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उत्‍सुक सतसई - 3 - नरेन्‍द्र उत्‍सुक

उत्‍सुक सतसई 3

(काव्य संकलन)

नरेन्‍द्र उत्‍सुक

सम्‍पादकीय

नरेन्‍द्र उत्‍सुक जी के दोहों में सभी भाव समाहित हैं लेकिन अर्चना के दोहे अधिक प्रभावी हैं। नरेन्‍द्र उत्‍सुक जी द्वारा रचित हजारों दोहे उपलब्‍ध है लेकिन पाठकों के समक्ष मात्र लगभग सात सौ दोहे ही प्रस्‍तुत कर रहे हैं। जो आपके चित्‍त को भी प्रभावित करेंगे इन्‍हीं आशाओं के साथ सादर।

दिनांक.14-9-21

रामगोपाल भावुक

वेदराम प्रजापति ‘मनमस्‍त’

सम्‍पादक

समर्पण

परम पूज्‍य

परम हंस मस्‍तराम श्री गौरीशंकर बाबा के श्री चरणों में सादर।

नरेन्‍द्र उत्‍सुक

विरहिन के उर में लगी, मदन मुरारी आस।

कब आओगे सांवरे, राधा भरे उसांस।।201।।

राधा धेलें मगन हो, होली मोहन संग।

साथ गोपियन के मचो, होली को हुड़दंग।।202।।

अधर अधर से मिल गये, डाल गले में बांह।

कान्‍हां राधे संग में, ठड़े कदम की छांह।।203।।

यमुना तट बंशी बजा, रास करें नंदलाल।

संग गोपियन मगन, राधे भई निहाल।।204।।

तप बल जीवन दे करी, पूर्ण भक्‍त की आस।

परम हंस ऐसे भये, बाबा लोचन दास।।205।।

बाबा लोचन दास को, कृपा पात्र वो होय।

आत्‍म समर्पण जो करे, अपना आपा खोय।।206।।

बुद्धि जीवियों पर दया, सरस्‍वती कर दीन।

या ही सों तो जगत में, ज्ञानी होत प्रवीण।।207।।

मृत्‍यु लोक में चर अचर, मांगे तुमसे भीख।

भंडारा शंकर भरो, देओ जगत को सीख।।208।।

मत फिजूल बकवास कर, सबसे अच्‍छी मौन।

होय परीक्षा समय पे, काम आयेगा कौन।।209।।

चिन्‍ता सारी देह का, चूस जात है खून।

मन ही मन सुलगत रहे, तन को देती भून।।210।।

मन बेरी इतना हुआ, सुने न कोई बात।

रहे भटकता सदा ही, तरसावे दिन रात।।211।।

मन के चंगुल में फंसे, रहते हैं जो लोग।

मिटा न सकता है कभी, कोई उनके रोग।।212।।

नाम राम का नित्‍य तू, जपले ओ इन्‍सान।

पछतायेगा अन्‍त में, निकल जायेंगे प्राण।।213।।

मन चंचल इतनो मगन, करे रात दिन रास।

भली बात आती नहीं, उत्‍सुक इसको रास।।214।।

लगता है सारा जगत, उत्‍सुक स्‍वप्‍न समान।

करता कितनी प्रीत है, फिर भी तू इन्‍सान।। 215।।

कलम न मॉं मेरी बिके, कहूं बात दो टूक।

मिटा शारदा दीजिये, मेरे मन की भूख।।216।।

ज्‍योति हीन जड़ शक्ति है, बुद्धि दिखावे पंथ।

वेदों का यह कथन है, कहते आये संत।।217।।

कपट मिलादे धूल में, करे ईर्षा नाश।

उत्‍सुक इनका तू कभी, करना मत विश्‍वास।।218।।

दया रखो मन में सदा, मुख से बोलो सांच।

उत्‍सुक जीवन में कभी, आये न तोपे आंच।।219।।

तन पे करता गर्व है, ये तो होगा राख।

चार दिनों की उम्र है, खोय दे रहा साख।।220।।

बैसाखी रघुवीर हैं, चढ़ते पंगु पहाड़।

उत्‍सुक उनकी दया से, मूक होत बाचाल।।221।।

राम नाम लिखता रहूं, बोलूं सीताराम।

अन्‍त समय मेरे कढ़े, मुख से सीताराम।।222।।

सवा लाख जो जप करे, गायत्री का ध्‍यान।

मनोकामना पूर्ण हों, उपजें उर में ज्ञान।।223।।

कौशल्‍या की आंख के रघुनन्‍दन थे नीर।

आशा के आधार पे, रखा हृदय में धीर।।224।।

व्‍यथा हृदय की दूर तुम, करदो सीताराम।

पापी भी तो तरगये ले के तेरा नाम।।225।।

नारायण मुख से कहा, दूर हो गये पाप।

अमर अजामिल कर दिया, मिटा दिये सब ताप।।226।।

केवट ने धोकर चरण, राम कर दिये पार।

भव सागर से कर दिया, उसे राम ने पार।।227।।

चरण पादुका का भरत करत रहे सम्‍मान।

राज पादुका ने किया, जपा भरत ने नाम।।228।।

दोष पराये देख मत, अपनो हृदय निहार।

दया राम सब पर करें, सब की सुनें पुकार।।229।।

कष्‍ट नाम के लेत ही, हो जाते हैं दूर।

भजले सीताराम को, मूरख तू भरपूर।।230।।

नित्‍य बंदना शारदा, बिमल लेखनी होय।

गागर में सागर भरी, नहीं असंभव तोय।।231।।

वृह्म आत्‍मा में बसो, अपने उर में झांक।

बिलक किसी से वह नहीं सबमें उसकी धाक।।232।।

शक्ति और जीवन दिया, नियम बनाय अनेक।

मनुज देवता परिधि में, वृहम अकेला ऐक।।233।।

भांति भांति के जगत में, रचे खिलोने रोज।

मृत्‍यु खड़ग से, वृह्म वह जब चाहे दे तोड़।।234।।

नमा जपो चिन्‍तन करो, रखो न उर में द्वेष।

बाहर भीतर ऐकसा, रखिये अपना भेष।।235।।

सकल प्राणियों का पिता, रहता है हर ठौर।

सद कर्मों से पूजले, चरण पकड़ ले दौड़।।236।।

समदर्शी प्राणी बनें, जाने स्‍वयं समान।

सचच पूजन है यही, मिलें उसे भगवान।।237।।

धनवानों को प्रिय लगें, सदा जगत में दाम।

निर्धन के संसार में, केवल राजा राम।।238।।

द्रुपद सुता निखल भई, देखी बहुत अधीर।।

दुस्‍सासन खींचत थका, कृष्‍ण बढ़ाओ चीर।।239।।

जीव मात्र में एकता जो न करे अहसास।

जय तप सब बेकार हैं, कछू न आवें रास।240।।

मधुशाला मैंने तजी, बुझी न मेरी प्‍यास।

मसती के दो घूंटकी, लगी राम से आस।।241।।

रमा नाम मस्‍ती चढ़ी, उतरे नहीं शरूर।।

लगन राम से लग गई, नशा हुआ भरपूर।।242।।

मैं और तू हों ऐक जब, उर में होय प्रकाश।

उत्‍सुक सीताराम का, तब होता आभास।।243।।

छुआछूत उर से तजे, सबको हृदय लगाय।

बोल सदा वाणी मधुर, जग तेरो जो जाय।।244।।

सत्‍संगत करिये सदा, रह दुष्‍टन से दूर।

शांति हृदय में राखिये, सुख पावे भरपूर।।245।।

संतो की नित वन्‍दना, साधुन को सत्‍कार।

करत रहो, उत्‍सुक सदा, दीनन पे उपकार।।246।।

तीन धनुष से छूट कर, पहुंचाता आघात।

इसी तरह से कटु बचन, पहुंचाते हैं ताप।।247।।

मन भटके चिन्‍ता बढ़े, सूख जात है खून।

इन्द्रिन में तकरार हो, कहा करे कानून।।248।।

काया रूपी जगत में, रहें परस्‍पर एक।

जब भी आगे हम बढ़ें, रखें इरादे नेक।।249।।

माया पथ विचलित करे, मद कर देता नाश।

बुरी तरह से मोह में, फंसकर तड़पे सांस।।250।।

ममता तुमसे हो गई, मुख पे तेरा नाम।

बिलग बिलग मत तुम रहो, बसो हृदय में राम।।251।।

भजन हुआ सम्‍पूर्ण अब, कर उत्‍सुक आराम।

झुका चरण में शीष को, कहके सीताराम।।252।।

सांई तो अवधूत थे, उर की थे वे प्रीत।

भक्‍त हृदय में रम गये, बन करके संगीत।।253।।

अनुकम्‍पा गुरू देव की, दिया हृदय में ज्ञान।

कृपा करें गुरूदेव तो, प्राणी बने सुजान।।254।।

जिव्‍हा तो वह धन्‍य है, जपे राम का नाम।

झंझट सारे त्‍याग दे, रखे काम से काम।।255।।

सचमुच में है वह सुखी, करे न कभी अनीत।

निस्‍वार्थ सेवा करे, दया रखे उर बीच।।256।।

सारा जीवन ही भजन, लगन होय संगीत।

उत्‍सुक उमड़े भाव तब, लिखा जाय तब गीत।।257।।

चले लांघने उदधि को, सुमिर राम का नाम।

सुरसा का मर्दन किया, हनुमान ने मान।।258।।

लांघा सागर भय मगन, लंका किया प्रवेश।

मार निश्‍चरी से राह में, गये विभीषण गेह।।259।।

राम राम चहुं दिशि लखो, भय गद गद हनुमंत।

वहीं विभीषण दिख पड़े, भजन करत भगवन्‍त।।260।।

लघु भ्राता लंकेश से, हुई वहीं पर प्रीत।

हनुमान का दरश कर, उमड़ पड़ा संगीत।।261।।

कहां सिया कुछ दो बता, ढूंढन आया मीत।

हैं अशोक बट के निकट, मिलें वाटिका बीच।।262।।

कपि अशोक बट पे पहुंच, रख लीनो लधु रूप।

पहुंच गया लंकेश तब, रख के रूप कुरूप।।263।।

जनक नंदिनी थीं दुखी, संकट में थे प्राण।

लगे बचन लंकेश के, उर में शूल समान।।264।।

त्रिजटा से कह कर गया, पहुंचाओ अति त्रास।

जनक लाली अनुकूल हों, ऐसा करो प्रयास।।265।।

अत्‍याधिक पीड़ा हुई, चाहत तजदूं प्राण।

दुखिया के उर में उपज, उठा तभी अज्ञान।।266।।

मारूति नंदन लख दुखी, दीन मुद्रिका डार।

तुरत लगाई हृदय से, सीता रहीं निहार।।267।।

सन्‍मुख सीता के पहुंच, कीनो दंड प्रणाम।

रखो धैर्य मॉं हृदय में, आन मिलेंगे राम।।268।।

देओ आज्ञा मॉं मुझे, फल खाऊं में तोड़।

लगी सताने भख है, उर में उठी मरोड़।।269।।

आज्ञां पाकर मात की, खाये फल हनुमंत।

वृक्ष उखाड़े, फेंक दये, सुमिर हृदय भगवंत।।270।।

रख बारे मारे भगे, कीनी जाय पुकार।

पहुंचा जब अक्षय वहां, उसको दीना मार।।271।।

मेघनाथ पहुंचा वहां, आया लगा छलांग।

हनुमान को तब लिया वृह्म में फांश में बांध।।272।।

हनुमान की गर्जना, लंका पति दरबार।

रामशरण लंकेश जा, होय तभी उद्धार।।273।।

दुष्‍ट सुनें कब नीत की, अपनी अपनी गाय।

सजा यही, कपि को दई देओ पूंछ जलाय।।274।।

वस्‍त्र लपेटे पूंछ में, आगी दई लगाय।

कूद कूद हनुमान ने, लंका दई जलाय।। 275।।

रहो भास्‍कर से अटल, मुख पे चमके तेज।

दृढ़ विचार अपने रखो, होय न उर में खेद।।276।।

शीतल जैसे चन्‍द्रमा, मुख से बरसें फूल।

चुभा न काहू के हृदय, वाणी रूपी शूल।।277।।

सज्‍जनता मन बचन में, मानवता की रीत।

दुष्‍ट वचन उर में चुभें, रहें सदा विपरीत।।278।।

भाप बनो बदरा भयो, उर घमंड में चूर।

बरस पड़ो केसो भयो, मद में चकना चून।। 279।।

तन मन के चंगुल फसो, गयो इस लिये सूख।

उमर ढलगई देखिये, मिटे न इसकी भूख।।280।।

पंच तत्‍व से राम ने, रचे अनेक न जीव।

जीवन होय कृतार्थ, यह, रख तू ऐसी नींव।।281।।

मर्यादा सिगरी तजी, भओ कितनो उदंड।

कपट हृदय में ऊपजे, रूप रखे प्रचंड।। 282।।

राम कृष्‍ण अति प्रिय लगें, दोनों सुन्‍दर नाम।

दोनों में से किसी को जपो होय कल्‍याण।। 283।।

तन्‍मयता उर की भरत, लक्ष्‍मण होय विवेक।

दास भाव हनुमान सम, रहें इरादे नेक।। 284।।

भेष राम का रख लिया, किन्‍तु कर्म लंकेश।

छदम भेष रखे फिरें, मिटा जा रहा देश।।285।।

मंगल मय भगवान का, जो जपते हैं नाम।

ऐसे लोगों के सदा, बनते बिगड़े काम।।286।।

कायरता इन्‍सान का, कर देती है खून।

चतुराई संसार को, निगल रही कानून।।287।।

करी भगीरथ पे दया, रखी जटन में गंग।

शम्‍भू तपस्‍या भंग कर, कैसा मिटो अनंग।।288।।

गुरू मंत्र के जाप से, हो जाता कल्‍याण।

करो सदा सत्‍कर्म तुम, कृपा करें भगवान।।289।।

कौशल्‍या नंदन हृदय जनक लली मम नेत्र।

भुजा दोऊ ये हैं लखन, पवन पवन उर क्षेत्र।। 290।।

भरत वन्‍दना कीजिये, उमड़ उठे उर प्रीत।

जपन लगे उत्‍सुक हृदय, राम नाम संगीत।।291।।

ध्‍यान शत्रु घन का करे, सदा रहें रिपु दूर।

उत्‍सुक चिन्‍तन उर करे, मिले प्रीत भरपूर।।292।।

बाल्‍मीक तपसी भये, हृदय समर्पित कीन।

राम नाम उल्‍टो जपो, भये बृह्म में लीन।।293।।

रत्‍ना की बोली लगी, उर में फूल समान।

संत कहा ये जगत में, तुलसीदास महान।।294।।

करनी के अनुसार ही, बनती है तकदीर।

उत्‍सुक या सों जगत में, कर ढंग से तदवीर।।295।।

सोच भूत का मत करो, भली करो करतूत।

करनी के अनुसार ही, आयें लेन यमदूत।।296।।

मन कितनो कंजूस है लेत न मुख से नाम।

उमर काट दी दुष्‍ट ने, कर कर खोटे काम।।297।।

युद्ध भयंकर धरा पे, मां कीनो उपकार।

मधु कटम रण क्षेत्र में, काली ने दय मार।।298।।

राम भय विचलित बहुत, शक्ति उपासना कीन।

मिला धूल में राम ने, लंका पति को दीन।।299।।

मांगत फिरता किसलिये, उत्‍सुक जग से भीख।

चामंडा को भजन कर, भय न रहे नजदीक।।300।।