UJALE KI OR--SANSMARAN books and stories free download online pdf in Hindi

उजाले की ओर - संस्मरण

उजाले की ओर ---संस्मरण

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मित्रों !

सस्नेह नमस्कार !

पिछली बार मैंने आप सबसे कोलकता की उड़ान में बैठकर मेडिटेशन की बात साझा की थी |

जीवन में थोड़ा नहीं ,बहुत कुछ ऐसा होता है जो ताउम्र नहीं छूटता | आप वहाँ पर सशरीर उपस्थित न रहते हुए भी उससे जुड़े ही तो रहते हैं | नहीं ,मैंने ऐसा बिलकुल भी नहीं कहा कि हर सामय जुड़े रहते हैं ! मैं कहना चाहती हूँ कि किसी विशेष परिस्थिति में जब भूत का कोई एक भी पृष्ठ खुल जाए तो स्मृतियाँ ऐसे निकलकर मन की दीवारों झंझोड़ने लगती हैं कि आप फिर से कुछ समय के लिए उसी परिवेश में पहुँच जाते हैं |सच है कि नहीं ? नहीं दोस्त ! इसमें उम्र की बात नहीं आती ,संवेदना ही बेचैन कर देती है और हम फिर सेअपनी बंद खिड़की में से झाँकने लगते हैं और वहीं पहुँच जाते हैं ,जहाँ कभी थे |

पहले वाली घटना से जुड़ी हुई बात ही है जो मैं इस बार साझा कर रही हूँ |

अगरतला में नक्सलाइट्स का ज़ोर था |जहाँ हमें ठहराया गया था वहाँ से कोई डेढ़ सौ कि. मी दूरी पर कोई मंदिर था जिसकी बहुत मान्यता था |वहाँ के लोगों ने तय किया कि हमें उस मंदिर के दर्शन करवाए जाएँ | चुनाव का समय चल रहा था , ख़तरा बहुत था | फिर भी सरकारी आज्ञा से हमें वी.वी.आई. पी संरक्षण में ले जाया गया | हमारे आगे-पीछे पुलिस की सशस्त्र जीपें थीं |

बीच का रास्ता बहुत ख़ाली सा था ,जंगल जैसा !अत: हमें घेर-घारकर ले जाया गया | इस समय मुझे मंदिर का नाम याद नहीं आ रहा है ,संभवत: आप पाठकों में से किसीको पता हो सकता है | कोई माता का ही काफ़ी पुराना मंदिर था और लोग कह रहे थे कि इतनी दूर से आए हैं तो वहाँ दर्शन करना तो बनता ही है |

लगभग डेढ़/दो घंटे के बाद हम वहाँ पहुँचे | भयंकर भीड़ थी,मंदिर का प्रांगण काफ़ी बड़ा दिखाई दे रहा था | हमें वहाँ पहुँचते ही पहले नीचे ही एक बड़े से हॉल में बैठाया गया जो विशेषकर हमारे लिए ही खुलवाया गया था | वहाँ के सिंहद्वार से बाहर आने-जाने वाली जनता दिखाई दे रही थी ,अच्छी धक्का-मुक्की थी |लगता था आस-पास के गाँव के लोगों का जमावड़ा रहा होगा |

हमें पहले सुस्ताने के लिए आरामदायक कमरा व सोफ़े ,बढ़िया नाश्ता ,ठंडा पेय सब कुछ मुहैया करवा दिया गया था | ख़ासी देर सुस्ताने पर हमारी जान में जान आई | अब हमें लगभग 25/30 चौड़ी सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर के बड़े प्रांगण में जाना था जहाँ से हमें छोटा सा मंदिर दिखाई दे रहा था | प्रांगण में कुछ और भी छोटी-छोटी इमारतें थीं और कुछ चीज़ें बेचने वाले भी विशाल वृक्षों की छाया में बैठकर छोटी-मोती चीज़ें बेच रहे थे |

हमें मंदिर के दर्शन करने लिए के जाया गया | छोटी सी अंधेरी सी कोठरी थी ,जिसके बाहर ¾ सीढ़ियाँ भी बनी हुई थीं | अंदर जाने की वहाँ किसी को भी आज्ञा नहीं थी | अंदर झुटपुटे से में दो पुजारी जैसे व्यक्ति बैठे थे जो दर्शन करने वालों के पैसे चढ़ने के पश्चात उनके हाथ में एक प्रसाद की पुड़िया देते और उन्हें आगे बढ़ने का इशारा करते |

हम तो वी. वी. आई. पी ग्रुप में थे ,सोचा ---स्पेशल ट्रीटमेंट मिलेगा लेकिन हमें भी ऐसे ही खदेड़ दिया गया जैसे सबको खदेड़ा जा रहा था | ठीक भी था ,भगवान का घर था,सभी के लिए एक जैसा व्यवहार अपेक्षित होना ज़रूरी होना चाहिए था |

गर्मी के कारण बेहद घबराहट हो रही थी |हमें अपने साथ लाने वाले मित्रों ने बताया कि उस दिन कोई विशेष दिवस होने के कारण इतनी भीड़ थी , बलि चढ़ाने का समय हो रहा था इसीलिए पुजारी लोग जल्दी–जल्दी दर्शन करवा रहे थे |

हम प्रांगण देख रहे थे | अचानक मेरी दृष्टि लगातार आते हुए ऐसे कमज़ोर,दुबले-पतले बकरे,बकरियों पर पड़ी जिन्हें एक-एक आदमी चारपाई की पुरानी रस्सी या पुरानी डोरी से खींचकर ला रहे थे | एक-एक करके उन्हें मंदिर के ठीक सामने वाले बड़े से वृक्ष के तने से बांधा जा रहा था |

एक,दो,तीन ,चार -----अरे! वो लगभग पंद्रह बकरे,बकरियाँ थे जिनके गले में पीले फूलों की माला जिनमें फूल कम और डोरी अधिक थी लटकाई गईं थीं | पहले तो समझ ही नहीं आया ,बाद में पता चला ,उनकी ही तो बलि दी जाने वाली थी और उन्हें लाने वाले वे लोग थे जिन्होंने मान्यता मांगी होंगी जिन्हें पूरी हो जाने पर वे यहाँ आए थे |

अब उन सबको देखने की मेरी दृष्टि बदल चुकी थी | उन निरीह प्राणियों की आँखों में भय की परछाई स्पष्ट दिखाई दे रही थी | मेरा मन काँप उठा और अब मुझे समझ आया कि देवी के उस छोटे से कोठरी जैसे अंधियारे मंदिर के बाहर की सीढ़ियों पर वे रोली के नहीं रक्त के धब्बे थे |

मन असहज हो उठा, उन निरीह प्राणियों की भय से भरी दृष्टि मेरा पीछा करती रही | क्या वे निरीह प्राणी इसीलिए जन्मे थे ? मन को प्रश्न कुरेदते रहे ,मैं उनका कोई उत्तर न पा सकी थी | लेकिन मुझसे वह प्रसाद ग्रहण नहीं किया गया | मैं उस पुड़िया को वृक्ष के नीचे रखकर नीचे उतर आई जहाँ सब गाड़ियों के पास खड़े वहाँ से चलने की प्रतीक्षा कर रहे थे |

सोचकर तो देखें ,उनका कसूर क्या ?

उनको भी हक़ जीने का ,मालिक ने ही दिया ----

आप सबकी मित्र

डॉ. प्रणव भारती