utsuk satsai - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

उत्‍सुक सतसई - 2 - नरेन्‍द्र उत्‍सुक

उत्‍सुक सतसई 2

(काव्य संकलन)

नरेन्‍द्र उत्‍सुक

सम्‍पादकीय

नरेन्‍द्र उत्‍सुक जी के दोहों में सभी भाव समाहित हैं लेकिन अर्चना के दोहे अधिक प्रभावी हैं। नरेन्‍द्र उत्‍सुक जी द्वारा रचित हजारों दोहे उपलब्‍ध है लेकिन पाठकों के समक्ष मात्र लगभग सात सौ दोहे ही प्रस्‍तुत कर रहे हैं। जो आपके चित्‍त को भी प्रभावित करेंगे इन्‍हीं आशाओं के साथ सादर।

दिनांक.14-9-21

रामगोपाल भावुक

वेदराम प्रजापति ‘मनमस्‍त’

सम्‍पादक

समर्पण

परम पूज्‍य

परम हंस मस्‍तराम श्री गौरीशंकर बाबा के श्री चरणों में सादर।

नरेन्‍द्र उत्‍सुक

चिन्‍ता व्‍यापे पाप सों, सदा रहो भयभीत।

निर्मल उर उत्‍सुक रखो, करो राम से प्रीत।।101।।

काल आयेगो द्वार पर, चले ना फिर तकरीर।

छोड़ आत्‍मा जायेगी, वाही दिना शरीर।।102।।

बोरा तू कितना गया, कांटे रहा विछाय।

विपदा अपने आप ही, घर में रहा बुलाय।। 103।।

श्‍वेत वसन उर मौले है, विष समान हैं बोल।

उत्‍सुक उर में पाल है, बजता है ज्‍यों ढोल।।104।।

क्रोध मिटे उर शांति दें, दूर तोये अज्ञान।

सन्‍तोषी की शरण में, पहुंचे बनें सुजान।।105।।

दुखी न दुख में हो कभी, सुख में मत हरषाय।

दुख सुख आवत जात है, करनी को फल पाय।।106।।

मीरा जब तन्‍मय भई, सुनी कृष्‍ण ने टेर।

विष को अमृत कर दिया, करी न पलभर देर।।107।।

तुरत सुदामा की दई, तुमने चिन्‍ता मेट।

उत्‍सुक होय न, कृष्‍ण हे, दुष्‍टन को आखेट।।108।।

दीन दशा लखकर करो, कृपा दृष्टि भगवान।

अत्‍याधिक मैं तो पतित, तुम हो दया निधान।।109।।

माया में जगती फंसी, घिरी मोह के बीच।

दो पाटन के बीच में, बिरलो होय दधीच।।110।।

रामायण पढ़कर कर गढ़ो, तुम अपनी तकदीर।

कर निर्माण चरित्र का, काहे होत अधीर।।111।।

कर करनी इन्‍सान तू, किस्‍मत को राढ़ लेत।

पारवृह्म परमात्‍मा सब को काया देत।।112।।

रोवत आया जगत में, ओ मुराव इन्‍सान।

ऐसा कर व्‍यवहार तू, रोवे जगत तमाम।।113।।

जाति पांति में फंस गया, करे न कोई काम।

इच्‍छाओं का हो गया, मानव आज गुलाम।।114।।

मानव कितना गिर गया, कर कर खोटे काम।

कोई काम आना नहीं, मूरख तेरा चाम।।115।।

अन्‍त समय रघुवीर की, मानव करता याद।

समय व्‍यर्थ ही कर दिया, तूने सब बरबाद।।116।।

ओम बृह्म है सत्‍य है, यही जगत में सार।

ओम जपो हो जाओगे, भव सागर से पार।।117।।

ज्‍योति पुंज हैं, ओम की, जितने भी अवतार।

झुका रहा है नित्‍य ही, शीष जिन्‍हें संसार।। 118।।

काया रूपी कृष्‍ण की, राधे तो हैं प्राण।

बिन राधे काया लगे, उत्‍सुक धूल समान।।119।।

श्‍याम रंग जिसने रंगी, अपनी चादर आप।

संकट मोचन हृदय से, दूर करें संताप।। 120।।

उड़ जाये पंछी नहीं, मत कर जिव्‍हा देर।

आवत जावत सांस है, राम राम तू टेर।।121।।

संतन की संगति करे, नित्‍य राम का ध्‍यान।

ले विवेक से काम जो, मानव वही सुजान।।122।।

शंकर सा दाता नहीं, विपदा मेटर हार।

दया दृष्टि अपनी करें, सुनते तुरत पुकार।।123।।

शिरड़ी के सांई कहीं, सबका मालिक एक।

मानव कितना मूढ़ है, बटकर हुआ अनेक।।124।।

सांई चरणों में झुका, उत्‍सुक मस्‍तक रोज।

भटक न जग में बाबरे, ज्ञान हृदय में खोज।।125।।

शंकर माथे चन्‍द्रमा, और जटा में गंग।

माया देखी, कर दिया, भस्‍म तुरंत अनंग।।126।।

ज्ञान उदधि, गुरू को हृदय, अमृत तुल्‍य विचार।

चरण धूल मस्‍तक लगा, हृदय रमें उदगार।। 127।।

दीन दुखी पर कर दया, तजदे तू अभिमान।

कृपा दृष्टि सांईं करें, जगत करें सम्‍मान।।128।।

बालापन के मीत थे, ओण द्रुपद विख्‍यात।

भयो द्रुपद को राजमद, तजो द्रोण को साथ।। 129।।

दा्रणे हृदय पीड़ा भई, मन में भारी क्रोध।

मद उतार अर्जुन दिया, हुआ द्रुपद को बोध।। 130।।

पड़ो चरण में द्रोण के, द्रुपद हृदय संकोच।

क्षमा करो अपराध मय, मिटे हृदय को सोच।।131।।

काहू काम नहिं आयेगा, उत्‍सुक तेरा चाम।

मधुर बोल मुख से सदा, जपले सीताराम।।132।।

उर दीपक श्री कृष्‍ण हैं, राधे हृदय प्रकाश।

प्रदूषण मिट जाये सब, हो निर्मल आकाश।।133।।

हृदय समर्पित कर दिया, मैंने तुमको राम।

इच्‍छा पूरी कीजिये, मुझको बना गुलाम।।134।।

गुरूवर यह आशीष दो, रहे न चिन्‍ता पास।

हृदय ज्ञान उत्‍पन्‍न हो, भक्‍त न होय उदास।। 135।।

मद तो पे अभिमान को, मैं पे भयो सवार।

रो रो काटी जिन्‍दगी, प्रभु से लई उधार।।136।।

बचन गया नर भूल तू, मिली मनुज की देह।

अबहूं भजले राम को, मिट जाये संदेह।।137।।

रात दिना प्रपंच्‍च में, गई उमरिया बीत।

कहके सीताराम तू, करले हृदय पुनीत।।138।।

नीचा होता है सदा, अभिमानी का दंभ।

भक्‍त सदा भगवान का, अन्‍तरंग स्‍तंभ।। 139।।

चले सांस जब तक कछू, करत रहो अन्‍याय।

कछू हाथ नहिं आय फिर, कहा हाथ पछताये।।140।।

संकट झेलो जगत में, कहा होय पछताय।

हिम्‍मत ही उत्‍सुक सदा, सुख में होत सहाय।।141।।

सदा बुराई हृदय में, उपजे करे अधीर।

पहिले तो सुख ऊपजे, होय बाद में पीर।। 142।।

चित्र गुप्‍त बदऊं तुमें, जानत हो तुम पीर।

उत्‍सुक को प्रभु ज्ञान दो, होय न कभी अधीर।। 143।।

उत्‍सुक मालिक एक है, सब उसके आधीन।

फिरकों में बटकर हुआ, मानव हृदय मलीन।।144।।

तुलसी सम मम भावना, सूरदासहग नीर।

हृदय होय रसखान सो, चिन्‍तन होय कबीर।।145।।

इच्‍छायें मीरा बनें, हृदय उदधि गम्‍भीर।

सांवरिया मम चित्‍त हो, शीतल सांस समीर।।146।।

मक्रध्‍वज रोड़ा बने, हनुमान भये क्रुद्ध

अहिरावण के द्वार पे, भयो जमकर के युद्ध।।147।।

भंग तपस्‍या जा करी, देवी के उर बैठ।

अहिरावण को मार के, तुरत चढ़ाई भेंट ।।148।।

राम नाम में लीन जे, पाप न भटके पास।

उर धीरज ताके बसे, हृदय सहे संताप।।149।।

काल काल करते रहो, कबहुं न आवे काल।

हाथ मलत रह जाओगे, जब आयेगा काल।।150।।

काल नहीं कर आज ही, अब करके उत्‍थान।

काल आयेगा द्वार पे, ले जायेगा प्राण।।151।।

मन कपटी कतरन करे, छीछा लेदर होय।

ईर्षा में सुलगत रहे, जीवन काटे रोय।।150।।

क्रोध, बियोग उत्‍पन्‍न हों, करदें नष्‍ट विवेक।

रहे न उर में संतुलन, मानव मिटें अनेक।।153।।

पग, कर सम निस्‍वार्थ तू, सेवा कर दिन रैन।

मन के बस में रहत हैं, मानव जैसे नैन।। 154।।

मुखिया मुख सा होय जो, सुखी रहे परिवार।

झगड़ो होय न धरन में, स्‍वर्ग बने संसार।।155।।

सूर्य चन्‍द्रमा की तरह, नियमित जीवन होय।

काहे को इस जगत में, फिर ये प्राणी रोय।।156।।

पथिक पंथ पर यदि चले, मंजिल निश्चित पाय।

पथ विचलित संसार में, मुह की खाते आय।। 157।।

सत्‍य पुरूष संसार में, रखें सात पग मीत।

नित्‍य शांति सत्‍संग सो, हृदय न हो भयभीत।।158।।

हर गोरी राधा बनी, फागुन में ललचाय।

कोऊ संवरिया आये के, सब्‍ज बाग दिखलाय।।159।।

मनोकूल पत्‍नी कहां, काम आये कब पुत्र।

दुर्लभ है संसार में, स्‍वाभाविक हों मित्र।।160।।

प्रेम होय विश्‍वास से, विनती कुल की आन।

बोली सों निज देश की, होती है पहचान।।161।।

प्रेम न दावा करत है, कष्‍ट स्‍वयं सहलेत।

कभी विरोध करता नहीं, ना बदलो ही लेत।।162।।

दुख में जितने हो दुखी, दुख दूनो हो जाय।

सहनशील उत्‍सुक बनो, हृदय सांत्‍वना पाय।।163।।

मांग भरी सीता लखी, कपि पोतो सिन्‍दूर।

हनुमान पे तभी से, चढ़न लगो सिन्‍दूर।। 164।।

अत्‍याधिक प्रिय लगत है, भरत राम के प्राण।

भरत मिलाप संदर्भ पढ़, दूर होय अज्ञान।। 165।।

नाम राम को, तीर्थ है, जिव्‍हा से नित होय।

बड़भागी उत्‍सुक वही, कर पावत जो कोय।। 166।।

भली करो करनी सदा, चाखो नित मिष्‍ठान।

लागत मीठे बोल हैं, सबको प्राण समान।।167।।

पुष्‍प समान हो समर्पित, करे जाओ उपकार।

दुर्लभ देह मनुष्‍य की, तोय मिली उपहार।।168।।

रटले तोता की तरह, करले मन में जाप।

उत्‍सुक तेरा तुरत ही, मिट जायेगा ताप।।169।।

पर हित जो पीड़ा सहें, दीनन के हों वाण।

जगदम्‍बे उनका करें, निश्चित ही कल्‍याण।।170।।

होली राध संग में, खेल रहे नंदलाल।

राधा डूबी रंग में, मगन भये गोपाल।।171।।

होली खेली कृष्‍ण ने ब्रज में राधे संग।

प्रीत रंग ऐसो चढ़ो, लागत अंग अनंग।।172।।

यों तो लेते नाम सब, मुख से कहते राम।

प्रीत होय तब जानिये, हृदय समाय नाम।।173।।

तब जीवन जानो सफल, प्रीत राम से होय।

दिन दूना सुख ऊपजे, प्राणी कभी न रोय।। 174।।

शांति दया उर राखिये, उपजे मन में प्रीत।

जानो तभी विवेक है, होय न कभी अनीत।।175।।

नेत्र अग्नि से शम्‍भू के, गर्दन में हैं नाग।

कंठ हलाहल पान कर, धरा करी बेदाग।।176।।

चन्‍द्र शीष गंगा जटा, उर में सर्प निवास।

तीन लोक शम्‍भू बसा, जंगल कीनो बास।।177।।

मूषक वाहन गणपती, खानो चाहे नाग।

कार्तिकेय का मोर भी, लगा रहा है लाग।।178।।

पार्वती के शेर की, नियत गई है डोल।

लगें गणेश हाथी उसे चाहे, करलूं गोल।।179।।

पार्वती उर डाह है, शम्‍भु जटा में गंग।

नेत्र अग्नि सिर चन्‍द्रमा, होत परस्‍पर जंग।।180।।

तंग आय परिवार से, संकट में थे प्राण।

महादेव ने इसलिये किया हलाहल पान।। 181।।

कार्तिकेय मुख छे हते, श्री गणेश गजराज।

अन्‍नपूर्णा ने रखी, पंच्‍चमुखी की लाज।। 182।।

भस्‍मासुर को दे दिया, भोले ने वरदान।

हाथ रखे जिस पर वही, पहुंच जाय शमशान।।183।।

इच्‍छा भस्‍मासुर भई, रख शंकर पे हाथ।

पाणिगृहण जाये करूं, पार्वती के साथ।।184।।

पार्वती कीनो जतन, नृत्‍य कियो तब साथ।

भस्‍मासुर भय भस्‍म तब, रख अपने सिर हाथ।।185।।

खेलत कूदत खात हैं, गर्दभ सूकर श्‍वान।

इनमें जो नर लिप्‍त है, वह है पशु समान।।186।।

व्‍यर्थ ढूंढते मित्र को, मित्र तुम्‍हारे पास।

स्‍वयं मित्र अपने तुम्‍हीं, काहे फिरो उदास।।187।।

जब तक तन में सांस है, माने घर के हेत।

बन्‍द होत ही सांस के, घरवाली तज देत।।188।।

राम राम उत्‍सुक कहो होवे बेड़ा पार।

पापिन ने हु रामभज, करलीनो उद्धार।।189।।

शिवशंकर करते सदा, विपदा जग की दूर।

ध्‍यान रखें संसार का, बसते जग से दूर।।190।।

हृदय राम सा यह बनें, मुख से निकले राम।

आप सभी स्‍वीकारिये, उत्‍सुक करे प्रणाम।।191।।

सत रज तम गुण तीव्र है, वृह्मा विष्‍णु महेश।

संचालन इस सृष्टि का, मेटें यही क्‍लेष।। 192।।

मन रूपी सीता हरण, आया करन विकार।

लक्ष्‍मण रेखा तजत ही, तड़पें विमल विचार।।193।।

हृदय ऊर्जा से सदा, होते नष्‍ट विकार।

सद् विचार उत्‍पन्‍न हों, चकित रहे संसार।।194।।

कालिन्‍दी तट ज्ञान घट, विज्ञ जनन को तीर्थ।

उपस्थिति लाक्‍शून्‍यसी, ठगी रहगर्इ कीर्त।।195।।

बीत गई सारी उमर, कहा न तूने राम।

समय अभी भी शेष है, कहले सीताराम।।196।।

बाबा कन्‍हरदास का, पावन नगर पिछोर।

कालिन्‍द्री तट पर हृदय, उत्‍सुक होय विभोर।।197।।

मन मंदिर सूना पड़ा, पनघट रहा तलाश।

आन विराजो हृदय में, छूट न जाये सांस।।198।।

घटा सांवली है घिरी, घर आये घनश्‍याम।

लौट न जायें द्वार से, आय मेहमान।।199।।

आंसू राधा की तरह, टप टप टपकें रोज।

सांवरिया आजाओ तुम, मिले हृदय को मोज।।200।।