Sansaar ki sarvshreshth dhyan pranaliya - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

संसार की सर्वश्रेष्ठ ध्यान प्रणालियाँ - 2

भाग – २
(संसार के उच्चतम योगियों के उदहारण)
 
महान तिलकजी

ऐक बार महान स्वतंत्रता सेनानी श्री तिलकजी के हाथ पर फोड़ा हो गया जिसका आपरेशन होना था । उस आपरेशन से तिलकजी को बहुत दर्द होता। अतः डाक्टर ने उन्हे एनेस्थेसिया देना वाहा किन्तु तिलकजी ने मना कर दिया व उन्होंने डाक्टर को बिना ऐनेस्थेसिया के आपरेशन करने को कहा । तिलक देश के बड़े नेता व महान गणितज्ञ थे । डाक्टर ने आपरेशन प्रारम्भ किया और तिलकजी गणित का ऐक कठिन प्रश्न हल करने बैठ गए । उस प्रश्न हल करने में वे ऐसे तन्मय हो गए कि कब आपरेशन पूरा हो गया उन्हें मालूम तक नहीं पड़ा । यह ध्यान की ऐकाग्रता की कैसी उच्च अवस्था है !

स्वामी रामतीर्थ ऐक महान गणितज्ञ व प्रोफेसर थे । ऐक बार सौगंध खाकर वे गणित का ऐसा प्रश्न हल करने में जुट गए जिसे पूरे विश्व मे कोई हल नही कर सका था । उन्होने प्रतिज्ञा की कि वे या तो सूर्योदय के पूर्व उस प्रश्न को हल कर लेंगे अथवा आत्महत्या कर लेंगे ।

वे रात भर उस प्रश्न को हल करने के लिए पचते रहे किन्तु उसे हल करने मे असफल रहे । सुबह होने पर ज्योही वे अपने प्राण अपने ही हाथों लेने को तैयार हुए कि उस प्रश्न का हल उनकी आंखों के सामने कौंध गया ।

समस्त गणित जगत में उनके नाम की प्रसिद्धि फैल गई ।

वे गणित के प्रोफेसर थे व बाद में संन्यास लेकर आत्मज्ञानी स्वामी बन गए । वे कहते थे कि दुनिया मे जितने महान आविष्कार हुए, वे अनजाने में आविष्कारक की गहन ध्यान की अवस्था में प्रवेश करने से हुए ।

वैज्ञानिकों का ध्यान

मित्रों, संसार के सर्वश्रेष्ठ गणित अध्यापक स्वामी रामतीर्थ ने कहा था कि दुनिया में जितने भी महान गणित व विज्ञानं के अन्वेषण हुए हैं वे सब महान वैज्ञानिकों के जाने अनजाने रूप से गहन ध्यान में प्रवेश से ही संभव हुए हैं I

ऐक बार ऐक प्रसिद्ध वैज्ञानिक ट्रेन से कहीं जा रहे थे । जब टिकिट चेकर ने उनसे टिकिट मांगा तो उनके पास टिकिट नहीं था। इस पर चेकर ने उनका चालान बनाना चाहा।

चेकर ने उनसे उनका नाम पूछा किन्तु वे अपना नाम ही भूल गए। इस पर टिकिट चेकर ने उन्हे बदमाश समझ कर उनसे अनेक प्रश्न पूछे। किन्तु वह वैज्ञानिक अपने विचारों में ऐसे खोए हुए थे कि वे अपने निवास अथवा गंतव्य या अन्य किसी प्रश्न का कोई जबाब नहीं दे पाए।

चेकर बड़ी देर तक उन्हे प्रश्न पर प्रश्न पूछ कर परेशान करता रहा। उनके आसपास बड़ी भीड़ लग गई। आखिर में ऐक व्यक्ति ने उन्हे पहचानकर टिकिट चेकर को उनके महान वैज्ञानिक होने का परिचय दिया तब चेकर ने उन्हे स्वयं आदरपूर्वक उनके निवास तक पहुंचाया।

मित्रों यह घटना महान वैज्ञानिकों के गहन ध्यान की अवस्था में अनजाने में प्रवेश करने की सूचना देती है जहां ध्यानी अपने व्यक्तित्व को भूलाकर ऐक उच्चतर मानसिक क्षेत्र में लीन रहता है ।

ईसामसीह (करुणा व प्रेम के अवतार)

ईसामसीह बहुत महान संत हुए हैं । वे मानवता को प्रेम, क्षमा, करूणा व दया का अद्वितिय संदेश देते हें ।

मनुष्य को प्रभु का स्मरण करते हुए सबसे प्यार करना चाहिए, यह महान उपदेश उन्होंने अपने जीवन से हमें सिखाया ।

ऐक दिन ऐक पापी स्त्री को उन्मादियों की भीड़ पत्थरों से निर्दयतापूर्वक मार रही थी। ईश्वरपुत्र प्रभु उधर से गुजरे। उन्होने सबको रोकते हुए अत्यंत करूणापूर्ण वाणी में कहा, ‘‘ क्रपया सभी लोग रूक जाएं । अब पहला पत्थर वह मारे जिसने कभी पाप न किया हो । ’’

प्रभु के करूणा भरे वचनों को सुनकर सभी के हाथ रूक गए ।

क्षमा बहुत बड़ा गुण है । वे कहते थे, ‘‘ पाप से घ्रणा करो, , पापी से नहीं ’’।

उनका हृदय कैसा विशाल था ! हमें अपने पभु के बताए सभी आदेशों का पालन करके अपना जीवन दिव्य बनाना चाहिए ।

बाईबिल में ऐक जगह ठीक वही बात कही है जो वेदों का सार हेै, 

‘ बी स्टिल एंड नो देट आइ ऐम गाड ‘

अर्थात ‘ शांत होकर जानो कि मैं ईश्वर हूं । ’

‘ मैं ’ का सच्चा स्वरूप ही ईश्वर है । यही वेदांत भी कहता है ।

‘‘ द किंगडम आफ हेवेन इज विदिन ’’

स्वर्ग का साम्राज्य आपके अंदर है । ईसाई धर्म व हिन्दु धर्म का सार ऐक ही है ।

प्रभु ईसामसीह को जब सूली पर चढ़ाया गया तो वे गहन समाधि में प्रवेश कर गए जिसमे

साधक को अपने शरीर मन का बोध नहीं रहता I समाधि के अंत में वे पुनः जाग कर सामान्य हो गए जिसे यीशू का मरने के बाद जीवित हो उठना कहा जाता है I

भारत में ऐसे एक नहीं अनेक संत देखे गए हैं जो समाधि में जाने के बाद बाह्य रूप से मर जाते हैं किन्तु समाधि के समाप्त होते ही वे पुनः सामान्य रूप से जीवित अवस्था में लौट आते हैं I

 


जड़भरत

जड़़भरत ऐक अत्यंत उत्क्रष्ट कोटि के संत हुए हैं ।

वे शरीर ज्ञान से परे आत्मलीन संत थे । अपनी उच्च अवस्था को छिपाये रखने के लिए वे पागलों का सा व्यवहार करते थे । उन्हे जो मिलता, वे खा लेते ; फटे कपड़े पहन लेते व रास्ते में चाहे जहां पड़े रहकर न जाने क्या बड़बड़ करते रहते । सब लोग उन्हें पागल समझते थे ।

ऐक बार वे रास्ते में पड़े पागलों सी हरकतें कर रहे थे तभी उधर से राजा की पालकी निकली । ऐक कहार के बीमार हो जाने से अन्य कहारों ने बलिष्ठ भरत को पालकी उठाने के लिए पालकी के में जोत दिया । भरतजी के अनुभवहीन होने से पालकी झोले खाने लगी ।

इस पर राजा क्रोधित होकर भरतजी से कहने लगा, ‘ ऐ मोटे ! क्या तू ठीक से पालकी भी नहीं उठा सकता ? तुझे इतनी भी समझ नहीं कि ऐक राजा को कष्ट न हो, इसका ध्यान रख सके ? ’

इस पर भरतजी बोले, ‘ इस प्रथ्वी पर सभी मनुष्य ऐक जैसे पंचतत्वों के बने हैं । यहां न कोई राजा है न रंक । ये सारे भेद मन के बनाए हुए हैं । हे राजन ! आत्मा न मोटा है न पतला । ये सब अंतर शरीर को लेकर है । मेरा, तुम्हारा शरीर व पालकी सभी पंच तत्वों से बने हैं । आत्मा देश काल व्यक्ति की सीमाओं से परे है। मैं आत्मस्वरूप आनंदस्वरूप आत्मा हूं व तू भी वही है । ’

राजा ने जब जड़भरत के उच्चज्ञान की वाणी सुनी तो वह तत्काल पालकी से उतरकर उनके चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगा । उसने महात्माजी को अपने महल में लाकर सम्मानित किया व उनसे आत्मज्ञान का उपदेश सुना ।

संत अष्टावक्र

संत अष्टावक्र जब गर्भ में थे तो ऐक दिन उनके पिता करोड़ वेदमंत्रों का उच्चारण कर रहे थे ।

अष्टावक्र ने गर्भ में रहते हुए ही पिता के मुख से सुने हुए समस्त ज्ञान को प्राप्त कर लिया था । उन्होने अपने पिता द्वारा बोले जा रहे श्लाकों के उच्चारण में गर्भ से ही गलती बता दी । इस पर क्रुद्ध होकर पिता ने अपने ही पुत्र को आठ जगह से टेढ़े हो जाने का श्राप दे दिया व जीवन भर उसका मुंह न देखने की सौगंध खाकर अपना घर त्याग दिया ।

करोड़ ने राजा जनक के दरबार में पहुंचकर वहां के सबसे विद्वान पंडित को शास्त्रार्थ की चुनौती दी । उस महापंडित को कोई भी शास्त्रार्थ में नहीं हरा पाया था ।

शास्त्रार्थ में हारने वाले को आजीवन कारावास की शर्त पर शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ जिसमें करोड़ की हार हुई व उन्हें कारावास में डाल दिया गया ।

मुनि अष्टावक्र बचपन से ही बड़े मेधावी थे व उन्होंने कम उम्र में ही समस्त ज्ञान प्राप्त कर लिया । जब भी वे अपनी माता से अपने पिता के विषय में पूछते तो वह टालमटोल कर जाती व फूटफूटकर रोने लगती ।

ऐक दिन बालक ने माता से जिद पकड़ ली कि व कहा, ‘‘ मै तब तक खाना नहीं खाउंगा जब तक आप मुझे अपने पिता के विषय में विस्तार से नहीं बता देती ।’’

तब माता ने उन्हे सारी आपबीती सुना दी । बालक अष्टावक्र बड़ी फुर्ति से उठे व जनक के दरबार की ओर चल दिए। उनकी माता ने उन्हें रोकने की बड़ी मिन्नतें की किन्तु वे नहीं रूके व सीधे राजा जनक के दरबार में जा पहुंचे । अष्टावक्र ने जब दरबार में प्रवेश किया तो उस विचित्र आठ जगह

से टेढ़े मेढे बालक को देखकर राजा सहित सभी सभासद जेारों से हंसने लगे। सब को हंसता देखकर वह मेधावी बालक भी जोरों से हंसने लगा ।

राजा ने अष्टावक्र से हंसने का कारण पूछा । इस पर बालक ने प्रतिप्रश्न करके राजा से हंसने का कारण पूछा । राजा और दरबारियों ने कहा, ‘ हमने अपने जीवन में ऐसा आठ जगह से टेढ़ा जीव पहली बार देखा इसलिए हम सब हंस रहे हैं । ’

इस पर अष्टावक्र ने तपाक से जबाब दिया ‘ आप सब चर्मकार हो, इसलिए मैं हंस रहा हूं ।’

पूरी सभा में सन्नाटा छा गया ।

कुछ समय बाद अपने अपमान से पीड़ित राजा ने कहा, 

‘ हे बालक ! आप यह बताइये कि हम सब चर्मकार कैसे हो गए ? ’

तब उस बालक ने कहा, ‘ जहां चमड़े से बने शरीर के द्वारा मनुष्य की विद्वत्ता की परीक्षा की जाती हो, वहां चर्मकार के अलावा कौन हो सकता है ?’

उस विद्वान बालक की बात सुनकर सब लोग झेंप गए व राजा ने उन्हे सम्मान से उच्च आसन पर आसीन किया ।

अष्टावक्र ने राजा के दरबार के महापंडित को शास्त्रार्थ की चुनौती दी । वहां उपस्थित सभी दरबारियों ने उसे समझाने का प्रयास किया किन्तु बालक अपनी चुनौती पर डटा रहा । फलस्वरूप हारने वाले को म्रत्युदंड की चुनौती की शर्त पर वादविवाद प्रारंभ हुआ ।

अष्टावक्र ने प्रथम प्रश्न से अंतिम प्रश्न तक हर बिंदु पर महापंडित को शास्त्रार्थ में परास्त कर दिया ।

राजा ने बालक का लोहा मानकर उसे सम्मानित किया ।

शर्त के अनुसार पंडित को म्रत्युदंड की तैयारी की गई किन्तु अष्टावक्र के अनुरोध पर उसे क्षमादान दे दिया गया व बालक के पिता को ससम्मान मुक्त कर दिया गया ।

राजा जनक ने अष्टावक्र से कुछ दिव्य अनुभूति की याचना की ।

इस पर अष्टावक्र ने ऐक घोड़ा बुलवाकर राजा को उस पर सवार होने को कहा ।

राजा जब उस अश्व पर चढ़ने की मुद्रा में था कि तभी अष्टावक्र ने प्रश्न किया, ‘ ऐ राजन ! रूक जा । ठीक से सोचकर बता कि कौन सवार व कौन वाहन है ? ’

आत्मज्ञान को परिलक्षित करते हुए इस चेतावनी भरे प्रश्न को सुनते ही राजा जनक को समाधि लग गई ।

उसे उस दिव्य ज्ञान की तीव्र अनुभूति हुई जिसके विषय में विद्वान सिर्फ चर्चा ही करते थे ।

बाद मे मुनि अष्टावक्र के उपदशों के संग्रह का ऐक अनुपम ग्रंथ प्रकाशित हुआ जिसे अष्टावक्र गीता कहते हैं ।

रमण महर्षि

बालक रमण की कहानी अध्यात्म जगत की सबसे अद्भुत घटना है जिसमें ऐक बालक को बिना कोई जप, तप किये या किसी प्रकार का योग ध्यान किऐ स्वयं की म्रत्यु का दर्शन कर अध्यात्म की सर्वोच्च अवस्था ‘‘ सहज समाधि ‘‘ प्राप्त हुई । जब 17 वर्ष के थे तब ऐक दिन उन्हें म्रत्यु के भय ने घेर लिया। उन्हे लगा कि उनकी म्रत्यु होने वाली हैं।

उन्होने धैर्य रखकर स्वयं के मरने की क्रिया का निरीक्षण प्रारंभ किया। उन्होंने महसूस किया कि ‘‘ मैं ’’का अस्तित्व म्रत्यु के बाद भी बना रहता है । ‘ मै ’ की मौत नहीं होती। उस दिन के बाद वे अपने देह व मन की सुधबुध भूलकर सहज समाधि की उच्चतम अवस्था में, आत्मलीन अवस्था में लीन रहने लगे।

वे ऐक ही जगह बिना खाये पीये पत्थर के समान बैठे रहते। उसी अत्युच्च आध्यात्मिक अवस्था में वे तिरूवन्नामलाई आ गए।

वे बिना कपडे पहने ऐक ही जगह बिना हिले डुले बैठे रहते। बदमाश लडके उन्हे पत्थर मारते । उनके पूरे शरीर में घाव हो गए।

उन्हे न दिन का भान रहता, न रात का, न उन्हे खाने पीने का भान रहता। उनके पूरे शरीर पर कीडों ने घर बना लिया । उनके पूरे शरीर को कीड़े मकोड़ों ने खा लिया I उनका शरीर एक नरकंकाल में बदल गया I फिर ऐक साधू ने उनकी उच्च अवस्था को पहचानकर उनकी सेवा सुश्रुसा करना शुरू किया तब जाकर उनकी देह की रक्षा हुई । बाद मे वे भयानक हिंस्र जीवों से घिरी अरूणाचल पर्वत की विरूपाक्ष गुफा मे सहज समाधि में लीन रहने लगे। इतिहास में बिना प्रयास सर्वेच्च आध्यात्मिक अवस्था का ऐसा उदाहरण मिलना अन्यत्र दुर्लभ है।

रमण महर्षि ध्यान का ऐक ही सूत्र बतलाते थे, ‘ यह खोजो कि मै कौन हूं। ’

इस प्रकार अनुसंधान करने पर आप पाऐंगे कि न आप शरीर हो, न मन, बुद्धि, चित्त या अहंकार हो । इस खोज के अंत में जो तत्व शेष रहता है वह सत चित आनंद स्वरूप आत्मा ही वास्तव में मैं का सच्चा स्वरूप है ।


मस्तराम बाबा

ऐक बार मैंने सन्यास लेकर सत्य की खेाज हेतु अपना शेष जीवन समर्पित करने का विचार किया। मैं उन दिनों जवान था।

सन्यास लेने के पूर्व मैंने अच्छे सिद्ध संतों से मिलने का विचार किया। मैं ऋिशिकेष पहुंचा । मैने वहां एक साधु मस्तराम बाबा के विषय मे काफी सुना था।

मैं उनके दर्शन करने गंगा किनारे उनके आश्रम मे पहुंचा। वे करीब 50 वर्ष के अच्छी कद काठी के बडे़ सुंदर शरीर वाले संत थे । गंगा किनारे दो चटृानो के बीच की खाली रैतीली जमीन व ऊपर आसमान ही उनका आश्रम था ।

कई चेलों ने उन्हे पक्का सुसज्जित आश्रम बनाने का प्रस्ताव दिया किन्तु उन्होने अस्वीकार करके खुले आसमान की छाया तले रहने को चुना । वे सदैव चटृान के सहारे बैठ कर सिर हिलाकर मस्ती मे झूमते रहते थे । वे कोई भजन, , जप, , तप, पूजापाठ, ग्रंथ पारायण न खुद करते और न उनके आश्रम मे कोई भक्त करता । वे पूरे वेदांती संत थे । फिर भी वे रहस्यमयी व्यक्ति प्रतीत होते थे । अलबत्ता उनके सामने कोई स्त्री कबीर की उलटबांसियां जरूर पढ़ती रहती । किन्तु एक विचित्र बात यह थी कि वे सदैव स्त्री भक्तों से घिरे रहते व यहां तक कि किसी स्त्री की गोद मे सिर रखकर लेते रहते व हंसी मजाक करते रहते थे । वे अपने स्त्री भक्तों से चुहुलबाजी करते रहते थे । वे पुरूषों की तरफ़ देखते तक नहीं न उनसे बात तक करते ।

इसलिए जनसमुदाय मे उनके विषय मे गलत अफवाहें फैली हुई थी । अनेक लोग उन्हें लंपट समझते थे। ऋषिकेश आने के पूर्व वे स्वयं से बेखबर धूल में लेटे रहते थे । किसी ने उनकी उच्च अवस्था को पहचानकर गंगा के किनारे लाकर बैठा दिया ।

मैं उनके सामने जाकर श्रद्धा से बैठ गया किन्तु बात करना तो दूर, संत ने मेरी तरफ देखा तक नही । वे उनकी स्त्री भक्तो से बतियाते व उनकी गोद मे बार बार सिर रखकर सोते रहते । इस पर मुझे बहुत बुरा लगा । मै अनेक बार उनके आश्रम में गया किन्तु संत ने मेरी ओर देखा तक नहीं ।

ऐक दिन बडे सवेरे मै संत के आश्रम में गया । वहां कुछ शिष्य बैठे हुए थे । मैंने संत को ताना मारते हुए कहा, ‘ शहर मे एक लड़की गुम हो गई है।

लोग कह रहे हैं कि यह काम मस्तराम बाबा का है। ’

वास्तव में पुरे शहर में एक लड़की के गायब होने पर एसी अफवाह फैली हुई थी I

इतना सुनने पर आश्रम मे सन्नाटा छा गया। हर कोई चुप हो गया। एक भक्त ने मुझे डांटने व मारने के लिए दौड़ा किन्तु बाबा ने उसे रोक दिया । सब लोग वहां बहुत देर तक चुप बैठे रहे। वह मौन बड़ा तीव्र था । मुझे बाबा के इस मौन ने ऐसा प्रभावित किया कि मैंने बाबा के पैर छूकर उनसे अपने दुर्व्यवहार के लिए माफी मांगी।

मैं कुछ दिन तक मस्तराम बाबा के यहां जाता रहा । एक दिन जब मैं आश्रम पहुंचा तो बाबा गंगा मे तैरते हुए खेल रहे थे। वे एक बच्चे के साथ एक बहते हुए लकड़ी के लट्ठे को बार बार पकड़कर उस पर चढ़ने उतरने का प्रयास करते । इस प्रयास मे वे बार बार तेज बहते पानी मे गिरते रहे। वे बीच बीच मे इस खेल का मजा लेकर हंसते रहते ।

कुछ देर बाद जब मैं लौट रहा था तो मैने आश्रम मे एक छोटे बालक को मूर्तिवत् बैठे देखा । वह गहन समाधि मे था । मैने एक भक्त से पूछा कि इस बालक को क्या हुआ है ?

उसने कहा- ‘इसे बाबा ने छडी मार दी है । यह अब तीन दिन तक इसी तरह गहन समाधि मे बैठा रहेगा । ’

अर्थात बाबा मे समाधि देने की असाधरण सिद्धि थी जो बहुत ही कम संतों को होती है।

बाबा ने अपना असली रूप लोगों से छिपा रखा था । वे बड़े सिद्ध संत थे ।

विवेकानंद 1

विवेकानंद का बचपन का नाम नरेन्द्र था। नरेन्द्र ने महाकवि वर्ड्सवर्थ की कविताऐं पढी थी। कवि प्रक्रति को देखकर समाधिस्थ हो जाया करते थे। नरेन्द्र ऐसे साधू की खोज करने लगे जिसे समाधि लगती हो। ईश्वर दर्शन शरीर मन से परे चेतना की अयस्था समाधि मे होता है ।

उन्हें जो साधू मिलता उससे वे पूछते, 

‘ क्या आपने ईश्वर को देखा है ?’ इस पर हर साधू हक्का बक्का होकर निरूत्तर हो जाता । अनेक साधुओं से प्रश्न करने पर भी नरेन्द्र को जबाब नहीं मिला। उन दिनों अध्यात्म के क्षेत्र में प्रसिद्ध कवि रविन्द्रनाथ ठाकुर के पिताश्री देवेन्द्रनाथ ठाकुर का बड़ा नाम था।

ऐक दिन अर्धरात्रि के समय नरेन्द्र नदी पार करके उनके दर्शन के लिएं पहुंचे।

उस समय महर्षि ध्यानमग्न थे। जब उनका ध्यान टूटा तो उन्होने नरेन्द्र को

उस काली रात में ऐक भूत की तरह अपने सामने बैठा देखा जो पूरा भीगा

हुआ था। नरेन्द्र को इस तरह देख वे भौचक रह गऐ।

नरेन्द्र ने उन पर अपना वही प्रश्न दागा, ‘ क्या आपने ईश्वर को देखा है ? यदि हां तो क्या आप मुझे भी ईश्वर के दर्शन करा सकते हैं ?’

इस पर महर्षि से कोई उत्तर न देते बना।

बहुत समय गुजर गया लेकिन नरेन्द्र के प्रश्न का उत्तर देने वाला नहीं मिल रहा था। ऐक दिन नरेन्द्र ने काली मंदिर के पागल पुजारी परमहंस रामक्रष्ण के विषय में सुना जो प्रायः समाधिस्थ हो जाया करते थे। नरेन्द्र शीघ्रता से काली मंदिर के उस पुजारी से मिलने चल दिऐ।

रामक्रष्ण ने नरेन्द्र को देखते ही आनंदविभोर होते हुऐ कहा, ‘ तू आगया। मै तेरी ही प्रतीक्षा बड़ी बेसब्री से कर रहा था।

मैने ऐक दिन तुझे प्रथ्वी की ओर आते हुऐ तारे में देखा था जो दिव्यलोक से आ रहा था। ’

नरेन्द्र ने रामक्रष्ण से भी वही अपना चिर परिचित प्रश्न पूछा, ‘ क्या आपने ईश्वर को देखा है ? क्या आप मुझे भी ईश्वर के दर्शन करा सकते हैं ?’

इस पर रामक्रष्ण ने तपाक से उत्तर दिया, ‘ हां मैने ईश्वर को उसी तरह देखा है जैसे मै तुम्हे देख रहा हूं और यदि तुम मेरे बताऐ मार्ग पर चलो तो में तुम्हे भी ईश्वर के दर्शन करा सकता हूं। ’

नरेन्द्र के जीवन में पहली बार कोई साधू मिला जिसने उसके प्रश्न का उत्तर बेहिचक होकर पूरे आत्मविश्वास से दिया। अब नरेन्द्र अनेक दिन तक रामकष्ण के यहां जाकर उनकी दिनचर्या व उनकी साधना पद्धति को जानने का प्रयास करने लगे।

ऐक दिन नरेन्द्र बड़ी खीज दिखाते हुऐ रामक्रष्ण से बोले, ‘मै इतने दिन से आपके यहां आ रहा हूं किन्तु आपने अपने वादे के अनुसार मुझे ईश्वर के दर्शन नहीं कराऐ हैं। ’

इस पर रामक्रष्ण ने नरेन्द्र की छाती पर अपना पैर रख दिया। नरेन्द्र बड़े जोर जोर से चिल्लाने लगे, ‘बचाओ, बचाओ ’

रामक्रष्ण ने अपना हाथ उनके वक्षस्थल से हटा लिया। तब कहीं जाकर नरेन्द्र सामान्य हो पाऐ।

हुआ यूं कि रामक्रष्ण के स्पर्श से नरेन्द्र की चेतना भगवान की अनंत सत्ता में विलीन होने लगी I अपने अतित्व को मिटता देख वे बुरी तरह से घबराकर चिल्लाने लगे।

नरेन्द्र को ईश्वरीय अनंत सत्ता की झलक मिल चुकी थी ।

विवेकानंद 2

नरेन्द्र (विवेकानंद के बचपन का नाम) के पिता के निधन के बाद उन पर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा। उनके पिता बड़े वकील थे व उनकी अच्छी खासी आमदनी थी । घर में कभी रूपये पैसे की तंगी नही हुई। किन्तु उनके निधन के साथ सब कुछ बदल चुका था। पूरी ग्रहस्थी का भार नरेन्द्र के कंधों पर आ पड़ा था। सगे संबंधियों ने उन्हे सम्पत्ति संबंधित मुकदमों में उलझा दिया था, सो अलग। अनेक प्रयास के बावजूद नरेन्द्र को कोई छोटी कामचलाऊ नौकरी तक नहीं मिल रही थी।

उनके परिवार को खाने के लाले पड़े हुऐ थे ।

श्रीरामक्रष्ण को उनके दूसरे शिष्यों ने नरेन्द्र की मुसीबतों के विषय में बतलाया ।

इस पर ऐक दिन अर्धरात्रि को रामक्रष्ण ने नरेन्द्र से कहा, 

‘‘ आज रात को काली मंदिर में माता साक्षात् विराजमान हैं। तू माता से जो मांगेगा वही मिलेगा। तू आज माता से प्रथ्वी और स्वर्ग का साम्राज्य भी मांगेगा तो भी निष्चित ही मिलेगा । ’’

नरेन्द्र उसी समय काली मां के सम्मुख गऐ व भावविभोर होकर प्रार्थना करने लगे, , ‘ हे माता ! मुझे ज्ञान दो, , मुझे भक्ति दो, मुझे वैराग्य दो। ’

वे अपने गुरू के पास लौट आऐ। रामक्रष्ण ने पूछा, ‘ नरेन्द्र तूने मां से क्या मांगा ?’

नरेन्द्र ने कहा, ‘गुरूदेव मैने मां से भक्ति, ज्ञान व वैराग्य मांग लिया। ’

गुरूदेव ने नरेन्द्र को सावधानीपूर्वक समझाते हुऐ पुनः मां के पास अपनी सांसारिक समस्याओं का हल मांग लेने के लिऐ भेजा।

नरेन्द्र जैसे ही माता के पास पहुंचे उन्होने पुनः भावविभोर होकर सबकुछ भूलकर अपनी पुरानी प्रार्थना दोहरा दी।

रामक्रष्ण ने नरेन्द्र को इस तरह तीन बार माता के सम्मुख भेजा और तीनों बार नरेन्द्र ने वही प्रार्थना दोहराई। तब रामक्रष्ण ने कहा, ‘‘ नरेन्द्र तू अब संसार करने के काबिल न रहा । तू साधू बनने के ही योग्य है।’’

शीघ्र ही वैराग्य लेकर नरेन्द्र स्वामी विवेकानंद बन गए ।

कृष्णमूर्ति

ऐनीबेसेन्ट ने क्रष्णमूर्ति को आने वाले आधुनिक युग का मसीहा घोषित किया था।

उन्होने भविष्यवाणी की कि क्रष्णमूर्ति के द्वारा मैत्रेय ( बुद्ध) की आत्मा विश्व को ऐक नया संदेश देगी। इस कार्य के लिए पूरे विश्व में बड़े उच्च स्तर की तैयारियां की गई । पूरी दुनिया में हजारो आश्रम बनाऐ गऐ, उनके लाखों शिष्य बन गऐ । सम्पूर्ण विश्व भर के मीडिया ने आने वाले मसीहा का धुआंधार प्रचार किया गया I इस कार्य के लिऐ अकूत धन ऐकत्रित हुआ किन्तु जिस दिन क्रष्णमूर्ति को जगदगुरू के सिंहासन पर स्विट्ज़रलैंड में आसीन किया जाना था उन्होने उसी दिन उस विश्व मसीहा के पद व सम्पूर्ण आयोजन को ठुकरा दिया। उन्होने विश्व भर मे फैले आश्रम, लाखों शिष्य, अकूत दौलत, पूरे संसार का चमचमाता मीडिया एवं प्रसिद्धि सब कुछ त्याग दिया I वे ऐक भी पैसा लिऐ बिना इस अनजान खतरनाक दुनिया में विदेश की उस अनजान धरती परं सत्य का संदेश देने अकेले निकल पड़े। वे चेतना के अत्यंत उच्च धरातल पर थे । वे आत्मा, परमात्मा, पुनर्जन्म, धार्मिक मान्यताओं को नहीं मानते थे। फिर भी वे अध्यात्म की उच्चतम. स्तर पर थे। उन्हें किसी चिड़िया, नदी, व्रक्ष आदि को देखकर समाधि लग जाती थी। क्रष्णमूर्ति के अनुसार मन की समझ से मन रिक्त हो जाता है व उसमें दिव्यता व सत्य के साक्षात्कार की सम्भावना हो जाती है।

क्रष्णमूर्ति २

क्रष्णमूर्ति ने अध्यात्म के क्षेत्र में अत्यंत आंदोलनकारी अन्वेषण करके आज तक निर्विवाद सत्य समझे जाने वाले सभी स्थापित मतों व विचारों को जड़ से हिलाकर रख दिया है, इतना ही नहीं उन्हें सिरे से नकार दिया है । उनके अन्वेषण के प्रमुख निम्न बिन्दु हैं:

1 कंडीशनिन्ग: क्रष्णमूर्ति के अनुसार मनुष्य को बचपन से ही अनेक विचारों यथा ईश्वर, धर्म, नैतिकता, ऊंच नीच, अच्छा बुरा, स्वर्ग नर्क आदि अनेक कांसेप्ट से प्रतिबद्ध कर दिया जाता है जिससे वह मशीन के समान प्रतिक्रिया करता है।

2 मानव मन हमेंशा भूतकाल या भविष्य में रहता है, वर्तमान में नहीं।

3 वे ईश्वर, पुनर्जन्म, आत्मा आदि सदियों से चले आ रहे विचारों पर प्रश्न चिन्ह खड़े करते हैं।

4 उनके अनुसार आज का अध्यात्म पांच हजार सालों से चली आ रही अंधी परम्पराओं का प्रचार मात्र है।

मनुष्य को भूतकाल से मुक्त होकर वर्तमान में बाह्य व आंतरिक रूप से सजग रहना चाहिए । उनका सबसे बड़ा आविष्कार मन के प्रति सजगता व उसकी पूर्ण समझ हैं । ध्यान के लिए यह पर्याप्त है।

ध्यान की क्रिया मन व शब्दों के पार जाती है। इस पर अधिक लिखना मन की परिधि के अंदर की बात है । अतः स्वयं के अन्तर्मन को खोजो, यही ऐकमात्र सूत्र है।