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तिड़क कर टूटना-अनीता श्रीवास्तव

पुस्तक समीक्षा
स्वागत पहले कदम का
राजनारायण बोहरे

'तिड़क कर टूटना' कहानी संग्रह सनातन प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित है, इसकी लेखिका अनीता श्रीवास्तव यद्यपि शुरू से विज्ञान की विद्यार्थी रही लेकिन बाद में उन्होंने माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल से पत्रकारिता में बैचलर ऑफ जर्नलिज्म किया है जो उनकी रचनात्मक प्रवृति को दर्शाता है। वे कविताएं और बाल साहित्य भी लिखती हैं। वर्तमान में भी टीकमगढ़ जिले के मवई में इंटर कॉलेज में जीव विज्ञान की व्याख्याता है ।उनका अपना यूट्यूब चैनल शब्द बिना भी है।
इस संग्रह में कुल 20 कहानियां सम्मिलित की गई है। संग्रह के आरंभ में श्री गोकुल सोनी वरिष्ठ लघुकथाकार का भूमिका आलेख इन कहानियों को समझने का नजरिया व उचित टिप्पणी देता हुआ आलेख है। संग्रह के ब्लर्ब पर डॉक्टर मोहन तिवारी आनंद अध्यक्ष तुलसी साहित्य अकादमी भोपाल की टिप्पणी भी शामिल की गई है जिसमें कहानियों की संक्षिप्त समीक्षा भी ली गयी है। लेखिका ने भी अपनी ओर से कुछ शब्द लिखे हैं ।
संग्रह में सम्मिलित 'तिड़क कर टूटना' यानी शीर्षक कहानी पर हर पाठक का सबसे पहले ध्यान जाता है , जो सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है । इस कहानी में लेखिका ने स्वरा और कविता अपनी दो साथियों की प्रेरणा से कुछ गाने और कविता लिखने की दैनिक प्रक्रिया का वर्णन किया है ।जब स्वरा उन्हें प्रेरित करती है तो नायिका जमकर गाती है, जब कविता प्रेरित करती है तो वह कविता लिखती है ,और ऐसी कविताओं के उदाहरण इस संग्रह में शामिल है । स्वरा और कविता बड़ी सख्ती के साथ गाने के लिए और कविता लिखने के लिए प्रेरित करती हैं ।कहानी के अंत में नायिका शिव जी की पूजन कर " जय शिव ओंकारा" आरती बड़े आरत भाव से गाने लगती है, इस वक्त उनके एक तरफ स्वरा है ,तो दूसरी तरफ कविता है ,यानी स्वरा का गला है और कविता के शब्द हैं ।वे दोनों नरमी से भीग जाते हैं ,लेखिका अंत में लिखती है -"मैं गाती चली जा रही हूं, क्या? पता नहीं ।मेरे भीतर तिड़क कर कुछ टूटता है।" इस कहानी में स्वरा का अर्थ स्वर है, आवाज है यानी नायिका के गाने की क्षमता है, तो कविता का अर्थ कविता रचने की क्षमता है ।
' कोरोना ने लौटाया जिन्हें' पहली कहानी है । इसमें परिहार दंपत्ति का लड़का पढ़ने लिखने के बाद नौकरी पाकर महानगर चला जाता है ,इसके बाद वह और अच्छा मौका मिल जाने पर विदेश भी पहुंच जाता है। घर मे पति पत्नी अकेले रह रहे हैं पर उनका जी बेटे के पास रखा हुआ है। उधर बेटे ने स्वयं ही अपनी मर्जी से विवाह कर लिया है । फोन पर बस अब औपचारिक बातें होती रहती हैं । अचानक कोरौना का प्रसार शुरू हो जाता है और परिहार दंपति का बेटा अकुला कर भारत आने के लिए विवश होता है । उपेक्षा से बातें करने की विदेश में बसे बेटे की रोज की आदत के अनुकूल बात करते परिहार दंपत्ति उसे संभल कर रहने की सलाह देते हैं कि अचानक बेटा कहता है कि मैं अब इंडिया वापस आ रहा हूं हमारे देश में कोरोना बहुत भयंकर रूप से फैल रहा है। परिहार दंपत्ति के घर में खुशी छा जाती है।(पृष्ठ 18)
को रोना (यानी कोष्टक में (को )और सामान्य अन्दाज़ में रोना ) नामक दूसरी कहानी में लेखिका ने व्यंग की भाषा में धर्मराज और उनके दूतों के बीच कोरोना को लेकर बातचीत कराई है। जिसमें वे लोग कोरोना के समय रखी जाने वाली सावधानियों की बात करते हैं- किसी से हाथ ना मिला ना, किसी के गले ना लगना, किसी के पास ना बैठ ना, मुंह पर मास्क लगाना और नई जगह से आने जाने पर 14 दिनों का कोरेंटाइन होने की बातचीत की इस कहानी में आती है।
' दूर के मजदूर' नामक कहानी में महानगर में रहने वाले मजदूर बाबूलाल, हल्के राम, रामदीन आदि हंसी खुशी अपने दिन काट रहे होते हैं कि लॉकडाउन शुरू हो जाता है और चीख चीख कर हर टेलीविजन चैनल के एंकर बताते हैं कि जो जहां है वहीं रहे ,घर में रहे ! सारे धंधे बंद हो चुके हैं, फैक्ट्रियां बंद हो गई हैं, मजदूर के पास खाने को भी नहीं बचा है। तो ऐसे में सारे मजदूर अपने अपने गांव को भागते हैं । रामदीन जो सागर जिले के माल्थोन गांव से आया है , वह कोरोना के बारे में बहुत छोटी-छोटी बातें पूछता है, तो डॉक्टर बताते हैं "सोशल डिस्टेंसिंग बहुत जरूरी है ।बार-बार हाथों को बीस सेकंड तक धोएं या एल्कोहल बेस्ड सेनीटाइजर का इस्तेमाल कर के हाथों को साफ रखें । मास्क पहने ।यात्रा करके लौटे हैं तो खुद खुद को self-quarantine सेल्फ कोरेंटइन करें।" इन सब बातों को सुनकर सारे मजदूर अलग-अलग रास्तों से ,बसों से, अपने-अपने घरों को रवाना होते हैं। मजदूर बाबूलाल जब अपने गांव पहुंच रहा होता है कि कांस्टेबल बहादुर उसे रोक लेता है और कहता है कि "बाहर से आए हो तो 14 दिनों तक क्वॉरेंटाइन रहने के लिए सरकार द्वारा बनाए गए शिविर में रहो ।इसके बाद सब ठीक रहा तो फिर देखना घर का मुंह ।"बाबूलाल कहता है "जासे तो हम वहीं अच्छे हते।" "क्यों नहीं रुके रहे वहीं ।बहादुर ने डंडा नचा या ।और आगे बोला " सब तो बताया जा रहा था न्यूज़ में ।नहीं देखा क्या?" इधर हलके सोच में पड़ गया, सुना तो था, मगर जाने क्या बोलते हैं ....को रेंट... इन सोश.. ल...डिस्टेंस ...पता नहीं क्या क्या।
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काश कोई होता... जो कह देता एक बार, ये छूत की बीमारी है ,दूर-दूर रहें। काश कोई इतना बोल देता ।अंगुलियों के पोरों में , चमड़ी की शुक्राणुओं में हो नाखूनों में ना देखने वाले विषाणु रहते हैं। कोरोना फैलाने वाला भी यही छुपा रहता है ।
अगर समझ आ जाता तो कितने ही दिहाड़ी मजदूर मसर पर पैर रखकर भागने से बच जाते । वे जहां थे वहीं रहकर अन्य विकल्प तलाशते। (पृष्ठ 26)

"घर " कहानी मैं भी कोरोनावायरस है। जब मां बच्चों से पूछती है कि घर कब चलना है तो बच्चे बताते हैं कि महामारी फैली है जो हैजा जैसी है और इसमें क्या-क्या सावधानियां बरतना होगी। क्योंकि पैदल चलना है इसलिए विवाद और बहस का विषय यह है कि हम कैसे जाएंगे ।कोई कहता है ऐसा करेंगे हमें स्कूटी पर 1 मीटर लंबा पटिया बांध लेंगे तुम पटिए के उस छोर पर बैठ जाना ।यह सुनकर मां खिलखिला कर हंस पड़ती है। कहानी के अंत में जब मां घर चली जाती हैं तो बेटी को फोन आता है कि घर आ जाओ। वह बहुत सारे सवाल ऐसे करती है ,मेरी मां से बात कराओ! मां तो ठीक है ना ?लेकिन सबके उत्तर सकारात्मक बनते हैं ,बताया जाता है कि वह सो रही है, जब बेटी घर पहुंचती है तो मां नहीं है घर पर बहुत सारे लोग इकट्ठा है, लेकिन बेटी को मां सोई हुई देखती हैं तो उसे मां के बालों में बादाम के तेल की खुशबू आती हुई दिखती है।
" सुरक्षाबोध" कहानी में कॉलेज में एक लड़का और लड़की के बीच की बातचीत और बढ़ती रिलेशनशिप है । लड़की उस लड़के को एक-एक चीज उठाकर बताती है कि किस लड़के ने उसे क्या दिया और वह क्या चाहता है। लड़की बताती है कि लोग उसे लापरवाह और दिलफेंक समझते हैं लेकिन वह ऐसी नहीं है। उसका वह दोस्त (जिससे वह बात कर रही है ,)कहता है कि मैं तुम्हें कुछ भी नहीं दूंगा। कहानी का अंत देखिए " मैं ऐसा कुछ नहीं करुंगा !"उसने लड़की का हाथ अपने हाथ में ले लिया "मैं सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे साथ रहूंगा देखूंगा तुम्हें कोई तंग ना करें... तुम्हें अकेला नहीं छोडूंगा बस.."
" सच"
लड़की खुश थी ।उसने लड़के के कंधे को अपने सिर से हल्का धक्का दिया।
" जाओ अब माफ किया!"
"हं" लड़का फिर हैरान था .
लड़की, " नए साल में अगर मुझसे कोई गलती हो गई हो तो प्लीज मुझे माफ करना... यह साथ यूं ही बना रहे !"कहते हुए लड़की के मुंह से फूल और सितारे झड़ रहे थे जो सीधे धरती से आकाश तक फैल गए थे। लड़का लड़की को देखकर बहुत खुश था। ( पृष्ठ 60)
"कवि सम्मेलन" कहानी में एक कवियत्री के नजर से कवि सम्मेलन के छोटे-छोटे लम्हों का वर्णन है कि किस तरह से बड़ा कवि तन कर बैठा है ,छोटे कवि उसके आसपास में हैं।कवयित्री भी दाएं बाएं बैठी हुई है ।कवियों के खाने की बात होती है, कवियों के नाश्ते और सेवा की बात होती है , फिर कवियों के मंच पर पधारने के क्रम की भी चर्चा करते करते कवयित्री यह अनुभव करती है कि यहां आयोजकों की मर्जी से किसी भी कवि को कम ज्यादा समय दिया जाता है और पहले य्या अन्तिम क्रम पर रखा जाता है। पहले कवि सम्मेलन कितने बड़े होते थे, साहित्यिक रूप से बढ़े भी और गहराइयों को लिए हुए भी और समृद्धि के रूप में भी , जब महादेवी वर्मा, सुभद्रा शु कुमारी चौहान, इंदिरा इंदु , बच्चन जी आते होंगे। देखिए अंत का पैराग्राफ -
"धन्यवाद " संचालन का स्वर सुनाई पड़ा। वे अगले प्रतिभागी को पुकारने को आतुर दिखे। प्रथा अब बाहर नहीं रुक सकती थी। घड़ों पानी पड़ गया था । तुरंत अपना बैग उठाए पंडाल से बाहर आ गई ।पेड़ के नीचे खड़ी होकर वाहन की प्रतीक्षा करने लगी ।वहीं पेड़ जिसकी छाया कुछ देर पहले सुखद लग रही थी ,उसी छाया में अब आकृतियां उभर रही थी। मैं नीर भरी दुख की बदली ...वीरों का कैसा हो वसंत... खूब लड़ी मर्दानी ...महादेवी और सुभद्रा...... प्रेम जब अनंत हो गया रोम रोम संत हो गया...ओह यह तो इंदिरा इंदु हैं ,अभी बच्चन जी मधुशाला सुनाने आते ही होंगे ।कवि सम्मेलन आरंभ हो चुका था ।( पृष्ठ 65) दरअसल प्रथा नई कवित्री है उसी है अनुभव इसलिए हो रहे थे कि उसका क्रम काफी बाद में था , फिर भी उसे केवल 3 मिनट दिए गए थे और 3 मिनट में तो वह अपनी कविता शुरू ही नहीं कर पाई थी । वर्तमान कवि सम्मेलनों की भीतरी कलह दर्शाती यह कहानी कवि, कविता और कवि सम्मेलन के बारे में सारी बातें प्रकट करती है।
"सतीत्व बनाम स्त्रीत्व " कहानी कंचन के बारे में है । कंचन को उस घर मे आए हुए बरसों बीत चुके हैं और वह युवती से थोड़ा हो चुकी है कि अचानक एक दिन उसे अनजान पुरुष का फोन आता है और वह पूछता है " क्या हो रहा है जानेमन" जानेमन शब्द सुनते ही कंचन के हाथ पांव फूल जाते हैं , वह कांपती हुई अपनी कुर्सी पर बैठ जाती है और सोचते-सोचते पुराने युवावस्था के जमाने में पहुंच जाती है , जब एक युवक उस से प्यार किया करता था, लेकिन ना वह अपने परिवार वालों से कह सकता था, ना उसने कभी कहा तो कंचन का विवाह दूसरी जगह हो गया । वह लड़का चुपचाप सोचता रह गया। कंचन रवि किशन की पत्नी बनकर इस घर में आ गई ।आज बार-बार कंचन को कभी अपना छूटा हुआ प्रेमी याद आता है, तो कभी आज फोन पर बिंदास तरीके से " क्या हो रहा है जानेमन" बोल देने वाला व्यक्ति याद आता है . बार-बार वह इस द्वंद्व में फंसती है कि अब वह एक पतिव्रता स्त्री है , सती स्त्री है, तो क्यों बाहरी किसी पुरुष के बारे में बार-बार याद कर रही है । अंत में उसे यह समझ मे आता है कि स्त्री हमेशा ही स्त्री रहती है, किसी की पत्नी बन जाने से उसकी मन की भावनाएं आहत नहीं हो जाती और ना ही दूसरे चाहने वालों की नजरों में उसका सौंदर्य और व्यक्तित्व फीका पड़ता है। कहानी के अंत में आया है -
उसे, अब, अपनी पूजा छुपाने लायक कर्म लगने लगी थी ।घर लौटकर उसने फौरन कपड़े बदल लिए ।गाउन पहना और जरूरी कामों में लग गई । कितनी मेहनत की थी सोमवती अमावस्या की पूजा में ।इतनी मेहनत की थी घर को घर बनाने में स्त्री धर्म को निभाने में उसने कब कमी रखी थी । फिर कंपनी बाग का ख्याल , जो सिर्फ ख्याल है उसका पीछा क्यों नहीं छोड़ता!( पृष्ठ 69)
" अंकुर प्रेम का "कहानी में भले घर की एक किशोर लड़की है जिसे सहज रूप से जाने कैसे रोज दूध लाने वाले लड़के के प्रति आकर्षण उत्पन्न हो जाता है और वह रोज ही दूध लेने पहुंच जाती है । धीरे-धीरे उस लड़के से उसकी सामान्य बातचीत शुरू हो जाती है कि एक दिन वह लड़की बताती है कि वह अपने स्कूल के साथियों बच्चों के साथ सुबह की ट्रेन से पिकनिक पर जा रही है। उस दिन दूध वाले का लड़का बहुत तेज गति से अपनी तैयारी करता हुआ गांव से कस्बे तक आता है कि उसे पता लगता है कि सुबह जाने वाली ट्रेन का एक्सीडेंट हो गया है ।लड़का स्टेशन तरफ भागता है कि अचानक एक्सिडेंट का शिकार होकर गिर जाता है। वह बेहोश होकर अस्पताल में भर्ती होता है। उसके पिता उसको अटेंड करते हैं और सहज रूप से अपने सब ग्राहकों को बता देते हैं कि उनका बेटा भर्ती है। यह बात कहानी की नायिका के पिता को पता लगती है तो वे भी अस्पताल जाते हैं और अगले दिन यह जानकारी उनकी लड़की को लगती है तो वह भी पिता के साथ अस्पताल चली जाती है । कुछ क्षणों के एकांत के मिलने में लड़का और लड़की आपस में बात करते हैं तो लड़की बताती है कि पिकनिक जाने के ठीक पहले शाम को स्कूल से यह खबर आई थी कि पिकनिक निरस्त हो गई है ,इसलिए जिस ट्रेन का एक्सीडेंट हुआ उसमें उनके पिकनिक वाली पार्टी नहीं गई थी। यह सुनकर लड़के को राहत की सांस मिलती है और इस तरह दो किशोर के बीच प्रेम का अंकुर जागृत हो जाता है। कहानी का अंतिम भाग कर देखिए-
कहते हुए लड़की ने हाथ में लाया हुआ खिचड़ी का डिब्बा स्टॉल पर रख दिया। और दूसरे हाथ में लिए हुए रुमाल से अपनी आंखों को सहलाने लगी। लड़का लगातार बिना पुतलियां घुमाए इतनी देर से उसकी ओर देख रहा था कि पलके झुका ना अब जरूरी हो गया था ।उसने पुतलियों को इस तरह ढांप लिया जैसे कहां हो मैं ठीक हूं ...भगवान का लाख-लाख शुक्र है जो तुम उस ट्रेन में नहीं थी। (पृष्ठ 75)
कहानी संग्रह की यह बीस कहानियां कुल 120 पृष्ठों में शामिल है। इनमें से अधिकांश कहानियां सामान्य आकार की कहानियां है , जिन्हें आकाशवाणी पर पढ़ने में अथवा किसी गोष्टी में पढ़ने में 7 मिनट से 10 मिनट के भीतर का समय लगता है । सबसे छोटी कहानी एक चींटी का फ्लर्ट (पेज 36) है जो कुल मिलाकर लगभग ढाई पेज की कहानी है ।सबसे बड़ी कहानी ईट है जो 11 पेज की है( पृष्ठ 81)
यह संग्रह लेखिका का पहला संग्रह है ।वे समकालीन परिस्थितियों और मुद्दों से लगातार जुड़ी हैं और उन्हें तुरंत ही चित्रित कर देने के लिए उत्सुक रहती हैं । इस लिहाज से यानी इस नजरिए से देखा जाए तो लिखा कि लगभग 6 कहानियों में कोरोना या कोरोना के आसपास का वर्तमान समय खनखन करके बजता है।
भाषा की दृष्टि से अगर हम इस संग्रह को देखें तो पाते हैं कि लेखिका ने खड़ी बोली का सर्वत्र उपयोग किया है । यद्धपि तमाम कहानियां आंचलिक परिवेश की हैं, लेकिन लेखिका ने उन्हें भी खड़ी बोली का ही प्रयोग किया है ,जबकि लेखिका बुंदेलखंड से आती है तथा उनकी भाषा टीकमगढ़ की वह मानक बुंदेली है जो इस समय बुंदेलखंड के रचनाकारों द्वारा धड़ल्ले से प्रयोग की जा रही है। लेखिका भविष्य में अपने ग्रामीण चरित्र में बुंदेली भाषा का उपयोग करेंगे तो ना केवल चरित्र और कहानी प्रामाणिक बनेगी, बल्कि भाषा और बोली की खुशबू से पाठक अथवा नहीं रह जाएगा। हालांकि यह कोई अनिवार्य परामर्श नहीं है ।
इस संग्रह की समस्त कहानियों से गुजरने के बाद निस्संदेह कहा जा सकता है कि लेखिका के चारों और बहुत सारी कहानियां बिखरी पड़ी हैं ,उनके पास कथानको का कोई अभाव नहीं है और उन्हें कहानी लिखने की कला भी आती है। आज के युग में प्रचलित कहानियों के आकार को लेकर भी वे पर्याप्त सावधान है ।लेकिन इस कहानी संग्रह की अधिकांश कहानियों में मानसिक द्वंद उस तरह से नहीं आ सका है जिस तरह से आना चाहिए। लेखिका ऐसा करने में सफल हो सकती हैं क्योकि वे समर्थ थीं। आगे के अपने लेखन में वे इस बात का ध्यान ध्यान रखेंगे ऐसी आशा है क्योंकि लेखिका के पास न केवल भाषा है ,बल्कि शिल्प का भी उन्हें ठीक ज्ञान है ,बस कुछ कलात्मकता ,कुछ द्वंद और कुछ वैचारिक मजबूती उनकी कहानियों के लिए अनिवार्य तत्व होगी जो उनकी अगली कहानियों में हम को निश्चित ही दिखाई देंगी ।
अनीता श्रीवास्तव जी के लिए बहुत सारी शुभकामनाएं।
राजनारायण बोहरे
जानकीनगर नवलखा इन्दौर