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अग्निजा - 24

प्रकरण 24

जयसुख को समझ में ही नहीं आ रहा था कि लखीमां को कैसे संभालें और केतकी को कैसे समझाएं। प्रभुदास अत्यंत व्यथित होने के बावजूद भोलेनाथ के नामस्मरण में मगन थे। कभी-कभी वह बहुत नाराज और गुस्से में दिखाई देते थे...उसका कारण भी वैसा ही था। सारी दुनिया का भविष्य बताने वाले प्रभुदास बापू स्वजन का भविष्य उजागर नहीं कर सकते थे। इस कारण वह भीतर ही भीतर कसमसा रहे थे।

यशोदा क्यों नहीं आ रही है और कब आएगी, इसके अनेक अलग-अलग कारण लखीमां और जयसुख ने केतकी को समझाकर बताए। लेकिन अब उस मासूम बच्ची का किसी पर भी विश्वास नहीं रह गया था। भगवान पर तो बिलकुल भी नहीं। लेकिन अपने नाना झूठ नहीं बोलेंगे, इसका उसे पूरा विश्वास था। वह किसी भी तरह का आश्वासन देते नहीं। कुछ बोलते भी नहीं थे, लेकिन उन्हें बहुत सारी बातें मालूम होंगी-ऐसा उसे हमेशा लगता रहता था। मां से मिलने का विरह बढ़ता ही जा रहा था, ऐसी स्थिति में उसे केवल अपने नाना का ही संबल महसूस होता था, उनके प्रति प्रेम और उनसे ही आशा भी थी। वह थोड़ा-बहुत खाती-पीती थी, वह भी नाना के साथ और उनके ही कहने पर। कम बोलती थी, और जो कुछ बोलती थी वह केवल अपने नाना के साथ। रात को नाना से कहानियां सुनकर उसे नींद आती थी। कभी-कभी नींद में ही ‘मां, मां..’ कहकर हिचकियां लेने लगती, इतना सुनकर प्रभुदास रुंधे गले से ‘भोलेनाथ...भोलेनाथ’ के अलावा कुछ नहीं कहते थे। प्रेम से केतकी के माथे पर हाथ फिराते और वह मासूम बच्ची नींद में रोना बंद कर, शांति से सो जाती थी।

लेकिन, उधर यशोदा को न तो नींद आती थी, न उसके जी को करार था। उसने मन ही मन तय कर लिया था कि चुपचाप जीना है, कुछ भी नहीं कहना-बोलना। अपनी बेटी के लिए उसने परिस्थिति से समझौता कर लिया था।  एक खराब लेकिन वास्तविक सामाजिक सत्य को उसने स्वीकार कर लिया था कि अब उसके पास ससुराल में रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। और इसी विकल्प को यदि स्वीकार किया है तो अन्याय, अत्याचार और कभी मारपीट भी सहन करनी ही पड़ेगी। वह भी शांति से। शांति बहन तो यही चाहती थी। यशोदा को यदि पानी भी पीना हो तो उनसे पूछकर पीना पड़ता था। इतनी छोटी सी जयश्री भी अपनी सौतेली मां को रत्ती भर सम्मान नहीं देती थी। अपनी छोटी बहन को परेशान करने का कोई अवसर हाथ से गंवाती नहीं थी।  शांति बहन और रणछोड़ दास को तो इस नन्हीं सी जान में जरा भी रुचि नहीं थी, उल्टा वे उस पर गुस्सा ही करते रहते थे।

यशोदा घड़ी भर को ही यदि नन्हीं को लेकर बैठी दिख जाए तो शांति बहन के पारा आसमान पर चढ़ जाता था। उसे दूध पिलाए तो उनके पेट में दर्द होने लगता। ऐसे समय में वह कोई न कोई काम बताकर यशोदा को उठने पर मजबूर कर देती थी। यशोदा सोचती थी कि शांति बहन केवल सास है...उनके भीतर की स्त्री कहां गई? इतनी बुराइयों में भी एक अच्छी बात यह हुई कि अब रणछोड़ दास ने यशोदा को जब-तब कमरे में बुलाना और रात को तंग करना बंद कर दिया था। कभी नन्हीं रात-बेरात उठ कर रोने लगे तो वह कमरे से बाहर जाकर सो जाता था।

यशोदा के मन में अनेक विचार चलते रहते थे। इस घर में मेरा स्थान क्या है? मैं कौन हूं, पत्नी, बहू या काम वाली बाई या इनकी गुलाम? जो हो सो... लेकिन इस समय वह केवल एक मां होने के संतोष के साथ अपनी बेटियों के लिए जी रही थी। केतकी का चेहरा उसकी आंखों के सामने से एक क्षण के लिए भी हटता न था। उसका जी भर आता, आंखों में आंसू आ जाते। लेकिन, केतकी की चिंता उसे बिलकुल भी नहीं सताती थी। केतकी संसार के सबसे सुरक्षित स्थान में और स्नेहीजन के सान्निध्य में रह रही है, इस बात का उसे पूरा विश्वास था। केतकी को देखने के लिए, उससे मिलने के लिए उसका जी व्याकुल होता था, लेकिन यह बात शांति बहन या फिर रणछोड़ दास से कहकर घर का वातावरण बिगाड़ने से वह डरती थी। इसके उलट, शांति बहन और रणछोड़ दास तो यशोदा के मायके जाने की राह देख रहे थे। लेकिन कानजी भाई ने उनको समझाया, कुछ भी करने से पहले दस बार सोच लो। अपनी सीमा से बाहर मत जाओ। यशोदा ने यदि मुंह खोल दिया तो समाज में तुम्हारी बड़ी बेइज्जती होगी, ये बात मत भूलो।

सच कहें तो यशोदा के मायके जाने पर रणछोड़ दास को कतई एतराज नहीं था, लेकिन फिर शांति बहन और जयश्री की देखभाल कौन करेगा? दो वक्त जो मिले वह खाकर चौबीस घंटे गुलामी करने वाले दूसरी और कहां मिलेगी? जैसी है, वैसी चुपचाप एक कोने में रहने दी जाए। शांति बहन इससे थोड़ा अलग विचार कर रही थीं। यशोदा अगर घर से निकल गई तो समाज में हमारी ही बदनामी होगी। इसके अलावा फिर कोई रणछोड़ दास को अपनी बेटी नहीं देगा। पहली पत्नी जबरदस्ती प्रसव के कारण मर गई। ये चली गई तो बाप-बेटी की देखभाल मुझे ही करनी पड़ेगी। इससे अच्छा तो यहां जैसी है वैसी ही रहने दिया जाए।

किसी का स्वार्थ और किसी की लाचारी...इसके बीच समय तेजी से भाग रहा था। केतकी के अनुभव से यशोदा को सीख मिल गई थी। इसलिए नन्हीं के नामकरण के समय उसने किसी से पूछा ही नहीं। क्योंकि बेटी के नामकरण संस्कार में उसके अलावा किसी को रुचि ही नहीं थी। उससे बात करनी होगी, उसके साथ खेलना होगा, तब ही तो किसी नाम की आवश्यकता होगी न?

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अब रणछोड़ दास, “खूब काम है...खूब काम है...” की रट लगाने लगा। उसके सेठ भीखाभाई को आने वाले पालिका चुनाव में उम्मीदवारी मिलने वाली थी इसलिए बहुत काम रहता है, ऐसा वह अपनी मां को बताता रहता था। वह कभी देर रात को आता... कभी नहीं भी आता था। एक दिन तो वह नशे में झूमता हुआ ही आया। उसके घर में आते ही एक अनजाना डर फैल गया। यशोदा उस दिन कुछ बोली ही नहीं। रणछोड़ दास पैरों में बूट के साथ ही बिस्तर पर लेट गया और खर्राटे भरने लगा। शांति बहन ने देखा और यशोदा पर चिल्लाईं, “वह बेचारा थक-हार कर आया है। उसके पैरों की चप्पलें कौन, तेरा बाप निकालेगा? खा-खाकर मस्ती चढ़ गई है...लेकिन एक पैसे की अक्कल का उपयोग नहीं करती, होगी तो करोगी न ?”

यशोदा चुपचाप रणछोड़ दास के बूट उतारने लगी। पैरों में खींचतान होते ही रणछोड़ दास जाग गया। उसने यशोदा को अपने पैरों के पास खींच लिया। यह देखकर शांति बहन मुंह बिचका कर वहां से निकल गईं। बाहर निकलकर उन्होंने कमरे के दरवाजे की कड़ी लगाने की आवाज यशोदा को सुनाई दी।

अचानक अपने पास खींची हुई यशोदा को रणछोड़ दास ने एक जोरदार धक्का मारा। “साली...मैं हाथ-पैर जोड़ रहा था कि मुझे बेटा चाहिए...बेटा...लेकिन तेरे मायके वालों ने कुछ टोटका कर दिया और तीसरा पत्थर मेरे घर में पैदा हो गया...मेरा जीना हराम कर दिया है तुम लोगों ने। मेरे घराने का नाम खत्म कर दिया। रणछोड़ दास के बाद कौन? कोई नहीं...होम-हवन के समय बैठते समय तुझ पर संकट आ गया था। कमर टूट रही थी न? देखूं जरा कहां दर्द होता है?” ऐसा कहकर उसने यशोदा को कमर से पकड़कर जोर से धकेल दिया। यशोदा ने अपने दोनों हाथ मुंह पर रखकर चीख रोकी। उसके बाद रणछोड़ दास के पुरुषार्थ ने राक्षसी रूप धर लिया। यशोदा के चेहरे पर कई जगहों से खून आऩे लगा। घंटे भर के अत्याचार के बाद रणछोड़ दास ने उसे आखिरी लात मारी, “जा दूर हो जा...मर...मेरी आंखों से दूर...दिखाई दी तो गला दबा दूंगा।”

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह