Sansaar ki sarvshreshth dhyan pranaliya - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

संसार की सर्वश्रेष्ठ ध्यान प्रणालियाँ - 3

भाग – तृतीय
(ध्यान पर गंभीर वैज्ञानिक प्रयोग)
 
मै शरीर व मन कैसे नहीं ?

मैंने अपनी युवावस्था में ध्यान के बहुत प्रयास किए । मैं नित्य जंगल के अंदर जाकर ध्यान करता । कभी नदी के किनारे ऐकांत में, तो कभी किसी चट्टान पर ध्यान करता । फिर किसी दिन किसी पहाड़ी की चोंटी पर ध्यान का प्रयास करता । किन्तु मैं असफल रहा ।

ऐक दिन मैं इंदौर के वेदांत आश्रम में गया जहां साधू लोग आगंतुकों को वेदांत का उपदेश दिया करते थे ।

ऐक संत मुझे उपदेश देने लगे:

यह खेाज करो कि कि, ‘ मैं कौन हूं ? ’

मैने कहा ‘ मैं यह शरीर हूं । ’

उन्होने कहा ‘ आप शरीर नहीं, शरीर के द्रष्टा हो । द्रष्टा द्रष्य से अलग होता है । ’

मैं इस तर्क से सहमत नहीं था । उस आश्रम में तर्क की कोई जगह नहीं थी । वहां प्रश्न पूछने पर समझ में न आने वाले उत्तर दिऐ जाते थे । गुरू वाणी ही अंतिम सत्य था । किन्तु मै ठहरा विज्ञान गणित का अध्यापक जो किसी बात को तर्क व प्रयोग की कसौटी पर कसे बिना किसी बात को मानने को तैयार नहीं था ।

वे आगे कहने लगे ‘ जैसे आप व्रक्ष को देखते है । आप उसके द्रष्टा हो । आप व्रक्ष नहीं हो, क्या आप व्रक्ष हो ? इसी प्रकार द्रष्टा द्रष्य से प्रथक होता है ।

‘ मैं ’ शरीर, मन व बुद्धि का द्रष्टा होने से वह इन सबसे प्रथक सत् चित् आनंद स्वरूप आत्मा है ।

मैं का स्वरूप तो उन्होने बड़ा ही सुंदर अवश्य बतलाया था किन्तु मेरा वैज्ञानिक मन उसे स्वीकार करने को कतई राजी नहीं था । उनका तर्क वैसा ही था जैसे कोई व्यक्ति पूछे कि घर क्या है । साधू का कहना उसी प्रकार का था कि - ईंटे घर नहीं, दीवार घर नहीं, आंगन घर नहीं आदि । जबकि घर इन सबकी संयुक्त इ्रकाई है । मेरा कथन था कि मैं शरीर व मन का संयुक्त रूप हूं ।

किन्तु वे लोग मेरे तर्क से कतई सहमत नहीं थे ।

ऐक दिन आश्रम के सबसे बड़े गुरू अखंडानंदजी आए । वे अत्यंत व्रद्ध, बड़े ओजस्वी व्यक्तित्व

के धनी तथा बड़े सुंदर वक्ता थे । वे सदैव अनेक शिष्यों की भीड़ से घिरे रहते थे ।

ऐक दिन उन्हे बड़ी मुश्किल से अकेला पाकर मैं उनसे प्रश्न करने लगा ।

मैने कहा, ‘ स्वामीजी वेदांत मे ‘ मै ’ को शरीर मन व बुद्धि से प्रथक माना है । मेरी समझ में यह नहीं आता है कि में कैसे शरीर नहीं हूं । ’

इस पर वे संस्क्रत मे कहने लगे ‘ मैं ब्रम्ह हूं (अहं ब्रम्हास्मि ) ’।

मैने पलटकर अपने शरीर को बतलाते हुए कहा ‘ किन्तु मैं यह हूं ।

तीन बार उन्होने अपनी बात दोहराई और मैने अपनी ।

तब .अचानक क्रोधित होकर उन्होने मेरी नाक पर झपट्टा मारा । मै तेज दर्द से कराह उठा। मै वहां से भाग खड़ा हुआ । मुझे बड़ी पीड़़ा हो रही थी । मैं सोच रहा था कि वे कैसे तामसी संत हैं जो महा क्रोधी हैं । जो संत आम लोगों को काम क्रोध से दूर रहने के उपदेश देते हैं वे स्वयं अन्दर से इन विकारों से भरे रहते हैं । उस रात जब मैं सोने लगा तो नाक मे दर्द तो था ही किन्तु मुझे कुछ अनुभूति हुई जैसे मैं अपनी नाक को महसूस कर रहा हूं वैसे ही एक अन्य स्तर पर मै समस्त ब्रम्हांड को महसूस कर रहा हूं । मुझे ऐसा लगा मानो किसी सूक्ष्म स्तर पर मैं ब्रम्हांड हूं । यद्यपि यह कुछ अस्पष्ट अनुभूति थी ।

कुछ गंभीर प्रश्न

ध्यान प्रक्रिया के परिणामों को लेकर बहुत कम रिसर्च हुई है ।

प्राचीन ग्रंथों का हम पूर्ण सम्मान करते हैं किन्तु साथ ही इस क्षेत्र में वैझानिक अनुसंधान की बहुत आवश्यकता है ।

यहां कुछ प्रश्न आवश्यक हैं जिनके उत्तर खेाजने की महती आवश्यकता है:

1 ध्यान का शरीर की क्रियाओं पर क्या प्रभाव पड़ता है ?

2 ध्यान का मन पर क्या प्रभाव पड़ता है ?

3 क्या ध्यान के साथ आनंद और शांति की प्राप्ति होती है ?

4 क्या ध्यान मानसिक तनाव दूर करता है ?

5 क्या ध्यान से मानसिक बुराइयां दूर हो सकती है ?

6 क्या ध्यान से बुद्धि का विकास होता है ?

7 क्या मन वाणी से परे अवस्था है? क्या ध्यान द्वारा उसे प्राप्त किया जा सकता है ?

आदि अनेक प्रश्नों के उत्तर खोजे जाने की आवश्यकता है ।

इस कार्य मे यह कठिनाई आ सकती है कि प्रयोग के समय ध्यान की उच्च अवस्था का घटित होना एक कठिन कार्य है क्योकि यह स्वयमेव क्रिया है । प्रयोग के लिऐ ध्यान की अत्युच्च अवस्था में इच्छानुसार प्रवेश करने की क्षमता रखने वाले योगी के बिना वैज्ञानिक प्रयोग नहीं किये जा सकते । साधारण ध्यानकर्ता के लिए अपनी इच्छानुसार किसी भी समय गहन ध्यान में प्रवेश करना बहुत मुश्किल कार्य है।

मैं क्या हूं ?

यद्यपि मैने युवावस्था में वेदांत में वर्णित‘ ‘ मैं ’ के स्वरूप को स्वीकार करने मे कठिनाई महसूस की हो किन्तु जैसे जैसे मेरी समझ विकसित हुई मुझे समझ में आने लगा कि वेदांत के तर्क में भी दम हो सकता हे कि मै शरीर, मन बुद्धि से भिन्न हो सकता है । किसी भी बात की ठीक से जांच पड़ताल किए बिना उसे अस्वीक्रत कर देना भी अवैज्ञानिकता है ।

जब मैने रमण महर्षि की जीवनी पढ़ी तो मेरी आंखे मानो खुल गई । १७ वर्ष की मासूम आयु में अपनी म्रत्यु का विचार करने पर वे समाधि में लीन हो गए । वे अनेक दिन तक बिना खाए पिऐ रहते । उन्हे कब दिन निकला, कब रात हुई, कुछ ज्ञात नहीं रहता । ऐसी अवस्था में शरीर का जीवित रहना संभव नहीं । शरारती बच्चे उन्हे पागल समझकर उन पर पत्थर बरसाते । उनके पूरे शरीर पर घाव हो गऐ व उनमें कीड़ो ने घर कर लिया । तब ऐक साधू ने उनकी परम दिव्य अवस्था को पहचानकर उनके शरीर की रक्षा की । वे पूर्णतया शरीर व मन के परे दिव्य अवस्था के साक्षात स्वरूप थे । रमण महर्षि की जीवनी ने मेरे वैज्ञानिक तार्किक मन को पूरी तरह से हिलाकर रख दिया । अब मैं पूरी तरह से आश्वस्त हूं कि मन व शरीर के परे ऐक दिव्य चेतना का अस्तित्व है व साधना के द्वारा उसका अनुभव किया जा सकता है ।

मैं कौन हूं ? मैं क्या हूं ?

ऐक व्यक्ति कहता है मैं डाक्टर हूं । किन्तु डाक्टर होना उसकी उपाधि है ।

क्या उपाधि के बिना उसका अस्तित्व नहीं है ?

कोई कहता है मैं धनी हूं, पेंटर हूँ आदि, किन्तु धनि व पेंटर ; ये सब आदमी के मुखौटे हैं ।

इस प्रकार सभी मुखौटों को अलग हटाने पर बिना उपाधि का ऐक अस्तित्व बच रहता है ।

इस स्वरुप की गहन खोज हमारे ध्यान का लक्ष्य है । यह कठोर परिश्रम व गहरी लगन का कार्य है।

यह अनुसंधान का विषय है कि शरीर मन, बुद्धि से परे चेतना में कैसे प्रवेश किया जाऐ ?

यह खेाज ही इस ग्रंथ को लिखने का ध्येय है ।

प्रयोग की उलझन

ध्यान के विषय में वैज्ञानिक प्रयोग करते समय ऐक उलझन यह हैं कि हमारे पास सबसे बड़े उपकरण हैं, हमारे मन व बुद्धि । ध्यान इनके पार जाता है । जिस क्षेत्र में मन व बुद्धि कार्य न करते हों उसमें आप प्रयोग कैसे करोगे ?

इसके समस्या का संभावित हल निम्न प्रकार से किया जा सकता है:

1 ध्यान के प्रारंभिक क्षेत्र में जहां तक मन बुद्धि सक्रिय रहते है, उस स्थिति का अध्ययन संभव है ।

2 गहन ध्यान के समय यद्यपि योगी की चेतना को समझना संभव न हो किन्तु उसके मस्तिष्क व शरीर में चल रही तरंगों या परिवर्तन पर अत्यंत सेंन्सिटिव वैज्ञानिक उपकरणों से प्रयोग किए जा सकते हैं ।

3 ध्यान की समाप्ति के समय भी योगी के मन शरीर में होने वाली क्रियाओं का अध्ययन किया जा सकता है ।

4 ध्यानी के स्वयं के अनुभव को नोट किया जाना चाहिऐे।

5 ध्यान के उच्च स्तर को छूने के पूर्व व बाद में ध्यानी के अनुभवों को सावधानी से नोट किया जाना चाहिऐ ।

चुम्बकत्व की क्रिया

चुम्बकत्व के सिद्धांत के अनुसार ऐक साधारण लोहे की छड़ में उसका हर परमाणु सम्पूर्ण चुम्बक होता है। किन्तु छड़ मे ये परमाणु अस्त व्यस्त तरीके से जमे होते है। इसके फलस्वरूप साधारण लोहा चुम्बकत्व प्रदर्शित नहीं करता।

जब किसी लोहे की छड़ को चुम्बक बनाने के लिऐ उस पर चुम्बक रगड़ा जाता है तो उसके परमाणु एक ही दिशा मे जमने शुरू हो जाते हैं। यह क्रिया तब तक चलती रहती है जब तक कि सारे अणु सुव्यवस्थित तरीके से नही जम जाते । तब वह चुम्बक बन जाता है I

यही क्रिया ध्यान साधना में होती है। साधना के द्वारा साधक के शरीर व मन दिव्यता के अवरोहण हेतु सुव्यवस्थित होना शुरू कर देते है। इस प्रक्रिया में साधक को बड़े दिव्य मधुर अनुभव होते हैं ।

इन्डक्शन

इन्डक्शन ऐक वैज्ञानिक क्रिया है । जब ऐक साधरण लोहे की छड़ के समीप किसी दूसरे मेगनेट को लाया जाए तो लोहे की छड़ मेगनेट के गुण प्रदर्शित करने लगती हैं । किन्तु मेगनेट को हटाते ही वह पुनः सामान्य लोहे के समान व्यवहार करने लगती है ।

इसी प्रकार जब किसी काइल के पास ऐक अन्य काइल लाकर किसी ऐक में विदुत करेंट को प्रवाहित किया जाए तो दूसरी काइल में विपरीत दिशा मे करेंट बहने लगता है ।

उपरोक्त दोनों उदाहरण विज्ञान के मुचुअल इन्डक्शन की क्रिया को प्रदर्शित करते हैं ।

इसी प्रकार ऐक सिंगल काइल में करेंट भेजने पर मुख्य करेंट के अपोजिट दिशा में ऐक प्रबल करेंट बहने लगता है । इसे सेल्फ इंडक्शन कहते हैं ।

ठीक यही क्रिया ध्यान के क्षेत्र में होती है । जब आप किसी सिद्ध संत के सान्निध्य में बैठते हैं तो आप ध्यान की दिव्य तरंगो की उपस्थिति महसूस करते हैं । जैसे रमण महर्षि के सामने बैठने भर से अपार शांति का अनुभव होता था ।

किसी भक्त को भगवान की प्रतिमा के देखने से या किसी को दिव्य ग्रंथ जैसे रामायण या गीता के पाठ से दिव्य अनुभव होता है । ये सब आध्यात्मिक इंडक्शन के उदाहरण हैं ।

इसी प्रकार अपने स्वरूप के अनुसंधान से दिव्य अनुभव का होना आध्यात्मिक सेल्फ इंडक्शन का प्रभाव है ।

ध्यान प्रक्रिया से आपके अंदर स्व इंडक्शन की क्रिया प्रारंभ हो जाती है ।

इंटिग्रेशन

गणित में इेटिग्रेशन की क्रिया को निम्न सूत्र द्वारा प्रदर्शित किया जाता है:

इंटिग्रल सूत्र ∫dx (limit 0 to infinity)

ध्यान साधना गणित के इन्टिग्रेशन सूत्र से बहुत साम्य रखती है।

इंटिग्रल आफ ऐक्स डीऐक्स = ऐक्स लिमिट 0 टू इन्फिनिटी । यह ऐक महायोग की क्रिया है।

ध्यान में भी साधक 0 से प्रारंभ करके साधना द्वारा अनंत में समाहित होता है।

वायरलेसदिव्य तरंगे

ध्यान करते समय एक योगी के शरीर व मन में दिव्य तरंगे उठती है ।

ये तरंगे वायरलेस तरंगो के समान होती है ।

इनकी निश्चित फ्रीक्वेंसी व वेवलेंथ होना चाहिए I इसी के साथ निश्चित ही इन तरंगो के साथ साधारण वायरलेस तरंगो पर लगने वाला रेजोनेंस सिद्धान्त का भी पालन होना चाहिए । जिस प्रकार तरंग प्रक्रिया में तरंग एमिटर व रिसेप्टर होते है वैसे ही ध्यान में गुरु अथवा भगवान तरंग एमिटर व् ध्यानकर्ता रिसेप्टर का कार्य करता है । हमें अनेक योगियों के सुदूर होने अथवा शरीर रहित होने के बाद भी ध्यानी को पूरी सहायता के अनेको उदाहरण मिलते है । विज्ञानं को इस क्षेत्र में अनुसन्धान होने चाहिए ।

रेजोनेन्स

फिजिक्स की वेव थ्योरी में रेजोनेन्स ऐक महत्वपूर्ण घटना है।

जब दो तरंगें समान AMPLITUDE व फ्रीक्वेंसी की एक ही दिशा में चलती हुई एक दुसरे पर आरोपित होती है तो परिणामी तरंग का AMPLITUDE बहुत बढ़ जाता है

यह दो तरंगों के बीच हो सकता है । जब दो तरंगों के बीच रेजोनेन्स होता है तो उनकी वेव लेन्थ बहुत बढ़ जाती है। इसी प्रकार जब ऐक ऐडाप्टर एक विशेष प्रकार की ट्यूनिंग से बनाया जाता है तो वह उसी प्रकार की वायरलेस तरंग को पकड़ लेता है।

रेजोनेन्स को प्रदर्शित करने के लिए मै रामायण का ऐक महत्वपूर्ण प्रसंग देना चाहूंगा।

जब हनुमानजी सीता माता की खोज में लंका में भटक रहे थे तब उन्होने वेष बदलकर रावण के भाई विभीषण से सहायता हेतु भेंट की । विभीषण हनुमान से पूर्व परिचित नहीं थे किन्तु उनके दर्शन से ही वे दिव्य भाव अनुभव करने लगे।

वे कहने लगे, ‘ हे ब्राम्हण देवता ! आप को देखते ही मुझे दिव्य भावों का अनुभव हो रहा है, आप निश्चित ही भगवान के भक्त होना चाहिऐ ! ’

तब हनुमान ने उन्हे स्वयं के रामभक्त होने का परिचय दिया। आगे कवि बड़ी सुंदर बात कहता है कि, ‘ ऐहि बिधि कहत राम गुनग्रामा पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा ’। इस प्रकार भगवान के गुणानुवाद करते हुऐ उनके मन को परम आनंद व विश्राम मिला।

यहां हनुमानजी व विभीषण दोनों की मानसिक तरंगों में रेजोनेंन्स हो रहा था । यह धटना दिव्य रिजोनेन्स का प्रदर्शन करती है।

क्रिटिकल पाइंट

गीता में भगवान ने कहा है, ‘ स्वाल्पातिस्वल्प योगस्य त्रायतो महतो भयात ’

अर्थात योग की थोड़ी साधना भी बड़ा लाभ करती है।

ध्यान का अभ्यास करते हुए ऐक ऐसी स्थिति आती है जब साधक के ध्यान में बैठने मात्र से ध्यान होने लगता है। अनेक बार साधक को बिना ध्यान के प्रयास के ही गहन ध्यान स्वतः ही होने लगता है । ध्यान का वह चरम बिन्दु जहां बहुत कम प्रयास से ध्यान अपने आप होने लगे, ध्यान का क्रिटिकल पाइंट कहा जा सकता है। यह ऐक ऐसा बिन्दु है जहां मानो किसी वाहन को चढ़ाई के बाद ढाल मिल गया हो और जहां वाहन चालक के बिना प्रयास या इंधन के वाहन सरपट दौड़ रहा हो ।