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अय्याश--भाग(१४)

सत्या फौरन ही श्रीधर के गले लग गया ,दोनों इतने दिनों बाद एकदूसरे से गले मिले तो दोनों की ही आँखें नम हो गई,फिर श्रीधर ने सत्या से पूछा....
और बता कैसा है तू?
मैं तो बिल्कुल ठीक हूँ,तू बता ,सत्या बोला।।
मैं भी एकदम भला चंगा हूँ,श्रीधर बोला।।
और गंगा कहाँ है? वो नहीं आया,सत्या ने श्रीधर से पूछा...
ये सुनकर श्रीधर कुछ ना बोला और पेड़ के ओट में जाकर उदास सा खड़ा हो गया,उसका ऐसा रवैय्या देखकर सत्या उसके पास गया और फिर से पूछा....
बोलते क्यों नहीं? जवाब दो मेरे सवाल का! कहाँ है गंगा?
मुझ से मत पूछ सत्या! मैं जवाब ना दे पाऊँगा,श्रीधर बोला।।
क्यों? जवाब क्यों नहीं देगा मेरे सवाल का? सत्या बोला।।
मत पूछ मेरे भाई! ...मत पूछ,श्रीधर बोला....
जब श्रीधर कुछ नहीं बोला तो सत्या ने उसका हाथ अपने सिर के ऊपर रखते हुए कहा....
श्रीधर! तुझे मेरी सौगन्ध! बता गंगा कहाँ है?
श्रीधर सत्या की झूठी सौगन्ध नहीं खा सका और उसने सत्या को सच्चाई से रूबरू कराते हुए कहा....
तुम्हारे जाने के बाद गंगा का यहाँ मन ना लगता था इसलिए वो फौज़ में भर्ती होने चला गया,उस की कद काठी की वज़ह से उसे चुन लिया गया,फौज़ में भर्ती हो जाने की वज़ह से वो बहुत खुश था,वो जब छुट्टियों पर घर आया था तो सबके लिए कुछ ना कुछ लाया था,तेरे लिए भी वो सोने का एक फाउंटेन पेन लाया था,फिर बाबूजी ने बगल वाले गाँव में एक अच्छी सी लड़की भी देख ली थी उसके लिए,कह रहे थे कि इस बार छुट्टियों पर घर आएगा तो उसकी सगाई तय कर देगें लेकिन फिर.....
ये कहते कहते श्रीधर रूक गया....
फिर क्या....? श्रीधर!आगें बोल....,सत्या चिल्लाया।।
सत्या की बात सुनकर श्रीधर ने आगें बोलना शुरू किया...
फिर एक दिन डाकिया एक तार लेकर आया और उसमें लिखा था कि जवान गंगाधर जापानियों से युद्ध करते समय शहीद हो गए(ये द्वितीय विश्वयुद्ध की बात है,१९३९ से १९४५ तक)।।
ये सुनकर सत्या का दिमाग़ चकरा गया और उसने श्रीधर से कहा....
कह दो कि ये झूठ है....
नहीं! सत्या! यही सच है....गंगा अब हमारे बीच नहीं है,श्रीधर बोला।।
और फिर ये सुनकर सत्या रोते हुए घुटनों के बल धरती पर बैठ गया,उससे अपने आँसू सम्भाले नहीं जा रहे थे,श्रीधर उसके पास आया और उसे अपने सीने से लगाते हुए बोला....
सत्या! सम्भाल खुद को,मेरा भी यही हाल था जब मैनें ये खबर सुनी थी,ये रहा तेरा फाउंटेन पेन जो गंगा तेरे लिए लाया था,जब वो ड्यूटी पर वापस जा रहा था तो उसने इसे मुझे देते हुए कहा कि .....
मैं तो फौज़ में जा रहा हूँ और मेरे यहाँ ना रहने पर यदि सत्या लौटे तो उसे ये फाउंटेन पेन दे देना,जब ये पेन वो अपनी जेब खोसेगा तो उसे लगेगा कि मैं उसके पास हूँ.....
सत्या ने वो पेन अपने हाथ में लिया और चीख पड़ा....
तू भी धोखेबाज निकला,मुझे अकेला छोड़कर चला गया,जो मेरे दिल के बहुत करीब होता है वही मुझे छोड़कर चला जाता है,पहले बाबूजी चले गए,फिर बिन्दू,माँ ने भी मुझे छोड़ दिया और अब तू भी मुझे छोड़कर चला गया.....
काफी देर सत्या यूँ ही रोता रहा फिर श्रीधर ने उसे सान्त्वना दी,वो श्रीधर के साथ और समय बिताना चाहता था लेकिन फिर उसे अपने मामा दीनानाथ का ख्याल आ गया और फिर उसने श्रीधर से जाने की इजाजत माँगी,श्रीधर उसे रोकना तो चाहता था लेकिन उसे भी अपने पिता का भय था इसलिए उसने भी सत्या को रोकने की कोशिश नहीं की और फिर सत्या अपने गाँव पहुँचा,वहाँ नदी के पास पहुँचकर उसने अपने झोले में से अस्थियों का कलश निकाला और फिर उसे नदी में बहा दिया और अपने बाबूजी से माँफी माँगते हुए बोला....
माँफ कर दीजिए बाबूजी! मैं माँ को संग ना ला सका आपकी अन्तिम विदाई में।।
और फिर सत्या चल पड़ा एक और ऐसे रास्ते पर जिसकी ना तो कोई मंजिल थी और ना कोई ठिकाना,वो तो बस चल पड़ा था,ना जाने किस ओर ना जाने किस दिशा में,बस वो चला जा रहा था भूखा प्यासा,अकेला,ना उसका कोई घर था और ना कोई उसे अपना कहने वाला था,उसने अब अपनी किस्मत से समझौता करना सीख लिया था।।
उसके पास ना बस के किराएं के पैसे थे और ना खाने के लिए रोटी,उसे बहुत प्यास भी लग रही थी,उसे कहीं भी कोई कुआँ नहीं दिख रहा है और ना ही उसे कोई पानी का साधन दिख रहा था,ऊपर से कड़ी धूप थी,सूरज सिर पर चढ़ आया,सत्या प्यास से व्याकुल था,जब उसके लिए प्यास सहना उसकी क्षमता के बाहर हो गया तो वो वहीं सड़क पर चक्कर खाकर गिर पड़ा.....
वो कुछ देर वहीं सड़क पर यूँ ही पड़ा रहा,कुछ देर बाद वहाँ से एक ताँगा गुजरा,उस ताँगें में बैठे व्यक्ति ने सत्यकाम को यूँ सड़क पर पड़ा देखा तो फौरन उसने ताँगेवाले से ताँगा रोकने को कहा,उस व्यक्ति की बात सुनकर ताँगेंवाला बोला....
बाबू जी! ना जाने कौन हो? कोई पीकर पड़ा हो या चाकू लेकर यूँ ही सड़क पर लेटकर नाटक कर रहा हो,हो सकता है कि राहगीरों को लूटने की फिराक़ में हों,ऐसे किसी पर भरोसा करना ठीक नहीं....
अरे! तुम ताँगा तो रोको,उस व्यक्ति ने फिर से ताँगेवाले से कहा....
मजबूर होकर ताँगेंवाले को ताँगा रोकना पड़ा,लेकिन ताँगेंवाले ने ताँगा कुछ दूर ही खड़ा किया,ताकि कोई खतरा हो तो वो वहाँ से आसानी से आग सकें....
फिर वो व्यक्ति ताँगें से उतरा और सत्यकाम के पास पहुँचा और उसके चेहरे को देखा,उसे सत्या की हालत काफी खराब लगी,तब उसने ताँगेंवाले को आवाज़ दी और कहा.....
रामअवतार! सुराही से पानी लेकर आओ।।
ताँगेंवाला वाला फौरन ही सुराही से गिलास भरकर वहाँ पहुँचा और उस व्यक्ति के हाथ में पानी दिया,उस व्यक्ति ने पहले थोड़ा पानी सत्या के चेहरे पर छिड़का,चेहरे पर पानी पड़ते ही सत्या को होश आ गया और उसने पानी ....पानी....कहना शुरू किया।।
सत्या के पानी माँगने पर उस व्यक्ति ने सत्या को पानी पिलाया,एक गिलास पानी पी जाने के बाद सत्या की प्यास नहीं बुझी थी तो उसने फिर से पानी माँगा और तब उस व्यक्ति ने ताँगेंवाले से कहा....
रामअवतार! ताँगा इधर लेकर आओं।।
रामअवतार दोनों के पास अपना ताँगा ले आया,तब उस व्यक्ति ने सत्या को सहारा देकर ताँगें पर बैठने को कहा,सत्या ताँगें पर बैठा तो उस व्यक्ति ने सत्या को फिर से गिलास में सुराही से पानी भरकर दिया,सत्या ने पानी पिआ और उस व्यक्ति को धन्यवाद देते हुए कहा....
धन्यवाद! आज आपने मेरे प्राण बचा लिए,नहीं तो कुछ ही देर में तो यमराज जी मुझे अपने साथ ले जाते।।
ऐसा कुछ नहीं है भाई! शायद ईश्वर ने ही मुझे आपकी मदद के लिए भेजा हो,वैसे आपका शुभ नाम जान सकता हूँ,उस व्यक्ति ने सत्या से पूछा....
जी! मैं सत्यकाम चतुर्वेदी,सत्या बोला।।
ओह...जी! बहुत अच्छा! और मैं अमरेन्द्र प्रताप सिंह,उस व्यक्ति ने कहा...
अच्छा लगा आपसे मिलकर,मेरी वज़ह से आपको बहुत तकलीफ़ उठानी पड़ी ,इसके लिए क्षमा चाहता हूँ,सत्यकाम ने कहा।।
जी! ऐसी कोई बात नहीं है,ये तो मेरा फर्ज था,अमरेन्द्र बोला।।
फिर भी आपका कितना वक्त बर्बाद हुआ,सत्या बोला।।
जी! बिल्कुल नहीं,पहले आप ये बताएं कि आप कहाँ रहते हैं तो मैं आपको वहाँ तक इस ताँगें से छुड़वा दूँ,अमरेन्द्र ने पूछा।।
जी! किस्मत का मारा हूँ,मेरा कोई ठिकाना नहीं है,मुसाफिर हूँ कहीं भी चल पड़ पड़ता हूँ,जहाँ आसरा मिल जाता है तो ठहर जाता हूँ,सत्यकाम बोला।।
आप तो बड़े दिलचस्प इन्सान मालूम होतें हैं,अमरेन्द्र बोला।।
दिलचस्प जरूर हूँ मैं लेकिन लोगों को मुझ में कोई दिलचस्पी नहीं रहती,तभी तो मारा मारा फिर रहा हूँ,सत्यकाम बोला।।
ऐसा क्यों कहते हैं आप? मुझे तो आप भले मालूम होते हैं,अमरेन्द्र बोला।।
पता नहीं कैसा हूँ मैं?भला हूँ या बुरा,वो तो मैं नहीं जानता ,बस इतना जरूर कहूँगा कि दुनिया को मैं जिस नजरिए से देखता हूँ शायद उस नजरिए से दुनिया खुद को नहीं देख पाती,सत्यकाम बोला।।
आपकी बातों से आप बहुत पढ़े लिखे मालूम पड़ते हैं,अमरेन्द्र बोला।।
जी! पढ़ा लिखा तो हूँ लेकिन क्या फायदा? ये दुनिया तो मुझे नासमझ कहती है,सत्यकाम बोला।।
आप तो मुझे बहुत समझदार दिखाई देते हैं,अमरेन्द्र बोला।।
इसलिए तो कहीं भी ज्यादा देर तक टिक नहीं पाता,सत्यकाम बोला।।
तो फिर आप मेरे घर चलिए,मुझे एक मुनीम की जरूरत है,अमरेन्द्र बोला।।
मुनीम....! मैं आपका मतलब नहीं समझा,सत्या ने पूछा।।
जी! मैं एक जमींदार हूँ,दस गाँव आतें हैं मेरी जमींदारी में,माँ तो मेरे बचपन में ही चल बसी थी,बाबूजी को भी गुजरे हुए दो साल हो चुके हैं,इतनी बड़ी हवेली में मैं और मेरी छोटी बहन ही रहते हैं,शादी इसलिए नहीं कर रहा कि बहन बालविधवा है,मेरी पत्नी के आ जाने पर ना जाने उसका व्यवहार मेरी बहन के प्रति कैसा हो जाएं,मैं अपनी बहन को दुखी नहीं देख सकता,ना जाने मेरे बाबूजी को क्या जरूरत थी मेरी बहन का बालविवाह करने की,अब देखों बेचारी बेरंग जिन्द़गी जी रही है,अमरेन्द्र बोला।।
तो आप ने कभी उनका दूसरा विवाह करने का नहीं सोचा,सत्या ने पूछा।।
सोचा था लेकिन समाज वालें नहीं चाहते कि एक विधवा का दूसरा विवाह हो,अमरेन्द्र बोला।।
वो आपकी बहन है तो समाज क्यों तय करेगा उसकी जिन्दगी के बारें में?,सत्या बोला।।
समाज ऐसा ही है मेरे भाई! पहले आप घर चलिए,बाकी बातें घर पर ही करेगें,अमरेन्द्र बोला।।
ठीक है,सत्या ने कहा।।
इसके बाद अमरेन्द्र सत्या को लेकर अपने घर पहुँचा,अमरेन्द्र ने सत्यकाम को बैठक में बैठाया और बोला...
मैं कुछ जलपान का इन्तजाम करता हूँ॥
जी! ये सब अभी रहने दें,पहले मैं स्नान करूँगा उसके बाद ही जलपान गृहण करूँगा,सत्यकाम बोला।।
तो फिर पहले आप स्नान कर लीजिए,अब तो दोपहर के भोजन का समय है फिर साथ मिलकर भोजन ही करते हैं,अमरेन्द्र बोला।।
जी! बहुत बढ़िया,यही ठीक रहेगा ,सत्यकाम बोला।।
तो घर के पीछे के आँगन में कुआँ है आप वहाँ स्नान कर लीजिए,मैं आपको कुँआ दिखा देता हूँ ,अमरेन्द्र बोला।।
जी! चलिए।।
और इतना कहकर सत्यकाम अपना झोला लेकर आँगन में आ गया,झोले में उसके कपड़े थे।।
ठीक है तो आप यहाँ आराम से स्नान कीजिए,तब तक मैं रसोई घर में खाने की तैयारी देखकर आता हूँ...
और इतना कहकर अमरेन्द्र आँगन से चला गया।।
सत्या ने कुएँ से अपने लिए दो बाल्टी पानी भरा और जैसे ही नहाने के लिए अपना कुरता उतारने वाला था तो वहाँ एक लड़़की आ पहुँची जो कि सफेद साड़ी और बिखरें बालों में थीं,उसने सत्या को देखा तो उससे बोली....
ए...तुम यहाँ कैसें घुसें?
जी....मैं...मैं,
सत्या केवल इतना ही बोल पाया था कि उस लड़की ने दूसरा सवाल पूछ लिया....
कहीं तुम चोर तो नहीं...
जी! मैं और चोर,सत्या बोला।।
हाँ! खतरनाक चोर लगते हो और यहाँ क्या चुराने आएं हो?लड़की ने पूछा।।
जी! मै कोई चोर नहीं,सत्या बोला।।
तो फिर यहाँ क्या करने आएं? लड़की ने पूछा।।
मैं तो बस यहाँ स्नान करने आया था,सत्या बोला।।
क्यों? तुम्हारे घर में पानी नहीं है,जो तुम स्नान करने यहाँ आएं हो,लड़की ने पूछा।।
जी! मैं तो यहाँ अमरेन्द्र जी के साथ आया था,सत्या बोला।।
क्या कहा? तुम यहाँ भइया के साथ आएं हो,झूठे कहीं के,लड़की बोली।।
जी! मैं सच कहता हूँ,सत्या बोला।।
हाँ ! पगली! वो सच कहता है,पीछे से अमरेन्द्र बोला।।
भइया! तुम कब आएं? उस लड़की ने पूछा।।
अभी थोड़ी देर पहले आया और ये हमारे अतिथि हैं,ये अब से हमारे यहाँ ही रहेगें,अमरेन्द्र बोला।।
और इतना सुनकर वो लड़की आँगन से भाग गई.....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....