Hamaare Hostel ka Shaniwaar books and stories free download online pdf in Hindi

हमारे हॉस्टल का शनिवार

"हमारे हॉस्टल का शनिवार"


शनिवार का दिन..

कुछ खास था यह दिन हमारे हॉस्टल के लिए..इस दिन हॉस्टल में पढ़ाई का 'ऑफ डे' होता था यानि स्टडी-बेल नहीं होती थी।लड़कियों को आजादी थी कि जैसे चाहें एन्जॉय करें।हम पटना वीमेंस कॉलेज के हॉस्टल में रहने वाली लड़कियाँ बड़े चाव से इस दिन का इंतजार किया करती थीं।शाम से ही उत्साह में वृद्धि हो जाती थी।आज के दिन पढ़ाई से छुट्टी रखनी है..सुबह से ही सारी लड़कियों के अजब-गजब प्लान बनने शुरू हो जाते थे कि आज रात क्या और कैसे एन्जॉय करना है।संध्या-प्रार्थना के बाद हम सब हर दिन की तरह दौड़ पड़ते थे डिनर के लिए मेस की ओर..।अधिकतर शनिवार के दिन खिचड़ी मिलती थी।इसीलिए मेस जाते समय किसी के हाथ में घर से आयी घी की शीशी होती थी तो कोई अचार की बॉटल हाथ में लिए होती थी।शनिवार मतलब रिलैक्सिंग-डे..न तो अगले दिन क्लास होना था,न ही कॉलेज जाने की फिक्र थी...तो खिचड़ी खाते-खाते हम सबके मन में तरह-तरह के ख्याली पुलाव पकते रहते थे,जिसे खाने की टेबल पर ही हम एक दूसरे से शेयर किया करते थे--इस संडे कौन आँवला फुलाकर बाल धोयेगी,कौन मार्केट जाकर नयी ड्रेस लेगी..कौन ब्यूटी पार्लर जायेगी और कौन पिक्चर देखने जायेगी वगैरह वगैरह..मेस का ब्वॉय हर टेबल पर पानी पहुँचा रहा होता था और हम सब खाते-पीते गपशप की मजेदार रेसिपी में हँसी-मजाक के डेजर्ट का लुत्फ उठा रहे होते थे।जिन्हें खिचड़ी पसंद नहीं थी वे एक्स्ट्रा पैसे देकर उबले अंडे या ऑमलेट वगैरह लिया करती थीं।एक्स्ट्रा ऑडर पर तो हमारे मेस के कॉंन्ट्रैक्टर,मिस्टर वर्मा का चेहरा ऐसा खिल जाया करता था कि क्या बताऊँ।खी-खी करते, दाँत निपोरते बड़े खुश होकर पूछा करते थे-"और किसी को कुछ एक्स्ट्रा लेना है?"ऐसे में हम सब उन्हें देखकर आपस में भुनभुनाया करती थीं--"ऐसी पतली सी खिचड़ी देते हैं,आलू का भरता भी ठीक से बनाते नहीं और देखो तो,कैसे खी-खी कर रहे हैं.."पर मि.वर्मा गरम-गरम पापड़ छनवाकर और बैगन का भरता दिखाकर हमें संतुष्ट कर देते थे--"देखिये दीदी,आज आपलोग के लिए बैगन का भरता भी बनवाये हैं.. खुद से खड़े होकर अपने सामने बनवाये हैं।खाकर देखिए, बहुत अच्छा बना है।"

डिनर के बाद का समय तो हमारे लिए मानो सपनों की दुनिया में सैर करने जैसा होता था।मेस से वापस आये और एक नया अध्याय शुरू..

हॉस्टल के खूब लंबे से कॉरीडोर के बीचोंबीच करीने से लगी अल्मारियों में मैगजीन्स और रिकॉर्ड-प्लेयर होते थे,जिनका उपयोग शनिवार और रविवार को ही अलाऊड हुआ करता था। वो जमाना न तो मोबाईल का था न ही सोशल मीडिया का..तब इन्सान ही इतने सोशल हुआ करते थे कि आमने -सामने बैठकर और एक दूसरे से बतियाकर ही एक मन का मैसेज दूसरे के मन तक फॉरवर्ड किया करते थे।लिहाजा,बीच के सेंटर टेबुल के पास लड़कियों का जमावड़ा हो जाता था..रेकॉर्ड पर बॉनिएम जैसी अँग्रेजी धुनें या उस समय के लेटेस्ट हिंदी फिल्मों के गाने लगाए जाते थे।फिर, शुरू होता था अजब-गजब नृत्य का दौर।जिसे नाचना आता था वो भी और जिसे नाचना बिल्कुल भी नहीं आता था,वो भी--सब साथ में नाचा करते थे।कभी-कभार आत्ममुग्धता में खुद को इतना नचाते थे कि बाद में रूम मेट की खुशामद करके अपने पाँव दबवाना या उसके पाँव दबाना पड़ता था।फिर आरंभ होती थी अगले दिन सिर के बाल धोने की तैयारी और दूसरी मनोरंजक बातें..कोई बात धोने के लिए आँवला फूलने दे रही है तो कोई अपनी सहेली से बालों में तेल मालिश करवा रही है..किसी रूम में व्यंजन की रेसिपी डिस्कस हो रही है तो किसी रूम में अंत्याक्षरी का दौर चल रहा है..कोई अपने और अपनी रूम मेट के लिए कॉफी फेंट रही है तो कहीं दीदी-जीजाजी या भैया-भाभी की शादी के एल्बम्स देखे जा रहे हैं।हर कोई अपनी-अपनी तरह से व्यस्त हुआ करती थी।कहीं इधर-उधर कोई पढ़ाकू,किताबी कीड़ी लड़की पढ़ाई करती हुई भी नजर आ जाती थी।ऐसी लड़कियों को देखकर बड़ा मूड ऑफ होता था.."धत् शनिवार-रविवार भी कोई पढ़ता है क्या.."अंदर से आवाज आती पर मन कई बार चोर नजरों से उसे देखकर गिल्ट में भी आ जाता था..हाय राम ये तो पढ़ रही है और मैं..?मैं तो आज किताब ही नहीं छुई...क्या करें पढ़ने बैठ जायें?"मन अंदर से सवाल करता..तभी मन का दूसरा भाई उठ खड़ा होता-"किताबी कीड़ा बनने से कुछ हासिल नहीं होता,आपस में मिलने जुलने से ज्ञान बढ़ता है,समझदारी आती है..बहुत जरुरी है व्यवहारिक ज्ञान..दुनिया में वही काम आता है,डिग्रियां धरी रह जाती हैं.. इसीलिए आपसी गपशप बहुत ही जरूरी है.." मन के इस भाई की बात दिमाग और दिल दोनों को अच्छी लगती थी और फिर हम यह सोचकर फख्र महसूस करते कि हमने आज व्यवहारिक ज्ञान की घुट्टी पी है,समय बरबाद नहीं किया है।ऐसे ही आपसी बातचीत, गाना-बजाना,नाचना,एक दूसरे के कमरे में जाकर समय बीताना,हँसना-हँसाना करते कब रात के ग्यारह बज जाते थे,पता ही नहीं चलता था।ग्यारह बजना वह समय था जब सोने के लिए लाईटें बंद कर दी जाती थीं और हमारी असिस्टेंट वॉर्डन, मैडम गोरेट्टी राऊंड पर आकर बड़ी कड़ाई से निरीक्षण किया करती थीं कि हम सब समय से सोने गए या नहीं।जितनी देर वह राऊंड लेतीं, उतनी देर तो हम सब बिस्तर पर चुपचाप ऐसे पड़े रहते थे मानो कितनी गहरी नींद में हों..परन्तु, उनके जाते ही एक लड़की बाथरूम जाने के बहाने से इस बात का मुआयना करती थी कि मैडम पूरी तरह से अपने कमरे में जा चुकी हैं … और इस बात का इत्मीनान होते ही हम रूम मेट्स अँधेरे में ही फिर से अधूरे छूटे टॉपिक पर चर्चा आरंभ कर देते थे।कभी कभार छोटा सा ट्राँजिस्टर कान के पास धीरे से बजाकर गाने सुना करते थे।ऐसे हादसे भी कई बार हो जाते थे कि मैडम गोरेट्टी या हमारी हॉस्टल की मेन वार्डन,सिस्टर कैरॉल अचानक दुबारा से राऊंड पर आ जाती थीं और हड़बडाहट में ट्राँजिस्टर ऑफ करने के चक्कर में उसका स्विच उल्टा घूम जाता था और गाना धीरे की बजाये अचानक जोर से बज उठता था…"आप यहाँ आये किसलिए?.."ऐसे में हमारे अगले दिन के बाहर घूमने या मार्केट जाने की खुशी सिस्टर की नाराजगी की भेंट चढ़ती थी और हमारा ब्लैक लिस्ट में स्वागत होता था,जिसकी बड़ी अजीबोगरीब सजायें तय होती थीं। ट्राँजिस्टर हाथ से चला जाता था,सो अलग।ब्लैक लिस्टेड लड़कियों की आऊटिंग बंद कर दी जाती थी या सिस्टर उनसे फैमिली प्लानिंग पर लेख लिखवातीं थीं.. हम अविवाहिता लड़कियों के लिए फैमिली प्लानिंग पर लेख लिखना या उस पर बोलना किसी ड्रॉइकुला का सामना करने से कम नहीं था।सभी इस सजा से बचने की नाकाम कोशिश में रहती थीं।सिस्टर की डाँट तो खैर खानी ही पड़ती थी।"सॉरी सिस्टर..सॉरी सिस्टर" जैसे रटे-रटाए पश्चाताप-प्रदर्शन स्लोगन तो खैर कितनी बार दुहराये जाते,उसकी तो गणना ही बेकार है।हाँ,ये अलग बात है कि अगले शनिवार फिर से वही हादसा हममें से कोई न कोई दुहरा ही देता था..आखिर हम थे तो स्टूडेंट्स ही, तो भला "प्रैक्टिस मेक्स द मैन परफेक्ट" जैसे स्लोगन पर भी विश्वास क्यों न करते..?कुछ भी हो, लेकिन शनिवार का असली मजा तो हॉस्टल में ही आया।आज भी हर शनिवार हॉस्टल की सभी लड़कियाँ,चाहे वे आज दुनिया के किसी भी कोने में रह रही हों,एक बार तो अपने बिताये उन सुनहरे मनमोहक शनिवार को जरूर याद करके मुस्कुरा उठती होंगी और दिल कह उठता होगा.. जाने कहाँ गये वो दिन.."।

अर्चना अनुप्रिया