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अग्निजा - 31

प्रकरण 31

शांति बहन को एक बात खटक रही थी। यशोदा तो पाली हुई गाय की तरह सीधी हो गई थी। केतकी को घर से बाहर निकाल दिया था। सबकुछ उनके मनमाफिक हो रहा था, लेकिन भावना किसी की सुनती नहीं थी। वह जितना सुनना चाहती थी, उतना ही सुनती और जो करना चाहे वही करती थी। लेकिन वह अपने व्यवहार में कहीं चूक नहीं करती थी। कभी कोई गलत, झूठा काम करते हुए कोई उसे पकड़ नहीं सकता था। अपने से बड़ी जयश्री को दो-चार बातें सुनाने में भी कोई कमी नहीं रखती थी। एक बात तो थी, लड़की बड़ी होशियार थी। उस पर से हमेशा केतकी बहन, केतकी बहन की रट लगाए रहती थी। यही एक बड़ी मुश्किल थी उनके लिए।

शांति बहन समझ चुकी थी कि केतकी को तो घर से बाहर निकालना कठिन नहीं था, क्योंकि यशोदा उसको मायके से दहेज में लेकर आई थी। लेकिन भावना को भले ही रणछोड़ भी पसंद न करता हो, लेकिन है तो उसका ही खून न? इसलिए यह कांटा निकालना कोई आसान काम नहीं था। बड़ी होशियारी से कुछ करना होगा।

यही हालत जयश्री की थी। घर में उसको खरा-खोटा कहने वाली केवल भावना ही थी। वह भी सही जगह पर टोकती इसलिए उससे कुछ कहा भी नहीं जाता था। इससे जयश्री के स्वाभिमान पर चोट पहुंचती थी।  भावना का तो मुंह भी देखने की उसकी इच्छा नहीं होती थी। एक तो इंग्लिश मीडियम की पढ़ाई उसके बस की नहीं थी। लगातार फेल हो रही थी। इंग्लिश मीडियम की पढ़ाई खूब कठिन होती है, उसने अपनी दादी और पिताजी को बता रखा था, इसलिए ठीक था। यशोदा को भावना की हमेशा चिंता सताती थी। इस लड़की की जुबान और दिमाग-दोनों ही कुछ ज्यादा चलता है। रणछोड़ दास ने इसे मुझसे दूर कर दिया तो? नहीं, नहीं मैं ऐसा नहीं होने दूंगी। मेरी केतकी पहले शरीर से दूर हुई अब मन से भी दूर चली जा रही है, ऐसा लगता है...

इधर केतकी अपनी नानी के और पास होती जा रही थी। वह जिद करके नानी को खाना खिलाती., घर में ही घूमने के लिए कहती, उसके बालों में तेल मालिश कर देती, जिद करके नाना की यादें ताजा करवाती। दृश्य एकदम पलट गया था। अब केतकी नानी बन गई थी और लखीमां मानो नातिन।

नानी के सब काम वह समय पर कर देती थी। नानी की सेवा करते हुए उसके मन को एक अलग ही सुख प्राप्त होता था। नानी के मन में उसके मन में प्रेम का सागर उमड़ता था। कभी-कभी केतकी के मन में विचार उठता था कि क्या मां को नहीं लगता होगा कि यह सब किया जाए? मां मुझसे प्रेम नहीं करती क्या? अपने कोख से पैदा हुई बेटी के लिए अपने पति से वह बात नहीं कर सकती क्या, आज यदि नाना-नानी न होते तो मैं कहां सड़ती पड़ी रहती, मेरा क्या हुआ होता?

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“तेरा क्या होगा रणछोड़?” भीखा भाई ने रणछोड़ का उपहास उड़ाते हुए पूछा। “एक बात याद रखना, मैं हूं तो तुम हो। अब मैं जब नगरसेवक बन जाऊं तो तुमको अपने आंख, नाक, कान सब खुले रखने पड़ेंगे...कौन क्या बोल रहा है, क्या कर रहा है, किससे बात कर रहा है...इस सकी जानकारी रखनी होगी और मुझे बताना होगा...ये बातें तुम्हें समझ लेनी होंगी...अब बेवकूफों की तरह रहना बंद करो। ”

“लेकिन साहब, आप जो जो कहते हैं मैं वह सब करता तो हूं?”

“अरे मूर्ख, अपनी जुबान मीठी रख...किसी का कोई काम हो तो उन्हें मेरे पास लेकर आया करो...किसी का दस पैसे का फायदा होगा तो उसमें से तीन मेरा तो तुम्हें भी तो एक पैसे का फायदा होगा न?”

“सच कहूं तो ये सब बातें मुझसे होने नहीं वाली..मैं तो आप जितना कहेंगे उतना ही कर सकता हूं, बस।”

“ठीक है, अब आगे तेरा भाग्य....बड़ी बेटी पढ़ती है न?”

“हां, इंग्लिश मीडियम में पढ़ती है। आपकी कृपा है साहब।”

“और वो...पहले पति की...दहेज में जो आई थी...वो?”

“उसका नाम न लें...उसको तो देखे हुए भी बहुत दिन हो गए हैं....”

“हम्म्म..और सबसे छोटी?”

“वह बहुत होशियार है। इतनी बातें करती है कि दिमाग खराब हो जाता है।”

“हां भाई...तीन-तीन बेटियां...एक पुरानी, मर चुकी बीवी से, दूसरी नई बीवी ने दहेज में लाई हुई...और तीसरी खुद की...और बेटा एक भी नहीं... ”

“क्या करें साहब...”

“अरे, बेटे के लिए कोशिश करते रहने चाहिए न....”

“वही तो सवाल है न साहब...यशोदा की इस डिलवरी के समय डॉक्टर ने कह दिया था कि अब यह मां नहीं बन सकेगी...सच कहूं तो उसके बाद से मेरा मन ही उतर गया है उससे।”

“मन उतर गया तो उतरने दो...तुमको कौन उसे लेकर घूमना है...लेकिन सच कहूं तो एक बेटा तो होना ही चाहिए...अच्छा बताओ तुम्हारी चिता को आग कौन लगाएगा? अरे, एक बेटा नहीं पैदा कर सकते तो मर्द किस बात के?” इतना कहकर भीखाभाई ने बीड़ी जलाई और बाहर निकल गये, लेकिन रणछोड़ दास के पुराने घावों पर नमक-मिर्च और चूना छिड़क कर चला गये। रणछोड़ दास को लगने लगा कि उसका जीवन व्यर्थ है, निरर्थक है। मर्द होने का ताना उसे अब तक सता रहा था। उसने टेबल पर रखे हुए फोन से एक नंबर घुमाया, “हैलो, सुंदरी को दीजिए तो जरा...”  बहुत देर तक सामने से किसी ने बात ही नहीं की। लेकिन थी ही देर में उधर से मीठी आवाज में “हैल्लो” सुनाई देने पर रणछोड़ का गुस्सा उड़ गया। “तुमसे कुछ खास बात करनी है... शाम को आता हूं...हां...हां....महंगी वाली घड़ी लेकर आता हूं....ठीक है...

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सबको ऐसा लग रहा था कि प्रभुदास बापू के गुजरने के आघात के बाद सबकुछ ठीक हो रहा है। अच्छा हो रहा है। सभी लोग इसका श्रेय प्रभुदास बापू की अच्छाई को दे रहे थे। शाम को जल्दी खाना खा लेना लखीमां की तबीयत के लिए आवश्यक था। इसलिए केतकी उनसे जल्दी खाने का आग्रह करती थी, उसके कहने पर ही जयसुख भी अब सबके साथ जल्दी ही खाना खाने लगा। एक दिन लखीमां को पेट भारी जैसा लग रहा था इसलिए वह खाना खाने वाली नहीं थीं। लेकिन केतकी उनकी बात सुनने वाली नहीं थी। उसने लखीमां से पूछकर थोड़ी सी लपसी बनाई। लपसी में थोड़ा सा दूध और शक्कर डाली और लखीमां को खाने के लिए दी। वह यही लपसी दही और अचार के साथ खाएगी और जयसुख चाचा लपसी, अचार और छाछ लेंगे-यह भी केतकी ने तय कर लिया। इसी हिसाब से उसने सबकी थालियां लगाईं। लखीमां यह सब देख रही थीं। उन्होंने केतकी को अपने पास बुलाया। उसके गालों और सिर पर से हाथ फेरा, “मेरी इतनी चिंता तो मेरी मां ने भी नहीं की थी...”

“ठीक है, ठीक है...मैं तुम्हारी मां नहीं, नानी हूं...नानी...चलो अब नानी का कहना मानो और चुपचाप पेट भर के खा लो...”

लखीमां हंसने लगीं। सभी लोग खाना खाने बैठ गए। दो-चार ग्रास खाए ही होंगे कि लखीमां के हाथ से ग्रास नीचे गिर गया और वह अपनी जगह पर गिर गईं। जयसुख भाई जोर से चिल्लाए, “छोटी...जगा चाचा को बुलाकर लाओ जल्दी...” और जगा चाचा के नाम से पहचाने जाने वाले डॉक्टर घर आए। तब तक लखीमां अपने प्रभुदास बापू के पास पहुंच चुकी थीं। जयसुख और केतकी इतने विचारमग्न हो गए कि रोना ही भूल गए। जगा चाचा ने सभी को बुला लिया। तब जयसुख को होश आया। लखीमां के पैर पकड़कर वह गिर पड़ा, “भाभी...मेरी मां...” पड़ोस की एक बड़ी चाची ने केतकी ने बताया तो केतकी ने लखीमां के पास एक दीपक जलाया। उसके मन में प्रश्न उठा, “जीवनदीप बुझ जाने के बाद अब दीपक किसलिए...?

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह