Ayash-Part(34) books and stories free download online pdf in Hindi

अय्याश--भाग(३४)

बंसी कमरें के भीतर आते ही बोला....
लीजिए! आप दोनों का नाश्ता,खा लीजिए,
काका! तुम नाश्ता रख दो,मैं बाबू जी लिए परोस देती हूँ,संगिनी बोली।।
ठीक है बिटिया! मैं बाद में थालियाँ ले जाऊँगा,इतना कहकर बंसी नीचें चला गया,बंसी के जाते ही संगिनी ने फिर से सत्या से पूछा....
आप मुझे पसंद करते हैं या नहीं।।
मैनें कहा ना! मैं तुम्हारे सवाल का जवाब नहीं दे सकता।।
लेकिन क्यों?संगिनी बोली।।
क्योंकि मैं जिसे भी पसंद करता हूँ वो मुझसे हमेशा बिछड़ जाते हैं,चाहे मेरा भाई हो ,चाहें मेरी माँ हो,चाहें बाबूजी हों या फिर और कोई,डर लगने लगा मुझे अब किसी को भी अपना बनाने में,सत्यकाम बोला।।
तो फिर आपने अपने जीवन में मुझे बिना पसंद किए ही स्थान दे दिया? संगिनी ने पूछा।।
वो अचानक ही सबकुछ हो गया,मुझे उस समय और कोई रास्ता नहीं दिखा इसके सिवाय,सत्यकाम बोला।।
तो मैं ये मानूँ कि ये रिश्ता केवल हमदर्दी का है,संगिनी बोली।।
अभी मैं कुछ कह नहीं सकता,सत्यकाम बोला।।
तो क्या जीवनपर्यन्त मैं आपका प्रेम ना पा सकूँगी?संगिनी बोली।।
मैनें कहा ना! कि कुछ कह नहीं सकता,सत्यकाम बोला।।
मैं सब समझ गई,संगिनी बोली।।
मुझे थोड़ा समय चाहिए,सत्यकाम बोला।।
जी!ठीक है! मैं अब इस विषय में कभी भी आपसे कुछ ना पूछूँगी,मैं नाश्ता परोस देती हूँ,आप नाश्ता कर लीजिए,फिर इतना कहकर संगिनी ने सत्या के लिए नाश्ता परोस दिया और सत्या चुपचाप नाश्ता करके विद्यालय की ओर रवाना हो गया,लेकिन इधर संगिनी कुछ उदास सी हो गई फिर उसने नाश्ता नहीं किया और चुपचाप जाकर चारपाई पर लेट गई,कुछ देर बाद बंसी काका थालियाँ लेने आ पहुँचें,तब संगिनी उनसे बोली.....
बंसी काका! बाबूजी की थाली ले जाइए,मेरी थाली मैं तो अभी नाश्ता रखा है।।
क्यों बिटिया? तुमने नाश्ता क्यों नहीं किया,बंसी काका ने पूछा।।
बस,मन नहीं है,संगिनी बोली।।
बिटिया! इतनी उदास काहें दिखती हो,कुछ कहा क्या बाबूसाहेब ने? बंसी ने पूछा।।
यही तो रोना है कि वें कुछ कहते ही तो नहीं हैं,संगिनी बोली।।
मतलब नहीं समझ आया कि क्या कहना चाहती हो?बंसी ने पूछा।।
जब वें मुझे पसंद नहीं करते तो मुझसे ब्याह क्यों किया? संगिनी बोली।।
संगिनी की बात सुनकर बंसी काका बोले....
बिटिया! तुमने देखा ना कि बाबूसाहेब ने तुमसे किन हालातों में ब्याह किया,तो उनके मन को भी थोड़ा समझने की कोशिश करो,एकाएक आ गई तुम उनकी जिन्दगी में,ऐसी तो ना तुमने कल्पना की होगी और ना उन्होंने,इसलिए थोड़ा समय दो उन्हें,समय के साथ साथ सब ठीक हो जाएगा,तुम उनकी धर्मपत्नी हो ,इसलिए तुम्हारा और उनका रिश्ता अटूट है इसलिए डरो मत,समय के साथ सब ठीक हो जाएगा,उन्होंने तुम्हारी माँग में सिन्दूर भरा है और इस सिन्दूर में बहुत ताकत होती है,इसी सिन्दूर के कारण ही सावित्री अपने पति सत्यवान के प्राण यमराज से वापस ले आई थी,तो यही सिन्दूर बाबूसाहेब के हृदय में में तुम्हारे प्रति प्रेम और अपनापन भी जगा देगा.....
सच! काका! ऐसा हो जाएगा,संगिनी ने पूछा।।
हाँ! बिटिया! मुझ पर भरोसा करो,बंसी काका बोलें।।
काश!तुम्हारा कहा सच हो जाए बंसी काका!संगिनी बोली।।
हाँ! बिटिया! यही होगा देखना,तो चलो फिर नाश्ता कर लो,नाश्ते से कैसा बैर?बंसी बोला।।
और फिर बंसी काका की बात मानकर संगिनी नाश्ता करने बैठ गई,संगिनी के नाश्ता करने के बाद बंसी थालियाँ लेकर नीचे चला गया.......
अब संगिनी के पास कोई काम नहीं था इसलिए एक किताब उठाकर वो चारपाई पर जा लेटी और शाम होने का इन्तजार करने लगी,जैसी ही साँझ ढ़ली तो सत्यकाम भी आ पहुँचा,उसके हाथों में पत्तो के बने हुए दोनो में देशी घी में बनी इमरती और समोसे थे,दोनों चीजें वो संगिनी को देते हुए बोला.....
लो तुम्हारे लिए हैं।
आप हाथ मुँह धोकर आइए फिर साथ में खाते हैं,संगिनी बोली।।
कुछ ही देर में सत्यकाम हाथ-मुँह धोकर और कपड़े बदलकर आ पहुँचा तो संगिनी ने उसके सामने समोसे और इमरती रख दी,तब सत्यकाम ने संगिनी से कहा....
तुम भी खा लो।।
आप खा लीजिए मैं बाद में खा लूँगी,संगिनी बोली।।
संगिनी की बात सुनकर सत्यकाम बोला.....
एक बात कहूँ संगिनी!
जी कहिए! संगिनी बोली।।
ये पति-पत्नी वाला रिश्ता हम बाद में निभाएं तो,अगर हम पहले एकदूसरे के अच्छे दोस्त बनकर एकदूसरे का ख्याल रखें तो कैसा रहेगा?सत्यकाम बोला।।
लेकिन ऐसा क्यों?संगिनी ने पूछा।।
वो इसलिए कि जो तुम ये मेरे बाद खाती हो जिसे तुम पत्नीधर्म कहती हो वो मुझे अच्छा नहीं लगता,हम पति-पत्नी हैं और एकदूसरे के पूरक हैं,इसलिए जब तुम मुझे उच्च स्थान देती हो तो मुझे थोड़ा अजीब लगता है,जब हम दोनों दोस्त बन जाऐगें तो फिर हमारे बीच बराबरी का सम्बन्ध हो जाएगा इसलिए मुझे लगता है कि पहले हम दोनों के बीच दोस्ती का रिश्ता होना चाहिए,सत्यकाम बोला।
लेकिन आप मुझसे उम्र में बड़े हैं तो आपको उच्च स्थान देना अनुचित तो नहीं,संगिनी बोली।।
तुम्हारी बात भी ठीक है लेकिन जब हम दोस्त बन जाऐगें तो हमारे बीच ये उम्र की दीवार नहीं रहेगी और जो मुझे तुमको पति समझकर उच्च स्थान देना पड़ता है फिर वो भी नहीं देना पड़ेगा,सत्यकाम बोला।।
वो उच्च स्थान तो मैं आपको मान देने के लिए देती हूँ,संगिनी बोली।।
यही तो मैं नहीं चाहता,मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे बराबर ही रहो नीचें नहीं,सत्यकाम बोला।।
अगर आप यही चाहते हैं तो मुझे आपकी दोस्ती मंजूर है,संगिनी बोली।।
तो फिर आओ मेरे साथ बैठकर खाओ,सत्यकाम बोला।।
और फिर संगिनी बिना किसी नानुकुर के सत्यकाम के संग इमरती और समोसे खाने लगी,अँधेरा होने को था इसलिए इमरती और समोसे खाने के बाद दोनों छत पर टहल टहलकर बातें करने लगें,दोनों ने बहुत ढ़ेर सारी बातें की,एक दूसरे की पसंद नापसंद जानने की कोशिश की,आज दोनों ने एकदूसरे से दिल खोलकर बातें की,इन बातों के दौरान संगिनी के मन में जो संदेह था वो भी काफी हद तक दूर हो चुका था,आज वो खुश होने के साथ साथ संतुष्ट भी थी।।
कुछ भी देर में बंसी रात का खाना लेकर आ पहुँचा और आज संगिनी ने बंसी काका से कहा कि तुम अभी जाओ काका थोड़ी देर बाद आ जाना थालियाँ लेने और फिर संगिनी की बात सुनकर बंसी चला गया,इसके बाद आज संगिनी ने सत्यकाम के साथ ही रात का खाना खाया,आज संगिनी को सत्या के संग अपनी शाम गुजार कर अच्छा लगा,रात हो चुकी थी इसलिए सत्या ने बाहर छत पर सोने के लिए अपनी चटाई उठाई तो संगिनी ने उसे मना किया और बोली....
आप चारपाई पर सो जाइए,मैं यहीं फर्श पर चटाई बिछाकर सो जाती हूँ।।
नहीं! तुम्हें फर्श पर लेटने पर दिक्कत होगी,सत्यकाम बोला।।
नहीं! मुझे कोई परेशानी नहीं होगी,संगिनी बोली।।
नहीं! तुम चारपाई पर ही सो जाओ,मैं बाहर छत पर ही सो जाता हूँ,सत्यकाम बोला।।
आपने कहा ना कि अब पति-पत्नी से पहले हम दोस्त हैं इसलिए आपको दोस्त की बात तो माननी ही पड़ेगी,आपको हमारी दोस्ती की कसम,संगिनी बोली।।
बहुत चालाक हो तुम! दोस्त बनते ही इतनी जल्दी फायदा उठाना भी शुरू कर दिया,सत्यकाम बोला।।
इतना अधिकार तो बनता है ना मेरा! आपकी दोस्त जो हूँ,संगिनी बोली।।
ठीक है जैसी तुम्हारी मर्जी और इतना कहकर सत्यकाम चारपाई पर जा लेटा ,फिर संगिनी भी फर्श पर चटाई बिछाकर सो गई,आज दोनों ही निश्चिन्त होकर सोएं,सुबह हुई हमेशा की तरह पहले संगिनी जागी और स्नान करके कमरें में पहुँच गई,उसने अपने गीले बालों पर बँधे तौलिए को खोला और बालों को झटक दिया जिससे गीलें बालों के पानी के छींटे सत्यकाम के चेहरे पर पड़े और वो जाग उठा,आँख खुलते ही वो संगिनी को गौर से देखने लगा,आज उसने पहली बार उसे ध्यान से देखा था,उसके काले घने लम्बे बाल,पीली गोराई लिए रंग,बड़ी बड़ी कजरारी आँखें,गोल चेहरा,गुलाब की पंखुड़ी समान होंठ और होंठ के ऊपर काला सा तिल,छरहरा बदन और कन्धे पर होता हुआ साड़ी का पल्लू पतली कमर पर लिपटा हुआ था......
सत्या संगिनी को निहार ही रहा था कि तभी संगिनी की नजर सत्या पर पड़ी तो उसने लजाते हुए अपने गीले बालों को समेटकर जूड़ा बना लिया और सूती साड़ी का पल्लू कमर से खोलकर उसने सिर पर डाल लिया.....
संगिनी की ऐसी प्रतिक्रिया देखकर सत्या बोला.....
खुले बालों में अच्छी लगती हो,इन्हें खोलकर ही रखा करो.....
इतना कहते ही संगिनी लजा गई और धीरे से अपने बँधे हुए जूड़े को पुनः खोल दिया,ये देखकर सत्यकाम धीरे से मुस्कुरा दिया....
कुछ ही देर में सत्या भी स्नान करके आ गया और संगिनी से बोला....
तुम्हें याद हैं ना! आज हमें किसी के घर जाना है।।
जी! मुझे याद है,कब तक जाना होगा?मैं तैयार हो जाऊँगी,संगिनी बोली।।
नाश्ता कर लेते हैं फिर उसके बाद तैयार हो चल पड़ेगे,सत्यकाम बोला।।
जी! बहुत बढ़िया,संगिनी बोली।।
और फिर दोनों के नाश्ता करने के बाद संगिनी ने तैयार होने की सोची और सत्या से पूछा....
इनमें से कौन सी साड़ी पहनूँ,
तुम ऐसा करो माँ वाली साड़ी पहन लो,सत्यकाम ने संगिनी को सुझाव दिया।।
कुछ ही देर में संगिनी श्रृगांर करके तैयार हो गई,आज संगिनी की सुन्दरता देखते ही बनती थी,गुड़िया जैसी लग रही थी वो आज,सत्या ने देखा तो एक पल को उसकी नज़र संगिनी पर ठहर गई,दोनों लगभग दोपहर के बारह बजे तक मकान के बाहर आएं,एक ताँगा रुकवाया और उसमें बैठकर मुखर्जी बाबू के घर की ओर रवाना हो गए....
थोड़ी ही देर में दोनों मुखर्जी बाबू के घर पहुँच गए,शुभगामिनी ने फौरन ही संगिनी के मुँख से पल्लू हटाया और उसका चेहरा देखकर बोली....
ओ..माँ...मोम सी गुड़िया जैसी दुल्हन है आपकी,हाथ लगाते ही मैली ना हो जाएं कहीं...
क्या भाभी आप भी? सत्यकाम बोला।।
सच! बिन माँगें मोती मिल गया आपको,खूब भालो...,शुभगामिनी बोली।।
अब यही पर खड़ी रहकर बातें करती रहोगी क्या शुभी? भाभी को अन्दर ले जाओ,मुखर्जी बाबू बोले...
हाँ...हाँ...ले जाती हूँ और इतना कहकर शुभगामिनी संगिनी को भीतर ले गई.....
और फिर शुभगामिनी ने संगिनी से कुछ बातें पूछी और उनका निवारण भी किया,शुभगामिनी संगिनी से बोली....
बहन! अब तुम खुद को अकेली मत समझों,मैं हूँ ना!तुम्हारी हर उलझन को मैं सुलझाऊँ।।
शुभगामिनी की बातें सुनकर और इतना अपनापन देखकर संगिनी की आँखें भर आईं....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा.....