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अग्निजा - 27

प्रकरण 27

घड़ी के कांटे ही नहीं, कैलेंडर के पन्ने भी बदलते जा रहे थे। केतकी, प्रभुदास, लखीमा, जयसुख, रणछोड़ दास, शांतिबहन जयश्री और भावना इन सभी की उम्र बढ़ती चली जा रही थी। समय के अनुसार कुछ मामूली परिवर्तन भी हुए, वे बहुत उल्लेखनीय नहीं थे।

रणछोड़ दास अब घर देर से लौटने लगा था। कभी दो-चार दिन, कभी एक-दो रात को भी काम की वजह से बाहर रह जाता था। केतकी और भावना जो पहले बहनें थीं, अब सहेलियां भी बन गई थीं। अब केतकी महीने के चार दिन सिर्फ आई से मिलने की ही नहीं, तो भावना से मिलने के लिए भी प्रतीक्षारत रहती थी। शांतिबहन की उम्र के साथ तबीयत ही नहीं, स्वभाव भी खराब होने लगा था। जयश्री की बदमाशियां और बढ़ने लगी थीं और पढ़ाई में रुचि कम हो रही थी।

रणछोड़ दास के घर की चीजें बदल गई थीं। पुरानी चीजें बाहर हो गई थीं और उनकी जगह महंगी चीजों ने स्थान ले लिया था। लेकिन घर के लोग और नीचे गिरते चले जा रहे थे। यशोदा एकदम निस्पृह हो गई थी। अपनी बेटियों के अलावा उसके अंदर और किसी के प्रति प्रेमभाव नहीं था। किसी से कोई उम्मीद नहीं थी, न किसी से कोई शिकायत। शांति बहन और रणछोड़ दास तो यही चाहते ही थे।

केतकी आठवीं कक्षा में पहुंच गई। वह पढ़ाई में बहुत होशियार भले ही नहीं थी परंतु एकदम कमजोर भी नही थी। खेलकूद, मौज-मस्ती में लेकिन अव्वल ही थी। पीठ पीछे सब उसे छोटी-छोटी कहकर चिढ़ाते थे लेकिन इस डॉन के सामने किसी को मुंह खोलने की हिम्मत नहीं होती थी। कुलमिलाकर जीवन सीधा-सरल बीत रहा था। लेकिन हमेशा एक जैसा हो, ऐसा कहां होता है? शायद यही वजह थी कि प्रभुदास इधर ज्यादा समय मौन रहने लगे थे। उनके व्यक्तित्व में उदासीनता आ गई थी। लखीमां या जयसुख इस बारे में कुछ बोलते तो वह अपनी बढ़ती उम्र का बहाना बना देते थे। केतकी के साथ अधिक से अधिक समय बिताते थे।

केतकी अब समझदार होने लगी थी। नाना बहुत बड़े ज्योतिषी हैं यह बात उसे मालूम थी। उनको भविष्य की जानकारी होती है लेकिन वह किसी को बताते नहीं। उसको बहुत आश्चर्य होता था कि सबकुछ जानकर भी वह किसी को बताते क्यों नहीं? उसके मन में कौतूहल और उत्सुकता चरम पर पहुंच गई और एक दिन शाला खत्म होने के बाद सहेली के साथ खेलने की बजाय वह सीधे घर आ गई। अपना बस्ता एक किनारे रख दिया। और लखीमां ने दी हुई नाश्ते की प्लेट हाथ में लेकर अपने नाना के पास आकर बैठ गई। सुबह की बची हुई रोटी और अचार का ग्रास मुंह में लेने के बाद उसने चाय का एक घूंट भरा। ग्रास चबाते-चबाते वह नाना की तरफ एकटक देखने लगी। अनुभवी नाना समझ गए कि आज केतकी कुछ आराम से बात करना चाहती है। सच पूछें तो खेलने की बजाय उसका उनके पास आकर बैठना प्रभुदास बापू को अच्छा लग रहा था। जल्दी-जल्दी नाश्ता खत्म करके उसने नाना की तरफ देखा।

“नाना, एक बात पूछूं?”

“तुम्हें कुछ पूछने के लिए अनुमति की जरूरत कब से पड़ने लगी? पूछो न जो कुछ पूछना है।”

“नाना, यदि मुझे सब आता हो, सब समझता हो और यदि मौखिक परीक्षा में मैंने कुछ बताया ही नहीं या फिर लिखित परीक्षा में कुछ लिखा ही नहीं, तो लोग क्या कहेंगे?”

“गलत ही कहेंगे, बिलकुल गलत। ऐसा कभी कोई करता है क्या? लेकिन ऐसा विचार तुम्हारे मन में क्यो आया?”

“गांव के लोगों के कहने पर। वे लोग कहते हैं कि आपको भविष्य मालूम होता है, पर आप किसी को बताते नहीं। वे लोग झूठ बोलते हैं न नाना?”

“बेटा, लोगों की छोड़ो। हम अपनी बात करते हैं...सबसे पहले तो मुझे तुम्हारे प्रश्न पूछने का तरीका पसंद आया...नाना के कान पकड़ने के लिए आई हो..बहुत अच्छा लगा। ”

“वो जाने दें, पहले बताएं कि ...”

“सुनो, यदि तुमको सबकुछ आता होगा, तो तुम अपना पेपर लिखोगी या दूसरे का?”

केतकी हंसने लगी, “मेरे ही पेपर में, तभी तो मुझे नंबर मिलेंगे न?”

“एकदम ठीक...सब कहते हैं वह ठीक है, मुझे सचमुच भविष्य के बारे में मालूम हो दाता है...लेकिन किसका? दूसरों का न? तुम्हारी परीक्षा में तुम्हारे गुरुजी तुमसे कहते हैं न कि किसी को पेपर मत दिखाना, किसी को उत्तर मत बताना...”

“हां, हां, ऐसा ही होता है...”

“वैसा ही मेरे साथ भी है...मेरे गुरुजी ने मुझसे कहा है कि दूसरों के पेपर में यानी दूसरों के जीवन में झांकना नहीं...फिर मैं वह काम कैसे कर सकता हूं?”

“हम्म्म... लेकिन आपके गुरु कौन हैं?”

“लो...इतनी बार उनसे मिली हो और भूल गईं?”

“मैं उनसे मिली हूं?”

“अरे वही...मेरे महादेव...भोलेनाथ...”

“भोलेनाथ? भगवान शंकर?”

“हां...वही...उन्होंने ही मुझे विद्या सौंपी है...साथ ही में यह भी शर्त लगा है कि किसी को बताना मत...”

“लेकिन उनके कहने से क्या होता है?”

“तुमको कभी परीक्षा में पेपर हाथ में मिलता है?”

“परीक्षा का समय होने पर...”

“एक दिन पहले तो नहीं मिलता न?”

“ऐसा कभी होता है क्या?”

“...तो फिर मैं भी वही बता रहा हूं। परीक्षा में ही मजा है...और वैसा ही होना भी चाहिए...समझ में आ गया न बेटा...”

केतकी ने अपना सिर हिला दिया पर उसे बहुत कुछ समझ में आया नहीं और प्रभुदास बापू को भी कहां आज तक कुछ समझ में आया था भला....

उस रात केतकी तो सो गई, लेकिन प्रभुदास बापू विचारों में खोए हुए जागते ही रहे। भीतर ही भीतर सुलग रहे थे। “मुझे मालूम था कि जनार्दन की उम्र अधिक नहीं, फिर भी मैं यशोदा की शादी कहां रोक पाया? मैं जानता था कि जनार्दन के गुजरने के बाद यशोदा को ससुराल में जगह नहीं मिलेगी, पर मैं कुछ कर पाया क्या? मुझे रणछोड़ दास के अवगुण और शांति बहन का स्वभाव के बारे में पहले ही मालूम हो गया था, लेकिन मुझे चुप ही रहना पड़ा....यशोदा को दोबारा बेटी ही होगी ये मुझे पता था... और ये मासूम बच्ची मेरे सामने सो रही है, मुझ पर विश्वास कर रह है,लेकिन मैं उसे सत्य कहां बताने वाला हूं?” यही प्रश्न उनके दिमाग में चल रहे थे...उनको अपना ज्ञान बोझ लगने लगा था। ज्ञान नहीं उनके लिए यह एक अभिशाप बन गया था..भयंकर अभिशाप...सबकुछ जानकर भी...स्वजनों का दुःख, अंधकारमय और दुखदायी भविष्य मालूम होने के बाद भी मैं क्या कर पाया? कुछ नहीं...चुपचाप सब देखता रहा...मौन....मेरे अपनी भावनाएं नहीं हैं क्या? या फिर मेरी भावनाएं ज्ञान की बेड़ियों में जकड़ गई हैं?

प्रभुदास को स्वयं का व्यक्तित्व बोझ लगने लगा था...असहनीय बोझ...उन्हें लगा कि वहां से उठकर कहीं भाग जाएं...बहुत दूर...उन्होंने उठने की कोशिश भी की, लेकिन सिर पर जैसे मनों बोझ रखा, वह अपनी जगह से हिल ही नहीं पाए...लाचार होकर अपना हाथ आराम से सो रही केतकी के हाथों पर हल्के से पटक दिया।

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह