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अग्निजा - 39

प्रकरण 39

ग्यारहवीं में एकदम जैसे इकॉनॉमिक्स, बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन, एकांउट्स और स्टैटिस्टिक्स जैसे एकदम नये विषय पढ़ कर उसमें पास भी हो जाना-यह बात केतकी स्वयं के लिए भी किसी आश्चर्य से कम नहीं थी। लेकिन पास होने के साथ-साथ केतकी को डर सताने लगा था क्योंकि अगली कक्षा में इन विषयों का गहराई से अध्ययन करना था। और यह उसके लिए यह किस हद तक संभव हो पाएगा, वह सशंकित थी। नई किताबें खरीद नहीं सकती थी। पुराने विद्यार्थियों से किताबें मिल जाएं, तो ही अगली पढ़ाई जारी रखनी थी। इसी तरह किसी विषय की यदि उसे गाइड पुस्तिका मिल जाए तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। केतकी और यशोदा एक सांचे में ढला जीवन जी रही थीं। सालों साल अन्याय, अत्याचार सहन कर करके उनके मन सुन्न पड़ चुके थे। उन्हें अब किसी भी बात का नए सिरे से दुःख नहीं होता था। दुःखों की आदत हो गई थी इन इस मां-बेटी को। शायद यही वजह थी कि रणछोड़ दास इधर कई-कई दिन तक बाहर रहता था, घर नहीं आता था, लेकिन यशोदा को इसकी रंचमात्र चिंता नहीं होती थी, वह परवाह भी नहीं करती थी। वह कहां जाता है, किस लिए जाता है, इससे उसे फर्क नहीं पड़ता था।

रणछोड़ दास अब अपनी मां को बस इतना ही बता देता था कि भिखाभा का काम बढ़ गया है। दूसरे गांवों में जमीन खरीदने का काम शुरू किया है। कभी जमीन देखने जाना पड़ता है, भाव करना पड़ता है, कागज-पत्तर देखने जाना पड़ता है। शांति बहन को लगता था कि अरे, अरे मेरे बेटे को कितना काम करना पड़ता है...बेचारे को दो घड़ी भी आराम नहीं। और मेरे पति कहते हैं कि मुझे गांव में उनके साथ जाकर रहना चाहिए। मैं भी चली जाऊं तो इस घर को कौन संभालेगा...घर तो रास्ते पर आ जाएगा...गांव के लोगों को चार बातें कहने का मौका मिल जाएगा। बहू ठीकठाक होती तो उसके भरोसे पर घर छोड़ भी दिया जा सकता था लेकिन उसमें इतनी कूव्वत ही नहीं, ऊपर से वह बदनसीब बेटी...दोनों के भरोसे पर घर छोड़ा तो सत्यानाश ही हो जाएगा...

केतकी की आशंका सही निकली। वह बारहवीं में फेल हो गई। छह में से दो विषयों में फेल। स्टैटिस्टिक्स में तो उसे बहुत कम नंबर मिले थे। घर के लोगों ने तो रट लगाना चालू कर दिया कि अब उसकी पढ़ाई बस। केतकी भी उनसे सहमत थी। परंतु यशोदा ने उसको एक बार फिर से परीक्षा देने के लिए कहा। मां ने उसके बारे में कुछ तो विचार किया इतना ही सोचकर उसे खुशी हुई और वह परीक्षा देने के लिए तैयार हो गई। अक्टूबर में उसने बचे हुए विषयों की परीक्षा दी पर स्टैटिस्टिक्स की आंकड़ेबाजी उसके लिए मुश्किल ही थी। वह फिर से इस विषय में फेल हो गई। सभी को लगा, अच्छा ही हुआ...न जाने क्यों यशोदा को केतकी का पढ़ाई छोड़ना मंजूर नहीं था। उसे क्या सूझा कि वह केतकी को लेकर कॉलेज की प्राचार्या से मिलने गई। उनसे बिनती की कि केतकी को पढ़ने दें। उसे फिर से परीक्षा में बैठने दें। चाहें तो उसके विषय बदल दें। प्राचार्य मैडम ने उससे कहा कि एक आखरी अवसर लेकर देखें और यदि स्टेटिस्टिक्स न जमता हो तो सोशलॉजी लेकर देखे। न तो केतकी को उनकी बात समझ में आई, न यशोदा को, फिर भी केतकी को एक और अवसर मिलने वाला था यह सोच कर वह खुशी-खुशी तैयार हो गई। उसके पास होने को लेकर मां को कितनी खुशी है, यह देख कर केतकी को बहुत आश्चर्य हुआ। केतकी को नए विषय की किताबें और नोट्स भी मिल गए और उन्हें पढ़ कर वह उस विषय में पास भी हो गई। केतकी को बारहवीं में पास होने की अधिक खुशी नहीं हुई। और उसकी मां के लिए तो खुशी और दुःख में कोई अंतर ही नहीं रह गया था। वह तो मानो सभी भावनाओं से पार हो गई थी। एकदम भावशून्य। किसी संत को प्राप्त होने वाली अनुभूति होती थी यह, लेकिन किशोर वय की केतकी की समझ से परे थी यह बात।

जयश्री को डीएड करते ही शिक्षिका की नौकरी मिल गई। यशोदा ने एक बार फिर घर वालों से अनुनय विनय करके केतकी की आगे की पढ़ाई की आज्ञा ले ली। शांति बहन ने बताया, घर के काम करके पढ़ाई करना हो, तो वह पढ़े। रणछोड़ दास को लगा कि और दो कक्षा पढ़ कर छोटी-मोटी नौकरी पा जाएगी तो उसके सिर से बोझ कम हो जाएगा।

केतकी ने अब कॉमर्स छोड़ कर आर्ट्स विषय ले लिए थे और परीक्षाएं देना शुरू कर दिया था। सभी छह विषय गुजराती माध्यम से और उसमें स्पेशल विषय गुजराती साहित्य। घर के कामकाज के कारण वह नियमित रूप से कॉलेज नहीं जा पाती थी। कम से कम उपस्थिति जरूरी थी इस लिए बस उतने दिनों के लिए वह कॉलेज जाती थी। परंतु उसकी व्यथा, उसकी समझ और बची-खुची संवेदनाओं को गुजराती साहित्य के माध्यम से एक अनजाने ही एक गुंजाइश मिल गयी।  वह बीए के पहले साल में, पहले ही प्रयास में सेकंड क्लास लेकर पास हो गई। भीतर के आक्रोश, लगातार इच्छा-आकांक्षाओं का दमन और नीरस जीवन-इनके बीच दबी हुई केतकी के भीतर से एक नयी केतकी का जन्म होने को था। पर इसकी उसे अभी अनुभूति नहीं थी। केतकी ने एक के बाद एक करके बीए की तीनों परीक्षाएं सेकंड क्लास में पास कर ली। केतकी को डिग्री मिली लेकिन घर में उसकी खुशी यशोदा और भावना के अलावा किसी को नहीं नहीं हुई, खुद केतकी को भी नहीं।

केतकी जैसे-जैसे पास होती जा रही थी, वैसे-वैसे यशोदा के मन में केतकी के भविष्य को लेकर सपने भी बड़े होते जा रहे थे। चूंकि वह लगातार पास हो रही थी इसलिए अब उसकी आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए घरवालों से अनुनय-विनय की भी आवश्यकता नहीं पड़ रही थी। हर बार काम का बहाना बताया जाता था, “घर के कामकाज में ढिलाई नहीं चलेगी।” बस, इतनी ही शर्त लगाई जाती थी।

यशोदा को जनार्दन की याद आती थी। वह जीवित रहता तो केतकी की प्रगति देख कर उसे कितनी खुशी हुई होती। रणछोड़ दास की कमाई, व्यस्तता, शराब और घर से बाहर रहना-ये सब बढ़ता ही जा रहा था। एक बार वह दूसरे शहर से घर वापस आया और नहाने के लिए चला गया। नहाने के लिए जाते समय उसने अपना पर्स, कुछ कागजात, कुछ नोट और खुले पैसे जेब से निकालकर टेबल पर रख दिये। उसी समय शांति बहन मंदिर से आईं। आते ही पंखा शुरू कर दिया। पंखा शुरू करते ही टेबल पर रखे नोट और कागजात इधर-उधर उड़ने लगे। शांति बहन ने केतकी को आवाज देकर कहा, “ये सब इस तरह रखा जाता है?”

“दादी, मैंने नहीं रखा...”

“तो क्या तेरे बाप ने रखा?”

उसी समय रणछोड़ दास बाथरूम से बाहर निकल कर आया, “अरे मेरे कागज उड़ गए...” केतकी की ओर चिढ़ कर देखा और बोला, “ठंडी हवा के बिना मर रही थी क्या जो तुरंत पंखा चालू कर दिया... ” केतकी उत्तर देने वाली ही थी कि शांति बहन ने उसे रोक दिया, “बिना कारण मुंह मत चलाओ... फटाफट सब कागज उठाकर टेबल के ऊपर रखो... ”

केतकी ने कागजात बटोरे और टेबल के ऊपर रख दिए। लेकिन उनमें एक फोटो भी था। एक सुंदर औरत का। केतकी ने उसे टेबल के ऊपर न रखते हुए छुपा लिया और यशोदा को दिखाया, “यह उनकी पर्स से गिरा था...”

यशोदा ने फोटो देखा। वह उसे नहीं पहचानती थी। उसने फोटो के पीछे देखा, तो उस पर लिखा था, “मेरे प्रिय रणछोड़ के लिए...चंदा की ओर से सप्रेम भेट।” केतकी को लगा कि मां अब गुस्सा करेगी....रोएगी...हल्ला मचाएगी...घर को सिर पर उठा लेगी। कम से कम आज तो मां का रौद्र रूप देखने को मिलेगा और बाप को पहली बार घिघियाते, याचना करते हुए देख पाएगी। केतकी को लगा कि कोई भी स्त्री कितनी भी दुर्बल, असहाय या सीधी-सादी क्यों न हो, ऐसी बातें तो कभी भी सहन नहीं कर सकती। उसे बेटी न मानने वाला बाप आज पेंच में फंसेगा इस कल्पना से केतकी को खुशी हुई।

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह