Agnija - 36 books and stories free download online pdf in Hindi

अग्निजा - 36

प्रकरण-36

मैट्रिक की परीक्षा खत्म होने पर सभी की छुट्टियां लग जाती हैं। लेकिन केतकी के सामने तो एक नया संकट खड़ा हो गया था। संकट वैसे तो पुराना ही था। इसके पहले तीन बार ऐसा हो चुका था। लेकिन उसे नापसंद लजाने वाला काम बार-बार करने की मजबूरी थी। शांति बहन मूलतः ईडर के पास के एक छोटे गांव से आई हुई थीं। उनके पति अभी-भी गांव में रह कर भिक्षा मांगते थे। पूरा गांव उन्हें लाभुभा के नाम से पहचानता था। छोटी-बड़ी पूजा पाठ, क्रिया-कर्म करना, हाथ देख कर भविष्य बताना और उसके बदले में जो दान-दक्षिणा मिलती उससे वह अपना खर्च चलाते थे। लेकिन पढ़ाई पूरी करने के बाद रणछोड़ दास काम के सिलसिले में शहर चला गया। अपने इकलौते बेटे को शहर में अकेले कैसे छोड़ दें, यह सोच कर उसके पीछे-पीछे शांति बहन भी शहर आ गईं। लेकिन लाबुभा का शहर में मन नहीं लगता था। शादी-ब्याह, मरण-दशगात्र आदि के बुलावों में वह खाना खा लेते थे। और यदि ऐसा कोई अवसर न हो तो घर पर खिचड़ी बना लेते थे। ऐसा करने से बचत भी हो जाती थी। इस व्यवस्था की लाभुभा, रणछोड़ और शांति बहन, तीनों को ही आदत हो गई थी और यह उनके लिए सुविधाजनक भी थी।

लेकिन इसमें एक परेशानी होती थी। उनको पास के छोटे शहर यानी ईडर से भी पूजा-रपाठ के लिए कई बार बुलावा आता था। गांव के मुकाबले बड़ी जगह होने के कारण दक्षिणा भी अच्छी-खासी मिल जाया करती थी, फल-अनाज और दूसरी भेंट-वस्तुएं अलग से मिल जाती थीं। इस लिए उन्हें जब भी ऐसा कोई बड़ा आमंत्रण मिलता, लाभुभा उसे गंवाते नहीं थे। पर, साल में किसी के घर में ऐसी बड़ी पूजा, शादी-ब्याह या श्राद्ध आदि होते भी कितने? इस लिए लाभुभा हर साल शाला में छुट्टियां शुरू होने पर अंकलेश्वर जाकर रहते थे और वहां के अपने पुराने यजमानों से बड़ी दान-दक्षिणा इकट्ठा करके लौटते थे। इन दो महीनों में सभी तरफ पूजा-पाठ बड़े पैमाने पर होती थी और अकेले लाभुभा के लिए सब कर पाना यह मुश्किक होता था। लेकिन साथ ले भी जाते तो किसको? रणछोड़ दास या फिर शांति बहन, इन दोनों में से किसी के लिए नके साथ जाना की संभावना नहीं थी। और इंग्लिश मीडियम में पढ़ने वाली जयश्री ने तो इस काम के लिए अपना विरोध जताते हुए साफ मना ही कर दिया था। जब केतकी अपने नाना-नानी के घर से यहां रहने के लिए आई, तब शांति बहन की मानो मनमुराद पूरी हो गई। दो महीने तक केतकी का मुंह नहीं देखना पड़ेगा, और लाभुभा की समस्या भी दूर हो जाएगी। साथ में कमाई भी अच्छी हो जाएगी। शांति बहन कोई सुझाव दें तो रणछोड़ और जयश्री तो उसके लिए राजी होने ही वाले थे। यशोदा को कुछ कहने की आज्ञा ही नहीं थी और केतकी तो नादान ही थी उसको इस बारे में कुछ समझता ही नहीं था। शुरू में केतकी को लगा चलो अच्छा है, नई जगह देखने को मिलेगी और घर के रोज-रोज के कामों से मुक्ति भी मिल जाएगी। केतकी को लेकर शांति बहन ईरड पहुंच गईं। वहां एक घर्मशाला में ठहरीं। सुबह होते ही लाभुभा केतकी को अपने साथ लेकर निकल पड़े। पहचान की दुकानों में जाकर लाभुभा आशीर्वचन बुदबुदाने लगते। यजमान खुश होकर कुछ दान-दक्षिणा दे देते। कोई नकद पैसे के साथ कुछ फल, अनाज और कपड़े भी दे दिया करते थे। हर दुकानदार दान के नाम पर अपनी दुकान में जो भी सामान उसे उठा कर दे देता था। यह सब देख कर केतकी को अचरज होता था। शाम होते-होते दान में मिली वस्तुओं का बोझा सिर पर ढोकर धर्मशाला वापस आना होता था। केतकी को बहुत शर्म महसूस होती थी। उसको लगता था कि रास्ते पर चल रहा हर व्यक्ति उसकी तरफ ही टकटकी लगा कर देख रहा है। कब धर्मशाला पहुंचें, ऐसा उसे लगता था। कमरे में पहुंच कर दान में मिले हुई दान-दक्षिणा को गिनते समय लाभुभा और शांति बहन के चेहरे खुशी से चमक उठते थे। लाभुभी शांति बहन को कहते भी थे, “देखो, कितनी कमाई होती है...लेकिन तुम शहर के नाजुक लोगों से यह काम होता नहीं इस लिए...” यह सुनकर शांति बहन खुश होकर कहती, “अब तक की छोड़िए,पर अब जब तक केतकी है, वह आपके साथ रहेगी, बस?”

यह सुनकर केतकी को लगा कि चलो, कोई भी क्यों न हो, उसे उसकी जरूरत तो है, लेकिन ये, इस काम के लिए?

दस-बारह दिन बाद जयश्री भी वहां आ गई अपनी सहेलियों को लेकर। उसी दिन शांति बहन घर वापस लौट गईं। केतकी को आशा था कि अब शायद लाभुभा के साथ जयश्री जाएगी दान-दक्षिणा लेने, कुछ दिन ही सही। लेकिन जयश्री ने साफ मना कर दिया। वह ईडर में अपनी सहेलियों के साथ सिर्फ मौज-मस्ती करने के लिए आई थी।

दूसरे दिन एक दुकानदार ने केतकी को दान में एक फल दे रहा था, उसी समय जयश्री वहां फलों का रस पीने के लिए पहुंची। उसने केतकी की ओर घूर कर देखा और फिर एक उपहास उड़ाती मुस्कान फेंकी।

केतकी को बहुत बुरा लगा। इतने में ही दूर से लाभुभा ने आवाज लगाई, “ ओ केतकी, इधर आना तो जरा...”

एक दुकानदार ने फ्रॉक के लिए सुंदर सा कपड़ा दिया। केतकी को वह खूब पसंद आया। ये कपड़ा खुद के लिए मांग लूं, ऐसा उसने अपने मन में तय कर लिया। लेकिन घर पहुंचते ही सुंदर-सुंदर दो कपड़े जयश्री ने निकाल लिए। एक अपने लिए और दूसरा अपनी सहेली के लिए। दूसरे दिन जयश्री का कपड़ा लाभुभा ने अपने साथ रख लिया और एक दर्जी की दुकान के पास पहुंचते ही आशीर्वाद के दो श्लोक बोल दिए। उसके बाद दक्षिणा लेकर उन्होंने दर्जी से बिनती की, “ये कपड़ा है, इससे मेरी बेटी के लिए अच्छा सा फ्रॉक सिल दो भैया।” दर्जी केतकी का नाप लेने के लिए आगे बढ़ा ही था कि लाभुभा ने अपनी मैली-कुचैली थैली से जयश्री के नाप वाला फ्रॉक निकाल कर उसे दिया। “इस नाप का सिल देना...”

केतकी की आंखों में आंसू आ गए। “अपना कुछ भी नहीं, न पिता, न मां, न इच्छा, न सपने, न भाई, न बहन, न आत्मसम्मान...अपना कहने को कुछ भी नहीं...?”

इसके बाद प्रत्येक छुट्टी में ईडर जाना केतकी के लिए नियम ही बन गया था। समय ने केतकी को सब कुछ सहन करना सिखा दिया था। वह अपनी भावनाओं को भूल कर यंत्रवत जीने लगी थी। सांस लेने वाली एक मशीन बन कर रह गई थी।

अब कितनी भी भूख लगे, या प्यास, केतकी का मन किसी फल को देख कर ललचाता था, न कोई मिठाई खाने की उसकी इच्छा होती थी। अपने अस्तित्व पर उसने जानबूझकर एक कवच चढ़ा लिया था। मन को मान डाला था, बस जीने के लिए दिल धड़क रहा था उसका।

हर साल गर्मी की छुट्टियों में वही ईडर, वही धर्मशाला और वही दान-दक्षिणा। वही शरीर और मन पर होने वाला अत्याचार...दो महीने की उस कमाई पर घर के सब लोग मौज करते थे, लेकिन उसमें केतकी का हिस्सा कहीं नहीं होता था।

एक बार केतकी प्रार्थना कर रही थी कि इस घर की मजदूरी से कब मुक्ति मिलेगी। पहली बार ईडर जाने के लिए कहा गया तो उसे इतना खुशी हुई मानो स्वर्ग की प्राप्ति हो गई हो। लेकिन उसे इस बात का अनुभव जल्दी ही हो गया कि वह कुएं से निकलकर खाई में जा पहुंची है। एक नवयौवना के लिए ईडर का अनुभव बड़ा मानसिक आघात था। दुर्भाग्य से उसके पास इसमें से निकलने का कोई रास्ता ही नहीं था। अपने भाग्य में सुख नाम की कोई चीज ही नहीं है, इस बात को उसका मन स्वीकार करने लगा था। एक के बाद एक दुःख, छोटे नहीं बड़े-बड़े, कष्ट, व्यथा-यही उसकी नियति है-उसको ये लगने लगा था। उसके मन में एक विचार आया, और उसके रोंगटे खड़े हो गए। यदि मैट्रिक में फेल हो गई और यदि इन लोगों ने उसे हमेशा के लिए लाभुभा के साथ रहने के लिए कह दिया तो? खड़े-खड़े ही उसकी आंखों में आंसू भर आए। परिणाम क्या होगा?

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह