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कामवाली बाई - भाग(२५)

अब मैं और गंगूबाई मिलकर एलिस का ख्याल रखने लगें,हम दोनों के आने से अब गंगूबाई का परिवार पूरा हो गया था,अब धीरे धीरे गंगूबाई की उम्र हो रही थीं,लेकिन वो निरन्तर अब भी अपने काम पर जा रही थी क्योंकि उसके पैसों से ही घर का खर्च चल रहा था,मैनें भी छोटे मोटे काम करने शुरू कर दिए थे,फिर मैनें फूलों की एक दुकान रख ली,मेरी दुकान भी ठीक ठाक चल रही थी ,इसी तरह पाँच साल बीत गए,एलिस भी अब पाँच साल की हो चुकी थी और तभी गंगूबाई की तबियत कुछ ज्यादा खराब रहने लगी,उनके सारे टेस्ट करवाएं तो उसमें उन्हें ब्लड कैंसर निकला और डाक्टर ने कह दिया कि कैंसर लास्ट स्टेज पर चल रहा है अब ये ज्यादा दिनों की मेहमान नहीं हैं....
अब गंगूबाई को अपनी बिमारी से ज्यादा हम दोनों की चिन्ता सताने लगी,वो सोचने लगी कि मेरे बाद इन दोनों का क्या होगा,अभी तो कैमिला को दुनियादारी की समझ ही नहीं है और एलिस भी अभी बहुत छोटी है ,तब गंगूबाई ने मुझसे पूछा....
क्या तू वो काम करेगी जो काम मैं किया करती थी?
मैनें कहा,नहीं....
ये सब मुझसे ना हो पाएगा,इतने सारे लोगों के बीच नग्नावस्था में बैठना,मुझे ग्लानि से भर देगा,
तब गंगूबाई बोली....
कैमिला!मेरे जाने के बाद तेरा क्या होगा?कैसे पालेगी एलिस को,इस दुनिया की निगाहों को तू अभी नहीं जानती बेटी!हमेशा तुझे और तेरी बेटी को नोचने के लिए फिरेगीं ये दुनिया,तू तो खुद भुक्तभोगी है ,मुझे तुझे समझाने की जरूरत नहीं,तू जहाँ भी काम के लिए जाएगी ना तो पहले तुझसे तेरी पहचान पूछी जाएगी,जो कि तेरे पास है ही नहीं और इस बच्ची के बाप का नाम क्या बताएंगी तू और जब तू इन दुनियावालों के सवालों के जवाब नहीं दे पाएगी तो ये दुनिया तुझ पर थूकना शूरू कर देगी,
ये दुनिया केवल उसकी इज्जत करती है जिसके पास दौलत और शौहरत है,हम जैसे लोगों पर तो ये थूकती भी नहीं,इसलिए कहती हूँ कि समय रहते तू ऐसा काम पकड़ ले जो तुझे इस दुनिया में रहने के काबिल बना दें,मैं चाहती हूँ कि जब मैं मरूंँ तो मुझे ये तसल्ली रहे कि तू अपना और अपनी बेटी का ख्याल रख सकती है और फिर गंगूबाई के कहने पर मैनें उनके काम को करना शुरू कर दिया,गंगूबाई ने मुझसे ये कहा था कि तुम किसी से मत कहना कि तुम्हारी एक बेटी है,उसे अपनी बहन बताना और जब कोई तुम्हारा मनपसंद इन्सान मिल जाएं तो उसके साथ घर बसा लेना लेकिन उससे शादी करने से पहले उसे सारी सच्चाई जरूर बता देना....
अब गंगूबाई की सिफारिश पर मुझे उस काँलेज में काम मिल गया,पहलेपहल तो बड़ी झिझक हुई लेकिन फिर मुझे आदत पड़ गई,वहाँ के छात्रों ने मेरी बहुत सारी पेटिंग बनाई,वें सब भी गंगूबाई की तरह मुझे इज्ज़त देने लगें,अब उस काम से जो भी कमाई होती तो मैं गंगूबाई के हाथों में रख देती,अब गंगूबाई को तसल्ली हो गई थी कि मैं उनके बिना खुद को और एलिस को सम्भाल सकती हूँ,कुछ दिनों बाद गंगूबाई मुझे अकेला छोड़कर चली गई....
किसी के चले जाने से जिन्दगी थोड़े ही रूकती है तो मेरी भी नहीं रूकी,मैनें अब एलिस का स्कूल में एडमिशन करवा दिया था,मैं एलिस को स्कूल छोड़कर अपने काम पर निकल जाती,ऐसे ही और दिन गुजरे अब एलिस सात साल की हो चुकी थी और मैं चौबीस की,मैनें स्कूल में एलिस के माता पिता के नाम पर अपने मरहूम माता पिता का नाम लिखवा दिया था और सबसे कह दिया था कि एलिस मेरी बहन है.....
उन दिनों जब मैं उसी काँलेज में काम कर रही थी तब एक बड़े उद्योगपति को एक मूर्तियों का शोरूम खोलना था,,जिसमें उन्हें औरतों की मूर्ति की आवश्यकता थी जिसके लिए वें एक माँडल की तलाश कर रहे थे,इसी खोज में थे और उन्हें तभी उस काँलेज के बारें में पता चला,वे काँलेज आएं और वहाँ के छात्रों से पूछा कि उनकी माँडल कौन है,वो सब किसके शरीर को कैनवास पर उकेरते हैं,पहले तो किसी ने मेरा नाम जाहिर नहीं किया,लेकिन जब उन्होंने कहा कि वो इस काँलेज की हालत को ठीक करवा सकते हैं,वें ही उस काँलेज के ट्रस्टी बन जाऐगें तो तब उन्हें ये काम छुप छुपकर नहीं करना पड़ेगा तो सब उनकी बातों में आ गए और उन सबने उन्हें मेरे नाम से वाक़िफ़ करवा दिया.....
वें जनाब मुझसे मिलने मेरे कमरें चले आएं,उन्होंने कमरें के दरवाजे पर दस्तक दी,मैनें दरवाज़ा खोला और उन्हें अपने सामने देखकर उनसे पूछा.....
जी!आप!किससे मिलना चाहते हैं?
तब वें बोले.....
जी!मुझे कैमिला जी से मिलना था....
जी!कहें,मैं ही कैमिला हूँ,मैनें कहा।।
जी!मैं अपारशक्ति सिसौदिया,मैं संगमरमर की मूर्तियों का शोरूम खोलना चाहता हूँ,उद्योगपति बोलें...
तो इसमें मैं आपकी कैसें मदद कर सकती हूँ?मैनें उनसे पूछा।।
जी!मुझे मूर्तियाँ बनवाने के लिए एक माँडल की आवश्यकता है,सिसौदिया साहब बोलें।।
तो इसमें मैं क्या करूँ?मैनें गुस्से से पूछा।।
अगर आप उन मूर्तियों की माँडल बन जातीं तो........मैं आपको मुँहमाँगा रूपया दूँगा इस काम के लिए,सिसौदिया साहब बोलें.....
मैनें कहा, मुझे मंजूर नहीं ,फिर वें बात और आगें बढ़ाते इससे पहले ही मैनें उनके मुँह पर दरवाजा बंद कर दिया....
मुझे उन पर बहुत गुस्सा आ रहा था और मैनें मन में सोचा,कैसा बेहूदा आदमी है,मैं तो अपना पेट पालने के लिए ये काम करती हूँ और वो मेरी मजबूरी का फायदा ही उठाने आ गया,होगा अमीर आदमी तो अपने लिए होगा,मैं गरीब हूँ तो मुझसे कोई भी काम करवा लेगा,मैं हरगिज़ भी उसकी बात नहीं मानूँगी और फिर उस रात मैं सोचती रही कि काश इस दुनिया मे मेरा कोई अपना होता तो कोई भी मेरे घर यूँ मुँह उठाकर ना चला आता,मुझसे कोई भी काम करवाने के लिए....
उस रात मैं ठीक से सो नहीं पाई,खुद को बहुत बेबस सा महसूस कर रही थी मैं,जिन्दगी ने मुझे ना जाने किस मुकाम पर ला कर खड़ा कर दिया था,बेटी को बहन बनाकर रखना पड़ना और उस बेटी को जिसकी कभी मुझे चाह ही नहीं थी,वो ऐसे इन्सान की सन्तान थी जिससे मुझे बहुत नफरत थी,लेकिन शायद उसको अपनाना ही मेरी नियति था और फिर मैनें एक बार एलिस की ओर देखा,वो सो रही थी और सोते हुए वो बहुत प्यारी लग रही थी,मैनें प्यार से उसके माथे को चूम लिया वो थोड़ी कुनमुनाई और मुझसे चिपट गई,मैनें भी उसे प्यार से अपने सीने से लगा लिया,इन सब में उस मासूम की कोई गलती नहीं थी इसलिए मैं उसे क्यों दोष दूँ,भले ही वो मेरी किस्मत में अनचाहे ही आई लेकिन अब मैं ही उसकी सबकुछ थी और वो मेरी सबकुछ.....
और यही सोचते सोचते मुझे कब नींद आ गई मुझे पता ही नहीं चला,सुबह मैं सोकर उठी पहले खुद तैयार हुई फिर एलिस को स्कूल के लिए तैयार किया,फिर मैं एलिस को स्कूल छोड़कर काम पर निकल गई,मैं जैसे ही काँलेज पहुँची तो अपारशक्ति सिसौदिया मेरा वही गेट के पास इन्तजार कर रहे थे,मैं उनको अनदेखा करके आगें बढ़ गई ,लेकिन वो मेरे पीछे पीछे आने लगें और मुझसे बोलें....
सुनिए....सुनिए ना!तो क्या सोचा आपने ?
मैनें पूछा,किस बारें में?
वही की आप माँडल बनेगीं या नहीं,सिसौदिया साहब बोलें....
शायद मैनें आपके सवाल का जवाब आपको कल ही दे दिया था,मैनें कहा,
वो तो आपने मेरे मुँह पर दरवाजा बंद किया था,जवाब थोड़े ही दिया था,सिसौदिया साहब बोले....
बड़े ढीठ है आप,मैनें कहा...
वो तो मैं जन्म से हूँ,मेरे पैदा होते ही नर्स भी यही बोली थी कि बड़ा ढीठ बच्चा है क्योंकि मैं रोया नहीं था,सिसौदिया साहब बोले...
साथ में बेशर्म भी हैं,मैनें कहा।
वो भी हूँ नहीं तो इतना बड़ा व्यापार नहीं सम्भाल पाता,ऐसे ही लोगों के सामने नाक रगड़नी पड़ती है तब व्यापार आगें बढ़ता है,सिसौदिया साहब बोले.....
अब तो आपने बेशर्मी की हद पार कर दी,मैनें कहा....
बेशर्म बनना पड़ता है मोहतरमा!ये दुनिया ऐसी ही है,नहीं तो आप यहाँ जी नहीं पाऐगें,सिसौदिया साहब बोले....
मुझे काफी हद तक उनकी बात बिल्कुल सही लगी क्योंकि मैं भी तो बेशर्मी के साथ ही तो ये काम रही हूँ,तब मैनें उनसे पूछा...
तो आप मुझसे क्या चाहते हैं?
आपका थोड़ा सा कीमती समय,सिसौदिया साहब बोले।।
जी,अभी तो मुझे फुरसत नहीं है,मैनें कहा।।
शाम को आ सकेगी,किसी रेस्टोरेंट में काँफी पीते हुए बात करते हैं,सिसौदिया साहब बोले।।
जी,वो तो ठीक है लेकिन मेरी बहन भी मेरे साथ आएगी,मैं उसे घर में अकेला नहीं छोड़ सकती,मैनें कहा।।
मुझे कोई एतराज नहीं,सिसौदिया साहब बोलें।।
और फिर उस दिन मैं सिसौदिया साहब के कहने पर उनसे एक रेस्टोरेंट में मिलने गई,साथ में मैं एलिस को भी लिवा ले गई,वें एलिस को देखकर बोलें.....
आपकी बहन आपसे उम्र में कुछ ज्यादा छोटी नहीं है,आपके मम्मी पापा ने इसे दुनिया में लाने में कुछ ज्यादा देर नही कर दी....
उनकी बात सुनकर मेरा चेहरा उतर गया तो वें बोलें.....
अरे,नाराज मत होइए,मैं तो मज़ाक कर रहा था।।
लेकिन मुझे ऐसा बेहूदा मज़ाक पसंद नहीं है,मैनें कहा।।
अब माँफ भी कर दीजिए,मैं फिर कभी दोबारा ऐसी गलती नहीं करूँगा,सिसौदिया साहब बोलें....
मैनें कहा....ठीक है....ठीक है....अब जल्दी कीजिए जो कहना है,मेरा पास ज्यादा वक्त नहीं है,अभी घर जाकर खाना भी बनाना होगा और एलिस का होमवर्क भी बाँकी है,मैनें कहा.....
कोई बात नहीं तो यहाँ पर हम काँफी पी लेते हैं,आज डिनर आप मेरे घर पर कर लीजिए,सिसौदिया साहब बोले....
ये अच्छा है!ना जान ना पहचान,मैं तेरा मेहमान,आप तो मेरे गले ही पड़ गए,मैं जाती हूँ ,मुझे आपसे कोई बात नहीं करनी और इतना कहकर मैं उठने लगी तो सिसौदिया साहब बोलें...
मोहतरमा!आप तो ख्वामख्वाह में नाराज़ होतीं हैं,मैं तो आपकी सहूलियत के हिसाब से बात कर रहा था,
जी!मुझे ऐसी सहूलियत की कोई जरूरत नहीं,मैनें कहा।।
जी!अगर आप मेरी मेहमाननवाजी कूबूल करतीं तो मुझे बहुत खुशी होती,सिसौदिया साहब बोले।।
उनकी बात सुनकर मुझे थोड़ी सी शर्मिंदगी महसूस हुई कि एक इन्सान मेरे साथ इतनी इज्जत के साथ पेश आ रहा है और मैं उसकी बेइज्जती पर बेइज्जती किए जा रही हूंँ और फिर तब मैनें उनसे थोड़ा लहज़े के साथ बात करते हुए कहा....
जी!पहले काँफी तो पिला दीजिए फिर आपके घर खाना भी खा लेगें.....
अच्छा लगा सुनकर जो अपनी मेरी इल्तिजा कूबूल की,सिसौदिया साहब बोलें....
आप की ऊर्दू बहुत अच्छी है,मैनें उनसे कहा....
जी!मेरी माँ मुस्लिम थी और पिता हिन्दू,ऊर्दू मेरी माँ की बहुत अच्छी थी,मैनें उन्होंने से ही सीखी,माँ पकिस्तान से थी और अमेरिका में रहतीं थीं,पिता किसी व्यापार के सिलसिले में अमेरिका गए और दोनों की वहीं मुलाकात हुई,फिर दोनों में इश़्क हो गया और उसके बाद शादी,फिर जब मैं सोलह सत्रह साल का हुआ तो माँ को कैंसर हो गया,उन्होंने अपनी जिन्दगी के आखिरी दो साल अस्पताल में गुजारे,माँ के जाने के बाद फिर मेरे पिता ने दोबारा शादी नहीं की वें मेरी माँ से बहुत मौहब्बत करते थें,
फिर कुछ सालों बाद पिता भी गुज़र गए और अपनी बेशुमार दौलत का वारिस वें मुझे बना गए,तबसे सम्भाल रहा हूँ उनका व्यापार,इसी चक्कर में शादी भी नहीं की,सिसौदिया साहब बोलें.....
ओह....तो इसका मतलब है कि आपने कभी किसी से मौहब्बत नहीं की,मैनें पूछा....
मौहब्बत तो कई बार हुई लेकिन सभी मेरी दौलत की भूखी थीं,सच्ची मौहब्बत शायद मेरे नसीब में नहीं है,सिसौदिया साहब बोले....
ओह....तो ये बात है,मैनें कहा।।
जी!अब तो मन भी नहीं है किसी से शादी करने का,इसलिए खुद को काम में इतना मसरूफ़ रखता हूँ कि इश़्क मौहब्बत और शादी के बारें में सोचने का मौका ना मिलें,सिसौदिया साहब बोलें.....
और फिर यूँ ही हम ने अपनी बातें करते करते काँफी खतम की और फिर कुछ देर बाद सिसौदिया साहब बोलें...
अब तो आपको मेरे घर में मेरे साथ डिनर करने में कोई एतराज़ तो नहीं,
मैनें कहा,
नहीं!आप मुझे शरीफ़ इन्सान मालूम होते हैं,
और फिर उस रात मैं उनके साथ उनकी कार में उनके घर डिनर पर चली गई,उनका बहुत ही आलीशान घर था,साथ में बहुत सारी कारें उनके बड़े से गैराज में खड़ी थीं,हम घर के भीतर गए कुछ देर हमने बातें की ,वें एलिस के साथ भी खेले और फिर उनके खानसामों ने थोड़ी ही देर में बहुत सारे जायकेदार,लजीज़ ब्यंजन डाइनिंग टेबल पर सजाकर रख दिए...
हम सबने डिनर किया और फिर सिसौदिया साहब हमें वापस अपनी कार से हमें हमारे घर छोड़ गए,उस दिन मेरे मन में जो उनके प्रति गलतफहमी थी वो दूर हो गई,वे बुरे इन्सान बिल्कुल भी नहीं थे...

क्रमशः.....
सरोज वर्मा.....