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अग्निजा - 19

प्रकरण 19

शांति बहन को काम करते-करते खीज होने लगी थी। लेकिन, रणछोड़ दास यशोदा को उठने भी नहीं देता था। उसके सामने शांति बहन यशोदा को झूठमूठ डांटती भी थीं, “आराम करो...आराम करो...मेरे कृष्ण को यदि कुछ हो गया तो....?”रणछोड़ बेटा, बहुरानी को तुम भी कुछ समझाया करो..और ये देखो बहू, थोड़ी देर बाद हलुआ और लड्डू खा लेना और फिर एक घंटे बाद दूध पी लो...फिर थोड़ा आराम करो...मेरा कृष्ण एकदम स्वस्थ पैदा होगा...”

लेकिन रणछोड़ दास के बाहर निकलतेही वह यशोदा को खाना-पीना देने के बजाय कामों में लगा देती। साथ ही बड़ब़ड़ाते रहती, “मेरे समय मैं आखिरी समय तक चक्की पीसती थी....उससे क्या होता है? हाथ-पैर चलते रहें तो प्रसव आसान होता है...लेकिन इसको तो काम करने में हमेशा ही आलस आता है...”

यशोदा के घर से बार-बार आने वाला हलुआ और गोंद के लड्डू शांति बहन और जयश्री ही खा लेती थीं। एक बार रणछोड़ दास गुस्से से बोला भी, “ये लोग हर चार दिन में क्या लेकर आते हैं? हमारे घर में इसको कुछ मिलता नहीं है क्या?”

स्वयं पर आरोप न आए इसलिए शांति बहन ने उलटा बोलना शुरू किया, “अब मेरा मुंह मत खुलवाओ...ऐसे समय औरतों को नई-नई चीजें खाने की इच्छा होती है...बहू को उसकी मां के हाथ से बना हलुआ पसंद है...मैं बनाऊं तो हाथ भी नहीं लगाती...लेकिन कोई बात नहीं...मैं उसकी मां जैसा अच्छा शायद नहीं बना पाती हूं...मैं उसकी मां थोड़े हूं...हलुए में उसके लिए मुट्ठी भर काजू बादाम डालने वाली...?”

रणछोड़ दास को लगा कि मेरी मां यशोदा की इतनी देखभाल करती है, लेकिन उसको इसकी कद्र नहीं। उसने गुस्से में ही यशोदा के को तमाचा मार दिया, “बड़ी आई मां की लाड़ली...वहीं रहती न...इससे आगे मां जो देगी वह और उतना ही खाना...मायके के ज्यादा गुणगान करोगी तो चमड़ी उधेड़ लूंगा...”

रणछोड़ दास के जाने के बाद शांति बहन ने जयश्री को पुकारा, “अब ये तो मुसीबत ही हो गई...बहू के मायके से आया हलुआ और लड्डू हम खाएंगे तो वह क्या खाएगी? चलो, उस बेचारी के लिए खिचड़ी ही चढ़ा देती हूं...”

उधर, लखीमां ने केतकी की पसंदीदा खिचड़ी बनाई। उसमें ढेर सारा घी डाला। लेकिन केतकी जिद पर अड़ गई कि वह अपनी मां के हाथ से ही खाना खाएगी। नहीं तो भूखी रहेगी। सबकुछ दूर से देख रहे प्रभुदास बापू केतकी के पास आकर बैठ गए। “मैं भी केतकी के साथ भूखा ही रहने वाला हूं...समझ गई न...यशोदा आने के बाद ही खाना खाऊंगा...”

लखीमां और जयसुख को आश्चर्य हुआ कि केतकी को समझान के बजाय उन्होंने ये क्या शुरू कर दिया। प्रभुदास ने हौले से केतकी के सिर से हाथ फेरा। “बेटा, यदि हम दोनों ही खाना नहीं खाएंगे तो तुम्हारी आई को बुरा लगेगा। वह तुम्हारे लिए कितना बड़ा पुरस्कार लेकर आने वाली है, और तुम उसको इस तरह परेशान करोगी क्या?”

“मेरे लिए पुरस्कार?”

“ ये लो...यानी तुमकोपता ही नहीं है? कोई इस बेचारी को बताता क्यों नहीं है...अरे वह तुम्हारे साथ खेलने के लिए एक गुड़िया लाने वाली है...लेकिन उसके लिए थोड़ा समय तो लगता है न...वह वहां से हिल नहीं सकती, तो यहां कैसे आ पाएगी?”

जयसुख बोले, “हां, ये बात तो बिलकुल सही है...बोलो, तुम्हें भाई चाहिए कि बहन?”

केतकी एकदम खुश हो गई. “मैं तो भूल ही गई थी कि मां ये सब मेरे लिए कह रही है। मुझे तो छोटी बहन ही चाहिए। मैं उसको अपने साथ रखूंगी, किसी को भी नहीं दूंगी।”

लखीमां देखती ही रह गईं। प्रभुदास बापू ने केतकी का नन्हा-सा हाथ अपने हाथों में लिया। “बेटा, उस गुड़िया को संभालना बहुत कठिन काम होता है...तुम्हारी तरह वह भी नखरे करेगी...भागदौड़ करेगी...मस्ती करेगी.. उसको संभालने के लिए ताकत लगेगी न? मैं तो तुम्हारे साथ रहूंगा ही...आधी ताकत हम दोनों लगाएंगे...लेकिन बाकी आधी... ?

केतकी ने बड़ी मासूमियत से पूछा, “बाकी आधी?”

“वो मेरे भोलेनाथ की...” अपनी आधी ताकत लाने के लिए खाना खा लेते हैं...बाकी की आधी ताकत के लिए भोलेनाथ के मंदिर में जाना पड़ेगा न? चलो, जल्दी से खाना खा लेते हैं... तब तक कहीं भोलेनाथ ने बाकी की आधी ताकत किसी और को दे दी तो...?

उन्होंने खिचड़ी का ग्रास लेकर केतकी के मुंह में रखा। केतकी ने भी एक छोटा-सा ग्रास नाना के मुंह में रख दिया। लखीमां की आंखें भर आईँ, लेकिन उन्होंने अवसर का लाभ उठाते हुए दोनों की थालियों में और खिचड़ी परोस दी। खाते-खाते केतकी बोली, “गुड़िया को खिचड़ी मैं ही खिलाऊंगी..कोई और नहीं...ठीक है न...मेरी गुड़िया कब आएगी नाना?”

 

“गुड़िया...गुड़िया...मेरी गुड़िया...लाड़ली....” यशोदा नींद में बड़बड़ा रही थी। आवाज सुनकर रणछोड़ दास की नींद उड़ गई और वह जाग गया। उसने गुस्से में ही यशोदा को जोर-जोर से हिलाना शुरू किया। यशोदा घबराकर उठी।

“अपनी ये बड़बड़ बंद करो...गुड़िया, गुड़िया...लाड़ली...लड़का चाहिए मुझे...लड़का...दूसरा कुछ नहीं चलेगा मुझे...हां..”

“लेकिन वह क्या मेरे हाथ में है?”

“मुंह बंद रखो...लड़के का विचार करो...लड़के का...नींद में भी गुड़िया, गुड़िया की रट लगाए रहती हो...इसका मतलब मुझे समझ में नहीं आता क्या? एक सच्ची बात बतात हूं तुमको...सुनो...मैंने लड़के के लिए ही तुमसे शादी की है...इस घर को वारिस दोगी...मेरा नाम चलाने वाला..इसलिए..नहीं तो तुम्हारे जैसी मुझे सतरा सौ साठ मिल जाती हैं...समझ में आया?”

“हां आया...”

“ध्यान रखना...लड़का हुआ तो ही यह घर तुम्हारे लिए स्वर्ग। नहीं तो तुम स्वर्गवासी। और वहां भी तुमको नर्क ही मिलेगा...नर्क...जो कुछ भी मन्नत मनौतियां माननी हो वो करो...व्रत उपवास करो...ब्राह्ण भोज कराओ...दान-पुण्य करो...लेकिन मुझे लड़का ही चाहिए। यदि लड़का नहीं हुआ न...” इतना कहकर रणछोड़ ने यशोदा का हाथ पीठ के पीछे खींचकर मरोड़ा। यशोदा के मुंह से चीख निकल गई।

चीख सुनकर शांति बहन ने दरवाजा खटखटाया। रणछोड़ दास ने दरवाजा खोला। शांति बहन को सामने देखकर वह बोला, “इसके मन और सिर से लड़की का भूत भगाओ...और घर में बेटा पैदा हो इसके लिए जो भी कर सकती हो, वो करो...खर्च की चिंता मत करो...”

दूसरे ही दिन से यशोदा के लिए गंडे-ताबीज, भभूत, प्रसाद, न जाने किस-किस मंदिर की भस्म, धूप की बौछार शुरू हो गई। साधू-ब्राह्मण को दान देने के नाम पर शांति बहन रणछोड़ दास से खूब पैसे ऐंठती और अपनी आलमारी में जमा कर देतीं। एक साधू ने तो हद ही कर दी। उसने कहा कि इस पर पहले पति या मायके लोगों ने कुछ टोटका कर दिया है। इसको बेटा हो, उनकी इच्छा नहीं है। इसका भूत उतारना होगा। नहीं तो बड़ा संकट आ सकता है...

इस बाबा ने सात दिनों तक घर में ही अड्डा जमा लिया। होम-हवन, उसका धुआं और उसके लिए बैठे रहना। इन सब बातों से यशोदा को तकलीफ होने लगी। उसने हिम्मत करके बताना चाहा, लेकिन किसी ने उसकी बात नहीं सुनी। हवन पूरा होने के दूसरे ही दिन यशोदा बेहोश होकर गिर पड़ी। अभी उसका आठवां महीना पूरा नहीं हुआ था। लेकिन उसे अस्पताल में ले जाने के अलावा और कोई चारा भी नहीं था।

डॉक्टरों को समझ में आ गया कि यह केस जरा गंभीर है। बच्चे को बचाएं या मां को, उनके सामने प्रश्न खड़ा था। बड़ी मुश्किल से किसी एक को बचाया जा सकता था।

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह