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भटकती आत्मा किसी के इंतजार में

मैदानी भागों में भी अगर किसी कल-कल बहती नदी के किनारे कोई छोटा सा गाँव हो, आस-पास में हरियाली ही हरियाली हो, शाम के समय गाय-बकरियों का झुंड इस नदी के किनारे के खाली भागों में छोटी-बड़ी झाड़ियों के बीच उग आई घासों को चर रहा हो, गायें रह-रहकर रंभा रही हों, बछड़े कुलाछें भर रहे हों, वहीं कहीं पास में ही एक छोटे से खाली भाग में चरवाहे गुल्ली-डंडा या चिक्का, कबड्डी आदि खेल रहे हों और छोटी-छोटी बातों पर भी तर्क-वितर्क करते हुए हँसी-मजाक कर रहे हों, पास के ही खेतों में किसान लोग खेतों की निराई-गुड़ाई या जुताई कर रहे हों, रह-रहकर कहीं सुर्ती ठोंकने की आवाज आ रही हो तो कोई किसान खेत जोतने के बाद कांधे पर हल उठाए गाँव में जाने की तैयारी कर रहा हो, कुछ घँसगर्हिन घाँस से भरे खाँची को सर पर उठाए, हाथ में हँसुआ और खुर्पी लिए घर की ओर जाने के लिए उतावली दिख रही हों और उसी समय कोई चिंतक वहीं आस-पास नजरे गड़ाए यह सब देख रहा हो तो उसे यह सब देखना या महसूस करना किसी स्वर्णिम आनंद से कम नहीं होगा, यह मनोहारी दृश्य उसके लिए सदा अविस्मरणीय होगा।

जब आप सरवरिया क्षेत्र में पूरब की ओर बढ़ेंगे तो नदी के खलार में आप को एक बभनवली नाम का गाँव मिलेगा। इस गाँव में 7 टोले हैं। इन्हीं टोलों में से एक टोला है, बभन टोला। बभन टोला को आप-पास के टोले वाले बभनौती भी कहकर पुकारते हैं, क्योंकि इस टोले पर बसे 22-24 घरों में से 18-20 घर ब्राह्मणों के ही हैं। इस टोले से लगभग 200 मीटर की दूरी पर गंडक बहती है। गाँव में कई सारे देवी-देवताओं के थान हैं। इन थानों में मुख्य रूप से डिहबाबा, बरमबाबा, काली माई, भवानी माई के थान हैं और साथ ही गाँव के बाहर नदी के पास एक टिले पर बना छोटा-सा शिव मंदिर। अगर कभी आप किसी सुरम्य पर्वतीय क्षेत्र का दर्शन किए हों और उसकी खूबसूरती के कायल हों और उसके बाद मैदानी भाग के इस छोटे से टोले रूपी गाँव में जाने को मौका मिल जाए तो हर हालत में यहाँ का सुरम्य वातावरण, गँवई सादगीपूर्ण परिवेश आपको मंत्रमुग्ध कर देगा और आप के मुख से बरबस ही निकल पड़ेगा कि इस भौतिक संसार में अगर कोई अविस्मरणीय, मनोहारी स्थल है तो बस वह यही है।

एक बार की बात है कि एक विदेशी पर्यटक दल घूमते-घामते इस गाँव के पास आ पहुँचा। उस दल को यह ग्रामीण परिवेश, प्राकृतिक सौंदर्य इतना पसंद आया कि वे लोग महीनों तक यहीं रह गए। गाँव वालों ने उनकी बहुत आवभगत भी की। इस दल में नैंसी नामक की एक षोडशी भी थी। प्रकृति ने उसके अंग-प्रत्यंग में बला की खूबसूरती भर दी थी। उसे जो भी देखता, देखता ही रह जाता। नैंसी बहुत शर्मीले स्वभाव की भी थी और यहाँ तक कि अपने पर्यटक दल के सदस्यों के साथ भी बातें करते समय आँखें नीची रखती थी। नैंसी की खूबसूरती में उसके दैनिक कार्य चार-चाँद लगा देते थे। वह प्रतिदिन समय से जगने के बाद नहा-धोकर मंदिर भी जाती थी और गाँव के कुछ किशोरों-बच्चों-महिलाओं आदि को मंदिर के प्रांगण में इकट्ठाकर योग आदि के साथ ही अंग्रेजी बोलना भी सिखाती थी। दरअसल नैंसी को भारतीय संस्कृति से गहरा लगाव था और वह जर्मनी के किसी विश्वविद्यालय से संस्कृत की पढ़ाई भी कर रही थी। नैंसी को कई सारी भाषाओं पर एकाधिकार था। वह फर्राटेदार तत्समी हिंदी बोलती थी। कभी-कभी नैंसी गाँव की महिलाओं को एकत्र कर उन्हें विभिन्न प्रकार की कलाओं में पारंगत करने की कोशिश करती थी। इन महीनों में गाँव वालों की चहेती बन गयी थी, नैंसी। उसके अपनापन ने पूरे गाँववालों को अपना बना लिया था। रमेसर काका तो गाँववालों के सामने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते थे और सीना तानकर कहते थे कि अगर नैंसी के माता-पिता हाँ करेंगे तो वे अपने बेटे सूरज का बिआह नैंसी से करना पसंद करेंगे, भले ही इसके लिए उनका अपना समाज साथ न दे।

गाँव में आने के बाद अगर नैंसी ने सबसे अधिक समय किसी के साथ बिताया था तो वह था सूरज। नैंसी कभी-कभी सूरज के साथ खेतों के तरफ भी निकल जाया करती और उसके साथ मेड़ पर बैठकर गन्ना खाती, बहुत सारा बतियाती और हिरणी की तरह कुलांछें भरती गाँव में आ जाया करती। कभी-कभी जब सूरज गाय-बैलों को नहलाने के लिए नदी पर जाता तो नैंसी भी उसके साथ जाती और मवेशियों को नहलाने में उसकी मदद करती। पुआल का लुड़ा बना-बनाकर गायों-बैलों के शरीर पर मलती, गायों-बछड़ों को दुलराती और किसी गाय का पगहा पकड़े कोई विदेशी गीत गुनगुनाते सूरज के साथ लौट आती। कभी-कभी किसी बात को लेकर नैंसी और सूरज लड़ भी जाते, पर यह तकरार बहुत अधिक देर तक उन्हें एक दूसरे से दूर नहीं रख पाती। कहीं न कहीं सूरज और नैंसी के दिल के किसी कोने में प्रेम अंगराई लेने लगा था, प्रेम की लौ जलने लगी थी, पर वे दोनों अनजान थे इससे।

विधि का लिखंत कहें या प्रकृति को कोई खेल, लगभग 2-3 महीने के बाद जब वह विदेशी पर्यटक दल उस गाँव से विदा लेने लगा तो नैंसी ने अपने आप को गाँव वालों के दिल के इतने करीब पाया कि वह गाँव वालों कि जिद के आगे नतमस्तक हो गई और अपने साथियों के साथ न जाकर कुछ दिन और गाँव वालों के साथ रहने का मन बना लिया। नैंसी ने ज्योंही उस गाँव में कुछ दिन और रुकने की बात कही, सभी ग्रामवासी प्रफुल्लित मन से मन ही मन उसकी जय-जयकार करने लगे। रमेसर काका तो इतने प्रसन्न थे कि उनके आँख के आँसू बहुत चाहने के बाद भी आँखों में रहना उचित नहीं समझे और आँखें भी अब उनको विदा करना ही ठीक समझीं। लोग कुछ समझ पाते, इससे पहले ही रमेसर काका दौड़कर नैंसी को बाहों में भर लिए और अपनी बेटी की विदाई करने वाले बाबुल की तरह ‘आरे मेरी बेटी’ कहकर अहकने लगे। नैंसी भी अपने आप को रोक न सकी और उनसे लिपटकर आँसू बहाने लगी।

नैंसी ने रमेसर काका के घर के सभी कामों में हाथ बँटाने के साथ ही गाँव वालों को सिखलाना-पढ़ाना जारी रखा। धीरे-धीरे 10-11 महीने बीत गए और अब नैंसी पूरी तरह से ग्रामीण किशोरी के रूप में परिणित हो चुकी थी। इन 10-11 महीनों के बीच नैंसी ने गाँव के किशोरों और युवाओ को इतना प्रेरित किया था, इतना उत्साहित किया था कि गाँव के लगभग अधिकांश किशोर-युवा जो 10वीं और 12वीं आदि पास थे, वे अपनी मेहनत के बल पर सरकारी नौकरियों में चयनित हो गए। रमेसर काका का (बेटा) सूरज भी एनडीए की परीक्षा उत्तीर्णकर प्रशिक्षण के लिए पुणे आ गया। अब गाँव की तस्वीर एकदम से बदल गई थी, पहले जो गाँव की सरलता, सुंदरता व संपन्नता ठंड से काँपती एक चिरई की तरह पंख को सिकोड़े हुए थी; वही सरलता, सुंदरता व संपन्नता अब नैंसी रूपी घाम के लगने से अपना पंख पसार कर उड़ने