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अग्निजा - 17

प्रकरण 17

लखीमां की खुशी आसमान में न समा रही थी। लेकिन आनंद के साथ-साथ उन्हें यशोदा की चिंता भी सता रही थी। मन में तरह-तरह के विचार आ रहे थे। यशोदा के लिए क्या बनाऊं, क्या लाऊं? उसका हर पसंदीदा व्यंजन सुबह-शाम बनाया जाए। अचानक उन्हें कुछ याद आया। और वह अपना सिर पकड़कर बैठ गईं, “उस बेचारी की पसंद-नापसंद है कहां? मां होकर भी मुझे याद नहीं कि उसे क्या अच्छा लगता है और क्या नहीं... फिर भी कुछ न कुछ तो बनाकर भेजती हूं...” और लखीमां ने खूब सारा घी डाल कर बादाम का हलुआ बनाया। गोंद के लड्डू बनाए। वैद्य होने के नाते प्रभुदास बापू ने उसमें तरह-तरह की औषधियां डालने के लिए कहा। वैसे भी गांव में और आसपास के कई गांवों में प्रभुदास बापू की दवाएं और पाक बहुत प्रसिद्ध थे। इतने ऑर्डर आते थे कि वह सभी पूरे नहीं कर पाते थे। छोटे-छोटे डब्बों में काजू, बादाम, अखरोट, पिस्ता और मुनक्के भरे गए। सभी डब्बे अच्छी तरह से भरे गए हैं कि नहीं, चार बार जांचा गया। ये सब बना रही लखीमां का उत्साह देखकर केतकी को बड़ा मजा आ रहा था। वह भी जितनी हो सके उतनी मदद कर रही थी। त्रिकालज्ञानी प्रभुदास बापू ये सब शांति से देख रहे थे। निर्विकार भाव से। उनके मुंह में एक ही वाक्य था... “मेरा भोलेनाथ जो करेगा, वही सही।”

सब सामान छोटे-छोटे डब्बों में भरकर लखीमां ने एक थैली तैयार की और जयसुख के हाथों में सौंप दी। “ये देखो भाई, वहां जाकर शांति से बात करना। और यह कहना मत भूलना कि पहली जचकी है, इसलिए आप यदि ठीक समझें तो उसे मायके भेज दें। ”

जयसुख ने भगवान का नाम लेकर दोनों थैलियां उठाईं। तभी भीतर से आवाज आई, “दो मिनट ठहरें...” भीतर से केतकी दौड़ते हुए आई, उसने नए कपड़े पहन रखे थे। लखीमां को आश्चर्य हुआ, “सुबह-सुबह तुम कहां चलीं बेटा...? मुझे चाचा के साथ जाना है... मां से मिलने...कितने महीने हो गए...”

जयसुख भाई ने लखीमां की तरफ देखा। वह दुविधा में पड़ गए थे। लखीमां उनकी स्थिति समझ गईं। दोनों ये नहीं समझ पा रहे थे कि क्या किया जाए। दूर से यह सब देख रहे प्रभुदास बापू उठे। उन्होंने केतकी को उठा लिया, “पागल हो गई हो क्या...गणेशपूजन की कितनी तैयारी करना बाकी है...तुम्हारे बिना मैं अकेले नहीं कर पाऊंगा...फिर पूजा की तैयारी में कुछ कमी रह गई तो भोलेनाथ मुझ पर गुस्सा करेंगे। एक काम करते हैं...भोलेनाथ के साथ ही गणपति बाप्पा को भी दंडवत प्रणाम करके प्रार्थना करते हैं कि मेरी यशोदा और उसके आने वाले बच्चे की रक्षा करो...”

“पर नाना, मुझे मां से मिलना है...एक बार...”

“हां तो उससे तो मिलना है ही... भाई जयसुख, तुम एक काम करो...उनसे पूछकर यशोदा को कुछ दिनों के लिए यहां रहने के लिए ले आओ।”

केतकी खुशी से उछल पड़ी, “मां यहां रहने के लिए आएगी...कब, कितने दिनों के लिए?”

प्रभुदास ने उसके गाल खींच लिए, “ये तो जयसुख को वहां जाने के बाद ही पता चलेगा...” इतना सुनकर केतकी शांत हो गई।

“चलो...अब बहुत सारे काम निपटाने हैं...जयसुख चाचा आप निकलें...”

जयसुख ने पास जाकर केतकी के मस्तक को चूम लिया। “मैं वहां बात करके सारी बातें तय करके आऊंगा।”

केतकी ने खुश होकर बदले में जयसुख चाचा के गाल पर पप्पी दे दी। फिर प्रभुदास बापू की तरफ देख कर बोली, “चलिए, अब तैयारी में लगते हैं। कुछ छूट गया तो फिर आप मुझे ही दोष देंगे। लेकिन भोलेनाथ मुझसे नाराज नहीं होंगे... मैं तो उनकी केतकी हूं...”

जयसुख के साथ ही प्रभुदास और केतकी भी बाहर निकले। जयसुख बस स्टैंड की ओर मुड़ा और नाती-नातिन मंदिर की तरफ।

लखीमां ने दोनों हाथ जोड़कर ऊपर की ओर देखा, “हे भगवान, यशोदा को अच्छी तरह से रखना। वह यहां आ जाए तो केतकी को भी अच्छा लगेगा। वह बच्ची मन ही मन दुःखी हो रही है। नींद में भी मां, मां करती है...”

जयसुख का आना शांति बहन को जरा भी अच्छा नहीं लगा, “बिना कोई खबर दिए अचनाक कैसे आ गए? घर में सब ठीक है न?”

जयसुख ने दोनों हाथ जोड़े, “हां, सब ठीक है। मैं इसलिए आया, कि बड़े दिनों से यशोदा बहन मायके नहीं आई तो कानजी चाचा को फोन लगाया था, तब उन्होंने यह खुशखबर बताई। लखीमां ने यशोदा के लिए ये थोड़ी सी चीजें भेजी हैं।”

चीजें भेजीं ये सुनकर शांति बहन को बहुत खुशी हुई, पर चेहरे पर नाराजगी लाते हुए बोलीं, “यहां घर में उसे कौन सी कमी है?...ये सब भेजने की क्या जरूरत थी?...सब वापस ले जाइए...वैसे ही आपकी परिस्थिति खराब, उस पर ये दिखावा करने की कोई आवश्यकता नहीं थी....”

“दिखावा नहीं बहन, ये तो लखीमां की ममता है....हमारे आशीर्वाद हैं....कृपा करके न मत कहिए...”

“ठीक है, आप इतना कह रहे हैं तो रख दें...समय हो तो खाना खाकर ही जाइए...”

“नहीं, नहीं..आपको तो मालूम ही है कि बेटी के घर का पानी भी नहीं लेते हम लोग...दोनों हाथ जोड़कर एक ही बिनती है....”

शांति बहन का चेहरा फिर कठोर हो गया। उन्होंने आंखों के इशारे से ही पूछा कैसी बिनती? हाथों को जोड़कर जयसुख बोला, “यशोदा बहन की पहली जचकी यदि मायके में हो तो...”

“ये क्या कह रहे हैं? मेरी बहू मायके में रहेगी तो मेरा मन यहां कैसे लगेगा? फिर, यहां आजू-बाजू में डॉक्टर हैं, अस्पताल हैं...रणछोड़ एक फोन करेगा तो तीन डॉक्टर दौड़े आएंगे...पैसे की समस्या नहीं...समधन को कहिए...संभव नहीं...हमको नहीं चलेगा...” यशोदा आई और जयसुख भाई के पैर छूने के लिए झुकी। यह देखकर शांति बहन चिढ़ गईं, “रहने दो...पहले अपना ख्याल करो...बच्चे को परेशानी हो गई तो...?”

यशोदा थोड़ा पीछे हटी, “मेरी चिंता न करें। यहां सब लोग हैं मेरा ध्यान रखने के लिए। यहां मुझे किसी बात की कमी नहीं है।”

जयसुख उठ गया। पास खड़ी जयश्री के हाथ में उसने बीस रुपए की नोट रखकर उसके सर पर हाथ रखा, “तो ठीक है, मैं निकलता हूं...नहीं तो बस नहीं मिलेगी। और हां, दामाद जी को मेरा नमस्कार कहिएगा।”

जयसुख वहां से निकल तो गया, लेकिन उसके पैरों में ताकत नहीं बची थी। इधर, लखीमां के शरीर में उत्साह भर गया था। उन्होंने घर का कोना-कोना साफ कर लिया था। बेकार का सामान पीछे आंगन में रख दिया। यशोदा के लिए कमरा तैयार किया। उसको अधिक भागदौड़ न करनी पड़े इसलिए कमरे में पानी का छोटा सा मटका रख दिया। उसी कमरे में केतकी का भी छोटा बिस्तर लगा दिया। साथ में अपने बिछाने के लिए भी एक गोदड़ी रख दी। कमरे को धूप जलाकर पवित्र कर दिया। इन सारे कामों में समय कैसे निकल गया, पता ही नहीं चला। दरवाजा बजा तो वह दौड़ते हुए उसे खोलने के लिए गईं।

जयसुख अंदर आया। भावुक लखीमां के मन के किसी कोने में आशा थी कि जयसुख के साथ यशोदा आज ही आ जाएगी। लेकिन उन्होंने अपने मन को समझाया, वह ऐसे कैसे आ जाएगी, घर में दामाद के न होते हुए, उनकी इजाजत लिए बिना कैसे आ जाएगी?

पानी का गिलास जयसुख के हाथ में देकर लखीमां अपने बेटे जैसे देवर की तरफ देखती रहीं। अपने चेहरे के भाव छुपाने के लिए जयसुख कितनी ही बार रुमाल से मुंह पोंछता रहा। लखीमां बोलीं, “जयसुख भाई रहने दें...आपके बस की बात नहीं...इससे अच्छा तो क्या हुआ मुझे साफ-साफ बता डालें...आपको मेरी कसम है...”

“भाभी, शांति बहन यशोदा को भेजने के लिए राजी नहीं ..उसे वहां किसी बात की कमी नहीं है...मैंने खुद देखा कि....” लेकिन लखीमां को कुछ भी सुनाई नहीं पड़ रहा था।

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह