षित करती है।है। यह फ्लोरेंस का पहला महान बेसिलिका है जो शहर का प्रमुख ‘डोमिनिकन चर्च’ के रूप में जाना जाता है। यह रिनेसंस आर्किटेक्चर, या जिसे इटली का पुनर्जागरण वास्तुकला भी कहते है, का बेजोड नमुना है। रघू को वह एक अच्छा लडका लगा। उसका नाम था ‘कैसियस’। उसे अँग्रेजी का भी व्यापक ज्ञान था। चुँकी, उनका कॉलेज ‘ग्लोबल गेट-वे’ के रूप में जाना जाता था, अतः वहाँ अँग्रेजी माध्यम में पढाया जाता था, ताकी बच्चे उनके विश्व भर के किसी भी कॉलेज में, कभी भी अपनी अधुरी पढाई आगे जारी रख सके। कैसियस और रघू में एक आपसी समझ निर्मित हो गई और अगले चार साल वे साथ रह कर अपनी पढाई और सबसे महत्वपुर्ण जिंदगी जीने के पाठ ग्रहण करने वाले थे।
रघू, वैदेही और उसके माता-पिता से मिलने गया। वह अपने साथ मुँबई से उनके लिये लाये गिफ्ट्स भी ले गया। वैदेही तो सबसे ज्यादा खुश नजर आ रही थी। वह अपने स्कुल के आखरी पडाव पर थी। साल-दो साल में वह भी कॉलेज की स्टुडंट बनने वाली थी। उसे ‘ललित-कला’ में ज्यादा दिलचस्पी थी, अतः उसने ‘रूफा - रोम युनिवर्सिटी ऑफ फाईन आर्ट्स’ में प्रवेश हेतु तैयारी शुरू कर दी थी। सारी दुनिया से बच्चे यहाँ प्रवेश लेने हेतु एक ‘प्रवेश-परिक्षा’ में हिस्सा लेते है और बीस खुशनसीब बच्चों को ही प्रवेश मिल पाता है। अच्छे मार्कस के अलावा ड्रॉईंग की परिक्षा भी ‘ए’ ग्रेड में पास करनी होती है। अतः वैदेही इस परिक्षा के लिये जी जान से मेहनत कर रही थी। रघू ने उसकी पुरी सहायता करने का आश्वासन दिया। रघू ने सभी को एक बार पुनः धन्यवाद दिया कि उन्होंने उसे एक साल अपने घर में रहने को जगह दी, उसकी हर तरह से देखभाल की..! सभी उसे होस्टल में ना जाकर यहीं रुकने को कह रहे थे। किंतु रघू ने भारी मन से उन सभी से विदा ली और विकएंड पर उनके घर आने का वादा किया।
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देखते-देखते रघू का दुसरा साल भी खत्म हो गया। इस साल उसके जीवन में दो और लोग जुडने वाले थे। एक, वैदेही, जिसे रूफा में एडमिशन मिल गया था और दुसरी थी रूपल, जो सेन-फ्राँसिस्को से थर्ड ईयर में, दो साल के लिये अमेरिकन स्टुडंट एक्सचैंज प्रोग्राम के तहत, रघू को ज्वाईन करने वाली थी। रूपल को नहीं जानते आप..? रूपल पटेल.., हँसिका और जिग्नेश पटेल की इकलौती, लाडली और बिगडैल बेटी..! लगता है फिर से एक तिकडी बनने वाले है, जहाँ वैदेही, रघू को अपना हितैषी मानती है और दुसरी ओर रूपल, जो हिंदुस्थानी होने के साथ-साथ रघू की क्लास में ही होने के कारण, रघू पर अपना अधिकार जमाने के पुरजोर कोशिश करने में कोई कमी नहीं रहने देने वाली थी।
“थर्ड ईयर में आप सभी का स्वागत है..!” रघू के टीचर क्लास को संबोधित कर रहे थे, “इस वर्ष पाँच अमेरिकन स्टुडंट्स इस इंस्टिट्युट को ज्वाईन करने वाले है..!”
सभी ने तालीयाँ बजा कर उनका स्वागत किया। उनमें से एक थी, रूपल पटेल, पटेल रियल ईस्टेट के मालिक की बेटी..! रूपल, युनिवर्सिटी इन सेन-फ्राँसिस्को के डिपार्टमेंट ऑफ आर्किटेक्चर से विगत दो साल से आर्किटेक्चर का कोर्स कर रही थी। इस साल कम्पलसरी दो साल के लिये रोम में पढने के लिये आई थी। रोम में उन्हें इटली के विश्व विख्यात वास्तुकला को पास से देखने और उनका निरिक्षण करने का अवसर प्राप्त होने वाला था। इस प्रकार के पढने की योजना सभी देशों में, विशेषकर भारत में यदी आयोजित की जाये तो इससे अनेक छात्र लाभांवित हो सकेंगे।
रूपल एक नजर अपने सभी सहपाठियों देखने लगी। वह कोई जाना पहचाना चेहरा तलाश कर रही थी, जिसके साथ वह दोस्ती कर सके। देखते-देखते उसकी नजर रघू के चेहरे पर टिक गयी। उसने रघू की तरफ देख कर स्माईल किया। उसे वह काम का बंदा लगा। एक तो इंडियन, दुसरा रोम में शुरू से ही रह कर पढने वाला..! एक पंत-दो काज..! एक तीर से दो निशाने..!
“हाय, मैं रूपल पटेल, सेन-फ्राँसिस्को से..!” रूपल ने अपना हाथ बढाते हुए कहा।
“मैं राघव चैटर्जी, मुँबई, इंडिया से..!” रघू ने रूपल से हाथ मिलाते हुए कहा।
“वॉओ..! तुम मुँबई में रहते हो..!” रूपल उछलते हुए बोली, “आई लव इंडिया एण्ड इंडियन पिपल..! मेरे मॉम-डैड, इंडिया से बिलाँग करते है। बाई द वे, तुम यहाँ राघव सर और अंजली आँटी को जानते हो, वे मेरी मॉम के क्लासमेट थे, मॉम ने उनसे मिलने को कहा था..!” वह एक साँस में सब कुछ बोल गयी।
“मैं उन्हें अच्छे से जानता हुँ..! इनफेक्ट, मैं उनके घर एक साल रह भी चुका हुँ।“ रघू भी उत्साहित होते हुये बोला। उसे उम्मीद नहीं थी कि उन सभी के माता-पिता इतने क्लोज फ्रैंड्स निकलेंगे, “इस विकएण्ड मैं उनसे मिलने जाने वाला हुँ, चाहो तुम भी चलना..!” उसने कहा।
“जरूर, मैं गर्ल्स होस्टल में रहती हुँ, रूम नं १०५, तुम मुझे पिक-अप करने आ जाना..! बाय..!!” रूपल खुश होते हुये बोली।
रघू को एक नया साथी मिल गया था, वह खुश था जैसे कोई अपना, परिचीत मिल गया हो। कॉलेज में दोनों अक्सर साथ-साथ रहने लगे, एक साथ काम करते, एनसियंट साईट पर जाकर स्केचिंग करना, फोटो लेना और उनका प्रेझेनटेशन तैयार करना, ये उनका काम था। रूपल के पास उस समय का अत्याधुनिक डिजीटल कैमेरा था, जो काफी महँगा था और जिसमें रोल डालने की जरूरत नहीं थी। रघू मेहनत में पिछे ना था, इस प्रकार दोनों एक दुसरे की मदद कर दिया करते थे।
अगले विकएंड पर दोनों राघव सर से मिलने उनके घर गये। उनका घर ‘पलाझो विअरोस्पी वितलिस्की’ जो की डेल कोर्सो में स्थित था। यह अपार्टमेंट उनके इंस्टिट्युट से काफी नजदिक था और बाईसिकल से भी जाया जा सकता था। राघव सर तो अपने कॉलेज और ऑफिस भी अपनी बाईसिकल से ही जाया करते थे, इस प्रकार बढती उम्र में शारीरिक व्यायाम के साथ-साथ प्रदुषण पर भी सकारात्मक प्रभाव पडता था।
रघू के साथ एक सुँदर कन्या को देख कर सभी हैरत में पड गये। वैदेही को तो ‘काटो तो खुन नहीं’ जैसी स्थिती हो गयी थी। इससे पहले कोई उनसे पुछे, रूपल ने खुद ही अपना परिचय दे दिया, “मैं रूपल पटेल, हँसिका और जिग्नेश पटेल की बेटी, सेन-फ्राँसिस्को से यहाँ दो साल के स्टुडंट एक्सचैंज प्रोग्राम के अंतर्गत रोम आयी हुँ, और राघव की क्लासमेट बन गयी हुँ..! मॉम ने आप सभी को याद किया है और आपके कुशल मंगल की कामना की है।“ ऐसा कहते हुए उसने उन दोनों के पैर छुये और उनका आशिर्वाद प्राप्त किया।
राघव सर और अंजली ने जी भर कर उसे सराहा और हँसिका और जिग्नेश का हाल-चाल पुछा। उन्होनें रूपल से उनका नया नंबर भी ले लिया ताकी वे बात कर सके।
“तो तीनों परिवार के बच्चे घुम फिर कर रोम में आ ही गये..!” राघव सर ने हँसते हुये कहा, “एक सच्चे आर्किटेक्ट को इटली में तो होना ही चाहिये, क्या कहते हो तुम लोग..!”
“जी, अंकल..!” रूपल मुस्कुराते हुए कहा।
“कितनी प्यारी बच्ची है..!” अंजली ने उसे प्यार से अपने पास बिठा कर कहा, “जब भी कोई जरूरत हो, बेहिचक यहाँ चली आना..! कोई संकोच मत करना, समझी..! इसे अपना ही घर समझना..!”
“जी, आँटी..!” रूपल को यहाँ अपनेपन का एहसास होने लगा। जब तक हम किसी से प्रत्यक्ष मिल नहीं लेते, तब तक उनके बारे में हम सही राय नहीं बना पाते। यदी कोई अच्छा व्यक्ति होगा तो हमें इसका अच्छा एहसास मिलेगा और बुरे व्यक्ति का आभा मंडल हमें वहाँ से निकल जाने को कहेगा। ऐसा ही कुछ एहसास रूपल को उनके घर पर मिला। उसे वे दोनों अपने माता-पिता के समान लगे, वह घर उसे अपना सा लगा। उसने वैदेही से भी दोस्ती कर ली। वैदेही को वह एक भली लडकी लगी। वह उसकी तरफ से जरा आश्वस्त हो गयी। रूपल ने वैदेही को हर संभव मदद करने का आश्वासन दिया। वह इस घर में अपने लिये एक सकारात्मक जगह बनाना चाहती थी। जिसमें वह काफी हद तक सफल भी हो गयी।
पराये देश में किसी अपने का साथ गर मिल जाये तो बडा सहारा मिलता है। सदा एक आश्वासन रहता है कि किसी भी प्रकार की मदद यहाँ से हमें मिल सकती है। हम अपने कार्य को निःसंकोच करने में अधिक सक्षम रहते है। हमें एक ताकत, एक संबल मिलता है। परायी जगह भी अपनी लगने लगती है। फिर बच्चों को नई जगह भेजते समय अपना कोई लोकल गार्जियन का होना बडी दिलासा दिलाता है।
हंसिका बीच-बीच में अंजली से फोन कर रूपल का हाल जान लेती थी। अंजली ने उसे आश्वस्त किया कि वह उसकी बिल्कुल चिंता ना करे। वह रूपल का अपनी बेटी की तरह ही ध्यान रखेगी। सिया भी अंजली से अपने बेटे के बारे में पुछताछ कर लिया कर लेती थी। सिया राघव से उसकी पढाई पर विशेष ध्यान देने को कहती।
१२.
इस साल इटली में रोमन साम्राज्य के २५०० साल पुरे होने के उपलक्ष्य में पुरे रोम में एक लोकोत्सव की घोषणा की गयी। रोम के वास्तुकला और ललीत कला के सारे इंस्टिट्युट्स को एक साथ इस उत्सव का मंचन करना था। सारी दुनीया से लोग इसे देखने आने वाले थे। रोमन फोरम और कोलसियम में रंगा रंग कार्यक्रम का आयोजन किया जाने वाला था। फोरम में रोमन सभ्यता के पुराने दिनों को पुनर्जागृत किया जाना था, तो कोलसियम में जुलियस सीजर, जिसे भारत के रंगमंच पर ‘कैसर’ के नाम से भी संबोधित किया जाता है, का संगीत-नाट्य मंचन किया जाना था। कोलसियम के मंच की पार्श्वभुमी को रोमन आर्च, वॉल्ट और डोम को लेकर पुराने साम्राज्य को साकार किया गया था। सीजर की भुमिका में रघू को प्रस्तुत होना था। रूपल मिस्र की आखरी महारानी ‘क्लिओपेट्रा’ के रूप में भाग लेने वाली थी। सीजर के आखरी वर्षों में उसने मिस्र की महारानी को वापस राजगद्दी पर विराजमान करने का कार्य किया था। क्लिओपेट्रा को बाद में सीजर के द्वारा एक पुत्र की प्राप्ती भी हुयी थी।
हुआ युँ था कि सीजर अपने एक शत्रु, ‘पांपे’ जो कभी उसका सहकर्मी हुआ करता था, का पीछा करते हुए मिस्र पहुँच गया, किंतु वह एक नयी उलझन में वहाँ फँस गया। मिस्र के तत्कालीन राजा ‘टोलेमी-दसवें’ के अचानक मृत्यु के पश्चात उनकी संतानों के बीच राजगद्दी को लेकर तक्रार हो गई। क्लिओपेट्रा सबसे बढी थी, अतः उसे ही राज्य मिलना चाहिए था, किंतु उसके भाई ऐसा नहीं चाहता था। इस चक्कर में सीजर को बीच में आकर हस्तक्षेप करना पडा और उसके भाई को परास्त करके क्लिओपेट्रा को राज्य सिंहासन पर आरूढ कर दिया। क्लिओपेट्रा और सीजर के प्रेम के फलस्वरूप उन्हें एक पुत्र की भी प्राप्ती हुयी। तत्पश्चात, सीजर ने पांपे को भी परास्त कर उसका वध कर डाला और वह विजयी होकर रोम वापस आ गया। रोम में पहुँच कर उसने स्वयं को एकछत्र राजा घोषित कर दिया। सारे अधिकार उसने अपने अधीन रखे थे। लगभग एक वर्ष के भीतर उसके विरोधकों ने सीनेट के बैठक के दौरान उसे घेर लिया और घातक अस्त्रों से उस पर हमला कर वहीं मार डाला। इस प्रकार सीजर का ५७ वर्ष की उम्र में अंत हो गया।
सीजर ने पांपे और क्रेसस को अपने साथ मिला कर ‘प्रथम शासक वर्ग – फर्स्ट ट्रायमवर्ट’ अर्थात ‘राजनैतीक तिकडी’ का निर्माण किया था। यहीं से इतिहास में राजतंत्र के खिलाफ लोकतंत्र की पहली नींव पडती दिखायी देती है। यह तिकडी ज्यादा दिन टिक ना सकी और पांपे को राज शासकों ने अपनी ओर मिला लिया था।
शेक्सपियर ने बढी खुबी के साथ ‘जुलियस सीजर’ का नाटक लिखा है, जो आज भी पुरी दुनिया में प्रसिद्ध है और रंगकर्मी इसे मंच पर साकार करने में आज भी गौंरवांवित होते है।
सीजर, बहुत महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। उसका जन्म प्राचीन रोमन उच्च वर्गीय कुल में हुआ था। वह खुद को ‘देवी व्हिनस’ का वंशज मानता था। युवावस्था में उसे बहुत संघर्षों का सामना करना पडा, इसीलिये वह हमेशा से राज घरानों के सीनेटर्स को अपना शत्रु मानता था। उसके गवर्नर बनने के बाद उसने कई सैनिकी हमले किये, जिसमें उसने विजय हासिल की। उसने फ्राँस और राईन नदी के तराई वाले इलाकों को रोमन साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था। उसके बाद जर्मनी और बेल्जियम के काबाईली इलाकों को अपने कब्जे में कर लिया था। वह टेम्स नदी के बहाव की ओर अपनी कमान आगे बढाते हुए ब्रिटेन के अधिकांश कबीलों को अपनी शरण में लेता गया। या यों कहे कबीले बिना युद्ध किये अपने आप शरणागत होते चले गये।
रघू को सीजर के चरित्र को आत्मसात करने के लिये सीजर की मनोदशा को समझना जरूरी था। अतः वह हो सके उतनी जानकारीयाँ एकत्रित कर रहा था। उसने सीजर पर लिखी किताबें पढी और उस पर आपनी खासा विचार विमर्श किया। तब कहीं जाकर वह सीजर की भुमिका को साकार करने में कामयाब हुआ।
इस आयोजन में सभी के माता-पिता सम्मिलित हो ऐसा रघू को लग रहा था। उसने रूपल को अपने मॉम-डैड को इन्वाईट करने को कहा और उसने खुद भी अपने घर टेलीफोन कर अपने मम्मा-पप्पा को बुलवा लिया। वह इस मौके पर सभी को एक दुसरे से मिलवाना चाहता था। दस पंद्रहा सालों से उनके माँ-बाप एक दुसरे से नहीं मिले थे, तो यह अवसर वह खोना नहीं चाहता था।
करीब एक हफ्ते बाद उनका शो होने वाला था। हँसिका और जिग्नेश सेन-फ्राँसिस्को से आये थे और सिया, सुजय के साथ मुँबई से। चारों राघव सर और अंजली के घर पर ठहरे थे। बच्चे अपनी-अपनी तैयारीयों में मसरूफ थे। राघव सर और अंजली को अपने पुराने सहपाठीयों से मिल कर बहुत अच्छा लगा। पुराने दिनों को याद करके वे बहुत प्रसन्न थे। आज उनके बच्चों की वजह से वे रोम में एक दुसरे के साथ समय व्यतीत कर रहे थे। सभी खुद को बहुत भाग्यशाली समझ रहे थे कि उन्हें इतनी होनहार संताने मिली। आज उन्हीं की वजह से वे रोम जैसे महान देश में एकत्रित हो सके थे। ऐसे कितने भाग्यशाली माँ-बाप होंगे जिन्हें यह सम्मान प्राप्त होता होगा, एक प्रतिशत से भी कम..!
सभी शाम को एक साथ बैठे शैम्पेन का लुत्फ उठा रहे थे। वे सभी अपनी-अपनी दास्ताने सुनाने में मशगुल थे कि इतने में वैदेही ने अंदर कदम रखा। उसने सभी को एंट्रन्स पास दिये, जिस पर शो की तारीखें और जगह की जानकारी थी। उसने अपने शो के बारे में बताया जो कि रोमन-फोरम में आयोजित होने वाला था। उसने बताया कि सारी दुनीयाँ से पर्यटक इस शो को देखने आने वाले है। इतना कह कर वह अपने कमरे में चली गयी।
वैदेही और उसकी टीम रोम के इतिहास पर एक पथ-नाट्य प्रदर्शित करने वाले थे। इसमें लेसर के माध्यम से पुरातन रोम को परदे पर चित्रीत किया जाने वाला था। रोमन फोरम, जो रोम के निवासीयों को अनेक प्रकार की स्वतंत्रता से भुषित करता था। चाहे वह चुनावी सभाएँ हो या सार्वजनिक भाषण, सामाजिक समारोह हो या व्यावसायीक खरीद-फरोख्त, धार्मिक सभाएँ हो या फिर शैक्षणिक कार्यक्रम, रोमन फोरम सभी के लिये एक खुले मंच की तरह कार्य करता था। रोमन फोरम में सार्वजनिक कार्यक्रमों का उदय ५०० वर्ष ईसा पुर्व में हुआ था। सीजर के शासनकाल में इसमें फेर बदल कर इसका विस्तार किया गया था।
रोमन फोरम में कई इमारतों का समावेश है। सबसे महत्वपुर्ण इमारत थी सीनेट हाऊस, जहाँ सीनेट की परीषद थी। बाद में इसे एक चर्च में तब्दिल कर दिया गया था। रोमन फोरम के शुरूवाती समय में जिस पहला मंदिर का निर्माण हुआ था, वह था ‘टेम्पल ऑफ सैटर्न यानी शनी मंदिर..!’ है ना गजब की बात..! यह इमारत ‘कृषि के देवता’ के लिये बनायी गई थी, जो रोम के धन और खजाने को अपने संरक्षण में रखता था।
“जरुसलेम की घेराबंदी में विजयी होकर लौटे सम्राट टाइटस के सम्मान में ‘आर्क ऑफ टाइटस’ का निर्माण किया गया था। इसके अलावा यहाँ कई मंदिर भी थे, जो अब भग्नावशेष के रूप में दिखाई देते है, जैसे कि वेस्टा का मंदिर, कैस्टर और पोलक्स का मंदिर इत्यादी। मध्यकालीन समय में जो भुमी कभी महान रोमन फोरम थी, वह मवेशियों के चारागाह के रूप में इस्तेमाल की जाने लगी। किसी समय में रोमन फोरम सेंट ऑगस्टीन, हाइपोटिया, लुसियस सेनेका, टैसिटस, केटो द एल्डर जैसे बुद्धीजीवियों का गड माना जाता था, जिनमें प्रसिद्ध दार्शनिक, धर्मशस्त्री, गणितज्ञ, खगोलशास्त्री, लेखक, इतिहासकार और राजनितिज्ञों की भरमार होती थी। समय के साथ यह जगह रोमन साम्राज्य के पतन के बाद खंडहर में बदल गयी। आज सिर्फ टुटे फुटे अवशेष मात्र रह गये है, जो ढाई हजार साल पुरानी गाथा का वर्णन कर रहे है।
ऐसी किंवदंती मानी जाती है कि ७५० वर्ष ईसा पुर्व युद्ध के देवता ‘मंगल’ ने अपने दो जुडवा बेटो को टाईबर नदी के किनारे, एक टोकरी में रख कर छोड दिया था। इनमें से एक का नाम था रोमुलस और दुसरे का रेमस। कहते है कि बडे होने के बाद रोमुलस ने अपने भाई को मार कर अपना राज्य स्थापित किया और उसे अपना नाम दिया – ‘रोम’ । रोमुलस के बाद सात राजा बनाये गये, जिन्हें सिनेट निर्वाचित करते थे। एक राजशाही के रूप में रोम का अंत उसके सातवें शासक के बाद समाप्त हो गया और एक गणतंत्र या रिपब्लिक राज्य के रूप में रोम का उदय हुआ। रोम को सात पहाडियों पर बसाया गया है, इसलिये इसे ‘रोम की सात पहाडियाँ’ भी कहा जाता है।
रोमन साम्राज्य अपनी वास्तुकला के लिये पुरे विश्व में प्रसिद्ध है। वर्ष ३१२ ईसा पुर्व रोमन इंजिनियरों ने प्रसिद्ध जलसेतु का निर्माण कर रोम में पानी की समस्या का समाधान किया था। जो रोमन-एक्वाडक्ट्स के रूप में जाना जाता है। ये जल सेतु एक हजार वर्षो तक कार्यरत थे। इनकी मदद से शहरी स्वास्थ्य और स्वच्छता अभियान को गती प्राप्त हुई। रोम में ट्रेवी का फवारा इसी जलसेतु के माध्यम से आज भी कार्यरत है।
कोलसियम और रोमन फोरम का निर्माण, उन दिनों विकसीत सिमेंट और कॉक्रिट के अद्यतन उपयोग से संभव हुआ था। ये इमारते आज भी अपनी आन, बान और शान का बखान कर रही है। रोम के विकास में सडकों का महत्वपुर्ण योगदान रहा है। वर्ष २०० ईसा पुर्व में, करीब पचास हजार मील लंबाई की सडकें रोम के सत्रह लाख वर्ग मिल के क्षेत्र को जोडने का कार्य कर रही थी। जो कि अपने आप में एक सराहनीय उपलब्धी मानी जा सकती है।
दोनों ही कार्यक्रम बेहद सफल रहे थे। तीनों माता-पिता अपने बच्चों पर बेहद खुश थे, उन्हें उन पर गर्व महसुस हो रहा था। कार्यक्रम के बाद राघव सर, अंजली, हँसिका, जिग्नेश, सिया और सुजय ने एक साथ हाथ पकड कर एक गोलाकार घेरा बनाया और अपने बच्चों के लिये स्तुती गीत गाते हुये घुमने लगे। और बीच में उनके बच्चे अपने दोनों हाथ ऊपर को आकाश की तरफ किये, खुदा से प्रार्थना की मुद्रा में खडे थे। यों लग रहा था जैसे रोम फोरम में ‘चौंसठ योगीनी’ का एक नया मंदीर उभर कर आ रहा था। मानों रोम के राजाओं ने भारत के इतिहास से एक अध्याय उठा कर फोरम में प्रतिस्थापित कर दिया हो। मानों रोम के रखवाले, सारी दुनीयाँ में जन्म लेकर फिर से अपनी शक्तियाँ फोरम में प्रतिस्थापित कर रहे हो। और यह कह रहे हो, “यद्यपी रोम का साम्राज्य नष्ट क्यों ना हो गया हो, रोम इतिहास के पन्नों में कहीं खो क्यों ना गया हो, तथापी, रोम के मजबुत खंडहर आज भी इतने पुख्ता है कि सारी कायनात का बोझा उठाने में सक्षम है। रोम की बुनियाद हमेशा से शक्तिशाली थी और आगे भी बनी रहेगी..!” रोम की संरचनाकारों ने, वास्तुविदों और बुद्धीचातुर्यों ने रोम को अजरामर बनाने में एक अहम भुमिका अदा की थी। तभी तो आज भी हर मुल्क की राहें अपने राहगीरों को रोम की ओर ले चलती है।
रोम ने खुद को दुनीया के लिये खोल रखा था। उसने सभी को अपने में समाहित करने की मुसलसल कोशीशें की थी और आज भी यह जारी है। जिस प्रकार इंसानी जिस्म में सारी धमनीयाँ हृदय की जाती है वैसे ही दुनीयाँ की सारी सडकें रोम की ओर जाती है। क्यों की रोम की यह खुसूसियत है कि वह सभी को अपने में समाहित करने का माअदा रखती है। ऑल रोड्स वेयर लीडिंग द रोम एण्ड विल लीड टू रोम..!
खुदा हाफिज..!!!
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यह एक काल्पनिक कृति है। नाम, घटनाये, संस्था, व्यवसाय, पात्र, जगह और प्रसंग या तो लेखक की कल्पना के उत्पाद हैं या एक कल्पित तरीके से इस रचना में उपयोग की गई हैं। वास्तविक व्यक्तियों, जीवित या मृत, या वास्तविक घटनाओं से कोई भी समानता, पूरी तरह से संयोग है। सर्वाधिकार सुरक्षित © २०२१ मनीष गोडे