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उत्‍सुक सतसई - 5 - नरेन्‍द्र उत्‍सुक

उत्‍सुक सतसई 4

(काव्य संकलन)

नरेन्‍द्र उत्‍सुक

सम्‍पादकीय

नरेन्‍द्र उत्‍सुक जी के दोहों में सभी भाव समाहित हैं लेकिन अर्चना के दोहे अधिक प्रभावी हैं। नरेन्‍द्र उत्‍सुक जी द्वारा रचित हजारों दोहे उपलब्‍ध है लेकिन पाठकों के समक्ष मात्र लगभग सात सौ दोहे ही प्रस्‍तुत कर रहे हैं। जो आपके चित्‍त को भी प्रभावित करेंगे इन्‍हीं आशाओं के साथ सादर।

दिनांक.14-9-21

रामगोपाल भावुक

वेदराम प्रजापति ‘मनमस्‍त’

सम्‍पादक

समर्पण

परम पूज्‍य

परम हंस मस्‍तराम श्री गौरीशंकर बाबा के श्री चरणों में सादर।

नरेन्‍द्र उत्‍सुक

प्राणी डर भगवान से, कर मत खोटे काम।

उनसे छुप सकता नहीं, सब जानत है राम।।401।।

दया दीन पर तुम करो, तुम पर कृपा निधान।

दीनबन्‍धु कहलात हैं, इस कारण भगवान।।402।।

दयावंत शंकर बहुत, इच्‍छा पूरन कीन।

पारवती से हो मगन, राम कथा कह दीन।।403।।

जगत गुरू शिक्षा समझ, श्रद्धा उर भगवान।

अनुनय पावन उर करे, दूर होय अज्ञान।।404।।

लगे बिरानो अपनो, गय माया में डूब।

मन से तो ओछे दिखें, सबको लगें बबूल।।405।।

चिन्‍ता सांपिन ने डसो, रही रक्‍त है चूस।

रहे कहीं के भी नहीं, लगन लागे मनहूस।।406।।

हम अपने ही आप से, करते हैं अन्‍याय।

दोष दूसरों पर लगा, मन लेते समझाय।। 407।।

अपने सन्‍मुख किसी की, मूरख सुने न बात।

कहते उसे असभ्‍य हैं, अपनी अपनी गात।। 408।।

चिन्‍तन घट रीते नहीं, खरचे दूनो होय।

करे, पाय, सुख शांति नर, उर नवनीत बिलोय।।409।।

भजन कीर्तन में मगन, पावे उर आनंद।

राम-कृष्‍ण का नाम ले, मिलता परमानंद।।410।।

उत्‍सुक मानव करते हे, तन पे बहुत गुमान।

अमर आत्‍मा जगत में, काया धूल समान।।411।।

दिन देता है चेतना, आलस देती रात।

साहस करे मुकाबला, छुपके होती घात।।412।।

पूनम की सुंदर लगे, सदा चांदनी रात।

लगे सभी को हृदय में, मावस खाये जात।। 413।।

वृत जिनके बल पर किया, रखते वे ही लाज।

उत्‍सुक मात्र निमित्‍त है, प्रभु करते हैं काज।।414।।

अनजाने हो जात हैं, भूल चूक अनेक।

हाथ जोड़ मांगे क्षमा, उत्‍सुक माथा टेक।।415।।

हृदय टटोलो, आपनो, ढूंढो अपने दोष।

उत्‍सुक रक्‍खो संतुलन, उर उपजे नहिं रोष।। 416।।

चन्‍डी रणचन्‍डी बनो, मिट जावे आंतक।

आस्‍तीन के सांप ही, थेपे देत कलंक।। 417।।

चरणों में सेवक पड़ो, दया करो हनुमान।

विपदा सारी मेट दें, दें दर्शन भगवंत।। 418।।

अर्जुन को दे कृष्‍ण ने गीता का उपदेश।

युगों युगों को देदिया, धरती को संदेश।।419।।

राधा उर अनुभूति है, ज्ञान कृष्‍ण का नाम।

पार हुये संसार से, जपकर भक्‍त तमाम।420।। ।

अर्जुन के सांचे सखा, बने सारथी आय।

अपनो रूप बिराट तब, रण में दिया दिखाय।।421।।

अर्जुन का श्री कृष्‍ण ने, बढ़ा मनोबल दीन।

दुर्योधन दीनो, हरा, धरती लीनी छीन।।422।।

आशा राजातम हैं, भक्‍तन के विश्‍वास।

लेत रहो तुम नाम नित, आवत जावत सांस।।423।।

भक्‍त और भगवान जब, एक रूप हो जात।

अनायास संसार तब, ज्‍योति लखे अज्ञान।।424।।

बजा बांसुरी कर दिया, सबको भाव विभोर।

पीछे पीछे गोपियां, आगे माखन चोर।425।।।

कृष्‍ण और राधा मिले, मुख से निकले राम।

कट संकट जावें सभी, पाय हृदय आराम।।426।।

सदा निभाते राम हैं, रख भक्‍तों की टेक।

दूर करें अज्ञान वे, उर में देत विवेक।।427।।

वीणा तेरी कंठ हे, जीवन पुस्‍तक अंश।

ज्ञान शारदे हो गया, मानस रूपी हंस।।428।।

गिरजा नंदन हृदय में, उपजाओ यह ज्ञान।

सदा करूं चिन्‍तन सुघट, रहे ना उर अज्ञान।।429।।

गुरू वचनों पर जो चलें, हो उनका उत्‍थान।

कट जावें कंटक सभी, मिले जगत में मान।।430।।

हेर फेर करते रहे, किया बहुत अन्‍धेर।

प्राणी कंचन देह को, कर देते हैं ढेर।।431।।

निर्धन का काटा गला, सम्‍पत्ति लीनी झूर।

पाप कमाया जगत में, नार पराई घूर।।432।।

युवतिन को भगनी समझ, वृद्धा मात समान।

पाता है संसार में, उत्‍सुक वह सम्‍मान।।433।।

बिस जाने पर सम्‍पदा, चले उठा कर भाल।

सुखी रहे संसाट में, होय भले कंगाल।।434।।

जैसी जो करनी करें, बैसे भोगें भोग।

व्‍यसनों में जब हो फंसे, कैसे छोड़ें रोग।।435।।

कमा अनीत से धन भय, तुम तो धन्‍ना सेठ।

उत्‍सुक अपने हाथ से, किस्‍मत हीनी मेट।।436।।

फूंक फूंक कर पग रखो, उत्‍सुक रहो सचेत।

पतन हुआ यह जानिये, भय जो तनिक अचेत।।437।।

संकट में रहते सुखी, जो लेते हैं नाम।

करो प्रार्थना चित्‍त से, भजलो सीताराम।।438।।

मिथ्‍या है संसार सब सांचो केवल नाम।

शरण गये रघुनाथ की, होत सुखद परिणाम।।439।।

क्षमा करो अपराध मम, शरण पड़ा हूं आय।

भक्‍तन को रघुनाथ तुम, लेते सदा निभाय।।440।।

समय गया आता नहीं, मूल्‍य समय का जान।

जो खोता है समय को, वह मूरख इन्‍सान।।441।।

मानव की काया मिली, दिया प्रभु ने ज्ञान।

वाणी से कर ले भजन, सुख से निकलें प्राण।।442।।

आकर हम संसार में, भूल गये भगवान।

माया में ऐसे फंसे, जपा न प्रभु का नाम।।443।।

जोड़ जोड़ माया मरे, मिटी न मन की भूख।

कंचन जैसी देह का रक्‍त गया है सूख।।444।।

मुंह चुराये कर्तव्‍य से, मानव कितना नीच।

ज्ञान पौध को हृदय में, सका न अब तक सींच।।445।।

त्रेता, द्वापर तो गये, सतयुग काफी दूर।

कलयुग में हैं हो गये, कर कितने मजबूर।।446।।

नये नये हैं हो रहे, जग में अनुसंधान।

जीत न पाया मौत को, पर अब तक इन्‍सान।।447।।

कोयल जैसी कूक हो, मानव होय दिलेर।

अच्‍छे कामों में लगा, उत्‍सुक कभी न देर।।448।।

सफल होयेंगे जगत में, सारे तेरे काम।

मर्यादा निर्वाह कर, जपले सीताराम।।449।।

मुट्ठी अपनी खोल दे, मत बन तू कन्‍जूस।

बन कर बगुला भक्‍त तू, खून रहा है चूस।।450।।

आये थे संसार में, करने को दो काम।

भजन करेंगे जगत में, लेंगे प्रभु का नाम।।451।।

माया में ऐसे फंसे, भूल गये हरिनाम।

कमा रहे हैं पाप हम, कर कर खोटे काम। ।452।।

मान जीत इन्‍सान भी बन सकता बजरंग।

दया रखे उर में सदा, बदले अपना ढंग।।453।।

मात पिता गुरू को सदा, नित्‍य झुकायें शीष।

नेक काम करता रहे, लेत रहे आशीष।।454।।

ज्ञान दिया गुरूदेव ने, रख माथे पर हाथ।

काट समय सत्‍संग में, शक्ति पाऊं अज्ञात।।455।।

नाम दीप उर में जले, फेले होय प्रकाश।

जले जोत से जोत जब, पूरण होवे आश।।456।।

मनका मनका जब जपे, मन को मिले बिराम।

रमा कृष्‍ण दो नाम ही, देते हैं आराम।।457।।

सनक सनंदन ने किया, स्‍योढ़ा मं तप आय।

मानव पहुंचे सनकुआ, धन्‍य जनम हो जाय।।458।।

भेदभाव तज हृदय से, सबको गले लगाय।

वह प्राणी इस जगत में, दिन दूनो सुख पाय।।459।।

थाती तो इतिहास है, गौरव है भूगोल।

उत्‍सुक अपने आप को, सोच समझकर तौल।।460।।

दूरी जब लगने लगे, रहे न उर विश्‍वास।

खेले निकटता परस्‍पर, रह करके भी पास।।461।।

परिचय जब लगने लगे, बरसों की पहचान।

अपने से भी अधिक तब, हो जाता अनजान।।462।।

वाणी जब चुभने लगे, करे शूल का काम।

मधुर बचन संसार में, लगते फूल समान।।463।।

जिनकी आंखिन का गया, उत्‍सुक पानी सूख।

मिटा न पाया जगत में, कोई उनकी भूख।।464।।

सज्‍जनता को तजत ही बहे आंख से नीर।

दुष्‍टन का संग करत है, मन को बहुत अधीर।।465।।

होनहार होती वहीं, जो प्रभु को मंजूर।

चिन्‍ता में भय जात है, कैसे चकनाचूर।।466।।

पग पग पर संकट यहां, यह तो है संसार।

रहे जूझता जो यहां, वह पाता है सार।।467।।

बना जगत को लेत हैं, अपनो मीठे बोल।

कड़वी वाणी हृदय में, देती है बिष घोल।।468।।

क्षमा मांगता आपसे, उत्‍सुक है अज्ञान।

भिक्षुक तो यह दास है, तुम दाता हो राम।।469।।

गुरू गोविन्‍द समान हैं, उपजावें उर ज्ञान।

तिमिर हटा देते सभी, मिट जाता अज्ञान।।470।।

मतलब से सब जुड़े हैं, सखा बन्‍धु मां बाप।

सरे न मतलब तब वहीं, देन लगत हैं श्राप।।471।।

मारे मारे फिर रहे, धन के पीछे लोग।

लता कामना बढ़ रही, लगा बुरा है रोग।।472।।

हवा देख बदले नहीं, वह मूरख इन्‍सान।

जीवन में मिलता नहीं, उसे कभी आराम।।473।।

कन्‍धे से कन्‍धा मिला, दिवस निभाता साथ।

रख देता झकझोर के, करे बगावत रात।।474।।

राम लखन सीता सहित, चले गये बनवास।

अवध पुरी सूनी लगे, खाय जात आकाश।।475।।

आंख मिचोली खेलते आपस में ही लोग।

इसीलिये संकट रहे, इतने जग में भोग।। 476।।

अहम मिटा उर में दया, वाणी सांची बोल।

प्रतिलुटा संसार में, ज्ञान किवडि़यां खोल।।477।।

गंग प्रीत की हृदय में लेती होय हिलोर।

आपस में हम तुम जुड़े, मनप हो जाये विभोर।।478।।

दुबिधा में दुनियां फंसी चूस रही है खून।

गला घोंटता है यहां, सरे आम कानून।।479।।

राम कहो चिन्‍ता मिटे, रहे न मन में ताप।

सुखी रहो उत्‍सुक सदा, कष्‍ट न दें संताप।।480।।

डगमगाय मन में मती, हिम्‍मत से ले काम।

भव सागर से नाव को, पार करेंगे राम।।481।।

कहत रहो तुम राम नित, होवें संकट दूर।

जीवन में उत्‍सुक कभी रहो न तुम मजबूर।। 482।।

वाणी से बोलो सदा, बचन सोच कर आप।

पहुंचावें ना किसी को, शब्‍द आपके ताप।।483।।

हो जाती है हंसी में, कभी कभी तकरार।

सावधान रहिये सदा, पड़ ना जाय दरार।।484।।

चढ़ते सूरज को करें, उठ कर सभी प्रणाम।

ढलती पर बोलन लगे, मुख सों सीताराम।।485।।

चमत्‍कार संसार में, माटी का परताप।

देते फल आशीष हैं, भटकातें हैं श्राप।।486।।

बसुन्‍धरा श्रम मांगती, उगले कंचन झूट।

बहां पसीना लीजिये बदले में भरपूर।। 487।।

संयम से जो भी रहें, सुखमय जीवन होय।

पहुंचाते आनंद हैं, घर में बालक दोय।।488।।

मर्यादा रघुवीर की, दुनियां में विख्‍यात।

दो बालक लवकुश भये धरती भई सनाथ।।489।।

दो ही बच्‍चे हैं बहुत लेओ विवेक से काम।

महकें फूलों की तरह करें जगत में नाम।।490।।

सीमित हो संतान तो, रहे सदा आनंद।

पति पत्‍नी सुख से रहें, पावें परमानंद।। 491।।

मिलजुल कर हम दो रहें, दो ही हों संतान।

चमकें सारे जगत में, सुखी होय इंसान।। 492।।

खिले खिले दो तीन ही लगते अच्‍छे फूल।

अधिक भये लगने लगें, वे ही हमको शूल।।493।।

पढ़ें लिखें सुख से रहें, होवे कम संतान।

जाके घर बच्‍चे अधिक, वह मूरख इंसान।।494।।

भी न किच किच लगत है, नहीं सुहाती भीड़।

अच्‍छी कम संतान है, होय आपनो नीड़।।495।।

नस बन्‍दी करवाय लो, चिन्‍ता भागे दूर।

जब चाहो संतान हो, सुख पाओ भरपूर।।496।।

शिव ऐसी रचना करो, बदल जाय संसार।

आपस में हम सब रहें, मिलकर भली प्रकार।।497।।

छाया देती प्रेरणा, रख ममता का रूप।

मानव मन को ऊर्जा, दे देती है धूप।। 498।।

फसल खेत में झूमती, होता मगन किसान।

श्रम के बदले में मिली, है सोने की खान।।499।।

दुनियां में विख्‍यात है, भक्‍ती का परताप।

लाये द्रोणागिरि उठा, मिटा दिया संताप।।500।।