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अग्निजा - 12

प्रकरण 12

कानजी चाचा ने चिमटी में नस दबाकर नाक में भर ली और उन्हें एक के पीछे एक कई छींकें आने लगीं। उन्होंने अपनी जेब से तुड़ा-मुड़ा रुमाल निकालकर नाक पोंछी। उनकी उम्र और उनका आज तक के हासिल अनुभव में उनके लिए ये बातें नयी नहीं थीं। येनकेन प्रकारेण जोड़ियां बना देनेकी उनकी आदत के कारण इस तरह के प्रसंग उनके सामने अनेक बार आते ही थे। कई लोगों का जीवन उनके कारण बरबाद हुआ। तीन-चार मामलों में तो उनके ऊपर आरोप लगने से पहले ही दुर्भाग्य से उन लोगों ने अपनी ईहलीला ही समाप्त कर ली थी। “सच कहूं तो मैं कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहा। जीते जी मरने की गति हो गई है मेरी। इधर आप लोग नाराज हैं, उधर वो शांति बहन। भलाई का जमाना ही नहीं रहा यदि लोग ऐसा कहते हैं, तो उसमें गलत कुछ नहीं। लेकिन मैं क्या करूं मेरा मन ही नहीं मानता। मैं सोचता हूं कि दो प्राणियों का जीवन यदि मेरी वजह से सुखी हो रहा हो तो मुझे पुण्य मिलेगा। ”

जयसुख ने उनकी बात बीच में ही काट दी, “चाचा, इसमें आपका क्या दोष?” कानजी चाचा तो इसी बात की राह देख रहे थे, तुरंत बोल पड़े,“ दोष किसी का हो या न हो, पर आगे क्या करना है इस पर तो विचार करना ही होगा न?”

लखीमां धीरे से बोलीं, “यशोदा के मुंह से ही सुनें कि आखिर हुआ क्या है। उसे ही बताने दें कि उसे वहां पर क्या-क्या झेलना पड़ा है।”

कानजी चाचा बड़प्पन दिखाते हुए बोले, “उस बेचारी के जख्मों को क्यों कुरेदना? दो बरतन पास-पास होंगे तो आवाज तो होगी ही, ये तो आप भी जानती ही हैं कि....मुझे भी इतने में ही सुनाई पड़ा कि रणछोड़ दास का स्वभाव थोड़ा तेज है। अब मर्द की जात ठहरी...आखिर गुस्सा अपने ही व्यक्ति पर तो उतारा जाता है न? गुस्से में कभी-कभी हाथ भी उठ जाता है। ये तो मर्दानगी की निशानी है। और वो क्या पड़ोसी को मारने के लिए जाएगा?” और फिर अपनी ही बात पर कानजी चाचा खीखी करके हंसने लगने। “अरे, मैंने अपनी मां को ढोरों की तरह मार खाते हुए देखा है..झूठ क्या बोलूं...कभी-कभी मैं भी अपनी पत्नी पर हाथ उठा देता हूं...मर्द के पीछे दुनिया भर की झंझटें होती हैं, लेकिन औरत जात को ये समझ में ही नहीं आता....ऐसे समय पर एक-दो रख दें तो फिर दोनों कुछ दिन शांति से रहते हैं...ये सब छोड़िए..अब क्या करना है ये बोलिए।”

जयसुख ने उत्तर दिया, “इसके लिए ही तो आपको बुलाया है। आप ही कोई रास्ता निकालिए। यशोदा को अपने घर में, और यहां तक कि पहले पति जनार्दन के घर में भी कभी दुःख नहीं उठाना पड़ा था।” 

कानजी ने उसे बीच में ही टोकते हुए कहा, “वो जनार्दन तो अब गया ऊपर। उसकी बातें अब निकालने से क्या फायदा? और उसकी मां ने क्या किया? मां-बेटी को पहने हुए कपड़ों में ही घर से बाहर निकला न? ये देखो भाई, सयाने लोग इस तरह की तुलना नहीं करते। मुझसे रणछोड़ दास ने कहा कि थोड़ी सी कहासुनी हुई और मेरा हाथ उठ गया, इतनी सी बात पर वह अपनी बेटी को लेकर घर से निकल गई...कुछ खाए-पीए बिना ही...बेचारे परेशान हो रहे थे....देखो...ऐसी छोटी-मोटी बातों से घर छोड़ने लगी तो फिर गृहस्थी कैसे चलेगी?”

“लेकिन यशोदा रो-रोकर बार-बार यही कहती है कि मेरी केतकी वहां मर जाएगी...मेरी केतकी जिंदा नहीं रह पाएगी...”

कानजी काका यही चाहते थे, क्योंकि शांति बहन ने उन्हें अच्छे तरीके सिखा कर भेजा था, “कोई किसी को इस तरह मार डालता है क्या? बिना कारण उसे डर लग रहा है...केवल डर...हम उसका भी रास्ता निकालेंगे। यशोदा बहन के सामने ही....कहां गई वह? बुलाइए तो उसे जरा...”

लखीमां की आवाज सुनते ही यशोदा बाहर आ गई। गर्दन झुका कर किनारे खड़ी हो गई। कानजी काका ने उसकी तरफ देखा और कपटी हंसी हंसते हुए बोले, “ससुराल जाकर तुम्हारा वजन बढ़ा हुआ मालूम पड़ता है...देखो बेटा, लड़की जात ससुराल में शोभा देती है...तुम्हें यदि प्रभुदास बापू और लखीमां का जीवन और मौत-दोनों खराब न करना हो तो आगे का सही सही विचार करना। किसी भी प्रकार का डर मन में न रखते हुए मुझे साफ-साफ बताओ कि क्या तुम्हें वहां पर खाने-पीने, कपड़े-लत्ते की कमी है क्या? इन बातों की तकलीफ है क्या?” यशोदा ने उत्तर दिया, “नहीं, वैसी कोई बात नहीं...”

कानजी भाई ने गुगली फेंकी, “शांति बहन तुमको दहेज के लिए तंग करती है क्या?”

यशोदा ने नहीं में सिर हिलाया। 

“फिर... रणछोड़ दास को कोई व्यसन है या बुरी आदत है क्या?”

यशोदा चुप रही। लखीमां ही बोलीं, “यशोदा ने ऐसा तो कुछ कभी कहा ही नहीं।”

कानजी चाचा इतना ही चाहते थे। वह खुश हो गए, “ तो फिर अब क्या बचा? गृहस्थी में छोटे-छोटे झगड़े तो होते ही रहते हैं...यशोदा बेटी बेकार ही डर कर वापस आ गई। शांति बहन और रणछोड़ दास को समझाने के लिए मैं हूं न. चिंता क्यों करते हैं?”

यशोदा जैसे-तैसे इतना ही बोल पाई, “...लेकिन चाचा...केतकी का क्या?”

कानजी भाई इस सबकी दुखती रग की चर्चा निकलने की राह ही देख रहे थे। उन्होंने आंखें पोंछने का नाटक किया. “बेटा, उसके लिए ही तो हमने ये नाटक किया था। बेचारी ने अपने पिता मुंह तक नहीं देखा..उस पर अपना घर भी छूट गया उसका...यहां कितने लाड़-प्यार से पल रही थी वह...नन्हीं जान का क्या, जहां प्यार मिले वहीं वे आनंद से रहने लगते हैं। सच कहूं तो उसे प्रभुदास बापू और लखीमां से लगाव हो गया है...प्रभुदास बापू से वह एक क्षण को दूर नहीं रहती थी... इस कोमल पौधे को वहां की नई मिट्टी रास ही नहीं आई। हमें भी नई जगह में घुलने-मिलने में समय लगता है...फिर वह तो कितनी छोटी है।”

जयसुख ने प्रश्न खड़ा किया, “लेकिन सबको जंचे ऐसा कोई रास्ता सुझाइए। यशोदा को केतकी की चिंता सता रही है।”

कानजी भाई ने सोचने का नाटक करते हुए अपनी ठुड्डी खुजाई। “एक रास्ता है, लेकिन आप सब उसे मानेंगे नहीं। इस कारण उसे बताने का कोई मतलब नहीं। सबको सुख-शांति मिलेगी, लेकिन उसे कहने के लिए मेरी जीभ तैयार नहीं हो रही है।”

लखीमां ने उत्सुकता दिखाई, “सभी सुख और शांति से रह सकेंगे तो इससे अधिक और क्या चाहिए भला? वह रास्ता बताइए तो सही....”

कानजी भाई दोनों हाथ जोड़ते हुए बोले, “देखिए, आप सभी की भलाई के लिए मैं पाप का भागी बन रहा हूं...यदि आप सबको कोई एतराज न हो तो, केतकी को कुछ दिनों के लिए यहीं रहने दीजिए...वह भी सुखी रहेगी...यहां रहकर पढ़ाई करेगी...तब तक यशोदा भी ससुराल में रम जाएगी। ”

यह सुनकर यशोदा स्तब्ध रह गई। दो कदम पीछे हटी। यह देखकर कानजी चाचा आगे बोले, “बछड़े को गाय से दूर करने का पाप मैंने किया नहीं होत...लेकिन मुझे लगा कि कुछ दिन यह उपाय करके देखना चाहिए, सभी को शांति मिलेगी। फिर यशोदा की ससुराल दूर कहां है? और यदि इस बात को आप न कह पाएं तो मैं शांति बहन और रणछोड़ दास को स्पष्ट रूप से बता दूंगा कि यह व्यवस्था कुछ दिनों के लिए ही की जा रही है...”

जयसुख बोला, “यशोदा बहन और बाकी सभी लोगों को यदि जंचती होगी यह बात, तभी ये संभव हो पाएगा...”

लखीमां, कानजी चाचा द्वारा उनकी आंखों के सामने उपस्थित की गई सुख-शांति की मनोहर कल्पना में खो गईं। “हमारी यशोदा बड़ी समझदार है। और फिर केतकी के लिए भी हमारा घर पराया कहां है? बल्कि, वह तो यहां बड़े मजे में रहेगी। देखो बेटा यशोदा, हम ठहरी औरत जात...ससुराल से बाहर निकलना हो तो आखिरी समय में ही। तभी जीवन का कोई मतलब है। कम से कम मुझे तो यह रास्ता ठीक लगता है...लेकिन फिर भी तुम कहोगी वैसा ही .... ” अपने दिल पर पत्थर रखकर केतकी इतना ही बोली, “केतकी के लिए ही तो मैंने दूसरी शादी करने के लिए तैयार हुई थी। अब उसके लिए ही उससे दूर रहूंगी।” इतना कहकर वह रोने लगी। 

लखीमां उसकी पीठ पर हाथ फेरती रहीं। सभी चुप थे। बड़ी देर तक कोई किसी से कुछ भी नहीं बोला। उतने में ही केतकी भागती हुई बाहर से अंदर आई। प्रभुदास बापू की गोद में जाकर बैठ गई, “नाना चलो न...मंदिर नहीं जाना क्या?”

“जयसुख ने प्रेमपूर्वक पूछा, बाहर का खेल हो गया क्या तुम्हारा?” केतकी झूठे गुस्से से बोली, “मैं अबसे बाहर खेलने नहीं जाऊंगी...सब मुझे चिढ़ाते हैं, नाना की पूंछ कहते हैं...” 

मौके का फायदा उठाते हुए कानजी बाई ने कहा, “देखा, वह यहां कितनी रम गई गई...प्रभुदास भाई, आप तो देवता जैसे हैं। कभी झूठ न बोलने वाले....आप ही कहें, मैं जो कह रहा हूं वह झूठ है क्या?”

प्रभुदास बापू केतकी को उठाकर खड़े हुए। “सब लोगों को जो उचित लगे वह करो। बाकी मेरा भोलेनाथ जो करेगा, वही सच।” अस्ताचलगामी सूर्य के प्रकाश में केतकी के काले, लंबे, घने, रेशम जैसे बालों पर हाथ फेरते हुए वह मंदिर की ओर निकल गए। 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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