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मजदूर की बेटी

मैं प्रतिदिन उसे शाम के वक्त पसीने से लथपथ होकर अपने घर की तरफ लौटता देखता।सिर पर मैला-कुचैला पगड़ी बांधे, शरीर पर धूलकण,पैबंद लगी पुरानी धोती पहने हुए वह अपने कंधे पर कुदाल लेकर लौटता था।पर वह किस जगह मजदूरी करता मुझे इस बात की जानकारी नहीं थी।परंतु,मैं जिस वक्त अपने घर लौटता ठीक उसी वक्त वह भी लौटता था।अक्सर,हमारी मुलाकात सड़क पर हो जाती थी।किंतु,बातचीत नहीं हो पाती।मैं दिनभर दफ्तर में कार्य करता था।इस कारण काफी थक जाता था।इतनी थकावट रहती थी,रास्ते में मैं पूरी कोशिश करता किसी से बातचीत ना करूँ और जल्दी-जल्दी घर पहुँच सकूँ।बस,हमारी इसी तरह मुलाकात होती रहती।वह मुझे देखता,मैं उसे देखता।मैं शुरू से ही चाय पीने का शौकीन हूँ।इस कारण,मैं प्रत्येक रविवार के दिन शाम के वक्त चाय पीने बाजार चला जाता था।एक दिन की बात है।मैं चाय पीकर धीरे-धीरे टहलता हुआ घर वापस आ रहा था।सोचा,आज पैदल ही टहलता हुआ चाय पीने बाजार चला जाऊँ।तभी मेरी नजर उस मजदूर पर गई,जिसका वर्णन मैं पहले ही कर चुका हूँ।वह उदास होकर एक टूटी-फूटी और बहुत पुरानी सुखी हुई कुआँ के पास बैठा हुआ था।चेहरे पर उदासी के बादल छाए हुए थे।वह अपनी दुनिया में ऐसा खोया हुआ था, मैं उसके पास खड़ा था।परंतु, उसे इसकी खबर नहीं थी।खैर, मैं उसका ध्यान भंग करते हुए उससे पूछा"क्यों भाई क्या बात है?इतना उदास क्यों हो?"मेरी बातें सुनकर वह मेरी तरफ हैरान हो कर देखने लगा।यह देखकर मैं बोला"अरे भाई, मैं वही इंसान हूँ।जिससे हमेशा तुम्हारी मुलाकात हो जाती है।मगर,बातचीत नहीं हो पाती है।"तब वह बोला"क्या करूँ बाबूजी?मैं तो ठहरा एक गरीब मजदूर आदमी!दो वक्त की रोटी के लिए अपना शरीर धूप में जलाता हूँ।लोगों की ताने-शिकायत सुनता हूँ।तब कहीं जाकर घर में रोटी आती है।मगर....."इतना कहने के साथ ही वह चुप हो गया।उसकी आँखों से आसू की धाराएं बहने लगी।यह देखकर मैं अवाक रह गया।आखिर क्या हुआ है इस भलमानस के साथ?मैं उसे हिम्मत बंधाते हुए बोला"सुनो,जो कुछ भी कहना चाहते हो।उसे पूरी हिम्मत के साथ कह दो।हो सकता है मैं तुम्हारी कोई मदद कर सकूँ।"मेरी बात सुनकर वह बोला"मेरी घर की माली हालत ठीक नहीं है।मैं और मेरी पत्नी दोनों ही मजदूरी करते हैं।घर में इकलौती बिटिया है।वह पढ़ने में बड़ी ही होशियार है।इसी साल हाईस्कूल में अच्छे नम्बर से उतीर्ण की है।किसी तरह से उसे पढ़ा दिया हूँ।मगर...आगे क्षमता नहीं है उसे पढ़ा सकूँ।वह अफसर बनना चाहती है।मैं उसकी सपनों को कैसे पूरा करूँ!समझ में नहीं आ रहा है।"इतना कहने के साथ ही वह चुप हो गया।कुछ पल के लिए वहाँ केवल सन्नाटा था।फिर वह बोला"बाबूजी,मेरी बेटी तो मजदूर की बेटी है।उसकी किस्मत में तो ईट,पत्थर और धूलकण ही लिखा गया है।बस,किसी मजदूर से ही उसकी शादी हो जाएगी।हम मजदूरों की बेटियाँ मजदूरी ही करती हैं।अफसर तो बड़े घर की बेटियाँ बनती हैं।"इतना सुनते ही मुझे बड़ा ही धक्का लगा,हालांकि उसकी बातों में अर्धसत्य ही था।फिर भी कड़वा सत्य था।मैं उसकी हाथों पर अपना हाथ रखकर बोला"ऐसा नहीं सोचते है।तुम्हारी बिटिया की पढ़ाई भी होगी और वह अफसर भी बनेगी।आज से मैं तुम्हारी बिटिया की पढ़ाई की जिम्मेदारी लेता हूँ।कभी भी रुपयों की जरूरत पड़े तो आना मेरे पास।अब चलो मेरे घर।"इतना कहकर मैं उसे अपने घर की तरफ लेकर चल पड़ा।"काश!इसी तरह समाज हर मजदूर की बेटे-बेटियों की पढ़ाई की जिम्मेदारी लेता तो कितना अच्छा लगता।"मैं यही सोचता हुआ चला जा रहा था।
:कुमार किशन कीर्ति