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उजाले की ओर –संस्मरण

नमस्कार

स्नेही साथियों

मनुष्य, चाहे वह पुरुष हो अथवा महिला, सबके मन में भावनाएँ, संवेदनाएँ होती हैं | सब किसी न किसी प्रकार अपने आपको प्रसन्न रखना चाहते हैं जो ज़रूरी भी है किंतु अपना अथवा अपनों का दुःख देखकर यह बड़ा स्वाभाविक है कि कोई भी क्यों न हो, उसकी आँखें भर आती हैं |

हमारे समाज में पुरुष को हमेशा से 'स्ट्रॉंग' कहकर उसके आँसुओं को नकारा गया है जबकि वह भी हाड़-माँस से बना है, उसके मन में भी करुणा, संवेदनशीलता होना स्वाभाविक है | उसको भी अपने आँसू बहकर खुद को सहज करने का अधिकार है लेकिन बचपन से उसे यही कहा या सिखाया जाता है ;

"तुम लड़के हो न --तुम रो नहीं सकते --" यह बात कभी-कभी इतनी कष्टदायक हो जाती है कि पुरुष को समझ में नहीं आता कि वह अपने आपको कैसे संभाले | इस विषय में मुझे एक घटना की स्मृति हो आई |

मेरी एक दोस्त दिल्ली में काम करती थी जिसको अपने काम के लिए हर दिन ट्रेन से गाज़ियाबाद से दिल्ली आना-जाना पड़ता था | उसी के द्वारा  सुनाई हुई घटना ने मुझे कुछ सोचने पर मज़बूर कर दिया |

हर दिन की भांति वह 'लेडीज़ कम्पार्टमेंट' में और सहयोगियों के साथ बैठी थी कि एक उम्रदराज़ पुरुष उस महिलाओं के डिब्बे में आ गए | सबको बहुत अजीब लगा लेकिन उनकी उम्र को देखते हुए किसी ने कुछ नहीं कहा | सीट भी खाली थी, वे खिड़की के पास चुपचाप बैठ गए और बाहर देखने लगे |

सभी महिलाएं एक-दूसरे को देख रही थीं। वह चाचा बस ट्रेन की खिड़की के बाहर देख रहे थे और रो रहे थे । वह अपने आँसुओं  को छिपाने की बिल्कुल भी कोशिश नहीं कर रहे थे ।

जब रहा नहीं गया तो उन महिलाओं में से एक ने पूछा, 

"क्या हुआ आपको ?"

उन्होंने जवाब दिया, "मेरी पत्नी बहुत बीमार हैं | मैंने अपनी पत्नी को हॉस्पिटल  में भर्ती कराया है और बहू की भी तबियत खराब होने से उसकी  रिपोर्ट डॉक्टर को भेजी  है, बेटा  है नहीं  वे दोनों दर्द में हैं। यह सोचकर सुबह से मेरी तबीयत ठीक नहीं लग रही है। लेकिन मैं घर का कमाऊ आदमी होने के नाते यह बात किसी को नहीं बता सकता। मैं दिल खोलकर रोना चाहता था। इसलिए, मैं जानबूझकर महिलाओं के डिब्बे में चढ़ा।”

महिलाओं ने उन्हें  पानी दिया। किसी ने उन्हें चॉकलेट भी दी। उन्होंने खुद सँभालने की कोशिश की और कहा, 

"पुरुष हमारे समाज में नहीं रोते। बल्कि हमें रोना नहीं चाहिए। ठीक है ? लेकिन, हमारी भी  भावनाएँ हैं। मैं अपने परिवार की दो महिलाओं को इस तरह के दर्द में देखकर वास्तव में बहुत परेशान हूँ । वो दोनों महिलाएँ  हर परेशानी में हमेशा मेरे पीछे मजबूती से खड़ी रहीं हैं ।"वे कुछ देर के लिए चुप हो गए, उन्होंने  अपनी आँखें और मुँह अपने रुमाल से साफ़ किया फिर बोले ;

“मुझे इस बात का अंदाजा भी था कि अगर मैं इस लेडीज़  कम्पार्टमेंट में प्रवेश करता हूं तो सभी  मुझ पर चिल्लाएंगी। पर चिल्लाने के बजाय आप सभी मुझे सांत्वना दे रहे हैं। मैं वास्तव आपका मन से शुक्रगुज़ार हूँ। धन्यवाद"

अगले स्टेशन पर वे ट्रेन से उतर गए ।उन्होंने  अनजाने में सबको  सबक दे दिया था । जब हम अपने बच्चे (लड़के) की परवरिश करते हैं, हमें उसे खुद को खुलकर व्यक्त करने के लिए सिखाना चाहिए। हमें उसे सिखाना चाहिए कि अगर उसे कभी ऐसा लगता है कि उसे रोना है  तो रो लेना चाहिए । उसे पता होना चाहिए कि आदमी में भी स्त्रियों की भाँति संवेदनाएं होती हैं, उन्हें भी दुःख होता है और लड़के भी रो सकते हैं।

इस घटना को जानकर मुझे भी ऐसा ही महसूस हुआ कि मैं यह बात मित्रो से साझा करूँ |

सोचकर देखिए क्या पुरुष में संवेदनाएँ नहीं होतीं ?

सोचिए ज़रूर ----!!

सस्नेह

आपकी मित्र

डॉ. प्रणव भारती