Chandra Prabha - Part (4) books and stories free download online pdf in Hindi

चन्द्र-प्रभा--भाग(९)

रात्रि का समय__
विभूतिनाथ जी की झोपड़ी के निकट सबके मध्य विचार-विमर्श चल ही रहा था कि वैद्यनाथ बोले__
मुझे याद आता हैं कि यहीं किसी स्थान पर शंकर जी का मंदिर हैं, महाराज प्रायः केवल मेरें साथ उस स्थान पर शेषनाग जी के दर्शन करने जाया करते थे,एक बार महाराज ने सावन के महीने में उस मंदिर के भीतर समाधि लगाई थीं, तब उन्होंने कहा था कि शेषनाग और शेषरानी ने उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए और वरदान माँगने को कहा।।
तब महाराज अपारशक्ति बोले___
मैनें आपकी भक्ति किसी वरदान के लिए नहीं की हैं, मै तो देखना चाहता था कि मेरी भक्ति में कितनी शक्ति हैं, आप मेरी भक्ति से प्रसन्न हो भी पाते हैं या नहीं।।
मैं आपकी भक्ति से अति प्रसन्न हुआ और यदि आप वरदान नहीं चाहते तो कोई बात नहीं परन्तु अगर भविष्य में आपको कभी भी मेरी सहायता की आवश्यकता हो तो निश्चिन्त होकर कहिएगा, शेषनाग बोले।।

तब अपारशक्ति बोले__
अवश्य, भगवन ! भविष्य में आपकी सहायता की आवश्यकता हुई तो अवश्य कहूँगा।।
और महाराज ने बताया कि उनके वहाँ से आने के उपरांत गुफा के कपाट स्वयं बंद हो गए, गुफा के भीतर ही एक मंदिर हैं जहाँ शेषनाग और शेषरानी ने सौ वर्षों तक भगवान शंकर की उपासना की तब उन्हें इच्छाधारी रूप धरने की शक्तियांँ प्राप्त हुई,ये मुझे महाराज ने बताया था।।
परन्तु, अब उस मंदिर क्या स्थिति हैं, मुझे ज्ञात नहीं, किन्तु यदि शेषनाग ने महाराज की सहायता हेतु वचन दिया था और यदि उन्हें किसी तरह ये ज्ञात हो जाए कि महाराज और उनका परिवार संकट मे हैं तो वो अवश्य ही उनकी सहायता हेतु उपस्थित हो जाएंगे,वैद्यनाथ जी बोले।।
क्या आपको अभी भी उस मन्दिर का मार्ग याद है, भालचन्द्र ने पूछा।।
हाँ,ऐसा मन्दिर मैनें भी सुना था,परन्तु वहाँ कभी जा नहीं सका,विभूतिनाथ जी भी बोले।।
इसका तात्पर्य हैं कि उस मन्दिर में अभी भी शेषनाग विराजमान हैं, सहस्त्रबाहु बोला।।
तो बिलम्ब किस बात का कल प्रातः ही उस मन्दिर के मार्ग पर चल पड़ते है, सारी घटना यदि शेषनाग को पता चल जाए तो हो सकता है वो हमारी सहायता के लिए सहमत हो जाए और वैसे भी हमें दैवीय शक्तियों की भी अत्यधिक आवश्यकता है, भाल चन्द्र बोला।।
आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं, राजकुमार! विभूतिनाथ जी बोले।।
रात्रि भी गहराने लगी थी और सब थके हुए थे इसलिए सब गहरी निन्द्रा में लीन हो गए, परन्तु सहस्त्रबाहु बोला,आप सब विश्राम करें, मैं पहरा देता हूँ, हमें किसी भी प्रकार का संकट मोल नहीं लेना चाहिए, क्या पता अम्बालिका को सब ज्ञात हो गया हो और रात्रि ही हम पर आक्रमण कर दे।।
भालचन्द्र बोला,ठीक हैं मित्र! जैसी तुम्हारी इच्छा और कोई शंका प्रतीत हो तो मुझे सूचित करना।।
रात्रि का दूसरा पहर समाप्त हो चुका था,आकाश में तारें और चन्द्र का श्वेत प्रकाश धरती को प्रकाशित कर रहा था,झोपड़ी के पास बह रहें झरनें का स्वर सरलता से सुनाई दे रहा था,वायु चलने से वृक्षों के पत्ते भी यदा कदा गिर जाते,तभी सहस्त्रबाहु झोपड़ी तक पहरा लगाते हुए गया,एकाएक वातायन(खिड़की) से उसकी दृष्टि सोनमयी पर गई,वातायन से जाता हुआ प्रकाश सोनमयी के मुँख पर पड़ रहा था,जिससे उसके मुँख की कोमलता और भी स्पष्ट दिखाई दे रही थीं, सहस्त्रबाहु वहीं खड़े होकर सोनमयी को निहारने लगा,काम कमान सी भौहें, मुँदी हुई पलकें, गुलाब से होंठ और अप्सराओं जैसी काया,वो उसकी सुन्दरता देखकर मुग्ध हो उठा।।
परन्तु जैसा सहस्त्रबाहु को आभास हुआ था,बिल्कुल वैसा ही हुआ,अम्बिका और अम्बालिका दोनों वायु में उड़ते हुए आईं और एक एक करके सैनिकों को घायल करने लगी।।
सहस्त्रबाहु ने दीर्घ स्वर में पुकारा___
सावधान, राजकुमार! देखिए संकट आ खड़ा हैं।।
सहस्त्रबाहु का स्वर सुनकर भालचन्द्र जाग उठे और शीघ्रता से अपनी तलवार निकाली परन्तु तब तक अम्बालिका और अम्बिका सैनिकों को मूर्छित कर जा चुकीं थीं,तब तक सभी जाग चुके थे और विभूतिनाथ जी ने शीघ्रता से सैनिकों का उपचार करना प्रारम्भ कर दिया।।
सहस्त्रबाहु बोला___
मित्र! लगता हैं कि अम्बालिका नहीं चाहती कि हम शीशमहल तक पहुँचे,तभी उसने ये सब किया हैं ताकि हमारा ध्यान भटक जाए।।
हाँ मित्र! मुझे भी यही लगता हैं किन्तु अब संसार की कोघ भघ शक्ति मेरा मार्ग नहीं रोक सकती,अब कोई भी विघ्न मुझे कर्तव्य से नहीं डिगा सकता,भालचन्द्र बोला।।
और प्रातःकाल,मुँहअँधेरे भालचन्द्र उस मन्दिर की ओर चल पड़ा अकेले ही,
सहस्त्रबाहु बोला,परन्तु मित्र! मुझे ले चलिए,मैं मन्दिर के भीतर नहीं जाऊँगा, बाहर रहकर आपकी प्रतीक्षा करूँगा।।
भालचन्द्र बोले,ठीक है मित्र।।
और वे मन्दिर पहुँचे____

वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि मन्दिर बहुत ही विशाल था,मंदिर के तलघर से होती हुई एक गुफा थी,परन्तु उस गुफा का द्वार किस ओर था ये किसी को भी ज्ञात नहीं था इसलिए विभूतिनाथ जी बोले कि अब किस प्रकार ज्ञात किया जाए कि गुफा का द्वार किस ओर हैं और ऐसा प्रतीत होता हैं कि यहाँ वर्षों से किसी का आगमन नहीं हुआ हैं इसलिए ये मन्दिर विशाल वृक्षों और झाड़ियों से ढ़क चुका हैं।।
परन्तु भीतर तो जाना होगा, हमें शेषनाग के दर्शन तो करने ही होगें, भालचन्द्र बोला।।
चलिए मित्र! मैं और आप ही वहाँ चलते हैं, कुछ ना कुछ करके गुफा का द्वार मिल ही जाएगा, सहस्त्रबाहु बोला।।
सहस्त्रबाहु की वीरता देखकर सोनमयी थोड़ी प्रसन्न सी प्रतीत हो रही थी।।
सहस्त्रबाहु और भालचन्द्र को थोड़े प्रयास के उपरांत तलघर की गुफा दिख ही गई, दोनों ने मिलकर अपनी अपनी तलवार से द्वार पर उगे वृक्षों और झाड़ियों को साफ किया, देखा तो गुफा के भीतर एक अद्भुत प्रकाश जगमगा रहा था,दोनों साहस करके धीरे धीरे भीतर जाने लगें, कुछ समय चलने के पश्चात् वो एक अद्वितीय अद्भुत स्थान पर पहुँचे,जहाँ केवल चारों ओर भगवान शिव की ही मूर्तियाँ थीं और मूर्तियों से एक अद्भुत प्रकाश आ रहा था,दोनों बहुत ही प्रसन्न थे ऐसी छटा देखकर, उन्हें अपनी आँखो पर विश्वास नहीं हो रहा था,उन्हें ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे वे कोई स्वप्न देख रहेंं हो।।

दोनों ये दृश्य देखकर भावविभोर हो उठे,भगवान शिव के दर्शन कर के वे स्वयं को गौरवपूर्ण अनुभव कर रहेंं थें, उन्होंने सभी मूर्तियों को प्रणाम कर अपना शीश झुकाया।।
एकाएक वहाँ एक साधु प्रकट हुए और उन्होंने दोनों से पूछा कि आप दोनों कौन हैं?
तब भालचन्द्र ने दोनों की सच्चाई उन साधु के समक्ष कह सुनाई।।
तब भालचन्द्र ने पूछा किन्तु आप यहाँ कैसे,हम तो यहाँ बड़ी कठिनाईयों के साथ यहाँ पहुँचे किन्तु ऐसा प्रतीत होता हैं कि जैसे आप इसी शिवमन्दिर में वास करते हो।।
हाँ,मैं इसी शिवमंदिर में रहता हूँ, उन साधु ने उत्तर दिया।।
और साधु अपने पूर्व मे प्रकट हुए वे शेषनाग थे और साथ मे शेषरानी भी,दोनों ने उन्हें प्रणाम किया और कहा कि हम आपके समक्ष सहायता हेतु आए हैं।।
शेषनाग बोले,हम पति पत्नी और हमारा समस्त परिवार आपकी सहायता अवश्य करेगा क्योंकि एक राजा अपारशक्ति ने भी मेरी सहायता की थी,एक सपेरा जो एक तांत्रिक भी था उसने हमारी नागमणियाँ चुरा ली थी और हमारी सारी शक्तियाँ उस मणियों में थीं,तब हमारी सहायता महाराज ने की थी,उनके उपकार ऋण चुकाने का समय आ गया हैं,हम भी आपके साथ चलेगें।।

क्रमशः__
सरोज वर्मा....