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बुद्ध और ध्यान दर्शन का संक्षिप्त अध्ययन

“बुद्धं शरणं गच्छामि” बौद्ध धर्म को जानने वालों के लिए मूलमंत्र है। इसकी दो और पंक्तियों में “संघं शरणं गच्छामि” और “धम्मं शरणं गच्छामि” भी है। बौद्ध धर्म की मूल भावना को बताने वाले ये तीन शब्द गौतम बुद्ध की शरण में जाने का अर्थ रखते हैं। बुद्ध को जानने के लिए उनकी शिक्षाओं की शरण लेना जरूरी है। दुनिया में सबसे प्रसिद्ध मंत्र अनुकंपा बुद्ध " ओम मणि पद्मे हम " है जिसका अनुवाद "कमल में गहना की जय" है। यह करुणा के बुद्ध का मंत्र है, जिसे चीनी लोग देवी कुआन यिन के नाम से जानते हैं। ध्यान (संस्कृत) या झान (पालि) का अर्थ भारतीय धर्मों में वही है जिसको अंग्रेजी में 'मेडिटेशन' कहते हैं।

ध्यान में साधक अपने शरीर, वातावरण को भी भूल जाता है और समय का भान भी नहीं रहता। उसके बाद समाधिदशा की प्राप्ति होती है। योगग्रंथो के अनुसार ध्यान से कुंडलिनी शक्ति को जागृत किया जा सकता है और साधक को कई प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त होती है। पतंजलि योग में मुख्य आठ प्रकार की शक्तियों का वर्णन किया गया है। ध्यान एक विज्ञान है जो हमारे शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास में हमारी सहायता कर हमें अपने संपूर्ण अस्तित्व का स्वामी बनाने में सक्षम है। मानव में विभिन्न शक्तियों का समुच्चय उपलब्ध हैं। प्रत्येक शक्ति के विकास के अपने विधि-विधान हैं। इन सभी शक्तियों का संगम ही हमारा जीवन है।

 

भगवान बुद्ध और बौद्ध पंथ के विषय में अनेक विमर्शों के माध्यम से सनातन और बौद्ध दर्शन के बीच मतभिन्नता का अस्तित्व खड़ा किया गया है। इस विमर्श से हटकर एक अलग दृष्टिकोण से भगवान बुद्ध और सनातन दर्शन के अन्तर्सम्बन्धों को देखने का प्रयास करते हैं। ध्यान के दो मुख्य प्रकार हैं : समथा ध्यान - इसे शांत ध्यान के रूप में जाना जाता है और बौद्धों का मानना ​​है कि यह गहरी एकाग्रता की ओर ले जाता है। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि यह बौद्धों को तृष्णा को दूर करने और इसलिए निर्वाण प्राप्त करने की अनुमति देता है। यह सांस लेने की माइंडफुलनेस पर केंद्रित है।

बौद्ध ध्यान, मानसिक एकाग्रता का अभ्यास अंततः आध्यात्मिक स्वतंत्रता, निर्वाण के अंतिम लक्ष्य के चरणों के उत्तराधिकार के माध्यम से अग्रणी होता है ।

भारत देश की विशेषता है, जब-जब समाज धर्माचरण के मार्ग से विचलित हो जाता है, सनातन के शाश्वत सिद्धांतों की समाज को विस्मृति हो जाती है, समय काल परिस्थितिवश सामाजिक व्यवस्था में धर्म का त्रुटिपूर्ण विवेचन होने लगता है इस कारण से विभिन्न प्रकार की जटिल समस्याएँ सामाजिक जीवन में व्याप्त हो जाती है, तब-तब इन व्यवस्थाओं को ठीक करने के लिए उच्चस्तर की चेतना का धरती पर अवतरण होता है। इस प्रकार अवतरित हुई चेतनाओं को ही अपने यहां अवतार कहा गया है। सृष्टि परिचालन की व्यवस्था के बारे में सनातन दृष्टि में ब्रह्मा- सृजन, शिव-विसर्जन और विष्णु पालन का काम करते हैं। जिसके पास व्यवस्थाओं के संचालन का काम होता है उसे ही व्यवस्थाओं में आने वाली गड़बड़ी को ठीक करने का भी दायित्व वहन करना पड़ता है। इसलिए जब भी व्यवस्था तंत्र में किसी प्रकार के सुधार की आवश्यकता होती है उस समस्या की प्रकृति के अनुसार उसे ठीक करने के लिए भगवान विष्णु एक अलग अवतार में विलक्षण दृष्टिकोण के साथ हमारे मध्य उपस्थित होते हैं। भगवान बुद्ध की मूल चेतना को आद्य शंकराचार्यजी ने पहचाना था। इसलिए उन्होंने भगवान बुद्ध को दशावतार में एक अवतार माना है।

भगवान बुद्ध की उच्चस्तरीय चेतना को आचार्य शंकर ही पहचान सकते थे। यहाँ हम बौद्ध दर्शन और सनातन परंपराओं के बीच किस प्रकार का संबंध है, उसका विचार करेंगे। भगवान बुद्ध द्वारा प्रवर्तित मार्ग में त्रिरत्न बुद्ध, धर्म और संघ, दिए गए हैं। सनातन में भी तीन योगों का प्रावधान है- कर्म योग, भक्ति योग एवं ज्ञान योग। बुद्ध दर्शन में चार आर्य सत्य हैं। आर्य सनातन परंपरा का गुणवाचक विशेषण है। सनातन में धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष चार पुरुषार्थ हैं। बुद्ध दर्शन में पंचशील है-1.झूठ न बोलना 2. हिंसा न करना 3. चोरी न करना 4. व्यभिचार न करना 5. नशा न करना। सनातन परंपरा में पाँच यम है- सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह। भगवान बुद्ध ने अष्टांग मार्ग सम्यक्दृष्टि, सम्यक्, सम्यक्वचन, सम्यक्कर्म, सम्यक्आजीविका, सम्यक्व्यायाम, सम्यक्स्मृति और सम्यक्समाधि का प्रवर्तन किया । सनातन परंपरा में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि अष्टांग योग के माध्यम से सत्य को जानने का मार्ग बतलाया गया है। दोनों मार्गों का लक्ष्य समाधि ही है।

बौद्ध ध्यान, मानसिक एकाग्रता का अभ्यास अंततः आध्यात्मिक स्वतंत्रता, निर्वाण के अंतिम लक्ष्य के चरणों के उत्तराधिकार के माध्यम से अग्रणी होता है। ध्यान बौद्ध धर्म में एक केंद्रीय स्थान रखता है और, अपने उच्चतम चरणों में, उत्तरोत्तर बढ़ते अंतर्मुखता के अनुशासन को ज्ञान, या प्रज्ञा द्वारा लाई गई अंतर्दृष्टि के साथ जोड़ता है।

एकाग्रता का उद्देश्य, कामत्थाना, व्यक्ति और स्थिति के अनुसार भिन्न हो सकता है। एक पाली पाठ में उपकरणों (जैसे रंग या प्रकाश), प्रतिकारक चीजें (जैसे कि एक लाश), स्मरण (बुद्ध के रूप में), और ब्रह्मविहार (सद्गुण, जैसे मित्रता) सहित 40 कामत्थानों की सूची है।


बौद्ध धर्म: ध्यान
थेरवाद परंपरा में ध्यान के दो बुनियादी रूपों (पाली: झाना; संस्कृत: ध्यान) का अभ्यास किया गया है। बारीकी से संबंधित...
चार चरणों, जिन्हें (संस्कृत में) ध्यान या (पाली में) ज्ञान कहा जाता है, बाहरी संवेदी दुनिया से ध्यान हटाने में प्रतिष्ठित हैं: (1) बाहरी दुनिया से अलगाव और आनंद और सहजता की चेतना, (2) एकाग्रता, तर्क और खोज के दमन के साथ, (3) आनंद का निधन, शेष सहजता की भावना के साथ, और (4) सहजता का भी निधन, शुद्ध आत्म-संपत्ति और समता की स्थिति लाना।


ध्यान के बाद चार और आध्यात्मिक अभ्यास होते हैं, समपट्टी ("प्राप्तियां"): (1) अंतरिक्ष की अनंतता की चेतना, (2) अनुभूति की अनंतता की चेतना, (3) चीजों की असत्य के साथ चिंता (शून्यता), और (4) विचार की वस्तु के रूप में असत्य की चेतना।

विपश्‍यना (Vipassana) एक प्राचीन ध्‍यान (Meditation) विधि है, जिसका अर्थ होता है देखकर लौटना. इसे आत्‍म निरीक्षण और आत्‍म शुद्धि की सबसे बेहतरीन पद्धति माना गया है. हजारों साल पहले भगवान बुद्ध ने इसी ध्‍यान विधि के जरिए बुद्धत्‍व हासिल किया था. यही नहीं, उन्‍होंने इसका अभ्‍यास अपने मानने वालों को भी कराया था.

बौद्ध ध्यान के चरण हिंदू ध्यान (योग देखें) के साथ कई समानताएं दिखाते हैं, जो प्राचीन भारत में एक आम परंपरा को दर्शाती है। बौद्ध, हालांकि, चरमोत्कर्ष अवस्था का वर्णन क्षणिक के रूप में करते हैं; अंतिम निर्वाण के लिए ज्ञान की अंतर्दृष्टि की आवश्यकता होती है। ज्ञान विकसित करने के लिए किए जाने वाले अभ्यासों में वास्तविकता की वास्तविक प्रकृति या सभी घटनाओं को बनाने वाले वातानुकूलित और बिना शर्त धर्म (तत्व) पर ध्यान शामिल है।

ध्यान, हालांकि बौद्ध धर्म के सभी स्कूलों में महत्वपूर्ण है, विभिन्न परंपराओं के भीतर विशिष्ट भिन्नताएं विकसित हुई हैं। चीन और जापान में ध्यान (ध्यान) के अभ्यास ने अपने स्वयं के एक स्कूल (क्रमशः चान और ज़ेन) के रूप में विकसित होने के लिए पर्याप्त महत्व ग्रहण किया, जिसमें ध्यान स्कूल की सबसे आवश्यक विशेषता है।

प्रतीत्यसमुत्पाद के अनुसार वस्तु वस्तु नित्य नहीं है, वस्तुओं की उत्पत्ति अन्य कारणों से होती है । परन्तु इनका पूर्ण विनाश नहीं होता, बल्कि उनका कुछ कार्य एवं परिणाम अवश्य शेष रह जाता है । अतः न तो पूर्ण नित्यवाद है और न ही अपूर्ण विनाशवाद ।

अर्जुन कहता है, ʻʻआप ज्ञान को विशेष बतलाते हैं। इससे मैं समझता हूँ कि कर्म करने की आवश्‍यकता नहीं है, संन्‍यास ही अच्‍छा है। पर फिर आप कर्म की भी स्तुति करते हैं, तब यह लगता है कि योग ही अच्‍छा है। इन दोनों में अधिक अच्‍छा क्‍या है, यह मुझको निश्‍चयपूर्वक कहिये। तभी मुझे कुछ शांति मिल सकती है।ʼʼ

यह सुनकर भगवान बोले, ʻʻसंन्‍यास अर्थात ज्ञान और कर्मयोग अर्थात निष्‍काम कर्म, ये दोनों अच्‍छे हैं, पर यदि तुझे चुनाव ही करना है तो मैं कहता हूँ कि योग अर्थात अनासक्ति- पूर्वक कर्म अधिक अच्‍छा है। जो मनुष्‍य किसी वस्‍तु या मनुष्‍य का न द्वेष करता है, न कोई इच्‍छा रखता है और सुख-दुख, सर्दी-गर्मी इत्‍यादि द्वंद्वों से परे रहता है, वह संन्‍यासी ही है। फिर वह कर्म करता हो या न करता हो। ऐसा मनुष्‍य सहज में बंधन मुक्‍त हो जाता है। अज्ञानी ज्ञान और योग में भेद करता है, ज्ञानी नहीं। दोनों का परिणाम एक ही होता है, अर्थात दोनों को एक ही समझता है, क्‍योंकि शुद्ध ज्ञान वाले है, अर्थात दोनों को एक ही समझता है, क्‍योंकि शुद्ध ज्ञान वाले की संकल्‍प भर से कार्यसिद्धि होती है, अर्थात बाहरी कर्म करने की उसे जरूरत नहीं रहती।

जब जनकपुरी जल रही थी तब दूसरों का धर्म था कि जाकर आग बुझायें। जनक के संकल्‍प से ही उनका आग बुझाने का कर्तव्‍य पूरा हो रहा था, क्‍योंकि उनके सेवक उनके अधीन थे। यदि वह घड़ा भर पानी लेकर दौड़ते तो कुल चौपट कर देते। दूसरे लोग उनकी ओर ताकते रहते और अपना कर्त्तव्‍य बिसर जाते और विशेष भलमनसी दिखाते तो हक्‍के–बक्‍के होकर जनक की रक्षा करने दौड़ते।

पर झटपट जनक नहीं बन सकते। जनक की स्थिति बड़ी दुर्लभ है। करोड़ों में से किसी को अनेक जन्‍मों की सेवा से वह प्राप्‍त हो सकती है। यह भी नहीं है कि इसकी प्राप्ति पर कोई विशेष शांति हो। उत्तरोत्तर निष्‍काम कर्म करते मनुष्‍य का संकल्‍प-बल बढ़ता जाता है और बाहरी कर्म कम होते जाते हैं। कहा जा सकता है कि वास्‍तव में देखने पर उसे इसका पता भी नहीं चलता। इसके लिए उसका प्रयत्‍न भी नहीं होता। वह तो सेवा-कार्य में ही डूबा रहता है। उससे उसकी सेवा-शक्ति इतनी अधिक बढ़ जाती है कि उसे सेवा से कोई थकान आती नहीं जान पड़ती। इससे अंत में उसके संकल्‍प में ही सेवा आ जाती है, वैसे ही जैसे बहुत जोर से गति करती हुई वस्‍तु स्थिर-सी लगती है, ऐसा मनुष्‍य कुछ करता नहीं है, यह कहना प्रत्‍यक्ष रूप से अयुक्‍त है। पर ऐसी स्थिति साधारणत: कल्‍पना की वस्‍तु है, अनुभव में नहीं आती।

देश-विशेष में मन को लगाते हुए मन को ध्येय के विषय पर स्थिर कर लेता है तो उसे ध्यान कहते हैं। यह समाधि-सिद्धि के पूर्व की अवस्था है। ध्यान अष्टांग योग का सातवाँ अंग है। पहले के छ: अंग ध्यान की तैयारी के रूप में किए जाते हैं। ध्यान से आत्मसाक्षात्कार होता है। ध्यान को मुक्ति का द्वार कहा जाता है।

स्वामी शिवानन्द ने कहा है- ‘‘ध्यान मोक्ष का द्वार खोलता है’’। ध्यान एक ऐसी प्रक्रिया है जिसकी आवश्यकता हमें लौकिक जीवन में भी है और अलौकिक जीवन में भी इसका उपयोग किया जाता है। ध्यान को सभी दर्शनों, धर्मों व संप्रदायों में श्रेष्ठ माना गया है। सभी योगी ध्यान की तैयारी स्वरूप अलग-अलग विधियाँ अपनाते हैं और ध्यान तक पहुँचकर लगभग एक हो जाते हैं। अनेक महापुरूषों ने ध्यान के ही माध्यम से अनेक महान कार्य संपन्न किए। जैसे- स्वामी विवेकानंद एवं भगवान बुद्ध आदि। भगवान कृष्ण ने भी गीता में एक अध्याय ही ध्यान के ऊपर बताया है। आत्मा के ध्यान से माया का तिरोधान हो जाता है।

ध्यान का अर्थ एवं परिभाषा- 
ध्यान शब्द की व्युत्पत्ति ध्यैयित्तायाम् धातु से हुई है। इसका तात्पर्य है चिंतन करना। लेकिन यहाँ ध्यान का अर्थ चित्त को एकाग्र करना उसे एक लक्ष्य पर स्थिर करना है। अत:, किसी विषय वस्तु पर एकाग्रता या ‘चिंतन की क्रिया’ ध्यान कहलाती है। यह एक मानसिक प्रक्रिया है जिसके अनुसार किसी वस्तु की स्थापना अपने मन:क्षेत्र में की जाती है। फलस्वरूप मानसिक शक्तियों का एक स्थान पर केन्द्रीकरण होने लगता है। यही ध्यान है। महर्षि पतंजलि कहते हैं-

 

 तत्र प्रत्यैकतानताध्यानम्।। पातंजल योग सूत्र 3/2

अर्थात पूर्वोक्त धारणा वाली वस्तु पर तैल धारावत् मन का एकाग्र हो जाना, ठहर जाना ही ध्यान है। अर्थात धारणा वाले स्थान या ध्येय की एक ही तरह की वृत्ति का प्रवाह गतिशील होना, उसके मध्य में किसी भी वृत्ति का न उठना ही ध्यान है। ध्यान से संबंधित विभिन्न व्याख्याकारों ने जो व्याख्या की है वह इस प्रकार है-

महर्षि व्यास के अनुसार- उन देशों में ध्येय जो आत्मा उस आलम्बन की और चित्त की एकतानता अर्थात आत्मा चित्त से भिन्न न रहे और चित्त आत्मा से पृथक न रहे उसका नाम है सदृश प्रवाह। जब चित्त चेतन से ही युक्त रहे, कोई पदार्थान्तर न रहे तब समझना कि ध्यान ठीक हुआ।
सांख्य सूत्र के अनुसार- ध्यानं निर्विषयं मन:।। अर्थात मन का विषय रहित हो जाना ही ध्यान है।
आदिशंकराचार्य के अनुसार – अचिन्तैव परं ध्यानम्।। अर्थात किसी भी वस्तु पर विचार न करना ध्यान है।
महर्षि घेरण्ड के अनुसार- ध्यानात्प्रयत्क्षमात्मन:।।अर्थात ध्यान वह है जिससे आत्मसाक्षात्कार हो जाए।
तत्वार्थ सूत्र के अनुसार- उत्तमसघनस्येकाग्राचिन्ता निरोधो ध्यानगन्तमुहुर्वाति। -अर्थात एकाग्रचित्त और शरीर, वाणी और मन के निरोध को ध्यान कहा गया है।
गरूड़ पुराण के अनुसार- ब्रह्मात्म चिन्ता ध्यानम् स्यात्।।अर्थात केवल ब्रह्म और आत्मा के चिन्तन को ध्यान कहते हैं।
त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद् के अनुसार- सोSहम् चिन्मात्रमेवेति चिन्तनं ध्यानमुच्यते।।अर्थात स्वयं को चिन्मात्र ब्रह्म तत्व समझने लगना ही ध्यान कहलाता है।  
मण्डलब्राह्मणोपनिषद् के अनुसार- सर्वशरीरेषु चैतन्येकतानता ध्यानम्।। अर्थात सभी जीव जगत को चैतन्य में एकाकार होने को ध्यान की संज्ञा दी गयी है।
आचार्य श्रीराम शर्मा के अनुसार- कोई आदर्श लक्ष्य या इष्ट निर्धारित करके उसमें तन्मय होने को ध्यान कहते हैं। ध्यान की कुछ अन्य व्यावहारिक परिभाषाएँ इस प्रकार हैं –
क्लेशों को पराभूत करने की विधि का नाम ध्यान है। 
ध्यान का तात्पर्य चेतना के अंतर वस्तुओं के अखण्ड प्रवाह होते हैं। 
अपनी अंत:चेतना (मन) को परमात्म चेतना तक पहुँचाने का सहज मार्ग है। 
बिखरी हुई शक्ति को एकाग्रता के द्वारा लक्ष्य विशेष की ओर नियोजित करना ध्यान है। 
मन को श्रेष्ठ विचारों में स्नान कराना ही ध्यान है। 
ध्यान की विभिन्न तकनीकें- 
प्राचीन भारतीय ग्रंथों में ध्यान की विभिन्न तकनीकों का वर्णन किया है; जो इस प्रकार है- शांडिल्योपनिषद् में ध्यान दो प्रकार के बताए गए है-सगुण ध्यान और निर्गुण ध्यान सगुण इष्ट या मूर्ति का ध्यान है, जिससे मात्र सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। घेरण्ड संहिता में 3 प्रकार के ध्यान बताये गये हैं-

 

 ‘‘स्थूलं ज्योतिस्तथासूक्ष्मं ध्यानस्य त्रिविधं विदु:। 
 स्थूलं मूर्तिमयं प्रोक्तं ज्योतिस्तेजोमयं सूक्ष्मं, बिंदुमयं ब्रह्म कुंडली परदेवता।।’’ घे.सं. 

अर्थात् स्थूल ध्यान, ज्योति ध्यान और सूक्ष्म ध्यान के भेद से ध्यान 3 प्रकार का होता है।स्थूल ध्यान वह कहलाता है, जिसमें मूर्तिमय इष्टदेव का ध्यान हो। ज्योतिर्मय ध्यान वह है, जिसमें तेजोमय ज्योतिरूप ब्रह्म का चिंतन हो। सूक्ष्म ध्यान उसे कहते हैं, जिसमें बिंदुमय ब्रह्म कुंडलिनी शक्ति का चिंतन किया जाए।

ध्यान का महत्व
निजस्वरूप को मन से तत्वत: समझ लेना ही ध्यान होता है। ध्यान करते करते जब चित्त ध्येयकार में परिणत हो जाता है, उसके अपने स्वरूप का अभाव सा हो जाता है। धारणा में केवल लक्ष्य निर्धारित होता है, जबकि ध्यान में ध्येय की प्राप्ति और उसकी प्रतीति होती है। ध्यान के माध्यम से क्लेषों की स्थूल वृत्तियों का नाष हो जाता है। धारणा, ध्यान और समाधि तीनों को संयम कहा गया है। संयम की स्थिरता से प्रज्ञा की दीप्ति अर्थात् विवेकख्याति का उदय होता है। इसके अतिरिक्त पातंजल योग सूत्र में संयम से प्राप्त होने वाली अनेक अन्य सिद्धियों का भी उल्लेख हुआ है। विभिन्न स्थानों पर ध्यान की महत्ता का वर्णन किया गया है; जो इस प्रकार है- गीता –

 

‘‘यथा दीपो निवातस्थो नेगंते सोपमा स्मृता।
 योगिनो यतचित्तस्य युंजतो योगमात्मन:।। 
 
जिस प्रकार वायुरहित स्थान मे स्थित दीपक की लौ चलायमान नहीं होती, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गई है।

 

घेरंडसंहिता- ‘‘ ध्यानात्प्रत्यक्षं आत्मन:’’ 
ध्यान से अपनी आत्मा का प्रत्यक्ष हो जाता है।

अर्थात – ध्यान के द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। इस प्रकार हम यह समझ सकते है कि ध्यान का योग साधना हेतु क्या महत्व है। ध्यान एक विज्ञान है जो हमारे शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास में हमारी सहायता कर हमें अपने संपूर्ण अस्तित्व का स्वामी बनाने में सक्षम है। मानव में विभिन्न शक्तियों का समुच्चय उपलब्ध हैं। प्रत्येक शक्ति के विकास के अपने विधि-विधान हैं। इन सभी शक्तियों का संगम ही हमारा जीवन है। जब हम ध्यान का अभ्यास शुरु करते हैं तब हम अपने अस्तित्व और अपने व्यक्तित्व के प्रत्येक आयाम के विकास की प्रक्रिया में गतिशीलता लाते हैं। ध्यान के द्वारा सूक्ष्म मन के अनुभवों को स्पष्ट किया जाता है। जैसे-जैसे हम अपने भीतर, सूक्ष्म अनुभवों को जानने में सक्षम होते जाते है हम अन्तर्मुखी होते हैं, यह आत्मसाक्षात्कार की अवस्था है।

आत्म साक्षात्कार का तात्पर्य यहाँ पर सीधा ईष्वर से सम्वन्ध नहीं, वरन् स्वयं के अनुसंधान से है। ध्यान अपने आपको पहचानने की प्रक्रिया है, स्वयं का साक्षात्कार होना, स्वयं को जानना ध्यान के द्वारा ही संभव है। ध्यान प्राचीन, भारतीय ऋषि-मुनियों, तत्तवेत्ताओं द्वारा प्र्रतिपादित अनमोल ज्ञान-विज्ञान से युक्त एक विशिष्ट पद्धति है, इसके द्वारा मनुष्य का समग्र उत्थान, विकास, उत्कर्ष संभव है।



संबंधित विषय: बौद्ध धर्म जापानी संगीत पवित्र संगीत
शोम्यो, जापान में बौद्ध धर्म का शास्त्रीय मंत्र। तेंदई और शिंगोन दोनों संप्रदाय परंपरा को बनाए रखते हैं और बौद्ध गायन के अन्य रूपों के आधार के रूप में अपनी सैद्धांतिक पुस्तकों और संकेतन प्रणालियों का उपयोग करते हैं। हालांकि पहले के चीनी स्रोतों से प्राप्त, शोम्यो नामकरण और प्रदर्शन प्रथाओं के प्रमुख प्रभाव बाद के जापानी संगीत में पाए जाते हैं, जिस तरह से प्राचीन पश्चिमी कला संगीत प्रारंभिक रोमन कैथोलिक संगीत सिद्धांत पर आधारित है।

सनातन परंपरा में साधना के लिए चार साधन चतुष्टय- नित्यानित्यवस्तुविवेक,वैराग्य, षट्सम्पत्ति का अर्जन तथा मुमुक्षता और छः संपत्ति -शम,दम,श्रद्धा,समाधान,उपरति और तितिक्षा कुल दस बातों का साधक में होना जरूरी बताया गया है तो बौद्ध दर्शन में दस परिमिताएं – दान,शील,नैष्क्रम्य, प्रज्ञा, वीर्य, शांति, सत्य, अधिष्ठान, मैत्री और उपेक्षा को आवश्यक बताया गया है। जब तक बंधन से मुक्त होने की इच्छा का उदय नहीं होता उपरोक्त तीनों साधन अपने आप में मोक्ष दिलाने में असमर्थ होते हैं. अहंकार से लेकर देहपर्यंत जितने अज्ञान-कल्पित बन्धन हैं, उनको अपने स्वरूप के ज्ञान द्वारा त्यागने की इच्छा हीं "मुमुक्षता" है. यही "साधन चतुष्टय"है जिसे आचार्य शंकर ने मोक्षार्थी के लिए आवश्यक बताया है --जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, उपरोक्त का आशय चार साधनों के समूह से है. ये कौन से साधन हैं जो मनुष्य को बन्धन से मुक्त करते हैं-इसे आचार्य शंकर ने स्वरचित ग्रंथ 'विवेक-चूड़ामणि' में बताया है.
ऐसे आत्मचिंतक जो स्वयं को बंधन से मुक्त करने का प्रयत्न कर रहे हों, के लिए ये लाभदायक हो सकता है.
ये सबों का अनुभव है कि कोई बन्धन पसंद नहीं करता. कुछ बंधन ऐसे होते हैं जो सहज हीं दीख जाते हैं तो कुछ चिंतन करने पर मालूम पड़ते हैं कि अरे ये बंधन तो जबरदस्त है जो छूटे न छूट रहा है. ऐसे तो व्यक्ति जन्म लेने के साथ ही नाना प्रकार के बन्धनों से बंध जाता है किन्तु जब जानबूझकर ऐसे कर्म में लिप्त हो जाय जो काम, क्रोध और लोभ से प्रेरित हो तो उस बन्धन का कहना हीं क्या! उसका अनुभव प्रायः तुरंत हीं होने लगता है और विकलता बढ़ती जाती है. अस्तु.
1. पहला साधन
स्वयं को बन्धन से मुक्त करने का पहला साधन है-
"नित्यानित्यवस्तुविवेक"
आचार्य ने इसे इस तरह परिभाषित किया है-' ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है' ऐसा जो निश्चय है यही नित्यानित्यवस्तुविवेक कहलाता है.
साधारण शब्दों में हमें उस वस्तु में ही अपना आश्रय या विश्राम की खोज करना चाहिये जो 'कल' भी था 'आज' भी है और 'कल' भी रहेगा. अर्थात् जो "नित्य" है उसी से अपनी एकता जोड़नी चाहिये. क्या कोई बता सकता है जो संसार में ऐसा क्या है जो नित्य है; जब स्वयं संसार ही नित्य नहीं है तो संसार की वस्तुओं के नित्य होने का गुमान कैसा! एक सर्वशक्तिमान ईश्वर को छोड़ किसे नित्य माना जाय, इसे हीं तो ज्ञानी ब्रह्म कहते हैं जो अनिर्वचनीय है.
2. दूसरा साधन
दूसरा साधन है वैराग्य. वैराग्य किसे कहेंगे? अनित्य पदार्थों के प्रति भोगाकर्षण की समाप्ति हीं वैराग्य है. आचार्य शंकर कहते हैं-
दर्शन और श्रवणादि के द्वारा देह से लेकर ब्रह्मलोकपर्यंत सम्पूर्ण अनित्य भोग्य पदार्थों में जो घृणाबुद्धि है वही 'वैराग्य'है.
3. तीसरा साधन
तीसरा साधन है षट्सम्पत्ति का अर्जन.
आचार्य ने शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान को छः सम्पत्ति बताया है. जो स्वयं को बन्धन से मुक्त करना चाहता हो वह इन सम्पत्ति का अर्जन करे.
(१) शम-विषय समूह से विरक्त होकर चित्त का अपने लक्ष्य में स्थिर हो जाना हीं ''शम'' है.
(२) ''दम''- कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दोनों को उनके विषयों से खींचकर अपने गोलकों में स्थित करना 'दम' कहलाता है.
(३) 'उपरति'-वृत्ति का बाह्य विषयों का आश्रय न लेना यही उत्तम 'उपरति' है.
(४)''तितिक्षा''-चिंता और शोक से रहित होकर बिना कोई प्रतिकार किये सब प्रकार के कष्टों का सहन करना '' तितिक्षा'' कहलाती है.
(५) '' श्रद्धा''-शास्त्र और गुरूवाक्यों में सत्यत्व बुद्धि करना - इसी को सज्जनों ने 'श्रद्धा' कहा है, जिससे कि वस्तु की प्राप्ति होती है.
(६) '' समाधान ''-अपनी बुद्धि को सब प्रकार शुद्ध ब्रह्म में ही सदा स्थिर रखना इसी को 'समाधान' कहा है. चित्त की इच्छापूर्ति का नाम समाधान नहीं है.
4. चौथा साधन
चौथा साधन है "मुमुक्षता" अर्थात् बन्धन से मुक्त होने की इच्छा. जब तक बंधन से मुक्त होने की इच्छा का उदय नहीं होता उपरोक्त तीनों साधन अपने आप में मोक्ष दिलाने में असमर्थ होते हैं.
आचार्य शंकर के अनुसार
अहंकार से लेकर देहपर्यंत जितने अज्ञान-कल्पित बन्धन हैं, उनको अपने स्वरूप के ज्ञान द्वारा त्यागने की इच्छा हीं "मुमुक्षता" है.
यही "साधन चतुष्टय"है जिसे आचार्य शंकर ने मोक्षार्थी के लिए आवश्यक बताया है.


भगवान बुद्ध ने अपने जीवनकाल में कभी वेदों का विरोध नहीं किया लेकिन उस समय वे लोग जो वेदों का त्रुटिपूर्ण प्रतिपादन कर मनमाने कर्म जैसे हिंसा तथा पशुबलि जैसी कुप्रथा मे लिप्त हो गए थे उनका विरोध किया था। भगवान बुद्ध की संकलित वाणी सुत्तनपात 292 में लिखा- ”विद्वा च वेदेहि समेच्च च धम्मं, न उच्चावचं गच्छति भूपरिपञ्ञे। ”इसका अर्थ पं. धर्मदेव जी विद्यामार्तण्ड अपने ग्रन्थ “वेदों का यथार्थ स्वरूप” में करते हैं- ”जो विद्वान् वेदों द्वारा धर्म का ज्ञान प्राप्त करता है। उसकी ऐसी डांवाडोल अवस्था नहीं होती।” “धम्मपीति सुखं सेति विप्पसन्नेन चेतसा। अरियप्पवेदिते धम्मे सदा रमति पण्डितो।।“ (धम्मपद पृ. 114-15) अर्थात् धर्म में आनन्द मानने वाला पुरुष अत्यन्त प्रसन्नचित्त से सुखपूर्वक सोता है। पण्डितजन सदा आर्योपदिष्ट धर्म में रत रहते हैं। न जटाहि न गोत्तेन न जच्चा होति ब्राह्मणो। यम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो।। (धम्मपद पृ. 140-141) अर्थात् न जन्म के कारण, न गोत्र के कारण, न जटा धारण के कारण ही कोई ब्राह्मण होता है। जिसमें सत्य है, जिसमें धर्म है, वही पवित्र है और वही ब्राह्मण है।

भगवान बुद्ध ने विपश्यना नामक साधना की तकनीक को वेदों से ही प्राप्त कर पुनः प्रतिस्थापित किया और उसके माध्यम से साधना कर बुद्धत्व को प्राप्त हुए। अखिल सृष्टि के सत्य स्वरूप का वर्णन करते हुए बुद्ध कहते हैं-“सब्बो पज्जलितो लोको,सब्बो लोको पकंपितो” अर्थात मुझे सृष्टि का माया से अनावृत सत्य स्वरूप ये दिखा की सारा लोक ‘पज्जलित’ यानी प्रकाश के स्वरूप में है और सर्वत्र मात्र ‘पकंपन’ यानि केवल तरंगे ही तरंगे है। इस सृष्टि का वास्तविक स्वरूप प्रकाश और तरंगे मात्र है। हमें दृश्यमान स्वरूप में जो जगत दिखाई पड़ता है वो उस प्रकाश तथा तरंगों की घनीभूत अभिव्यक्ति है,वह वास्तविक नहीं है। इसी बात को आदि गुरु शंकराचार्य ने कहा था-“ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या जीवोब्रमैहव नापरह।” भगवान बुद्ध ने अपने अनुभव के आधार पर कहा- “अत्ताहि अत्तनो नथो को हि नाथो परो सिया अत्तनां व सुदन्तेन,नाथं लभति दुल्लभं।“ अर्थात मैं स्वयं अपना स्वामी हूँ। सुयोग्य पद्धति से जानने के प्रयास करने पर ‘नाथं लभति दुल्ल्भं’ से दुर्लभ नाथ (ब्रम्ह) पद प्राप्त होता है। इसी बात को आदि गुरु शंकराचार्य ने महावाक्य में अभिव्यक्त किया- “अहम् ब्रह्मास्मि।”

यह बात मैं पूरे दावे के साथ अपने अनुभव से कह रहा हूँ कि वेदान्त दर्शन को सिर्फ स्वाध्याय से तब तक कोई भी ठीक से नहीं समझ सकता जब तक किसी श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध महात्मा का आशीर्वाद प्राप्त न हो| तपस्वी महात्माओं के आशीर्वाद से प्राप्त अनुभूतियों से वेदान्त स्वतः भी समझ में आ सकता है| अतः एक मुमुक्षु को संतों का सदा सत्संग करना चाहिए|
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वैसे वेदान्त में प्रवेश के लिए साधन चतुष्टय यानी चार योग्यताओं की आवश्यकता पड़ती है|
वे हैं .....
(१) नित्यानित्य विवेक.
(२) वैराग्य.
(३) षड्गुण/षट सम्पत्ति... (शम, दम, श्रद्धा, समाधान, उपरति, और तितिक्षा).
(४) मुमुक्षुत्व.
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रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं .....
"बिनु सत्संग विवेक न होई| राम कृपा बिनु सुलभ न सोई||"
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भगवान से प्रेम करेंगे तो भगवान की कृपा होगी और भगवान की कृपा होगी तो सत्संग लाभ भी होगा| सत्संग लाभ होगा तो विवेक जागृत होगा, और विवेक जागृत होगा तो वैराग्य भी होगा| वैराग्य और अभ्यास से छओं सदगुण भी आयेंगे और मुमुक्षुत्व भी जागृत होगा| फिर साधक जितेन्द्रिय हो जाता है और भोगों की आसक्ति नष्ट हो जाती है|
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इस दिशा में पहला कदम है .... परमप्रेम जो सिर्फ परमात्मा से ही हो सकता है| अपने पूर्ण ह्रदय से अपना पूर्ण प्रेम परमात्मा को दें, फिर सारे द्वार अपने आप ही खुल जायेंगे, सारे दीप अपने आप ही जल उठेंगे, और सारा अन्धकार भी अपने आप ही नष्ट हो जाएगा||

दोनों का गंतव्य एक ही था केवल मार्ग अलग था। भगवान बुद्ध के मन में दु:खों के कारण का निवारण विचार था। भगवान बुद्ध के अनुसार हमारे दु:खों का कारण हमारा इस जगत के व्यक्ति, वस्तु, स्थान, कार्य, विचार आदि के प्रति अनुराग या द्वेष होता है। बुद्ध के अनुसार ये सारी चीजें अनित्य हैं जो पल-प्रतिपल समाप्त ही हो रही है, प्रिय के प्रति अनुराग और अप्रिय के प्रति द्वेष हमारे दु:खों का कारण बनता है। इसलिए बुद्ध ने इस संसार की हर बात को अनित्य प्रकृति का होने के कारण उस पर सकारात्मक अथवा नकारात्मक किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया ना कर अस्तित्व को “शून्य” के रूप में स्वीकार कर तटस्थता के मार्ग का अनुसरण किया और सत्य तक पहुंचे। इस संबंध में आदि गुरु शंकराचार्य के दृष्टिकोण को देखें तो इस विश्वप्रपंच को देखकर उनके मन में प्रश्न उठे- “कस्तवम कोSहम कुतः अयात, को में जननी को में तात:” यानि में कहाँ और क्यों आया हूँ? मेरे वास्तविक माता-पिता कौन है? मेरे यहाँ आने का उद्देश्य क्या है? इस सृष्टि का रहस्य क्या है? इन प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए वे भी वेदों में वर्णित “अनंत” की साधना का अनुसरण कर सत्य तक पहुंचे।

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पीछैं लागा जाइ था, लोक बेद के साथी।
आगै थैं सतगुरू मिल्या, दीपक दीया हाथि।।
जहाँ तक कबीर की शिक्षा दीक्षा का सवाल हैं। उस बारे में कहा जाता है कि कबीर अनपढ़ थे।
‘मसि रागज छुयों नहीं, कलम गह्यों नहिं हाथ‘ तथा ‘विद्या न परउ’।
शिक्षा को केवल उपाधि और रक्षा से जोड़कर नहीं देखना चाहिए। उसे मानव के विकास से जोड़कर देखना चाहिए।
कबीर इन अर्थो में शिक्षित थे। वे प्रतिभाशाली सन्त कवि थे। काव्य, साहित्य, धर्म, दर्शन सारे क्षेत्रों का उन्हें गम्भीर ज्ञान और
अनुभव था। उनकी शिक्षा तत्त्व की शिक्षा थी। वह तत्त्व परमतत्त्व था।

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सामान्य व्यक्ति की दृष्टि में ‘शून्य’ और ‘अनंत’ के बीच भारी अंतर है जिसे कभी पाटा नहीं जा सकता। लेकिन सृष्टा जो कि अनादि और अनंत है उसकी दृष्टि से देखें तो उसके लिए शून्य और अनंत एक ही रस्सी के दो छोर जैसे ही हैं। गणित के विद्यार्थियों को शून्य और अनंत का संबंध बड़ी आसानी से समझ में आता है। यदि किसी भी संख्या को शून्य से भाग दिया जाए तो परिणाम अनंत प्राप्त होता है और यदि किसी संख्या को अनंत से भाग दिया जाए तो परिणाम में शून्य प्राप्त होता है।

 

इसका अर्थ है अर्थ है यदि हम शून्य का विचार लेकर चलें या अनंत की परिकल्पना को लेकर आगे बढ़े अंततोगत्वा इस सत्यान्वेषण की प्रमेय का हल “परमसत्य” के रूप में ही प्राप्त होगा। इसी देश के सत्यान्वेषी मनीषियों ने अपने अनुभवों के आधार पर कहा है- “एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति।“ भगवान बुद्ध इस देश में अवतरित हुए “विप्र” श्रेणी के सर्वश्रेष्ठ महात्माओं में से एक हैं जिन्होंने उसी सनातन सत्य को एक अलग मार्ग से खोज कर दुनिया के सामने रखा है।

विपश्यना (Vipassana) आत्मनिरीक्षण द्वारा आत्मशुद्धि की अत्यंत पुरातन साधना-विधि है। जो जैसा है, उसे ठीक वैसा ही देखना-समझना विपश्यना है। लगभग २५०० वर्ष पूर्व भगवान गौतम बुद्ध ने विलुप्त हुई इस पद्धति का पुन: अनुसंधान कर इसे सार्वजनीन रोग के सार्वजनीन इलाज, जीवन जीने की कला, के रूप में सर्वसुलभ बनाया। i.e., an जिवन जीनेकी कला. इस सार्वजनीन साधना-विधि का उद्देश्य विकारों का संपूर्ण निर्मूलन और परिणामतः परमविमुक्ति का उच्च आनंद प्राप्त करना है। 

 

विपश्यना आत्म-अवलोकन के माध्यम से आत्म-परिवर्तन का एक तरीका है. यह मन और शरीर के बीच गहरे अंतरसंबंध पर ध्यान केंद्रित करता है, जिसे शरीर के चेतना का निर्माण करने वाली भौतिक संवेदनाओं पर सीधे ध्यान देकर अनुभव किया जा सकता है, और यह मन की चेतना की गतिविधि को लगातार परस्पर संबंध और स्थिति में रखती है. मन और शरीर की सर्वसामान्य जड़ की यह अवलोकन-आधारित, आत्म-खोजात्मक यात्रा है, जो मानसिक अशुद्धता को पिघलाता है, जिसके परिणामस्वरूप एक संतुलित मन प्यार और करुणा से भरा होता है. हमारे विचार, विकार, भावनाएं, संवेदनाएं जिन वैज्ञानिक नियमों के अनुसार चलते हैं, वे स्पष्ट होते हैं। अपने प्रत्यक्ष अनुभव से हम जानते हैं कि कैसे आगे जाते है या पीछे हटने की प्रकृति, कैसे दुखोको जन्म देता है या कैसे दुखो से छुटकारा पाया जा सकता है यह समझने लगता है। हम बढी सजगता, सचेतता, अभ्रांतिमय, संयमित और शांतिपूर्ण बनते हैं। परंपरा भगवान बुद्ध के समय से निष्ठावान् आचार्यों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी ने अबतक विपश्यना को आचार्योंकी अखंड श्रृखलाद्वारा हस्तांतरीत किया गया। इस परंपरा के वर्तमान आचार्य श्री सत्य नारायण गोयन्काजी,हालांकि भारतीय मूल के है लेकिन उनका जन्म और परवरिश म्यंमा (बर्मा) में हुइ। 

विपासना तकनीक जो गोयनका सिखाती है, उसकी एक अनूठी व्याख्या पर आधारित है सतीपतन सुता . में सतीपतन सुता , बुद्ध मन की साधना के लिए चार वस्तुएं प्रदान करते हैं: शरीर, संवेदनाएं, मन और मानसिक वस्तुएं। जबकि ज्यादातर विपश्यना स्कूल शरीर और दिमाग दोनों के लिए समान रूप से ध्यान रखने की शिक्षा देते हैं, गोयनका की तकनीक (यू बा खिन की शिक्षाओं के बाद) शारीरिक संवेदनाओं के प्रति संवेदनशील होने के लिए अतिरिक्त जोर देती है और इसमें शारीरिक सफाई का तरीका भी शामिल है।

विपश्यना के समकालीन अभ्यास के लिए सामान्य, बुद्ध की शिक्षाओं के गोयनका की व्याख्या में व्यक्तिगत अनुभव पर बहुत जोर दिया गया है। यह प्रथम-हाथ के व्यक्तिगत अनुभव के तत्व के माध्यम से है जो गोयनका अपनी परंपरा को "धर्म," "अंध विश्वास" और हठधर्मिता से अलग करता है। गोयनका का दावा है कि, “विश्वास हमेशा संप्रदायवादी होते हैं। धम्म की कोई मान्यता नहीं है। धम्म में आप अनुभव करते हैं, और फिर आप विश्वास करते हैं। धम्म में कोई अंध विश्वास नहीं है। आपको अनुभव करना चाहिए और उसके बाद ही विश्वास करना चाहिए कि आपने क्या अनुभव किया है ”(“ विपश्यना शोध संस्थान ”nd)। इसलिए, इस तथ्य के बावजूद कि गोयनका ने विभिन्न बौद्ध सिद्धांतों को अपनी शिक्षाओं में शामिल किया, उन्होंने अपने छात्रों को "नेत्रहीन" स्वीकार करने से सक्रिय रूप से हतोत्साहित किया। इसके बजाय, छात्रों से कहा जाता है कि वे उन्हें तभी स्वीकार करें जब वे इन विषयों को स्वयं के लिए आत्मनिरीक्षण करने में सफल हुए हों । इस भावना के बाद, ध्यान पाठ्यक्रम में अपेक्षाकृत कम सिद्धांत शामिल हैं और मुख्य रूप से ध्यान प्रशिक्षण (यानी, प्रत्येक दिन, ग्यारह घंटे के ध्यान अभ्यास और एक घंटे के प्रवचन) पर आधारित हैं। केवल एक उन्नत पाठ्यक्रम में एक पाठ का एक पाठ, सातपत्तन सूत्र शामिल है, और पाठ या पाठों की व्याख्या पाठ्यक्रम या सामूहिक समूह बैठक में आम नहीं है। इसके अलावा, विपश्यना के सैद्धांतिक आधार अभ्यास के स्तर के अनुसार धीरे-धीरे पेश किए जाते हैं। नौसिखिया छात्रों को बुद्ध की शिक्षाओं के चयनित और सीमित भागों से अवगत कराया जाता है, जबकि उन्नत ध्यान पाठ्यक्रम में बौद्ध ब्रह्मांड विज्ञान सहित अधिक सैद्धांतिक तत्व शामिल हैं।

शिविर
विपश्यना दस-दिवसीय आवासी शिविरों में सिखायी जाती है। शिविरार्थियों को अनुशासन संहिता, का पालन करना होता है  Code of Disciplineएवं विधि को सीख कर इतना अभ्यास करना होता है जिससे कि वे लाभान्वित हो सके।

शिविर में गंभीरता, दृढता से काम करना होता है। प्रशिक्षण के तीन सोपान होते हैं। पहला सोपान साधना के दौरान —साधक पांच शील पालन करने का व्रत लेते हैं, अर्थात् जीव-हिंसा, चोरी, झूठ बोलना, अब्रह्मचर्य तथा नशे-पते के सेवन से विरत रहना। यह आसान संहिता के शीलों का पालन करने से मन इतना शांत हो जाता है कि, जो अन्यथा स्वनिरिक्षण का कार्य संपन्न करना विशुब्धिकारक हो जाता था। अगला सोपान— नासिका से आते-जाते हुए अपने बदलते नैसर्गिक सांस पर ध्यान केंद्रित करके मनपर स्वामित्व पानेके लिये आनापान नाम की साधना का अभ्यास करना। चौथे दिन तक मन कुछ शांत होता है, एकाग्र होता है एवं विपश्यना के अभ्यास के लायक होता है—अपनी काया के भीतर संवेदनाओं के प्रति सजग रहना, उनके सही स्वभाव को समझना एवं उनके प्रति प्रतिक्रिया किये बिना समता रखना। शिविरार्थी दसवे दिन सहभागी साधक मंगल-मैत्री का अभ्यास सीखते हैं एवं शिविर-काल के अर्जित पुण्य का  सभी प्राणियों को भागीदार बनाया जाता है।

यह साधना मन का व्यायाम है। जैसे शारीरिक व्यायाम से शरीर को स्वस्थ बनाया जाता है वैसे ही विपश्यना से मन को स्वस्थ बनाया जा सकता है।

विपस्सना मनुष्य-जाति के इतिहास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ध्यान-प्रयोग है। जितने व्यक्ति विपस्सना से बुद्धत्व को उपलब्ध हुए उतने किसी और विधि से कभी नहीं। विपस्सना अपूर्व है! विपस्सना शब्द का अर्थ होता है: देखना, लौटकर देखना। बुद्ध कहते थे: इहि पस्सिको, आओ और देखो! बुद्ध किसी धारणा का आग्रह नहीं रखते। बुद्ध के मार्ग पर चलने के लिए ईश्वर को मानना न मानना, आत्मा को मानना न मानना आवश्यक नहीं है। बुद्ध का धर्म अकेला धर्म है इस पृथ्वी पर जिसमें मान्यता, पूर्वाग्रह, विश्वास इत्यादि की कोई भी आवश्यकता नहीं है। बुद्ध का धर्म अकेला वैज्ञानिक धर्म है। बुद्ध कहते: आओ और देख लो। मानने की जरूरत नहीं है। देखो, फिर मान लेना। और जिसने देख लिया, उसे मानना थोड़े ही पड़ता है; मान ही लेना पड़ता है। और बुद्ध के देखने की जो प्रक्रिया थी, दिखाने की जो प्रक्रिया थी, उसका नाम है विपस्सना।

विपस्सना बड़ा सीधा-सरल प्रयोग है। अपनी आती-जाती श्वास के प्रति साक्षीभाव। श्वास जीवन है। श्वास से ही तुम्हारी आत्मा और तुम्हारी देह जुड़ी है। श्वास सेतु है। इस पार देह है, उस पार चैतन्य है, मध्य में श्वास है। यदि तुम श्वास को ठीक से देखते रहो, तो अनिवार्य रूपेण, अपरिहार्य रूप से, शरीर से तुम भिन्न अपने को जानोगे। श्वास को देखने के लिए जरूरी हो जायेगा कि तुम अपनी आत्मचेतना में स्थिर हो जाओ। बुद्ध कहते नहीं कि आत्मा को मानो। लेकिन श्वास को देखने का और कोई उपाय ही नहीं है। जो श्वास को देखेगा, वह श्वास से भिन्न हो गया, और जो श्वास से भिन्न हो गया वह शरीर से तो भिन्न हो ही गया। क्योंकि शरीर सबसे दूर है; उसके बाद श्वास है; उसके बाद तुम हो। अगर तुमने श्वास को देखा तो श्वास के देखने में शरीर से तो तुम अनिवार्य रूपेण छूट गए। शरीर से छूटो, श्वास से छूटो, तो शाश्वत का दर्शन होता है। उस दर्शन में ही उड़ान है, ऊंचाई है, उसकी ही गहराई है। बाकी न तो कोई ऊंचाइयां हैं जगत में, न कोई गहराइयां हैं जगत में। बाकी तो व्यर्थ की आपाधापी है।

फिर, श्वास अनेक अर्थों में महत्वपूर्ण है। यह तो तुमने देखा होगा, क्रोध में श्वास एक ढंग से चलती है, करुणा में दूसरे ढंग से। दौड़ते हो, एक ढंग से चलती है; आहिस्ता चलते हो, दूसरे ढंग से चलती है। चित्त ज्वरग्रस्त होता है, एक ढंग से चलती है; तनाव से भरा होता है, एक ढंग से चलती है; और चित्त शांत होता है, मौन होता है, तो दूसरे ढंग से चलती है। श्वास भावों से जुड़ी है। भाव को बदलो, श्वास बदल जाती है़। श्वास को बदल लो, भाव बदल जाते हैं। जरा कोशिश करना। क्रोध आये, मगर श्वास को डोलने मत देना। श्वास को थिर रखना, शांत रखना। श्वास का संगीत अखंड रखना। श्वास का छंद न टूटे। फिर तुम क्रोध न कर पाओगे। तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे, करना भी चाहोगे तो क्रोध न कर पाओगे। क्रोध उठेगा भी तो भी गिर-गिर जायेगा। क्रोध के होने के लिए जरूरी है कि श्वास आंदोलित हो जाये। श्वास आंदोलित हो तो भीतर का केंद्र डगमगाता है। नहीं तो क्रोध देह पर ही रहेगा। देह पर आये क्रोध का कुछ अर्थ नहीं है, जब तक कि चेतना उससे आंदोलित न हो। चेतना आंदोलित हो, तो ज़ुड गये।

फिर इससे उल्टा भी सच है: भावों को बदलो, श्वास बदल जाती है। तुम कभी बैठे हो सुबह उगते सूरज को देखते नदी-तट पर। भाव शांत हैं। कोई तरंगें नहीं चित्त में। उगते सूरज के साथ तुम लवलीन हो। लौटकर देखना, श्वास का क्या हुआ? श्वास बड़ी शांत हो गयी। श्वास में एक रस हो गया, एक स्वाद…छंद बंध गया! श्वास संगीतपूर्ण हो गयी। विपस्सना का अर्थ है शांत बैठकर, श्वास को बिना बदले…खयाल रखना प्राणायाम और विपस्सना में यही भेद है। प्राणायाम में श्वास को बदलने की चेष्टा की जाती है, विपस्सना में श्वास जैसी है वैसी ही देखने की आकांक्षा है। जैसी है—ऊबड़-खाबड़ है, अच्छी है, बुरी है, तेज है, शांत है, दौड़ती है, भागती है, ठहरी है, जैसी है!

बुद्ध कहते हैं, तुम अगर चेष्टा करके श्वास को किसी तरह नियोजित करोगे, तो चेष्टा से कभी भी महत फल नहीं होता। चेष्टा तुम्हारी है, तुम ही छोटे हो; तुम्हारी चेष्टा तुमसे बड़ी नहीं हो सकती। तुम्हारे हाथ छोटे हैं; तुम्हारे हाथ की जहां-जहां छाप होगी, वहां-वहां छोटापन होगा।
इसलिए बुद्ध ने यह नहीं कहा है कि श्वास को तुम बदलो। बुद्ध ने प्राणायाम का समर्थन नहीं किया है। बुद्ध ने तो कहा: तुम तो बैठ जाओ, श्वास तो चल ही रही है; जैसी चल रही है बस बैठकर देखते रहो। जैसे राह के किनारे बैठकर कोई राह चलते यात्रियों को देखे, कि नदी-तट पर बैठ कर नदी की बहती धार को देखे। तुम क्या करोगे? आई एक बड़ी तरंग तो देखोगे और नहीं आई तरंग तो देखोगे। राह पर निकली कारें, बसें, तो देखोगे; नहीं निकलीं, तो देखोगे। गाय-भैंस निकलीं, तो देखोगे। जो भी है, जैसा है, उसको वैसा ही देखते रहो। जरा भी उसे बदलने की आकांक्षा आरोपित न करो। बस शांत बैठ कर श्वास को देखते रहो। देखते-देखते ही श्वास और शांत हो जाती है। क्योंकि देखने में ही शांति है।

और निर्चुनाव—बिना चुने देखने में बड़ी शांति है। अपने करने का कोई प्रश्न ही न रहा। जैसा है ठीक है। जैसा है शुभ है। जो भी गुजर रहा है आंख के सामने से, हमारा उससे कुछ लेना-देना नहीं है। तो उद्विग्न होने का कोई सवाल नहीं, आसक्त होने की कोई बात नहीं। जो भी विचार गुजर रहे हैं, निष्पक्ष देख रहे हो। श्वास की तरंग धीमे-धीमे शांत होने लगेगी। श्वास भीतर आती है, अनुभव करो स्पर्श…नासापुटों में। श्वास भीतर गयी, फेफड़े फैले; अनुभव करो फेफड़ों का फैलना। फिर क्षण-भर सब रुक गया…अनुभव करो उस रुके हुए क्षण को। फिर श्वास बाहर चली, फेफड़े सिकुड़े, अनुभव करो उस सिकुड़ने को। फिर नासापुटों से श्वास बाहर गयी। अनुभव करो उत्तप्त श्वास नासापुटों से बाहर जाती। फिर क्षण-भर सब ठहर गया, फिर नयी श्वास आयी।

यह पड़ाव है। श्वास का भीतर आना, क्षण-भर श्वास का भीतर ठहरना, फिर श्वास का बाहर जाना, क्षण-भर फिर श्वास का बाहर ठहरना, फिर नयी श्वास का आवागमन, यह वर्तुल है—वर्तुल को चुपचाप देखते रहो। करने की कोई भी बात नहीं, बस देखो। यही विपस्सना का अर्थ है।
क्या होगा इस देखने से? इस देखने से अपूर्व होता है। इसके देखते-देखते ही चित्त के सारे रोग तिरोहित हो जाते हैं। इसके देखते-देखते ही, मैं देह नहीं हूं, इसकी प्रत्यक्ष प्रतीति हो जाती है। इसके देखते-देखते ही, मैं मन नहीं हूं, इसका स्पष्ट अनुभव हो जाता है। और अंतिम अनुभव होता है कि मैं श्वास भी नहीं हूं। फिर मैं कौन हूं? फिर उसका कोई उत्तर तुम दे न पाओगे। जान तो लोगे, मगर गूंगे का गुड़ हो जायेगा। वही है उड़ान। पहचान तो लोगे कि मैं कौन हूं, मगर अब बोल न पाओगे। अब अबोल हो जायेगा। अब मौन हो जाओगे। गुनगुनाओगे भीतर-भीतर, मीठा-मीठा स्वाद लोगे, नाचोगे मस्त होकर, बांसुरी बजाओगे; पर कह न पाओगे।

और विपस्सना की सुविधा यह है कि कहीं भी कर सकते हो। किसी को कानों-कान पता भी न चले। बस में बैठे, ट्रेन में सफर करते, कार में यात्रा करते, राह के किनारे, दुकान पर, बाजार में, घर में, बिस्तर पर लेटे…किसी को पता भी न चले! क्योंकि न तो कोई मंत्र का उच्चार करना है, न कोई शरीर का विशेष आसन चुनना है। धीरे-धीरे…इतनी सुगम और सरल बात है और इतनी भीतर की है, कि कहीं भी कर ले सकते हो। और जितनी ज्यादा विपस्सना तुम्हारे जीवन में फैलती जाये उतने ही एक दिन बुद्ध के इस अदभुत आमंत्रण को समझोगे: इहि पस्सिको! आओ और देख लो!

बुद्ध कहते हैं: ईश्वर को मानना मत, क्योंकि शास्त्र कहते हैं; मानना तभी जब देख लो। बुद्ध कहते हैं: इसलिए भी मत मानना कि मैं कहता हूं। मान लो तो चूक जाओगे। देखना, दर्शन करना। और दर्शन ही मुक्तिदायी है। मान्यताएं हिंदू बना देती हैं, मुसलमान बना देती हैं, ईसाई बना देती हैं, जैन बना देती हैं, बौद्ध बना देती हैं; दर्शन तुम्हें परमात्मा के साथ एक कर देता है। फिर तुम न हिंदू हो, न मुसलमान, न ईसाई, न जैन, न बौद्ध; फिर तुम परमात्ममय हो। और वही अनुभव पाना है। वही अनुभव पाने योग्य है।

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क्या है आष्टांगिक मार्ग?
1. सम्यक दृष्टि : इसे सही दृष्टि कह सकते हैं। इसे यथार्थ को समझने की दृष्टि भी कह सकते हैं। सम्यक दृष्टि का अर्थ है कि हम जीवन के दुःख और सुख का सही अवलोकन करें। आर्य सत्यों को समझें।
2. सम्यक संकल्प : जीवन में संकल्पों का बहुत महत्व है। यदि दुःख से छुटकारा पाना हो तो दृढ़ निश्चय कर लें कि आर्य मार्ग पर चलना है।
3. सम्यक वाक : जीवन में वाणी की पवित्रता और सत्यता होना आवश्यक है। यदि वाणी की पवित्रता और सत्यता नहीं है तो दुःख निर्मित होने में ज्यादा समय नहीं लगता।
4. सम्यक कर्मांत : कर्म चक्र से छूटने के लिए आचरण की शुद्धि होना जरूरी है। आचरण की शुद्धि क्रोध, द्वेष और दुराचार आदि का त्याग करने से होती है।
5. सम्यक आजीव : यदि आपने दूसरों का हक मारकर या अन्य किसी अन्यायपूर्ण उपाय से जीवन के साधन जुटाए हैं तो इसका परिणाम भी भुगतना होगा इसीलिए न्यायपूर्ण जीविकोपार्जन आवश्यक है।
6. सम्यक व्यायाम : ऐसा प्रयत्न करें जिससे शुभ की उत्पत्ति और अशुभ का निरोध हो। जीवन में शुभ के लिए निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए।
7. सम्यक स्मृति : चित्त में एकाग्रता का भाव आता है शारीरिक तथा मानसिक भोग-विलास की वस्तुओं से स्वयं को दूर रखने से। एकाग्रता से विचार और भावनाएँ स्थिर होकर शुद्ध बनी रहती हैं।
8. सम्यक समाधि : उपरोक्त सात मार्ग के अभ्यास से चित्त की एकाग्रता द्वारा निर्विकल्प प्रज्ञा की अनुभूति होती है। यह समाधि ही धर्म के समुद्र में लगाई गई छलांग है।

बुद्ध ने मध्यम मार्ग का रास्ता दिखा कर मानव का बहुत बड़ा हित किया। जब सभी लोग और सभी देश अपने वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहे हैं और कोई भी किसी से कम नहीं होने की बात कर रहा है- ऐसे में ‘ मध्यम मार्ग ‘ एक बहुत बड़ा समाधान हो सकता है मानव और विश्व की सारी परेशानियों को दूर करने का। बीच का रास्ता अपनाओ और सभी बाधाओं को पार कर जाओ-यही मूल मंत्र है सम्यक जीवन जीकर परम लक्ष्य को प्राप्त करने का। मध्यम मार्ग अपनाने से व्यक्ति के मन को कोई ठेस नहीं पहुंचती। उसका सम्मान रह जाता है और टकराव तथा संताप की स्थिति भी पैदा नहीं होती। इसके विपरीत हमें मैत्री और सद्भाव का लाभ मिलता है। इसी भाव से तो विश्व में शान्तिपूर्ण मानव समाज के विचार को साकार करने में सफलता मिलेगी।

नई पीढ़ी के लिए तो बुद्ध का यह दर्शन सबसे ज्यादा उपयोगी है। उसे मन की स्वतंत्रता देकर भविष्य के लिए उपयोगी बनाया जा सकता है। कुंठाओं में डूबे युवा न तो अपने आप का विकास कर सकते हैं और न देश का। स्वतंत्र मन के माध्यम से ही स्वतंत्र समाज और संपन्न राष्ट्र की बात की जा सकती है। बंधा हुआ और विचलित मन कभी पर्याप्त परिणाम और परिमाण नहीं दे सकता।

इसलिए जरूरी है कि नई पीढ़ी को हम आजादी दें , बंधन मुक्त करें। लेकिन कितनी स्वतंत्रता दें ? क्या पूरी तरह से छोड़ दें ? नहीं , मध्य मार्ग पर रहें- वीणा के तार को थोड़ा कसें , थोड़ा ढील दें। लेकिन आजाद हो कर युवा पीढ़ी भी क्या करे ? इस स्वतंत्रता के उपभोग में भी मध्यम मार्ग का अनुसरण उपयोगी है। क्योंकि मध्यम मार्ग जहां हमारे मन के मान की रक्षा करता है , वहीं अनेकानेक कुविचारों से भी बचाता है। अच्छे कर्मों का संचय और बुरे कार्यों का त्याग-मध्यम मार्ग के माध्यम से ही सम्भव है।

इसके लिए ‘ मिलाजुला कर ‘ कह सकते हैं कि ‘ मध्यम मार्ग ही मानव की मुक्ति का मार्ग है! ‘ वही मानव को जीवन सागर पार कराने वाला यान भी है , चाहे आप संसारी की तरह जीवन का सुख पाना चाहें या निर्वाण ही प्राप्त करना चाहें।

राजकुमार सिद्धार्थ जब ज्ञान प्राप्त कर महात्मा बुद्ध हो गये तो बुद्ध ने अपनी साधना के बाद जो ज्ञान प्राप्त किया और जो उपदेश दिया वह अष्टांगिक मार्ग कहलाया। उन्होंने सम्यक दृष्टि, सम्यक जीवन, सम्यक संकल्प, सम्यक समाधि, सम्यक आजीविका आदि के माध्यम से जीवन में संतुलन बनाने का संदेश दिया।

महात्मा बुद्ध ने कहा कि जीवन में दुःख है, दुःख का कारण है और दुख को दूर करने का उपाय भी हें दूसरों के दुःख को देखकर वे घर छोड़कर निकल गये। जंगल के रास्ते से जब वे जा रहे थे तो गंधर्व लोग गीत गा रहे थे, जिसका मतलब था कि वीणा के तारों को इतना मत कसो कि टूट जायें और इतना ढीला भी मत छोड़ों कि आवाज भी न निकले। इसका आशय यह है कि मध्यम मार्ग अपनाओ, मध्यम मार्ग ही संतुलन का मार्ग है। जिसमें व्यक्ति संसार में रहते हुए भी करतार की ओ बढ़ सकता है।

एकाएक यदि कोई घर छोड़ता है तो हो सकता है कि उसे अतिरिक्त वासनाएं भटकाएं और साधना भक्ति में मन टिकने में परेशानियां आएं लेकिन जो संसार में रहते हुए सांसारिक वासनाओं से तृपत है उसका भगवान की भक्ति में आसानी से मन टिक जाता है।

बौद्ध धर्म की स्थापना के बाद बौद्ध भिक्षुओं को समता का उपदेश देते हुए भगवान बुद्ध ने कहाµआप लोग कई देशों और जातियों से आये हैं, किंतु यहां सब एक हो गये हैं। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न स्थानों में अनेक नदियां बहती हैं और उनका अलग-अलग अस्तित्व दिखाई देता है, किन्तु जब वे सागर में मिलती हैं तो अपना पृथक अस्तित्व खो देती हैं, उसी प्रकार बौद्ध बन जाने के बाद आप सभी एक हैं। सभी समान हैं।

भगवान बुद्ध अपने उपदेशों में ‘निर्वाण’ को सबसे ज्यादा महत्व दिया। उन्होंने कहा, ‘निर्वाण’ से बढ़कर सुखद कुछ भी नहीं। भगवान बुद्ध ने निर्वाण का जो अर्थ बताया वह निर्वाण उनके पूर्ववर्ती महापुरुषों से बिल्कुल भिन्न है। पूर्ववर्तियों की दृष्टि में निर्वाण का मतलब था आत्मा का मोक्ष। बुद्ध के अनुसार निर्वाण का मतलब है राग, द्वेष और मोह की अग्नि का बुझ जाना। अर्थात् राग, द्वेष, मोह से मुक्ति। राग-द्वेष की आधीनता ही मनुष्य को दुःखी बनाती है और निर्वाण तक नहीं पहुंचने देती। भगवान बुद्ध के अनुसार निर्दोष जीवन का ही दूसरा नाम निर्वाण है।

भगवान बुद्ध ने अपने आप को कभी श्रेष्ठ नहीं बताया। उन्होंने हमेशा यही कहा कि वे भी बहुत से मनुष्यों में से एक हैं और उनका संदेश एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य को दिया गया संदेश हे। बुद्ध ने कहा उनका पथ मुक्ति का सत्य मार्ग है और कोई भी मनुष्य इस विषय में प्रश्न पूछ सकता है, परीक्षण कर सकता है और देख सकता है कि वह सन्मार्ग है।

बुद्ध ने आष्टांगिक मार्ग के साथ चार आर्य सत्य बताये। उनका पहला सत्य है बुढ़ापा दुःख है। मृत्यु दुःख है। हम जो इच्छा करते हैं उसकी प्राप्ति न होना दुःख है, जिसकी इच्छा नहीं करते उसकी प्राप्ति दुःख है। जो प्रिय है, उसका वियोग सबसे बड़ा दुःख है। दूसरा सत्य दुःख का कारण तृष्णा है। तृष्णा ही दुःख का मूल कारण है। तीसरा सत्य है कि तृष्णा के त्याग से ही दुःख का निरोध सम्भव है। जब तृष्णा का सर्वनाश होता है तभी दुःख का अंत होता है। तृष्णा की जननी इच्छा है और जब तक इसकी पूर्ति नहीं होती यह दुःख ही देती रहती है। चौथा सत्य है आर्य आष्टांगिक मार्ग पर चलने से आदमी सभी इच्छाओं से मुक्त हो जाता है।

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साधना विधि का सही लाभ मिलें इसलिए आवश्यक है कि साधना का प्रसार शुद्ध रूप में हो इसपर बल दिया जाता है। यह विधि व्यापारीकरण से सर्वथा दूर है एवं प्रशिक्षण देने वाले आचार्यों को इससे कोई भी आर्थिक अथवा भौतिक लाभ नहीं मिलता है। शिविरों का संचालन स्वैच्छिक दान से होता है। रहने एवं खाने का भी शुल्क किसी से नहीं लिया जाता। शिविरों का पूरा खर्च उन साधकों के दान से चलता है जो पहिले किसी शिविर से लाभान्वित होकर दान देकर बाद में आने वाले साधकों को लाभान्वित करना चाहते हैं।

निश्चितही, निरंतर अभ्यास से ही अच्छे परिणाम आते हैं। सारी समस्याओं का समाधान दस दिन में ही हो जायेगा ऐसी उम्मीद नहीं करनी चाहिए। दस दिन में साधना की रूपरेखा समझ में आती है जिससे की विपश्यना जीवन में उतारने का काम शुरू हो सके। जितना जितना अभ्यास बढ़ेगा, उतना उतना दुखों से छुटकारा मिलता चला जाएगा और उतना उतना साधक परममुक्ति के अंतिम लक्ष्य के करीब चलता जायेगा। दस दिन में ही ऐसे अच्छे परिणाम जरूर आयेंगे जिससे जीवन में प्रत्यक्ष लाभ मिलना शुरू हो जायेगा।

सभी गंभीरतापूर्वक अनुशासन का पालन करने वाले लोगों का विपश्यना शिविर में स्वागत है, जिससे कि वे स्वयं अनुभूति के आधार साधना को परख सके एवं उससे लाभान्वित हो। जो भी गंभीरता से विपश्यना को अजमायेगा वह जीवन में सुख-शांति पाने के लिए एक प्रभावशाली तकनिक प्राप्त कर लेगा।

यथा प्रकाशयाम्ये को देहमेनं तथा जगत् ।
अतोमम जगत् सर्वमथवा न च किंचन॥

- यथा ( अहम् ) एक: (एव) जगत् प्रकाशयामि तथा एनम देहम् (प्रकाशयामि) अतः सर्वम् जगत मम अथवा च किंचन न ॥

ऊपर के श्लोक में शिष्यने अपना मोह गुरु के पास वर्णन किया । अब गुरु को कृपा से देह आत्मा का विवेक प्राप्त हुआ तहां समाधान करता है कि, हे गुरो! मैं जिस प्रकार स्थूल शरीर को प्रकाश करता हूं तिस ही प्रकार जगत् को भी प्रकाश करता हूं, तिस कारण देह जड है तिस ही प्रकार जगत् भी जड है. यहां शंका होती है कि, शरीर जड और आत्मा चैतन्य है तिन दोनों का संबंध किस प्रकार होता है ? तिस का समाधान करते हैं कि, भ्रांतिसे देह के विषय में ममत्व माना है यह अज्ञानकल्पित है, देह को आदिलेकर बंधा जगत् दृश्य पदार्थ है, तिस कारण मेरे विषय में कल्पित है, फिर यदि सत्य विचार करे तो देहादिक जगत् है ही नहीं, जगत् की उत्पत्ति और प्रलय यह दोनों अज्ञानकल्पित हैं, तिस कारण देह से पर आत्मा शुद्ध स्वरूप है॥

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अष्टांग   योग   महर्षि   पतंजलि   के   अनुसार   चित्तवृत्ति   के   निरोध   का   नाम   योग   है  ( योगश्चितवृत्तिनिरोधः ) ।   इसकी   स्थिति   और   सिद्धि   के   निमित्त   कतिपय   उपाय   आवश्यक   होते   हैं   जिन्हें   ’ अंग ’   कहते   हैं   और   जो   संख्या   में   आठ   माने   जाते   हैं।   अष्टांग   योग   के   अंतर्गत   प्रथम   पांच   अंग  ( यम ,  नियम ,  आसन ,  प्राणायाम   तथा   प्रत्याहार )  ’ बहिरंग ’   और   शेष   तीन   अंग  ( धारणा ,  ध्यान ,  समाधि )  ’ अंतरंग ’   नाम   से   प्रसिद्ध   हैं।   बहिरंग   साधना   यथार्थ   रूप   से   अनुष्ठित   होने   पर   ही   साधक   को   अंतरंग   साधना   का   अधिकार   प्राप्त   होता   है।   ’ यम ’   और   ‘ नियम ’   वस्तुतः   शील   और   तपस्या   के   द्योतक   हैं।   यम   का   अर्थ   है   संयम   जो   पांच   प्रकार   का   माना   जाता   है : ( क )  अहिंसा , ( ख )  सत्य , ( ग )  अस्तेय  ( चोरी   न   करना   अर्थात्   दूसरे   के   द्रव्य   के   लिए   स्पृहा   न   रखना ) , ।   इसी   भांति   नियम   के   भी   पांच   प्रकार   होते   हैं :  शौच ,  संतोष ,  तप ,  स्वाध्याय  ( मोक्षशास्त्र   का   अनुशलीन   या   प्रणव   का   जप )  तथा   ईश्वर   प्रणिधान  ( ईश्वर   में   भक्तिपूर्वक   सब   कर्मों   का   समर्पण   करना )

 
अष्टांग   योग   परिचय ,  अष्टांग   योग   के   द्विविध   भेद - बहिरंड्ग   योग - यम ,  अहिंसा ,  सत्य ,  अस्तेय , बह्मचर्य ,  अपरिग्रह ,  नियम - शौच , ( वाह्य - आभ्यान्तर )  सन्तोष ,  तप   स्वाध्याय ,  ईश्वर   प्रणिधान , वितर्को   का   दमन ,  वितर्को   का   स्वरूप   आदि ,  आसन - पद्मासन ,  सिद्धासन ,  योगासन   आदि ,  मुद्राएँ ,  प्राणायम - रेचक ,  पूरक ,  कुम्भक ,  सहित   कुम्भक   सूर्यभेदी ,  उज्जायी ,  शीतली ,  भस्त्रिका ,  भ्रामरी , मूर्छा ,  प्लाविकी   केवल   कुम्भक ,  सोत्कर्ष ,  सापकर्ष ,  पुराणानुसार ,  प्राणायाम ,  अगर्भप्राणायाम ,  सगर्भ   प्राणायाम ,  सद्यूमक ,  साज्वाल ,  प्रशान्त   आदि ,  देश ,  कालसंख्या ,  दीर्घ   सूक्ष्म   आदि ,  प्रत्याहार ,  बहिरंगों   का   फल ,  धारणा ,  ध्यान ,  सगुण   ध्यान ,  निर्गुण   ध्यान ,  समाधि   अन्तरड्गों   का   फल   निरूपण।

परिचय
अष्टांग   योग   महर्षि   पतंजलि   के   अनुसार   चित्तवृत्ति   के   निरोध   का   नाम   योग   है  ( योगश्चितवृत्तिनिरोधः ) ।   इसकी   स्थिति   और   सिद्धि   के   निमित्त   कतिपय   उपाय   आवश्यक   होते   हैं   जिन्हें   ‘ अंग ’  कहते   हैं   और   जो   संख्या   में   आठ   माने   जाते   हैं।   अष्टांग   योग   के   अंतर्गत   प्रथम   पांच   अंग  ( यम ,  नियम ,  आसन ,  प्राणायाम   तथा   प्रत्याहार )  ‘ बहिरंग ’  और   शेष   तीन   अंग  ( धारणा ,  ध्यान ,  समाधि )  ‘ अंतरंग ’  नाम   से   प्रसिद्ध   हैं।   बहिरंग   साधना   यथार्थ   रूप   से   अनुष्ठित   होने   पर   ही   साधक   को   अंतरंग   साधना   का   अधिकार   प्राप्त   होता   है।   ‘ यम ’  और   ‘ नियम ’  वस्तुतः   शील   और   तपस्या   के   द्योतक   हैं।   यम   का   अर्थ   है   संयम   जो   पांच   प्रकार   का   माना   जाता   है : ( क )  अहिंसा , ( ख )  सत्य , ( ग )  अस्तेय  ( चोरी   न   करना   अर्थात्   दूसरे   के   द्रव्य   के   लिए   स्पृहा   न   रखना ) , ।   इसी   भांति   नियम   के   भी   पांच   प्रकार   होते   हैं :  शौच ,  संतोष ,  तप ,  स्वाध्याय  ( मोक्षशास्त्र   का   अनुशलीन   या   प्रणव   का   जप )  तथा   ईश्वर   प्रणिधान  ( ईश्वर   में   भक्तिपूर्वक   सब   कर्मों   का   समर्पण   करना ) ।   आसन   से   तात्पर्य   है   स्थिर   और   सुख   देने   वाले   बैठने   के   प्रकार  ( स्थिर   सुखमासन )  जो   देहस्थिरता   की   साधना   है।   आसन   जप   होने   पर   श्वास   प्रश्वास   की   गति   के   विच्छेद   का   नाम   प्राणायाम   है।   बाहरी   वायु   का   लेना   श्वास   और   भीतरी   वायु   का   बाहर   निकालना   प्रश्वास   कहलाता   है।   प्राणायाम   प्राणस्थैर्य   की   साधना   है।   इसके   अभ्यास   से   प्राण   में   स्थिरता   आती   है   और   साधक   अपने   मन   की   स्थिरता   के   लिए   अग्रसर   होता   है।   अंतिम   तीनों   अंग   मनःस्थैर्य   का   साधना   है।   प्राणस्थैर्य   और   मनःस्थैर्य   की   मध्यवर्ती   साधना   का   नाम   ‘ प्रत्याहार ’   है।   प्राणायाम   द्वारा   प्राण   के   अपेक्षाकृत   शांत   होने   पर   मन   का   बहिर्मुख   भाव   स्वभावतः   कम   हो   जाता   है।   फल   यह   होता   है   कि   इंद्रियाँ   अपने   बाहरी   विषयों   से   हटकर   अंतर्मुखी   हो   जाती   है।   इसी   का   नाम   प्रत्याहार   है  ( प्रति = प्रतिकूल ,  आहार = वृत्ति ) ।
अब   मन   की   बहिर्मुखी   गति   निरुद्ध   हो   जाती   है   और   अंतर्मुख   होकर   स्थिर   होने   की   चेष्टा   करता   है।   इसी   चेष्टा   की   आरंभिक   दशा   का   नाम   धारणा   है।   देह   के   किसी   अंग   पर  ( जैसे   हृदय   में ,  नासिका   के   अग्रभाग   पर )  अथवा   बाह्यपदार्थ   पर  ( जैसे   इष्टदेवता   की   मूर्ति   आदि   पर )  चित्त   को   लगाना   ’ धारणा ’  कहलाता   है  ( देश   बन्धश्चितस्य   धारणा ;  योगसूत्र  ) ।   ध्यान   इसके   आगे   की   दशा   है।   जब   उस   देशविशेष   में   ध्येय   वस्तु   का   ज्ञान   एकाकार   रूप   से   प्रवाहित   होता   है ,  तब   उसे   ’ ध्यान ’  कहते   हैं।   धारणा   और   ध्यान   दोनों   दशाओं   में   वृत्तिप्रवाह   विद्यमान   रहता   है ,  परंतु   अंतर   यह   है   कि   धारणा   में   एक   वृत्ति   से   विरुद्ध   वृत्ति   का   भी   उदय   होता   है ,  परंतु   ध्यान   में   सदृशवृत्ति   का   ही   प्रवाह   रहता   है ,  विसदृश   का   नहीं।   ध्यान   की   परिपक्वावस्था   का   नाम   ही   समाधि   है।   चित्त   आलंबन   के   आकार   में   प्रतिभासित   होता   है ,  अपना   स्वरूप   शून्यवत्   हो   जाता   है   और   एकमात्र   आलंबन   ही   प्रकाशित   होता   है।   यही   समाधि   की   दशा   कहलाती   है।   अंतिम   तीनों   अंगों   का   सामूहिक   नाम   ’ संयम ’  है   जिसके   जिसके   जीतने   का   फल   है   विवेक   ख्याति   का   आलोक   या   प्रकाश।   समाधि   के   बाद   प्रज्ञा   का   उदय   होता   है   और   यही   योग   का   अंतिम   लक्ष्य   है।

अष्टांग   योग
महर्षि   पतंजलि   द्वारा   प्रतिपादित   अष्टांग   योग  -  योग   के   सभी   मार्गों   में   सबसे   अधिक   प्रचलित   व   उपयोगी   होने   के   कारण   इसे   सभी   योग   मार्गों   में   श्रेष्ठ   माना   जाता   है।   योग - सूत्र   के   रचियता   महर्षि   पतंजलि   ने   समाधि   की   प्राप्ति   के   उद्देश्य   हेतु   योग   के   आठ   अंगों   की   रचना   की   जिससे   इस   योग   का   नाम   अष्टांग   योग   विख्यात   हुआ।   जोकि   निम्नलिखित   सूत्र   में   स्पष्ट   कहे   गए   हैं।   यम   नियमासन   प्राणायाम  -  प्रत्याहार   धारणा   ध्यान   समाहायोऽष्टावेगानि  ( 24)  अर्थात्   यम ,  नियम ,  आसन ,  प्राणायाम ,  प्रत्याहार ,  धारणा ,  ध्यान ,  समाधि   ये   अष्टांगयोग   के   आठ   अंग   हैं।   आत्मा   का   शरीर   एवं   मन   पर   पूरा   अधिकार   होना   चाहिए।   अतः   शरीर   का   मन   और   इन्द्रियों   की   शुद्धि   हेतु   अष्टांग   योग   में   आठ   अंगों   का   निर्देश   किया   गया   है   जिनका   संक्षिप्त   वर्णन   इस   प्रकार   है

यम
यम   का   अर्थ   है   चित्त   को   धर्म   में   स्थित   रखने   का   साधन ,  यम   पांच   होते   हैं ,  इनका   वर्णन   इस   प्रकार   है
( क ) अहिंसा  -   मन ,  वचन ,  कर्म   द्वारा   किसी   भी   प्राणी   को   किसी   तरह   का   कष्ट   न   पहुंचाने   की   भावना   अहिंसा   है।   दूसरे   शब्दों   में   प्राणिमात्र   से   प्रेम   अहिंसा   है।
( ख ) सत्य  -   जैसा   मन   ने   समझा ,  आंखों   ने   देखा ,  कानों   ने   सुना   वैसा   ही   बताना   या   कहना   सत्य   है ,  सत्य   केवल   बाहरी   ही   नहीं   आंतरिक   भी   होना   चाहिए।
( ग ) अस्तेय  -   मन ,  वचन ,  कर्म   से   चोरी   न   करना ,  दूसरे   के   धन   का   लालच   न   करना   अस्तेय   है।
( घ ) ब्रह्मचर्य  -   समस्त   इन्द्रियों   सहित   गुप्तेंद्रियों   का   संयम   करना ,  खासकर   मन ,  वाणी   और   शरीर   से   यौनिक   सुख   प्राप्त   न   करना   ब्रह्मचर्य   है   ।
( ड ) अपरिग्रह  -   अनायास   प्राप्त   हुए   सुख   के   साधनों   का   त्याग ,  अस्तेय   में   चोरी   का   त्याग ,  किंतु   दान   को   ग्रहण   किया   जाता   है ,  परन्तु   अपरिग्रह   में   दान   को   भी   अस्वीकार   किया   जाता   है।   स्वार्थ   के   लिए   सम्पत्ति   तथा   अन्य   भोग   सामग्रियों   का   संचय   परिग्रह   है   और   अभाव   अपरिग्रह   है।
नियम  -   अष्टांग   योग   में   नियम   भी   पांच   कार   के   बताए   गए   हैं :
शौच  -  शरीर   की   बाहरी   एवं   आंतरिक   शुद्धि   शौच   है ,  शरीर   को   स्नान ,  सात्तिवक   भोजन ,  षक्रिया   आदि   से   शुद्ध   रखा   जा   सकता   है।   मन   की   अंतःशुद्धि ,  राग ,  द्वेष   आदि   को   त्यागकर   मन   की   वृत्तियों   को   निर्मल   करने   से   होती   है।
1 . संतोष  -  अपनी   मेहनत   और   कर्म   के   द्वारा   कत्र्तव्य   का   पालन   करते   हुए   जो   प्राप्त   हो   उसी   से
2 . संतुष्ट   रहना   अर्थात्   परमात्मा   की   कृपा   से   जो   भी   मिल   जाए   उसे   ही   प्रसन्नतापूर्वक   स्वीकार   करना   संतोष   है।
3 . तप  -  सुख - दुख ,  सर्दी ,  गर्मी ,  भूख - प्यास   आदि   द्वन्द्वों   को   सहन   करते   हुए   मन   और   शरीर   को   साधना   तप   है।
4 . स्वाध्याय  -  विचार   शुद्धि   और   ज्ञान   प्राप्ति   के   लिए   रोधाभ्यास ,  धार्मिक   पुस्तकों ,  धर्म   शास्त्रों   का   अध्ययन ,  सत्संग   और   विचारों   का   आदान - प्रदान   स्वाध्याय   है।
5 . ईश्वर   प्राणिधानः  -  मन ,  वाणी ,  कर्म   से   ईश्वरी   की   भक्ति   और   उसे   नाम ,  रूप ,  गुण ,  लीला   आदि   का   श्रवण ,  कीर्तन ,  मनन   तथा   समान्त   कर्मों   में   ईश्वरार्पण   ईश्वर   प्राणिधान   है।

आसन
यह   अष्टांग   योग   का   तृतीय   अंग   है   जिसमें   योग   आसनों   आदि   से   शरीर   को   हष्ट - पुष्ट   व   योग   साधना   के   योग्य   बनाया   जाता   है।   स्थिरम्   सुखमासन  शरीर   स्थिर   रहे   और   मन   को   सुख   प्राप्त   हो ,  इस   प्रकार   की   स्थिति   आसन   है  -  परमात्मा   का   ध्यान   करते   हुए   लम्बे   समय   तक   आसन   में   सुखपूर्वक   ध्यान   करने   से   आसन   की   सिद्धि   होती   है।   आसन   की   सिद्धि   से   नाड़ियों   की   शुद्धि ,  आरोग्य   की   वृद्धि   एवं   स्फूर्ति   प्राप्त   होती   है।   आसनों   के   बारे   में   जानने   पर   पता   चलता   है   कि   सृष्टि   में   जितने   भी   प्रकार   के   जीव - जन्तु   हैं ,  वह   किसी   न   किसी   स्थिति   में   बैठने   पर   सुख   का   अनुभव   करते   हैं   अर्थात्   आसानों   की   संख्या   भी   इसी   आधार   पर   शास्त्रों   में   की   गई   है।   योग   ग्रन्थों   में   84   लाख   आसनों   की   संख्या   बताई   गई   है।   जिनके   चित्र - लाभ   सहित   प्रस्तुत   किए   गए   हैं।   साध्यत्व   की   दृष्टि   से   योग   आसनों   को   चार   वर्गों   में   बांटा   जा   सकता   है
(1) ध्यानात्मक   आसन  ( Meditative )
(2) आरामदायक   आसन / सहज   साध्य   आसन  ( Relaativeshna )
(3) सांस्कृतिक / साधारण   आसन / श्रम   साध्य  ( Culturalshna )
(4) कठिन / कष्ट   साध्य   आसन  ( Dvanceshna )
क्रियाओं   की   दृष्टि   से   योग   आसनों   को   5   वर्गों   में   बांटा   जा   सकता   है  -
(1) खड़े   होकर   किये   जाने   वाले   आसन
(2) बैठकर   किये   जाने   वाले   आसन
(3) पेट   के   बल   लेटकर   किये   जाने   वाले   आसन
(4) पीठ   के   बल   लेटकर   किये   जाने   वाले   आसन
(5) सिर   के   बल   किये   जाने   वाले   आसन   100-125   की   संख्या   में   जिन   आसनों   के   नाम   तथा   क्रियाविधियों   का   उल्लेख   पाया   जाता   है ,  उनमें   से   अनेक   ऐसे   हैं ,  जिन्हे   दुःसाध्य   की   श्रेणी   में   रखा   जा   सकता   है।   कतिपय   आसन   मात्र - प्रदर्शन   के   लिए   दी   है।   राजयोगाचार्य   बाल - ब्रह्मचारी   श्री   स्वामी   व्यास   देव   जी   महाराज   ने   अपनी   पुस्तक   बहिरंग - योग ’  में   250   आसन   विधियों   सहित   प्रस्तुत   किए   हैं।   साधना   की   दृष्टि   से   चार   आसनों   को   अधिक   महत्त्व   दिया   जाता   है  - ( 1)  विद्धासन , (2)  पद्मासन , (3)  स्वस्तिकारसन , (4)  सुख   आसन।
आसनों   के   लिए   कुछ   आवश्यक   ध्यान   देने   योग्य   बातें   इस   प्रकार   है  -
(1) योगासन   करने   का   स्थान   शान्त ,  स्वच्छ   तथा   हवादार   होना   चाहिए।
(2) पेट   का   खाली   होना।
(3) भूमि   का   समतल   होना।
(4) चित्त   की   एकाग्रता।
(5) श्वास   गति   तथा   मन   को   सामान्य   एवं   शान्त   रखना   ।
(6) अभ्यास   को   धीरे - धीरे   सरलतापूर्वक   करना।
(7) प्रतिदिन   अभ्यास   करना।
(8) शरीर   पर   कम   से   कम   वस्त्र  -  लंगोट ,  नेकर ,  बनियान   पहनना।
(9) प्रशिक्षक   के   निर्देशन   में   करना।
(10) संतुलित   तथा   हल्का   भोजन   करना।
(11) आँखें   खुली   अथवा   सहज   भाव   रखना।
(12) सांस   नाक   द्वारा   लेना।
(13) मन   में   आत्म   विश्वास   तथा   शारीरिक   निरोगता   की   भावनाएं   होना   ।
जन   साधारण   के   लिए   किए   जाने   वाले   कुछ   आसनों   के   नाम   इस   प्रकार   हैं
(1)  सिद्धासन  ( 2)  पदमासन  ( 3)  स्वास्तिकासन , (4)  सुखासन  ( 5)  गोमुखासन , (6)  वज्रासन  ( 7)  वीरामन , (8)  योगासन  ( 9)  बद्धपद्मासन  ( 10)  मुक्तासन  ( 11)  गोरक्षामन  ( 12)   अर्धमत्सयेन्दासन , (13)  बकासन , (14)  उस्ट्रासन , (15)  मत्स्यासन , (16)  उत्करासन ,(17)  सर्वांगासन , (18)  पवनमुक्तासन , (19)  हलासन , (20)  कर्मासन , (21)  पश्चिमोन्तानासन , (22)  कर्णपीडासन , (23)  कुक्कुटासन , (24)  मत्स्येन्द्रासन , (25)  पद्म - मयूरासन , (26)  मयूर   आसन  ( 27)  गरूडासन , (28)  उत्थिरातद्विपादसिं्कद   आसन , (29)  चक्रासन , (30)  सप्तवज्रासन , (31)  पूर्ण   सुप्तावज्रासन , (32)  ताड़ासन , (33)  गर्भासन , (34)  उत्तानपादासन  ( 35)  द्विपादस्किदं   आसन , (36)  मकरासन , (37)  वृश्चिकासन , (38)  सर्पासन , (39)  शीर्षासन , (40)  दण्डासन , (41)  सूर्य - नमस्कारामन , (42)  त्रिकोणासन , (43)  धनुरासन , (44)  पादहस्तासन , (45)  पद्मशीर्षासन , (46)  पाश्र्वकाकासन , (47)  शलभासन , (48)  सेतुबन्धासन , (49)  नौकासन  ( 50)  हस्तशीर्षासन , (51)  पद्मबकासन , (52)  शवासन।
कल्याण   के   विभिन्न   स्रोतों   से   योग   का   महत्व   सिद्ध   होता   है।
महर्षि   पतंजलि   से   भी   पूर्व   भगवान   हिरण्यगर्भ   योग   के   प्रथम   वक्ता   माने   जाते   हैं।   सभी   युगों   में   योग   मानव   कल्याण   के   साथ - साथ   अदम्य   शक्ति   का   स्रोत   रहा   है।
सतयुग   में   योग   से   सत्य   का   अनुसरण   करने   से   राजा   हरिश्चन्द्र   सत्यवादी   कहलाए   तथा   प्रहलाद   भगत   योग   की   शक्ति   से   ही   पर्वत   से   गिराए   जाने   पर   भी   विचलित   नहीं   हुए   तथा   तप   के   कारण   सतयुग   से   लेकर   कलयुग   तक   मनुष्य   ने   अनंत   शक्ति   की   प्राप्ति   की।
सतयुग   में   योग   को   ही   अपनाकर   राजा   बली ’  हिरणाक्ष ,  हिरणाकश्यप   आदि   ने   पृथ्वी   को   कई   बार   विजय   किया   तथा   योग   की   शक्ति   से   ही   गौतम   ऋषि ,  प्रहलाद   भगत   जैसे   वीरों   ने   धर्म   का   प्रचार   किया   व   ऐसे   अनगिनत   उदाहरण   हैं   जो   सतयुग   में   योग   को   प्रमाणित   करते   हैं।   त्रेतायुग   में   भगवान्   श्रीरामचन्द्र   ने   अत्यन्त   शक्तिशाली   भगवान   शिव   के   धनुष   को   अनायास   ही   उठा   लिया   व   उस   पर   कमान   चढ़ाते   हुए   वह   खण्डित   हो   गया।   यह   सब   योग   का   ही   परिणाम   है।   त्रेतायुग   में   योग   के   अनेकानेक   उदाहरण   हमारे   धर्म - ग्रंथों   में   विद्यमान   हैं।   भगवान   श्रीराम   के   भाई   लक्ष्मण   अखण्ड   ब्रह्मचारी   थे ,  इसीलिए   योग   के   कारण   ही   वह   मेघनाद   द्वारा   चलाई   गई   मिसाइल   को   अपने   वक्षस्थल   पर   झेल   गए   व   मेघनाद   का   अंत   कर   दिया।   योग   के   द्वारा   ही   भगवान   हनुमान   प्राणायाम   की   शक्ति   से   समुद्र   को   पार   कर   गए   व   योग   द्वारा   ही   वह   वायु   व   आकाश   में   उड़ने   में   सक्षम   थे ,  जिससे   उन्हें   पवनपुत्र   कहा   जाता   है।

यदि केवल विचार करने ही से मुक्ति होती है तब तो मुक्ति का विनाश होना चाहिये क्योंकि जब विचार नष्ट होता है तब मुक्ति का भी नाश होना चाहिये और यदि कहो कि विचार के बिना ही मुक्ति हो जाती है तब तो गुरु और शास्त्र के उपदेश को प्राप्त न होनेवाले पुरुषोंकी भी मुक्ति होना चाहिये ? तिस का गुरु समाधान करते हैं कि, यदि शुद्ध विचार की दृष्टि से देखो तो मेरे बंध नहीं है और मोक्ष भी नहीं है अर्थात् विचारदृष्टि से न आत्मा का बंध होता है, न मोक्ष होता है, क्योंकि मैं (आत्मा) नित्य चित्स्वरूप हूं, तहां शिष्य शंकित होकर प्रश्न करता है कि हे गुरो ! वेदान्तशास्त्र विचार का जो फल है सो कहिये. तहां गुरु कहते हैं कि भ्रांति की निवृत्ति ही वेदांतशास्त्र के विचार का फल है क्योंकि बड़ा आश्चर्य है जो मेरे विषें स्थित भी जगत् वास्तव में मेरे विषें स्थित नहीं है इस प्रकार विचार करनेपर भी भ्रांतिमात्र ही नष्ट हुई, परमानंद की प्राप्ति नहीं हुई इस से प्रतीत होता है कि, भ्रांति की निवृत्ति ही शास्त्रविचार का फल है, तहां शिष्य कहता है कि, हे गुरो ! भ्राति कैसी थी जो विचार करनेपर तुरंत ही नष्ट हो गई, तिस का गुरु उत्तर देते है कि, भ्राति निराश्रय अर्थात् अज्ञानरूपथी सोविचार से नष्ट हो गई ॥

 

अष्टांग योग विद्या पहले मनुष्य को उसकी अपनी आभ्यंतरिक अवस्थाओं वे पर्यवेक्षण का इस प्रकार उपाय दिखा देती है , कि मन ही उस पर्यवेक्षण का यंत्रा है। मनोयोग की शक्ति का सही नियमन कर जब उसे अंतर्जगत की ओर परिचालित किया जाता है , तभी वह मन का विश्लेषण कर सकती है। और तब उस ज्ञानड्ढपी प्रकाश से हम समझ सकते हैं कि अपने मन के भीतर क्या घट रहा है। मन की शक्तियां इधर उधर बिखरी हुई प्रकाश की किरणों वे समान हैं। जब उन्हें वें द्रीभूत किया जाता है , तब वे सब आलोकित कर देती हैं। यही ज्ञान का हमारा एकमात्रा उपाय है। विवेकख्याति की प्राप्ति हेतु अष्टांग योग का वर्णन महर्षि पतंजलि ने साधनपाद के अंतर्गत किया है। अष्टांग योग को राजयोग साधना भी कहते हैं। अष्टांग योग के अभ्यास सारा अशुद्धियाँ तब तक कम नहीं होती जब तक कि आध्यात्मिक ज्ञान का प्रकाश उपलब्ध नहीं होता है। अष्टांग योग के अभ्यास से जैसे जैसे मन और बुद्धि से मल , विक्षेप हटते जाते हैं , वैसे आध्यात्मिक आलोक की उपलब्धि प्राप्त होती जाती है। आध्यात्मिक उन्नति की सबसे बड़ी बाधा अविद्या है। अविद्या से अस्मिता , अस्मिता उन समस्त विकारों की निवृत्ति हेतु महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग को प्रमुख साधन माना है। अष्टांग योग विभिन्न अंगों का अभ्यास योग साधक को साधना करने लिए आवश्यक होता है। इससे शरीर , मन की अशुद्धियाँ दूर होती हैं और क्रमशः अभ्यास से आध्यात्मिक उपलब्धियों की प्राप्ति होने लगती है।

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साधन चतुष्टय (Four Qualities of studentship in Vedant Philosophy)-
वेदांत दर्शन के अध्ययन में प्रवेश के लिये साधन चतुष्टय (Qualities of studentship) की आवश्यकता होती है मनुष्य के अंदर चार योग्यता(Qualifications) होनी अति आवश्यक है: 1. विवेक (Discriminatory intellect) 2. वैराग्य (Detachment or dispassionate objectivity) 3. शम दमादि छह सद्गुण (the six healthy qualities ) 4. मुमुक्षुत्व (burning desire for the ultimate knowledge)॥ सबसे पहले मनुष्य सज्जन पुरुषों का सत्संग करे, रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसी दास जी लिखते हैं 'बिनु सत्संग विवेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥' अर्थात बिना सत्संग के विवेक नही मिलता प्रभु कृपा के बिना सत्संग नही मिलता इसीलिये जब भगवान की कृपा हो तभी सज्जन पुरुषों का सत्संग करने का सौभाग्य मिलता है सज्जन पुरुषों का सत्संग करने से पाप नष्ट होता है, कुसंस्कार नष्ट होता है एवम उत्तम संस्कार प्राप्त होता है, उचित अनुचित का विवेक मिलता है। सत्संग के द्वारा विवेक प्राप्त होता है, यह विवेक मनुष्य की पहली योग्यता(first qualification) है। जब मनुष्य की विवेक शक्ति पूर्ण रूप से जागृत हो जाती है तब उसे संसार से वैराग्य(detachment) हो जाता है और संसार के विषय भोगों की आसक्ति(attachment ) नष्ट हो जाती हैं तब मनुष्य संसार के विषय भोगों में लिप्त नही होता, निष्काम भाव से कर्म करता है और अनासक्त भाव से संसार के भोग भोगता है तथा कर्म फल के बंधन से मुक्त हो जाता है यह वैराग्य मनुष्य की दूसरी योग्यता(second qualification) है॥ वैराग्य होने के बाद शम आदि छह सद गुणों का होना भी आवश्यक है ये षट सम्पत्ति है:1.शम (control of mind) 2.दम (sensory control) 3. श्रद्धा(faith) 4.समाधान(concentration) 5. उपरति(introspective withdrawal) 6. तितिक्षा(fortitude) ॥ जब मनुष्य शम दमादि षट सम्पत्ति के द्वारा जितेंद्रिय हो जाता है और आत्म संयम ( self control) कर लेता है तब मानव को मुमुक्षुत्व मिलता है मुमुक्षु मनुष्य ईश्वर को जानने की मुमुक्षा रखता है और ज्ञान प्राप्त करता है। अपने ज्ञानाग्नि के द्वारा मुमुक्षु अपनी तृष्णा कामनाओं को जलाकर भस्म करता है॥ तब मुमुक्षु को वेदांत दर्शन के अध्ययन एवम श्रवण करने का अधिकार प्राप्त होता है। यह वेदान्त राज विद्या ब्रह्म विद्या है॥

सम्यक समाधि में चित को विशेष बिंदु अथवा चीज़ पर केंद्रित करने का अभ्यास किया जाता है | चित के प्रकीर्णन के विपरीत चित की एकाग्रता चमत्कारिक रूप में परिणाम लाती है | सूर्य किरणों की असंख्य पुंजों से भी यदि वे प्रकीर्णित हैं तो अग्नि उत्पन्न नहीं हो सकती | इसके विपरीत सूर्य किरणों की कुछ पुंजों को यदि एकाग्रित कर किसी खास बिंदु पर चित किया जाये तो उसमे अग्नि उत्पन्न हो जाती है | लेंस के द्वारा किसी कागज के टुकड़े में अग्नि उत्पन्न होना इसी वैज्ञानिक प्रक्रिया के फलतः होता है | अध्यात्म और यौगिक प्रक्रिया में सम्यक समाधि के अभ्यास से दुःखों से मुक्ति के साथ -साथ परम सत्य के अनुभव तक पहुंचा जा सकता है | हमारा मन विचारो के रूप में प्रकीर्णित होता रहता है जिससे कुछ भी प्राप्त नहीं होता | विचार भी ऊर्जा का ही स्वरुप है जो तरंगों के रूप में है | सम्यक माइंड -फुलनेस के तहत हम बादलों की तरह आती -जाती उन विचारों को तटस्थ भाव से देखते जाते है | यद्यपि मन को एक साथ किसी ऊर्जा के रूप में उपयोगी लाना हो तो सम्यक समाधि के अभ्यास से ही संभव हो पाता है |

सम्यक समाधि का अर्थ ध्यान की वह अवस्था जिसमें मन की अस्थिरता, चंचलता शांत होती है तथा विचारों का भटकाव रुक जाता है। ऐसा संभव होता है आर्य सत्य और आष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करने पर  सम्यक समाधि के तहत मन या चित को एकल -बिंदु पर केंद्रित कर ध्यान की अवस्था है | इसके तहत चार ध्यान ( पाली भाषा में ‘झान’ ) की अवस्था आती है | प्रथम ध्यान की अवस्था के तहत साधक को सांसारिक चीज़ों के प्रति आसक्ति का त्याग के कारण सुख और आनंद का अनुभव होता है | ध्यान की द्वितीय अवस्था के तहत चित की एकाग्रता के फलतः सुख और आनंद का अनुभव होता है | ध्यान की तृतीया अवस्था में समता ( समभाव ) और सम्यक माइंड -फुलनेस का स्पष्ट प्रभाव होता जिसके फलतः आनंद का अनुभव होता है | ध्यान की चतुर्थ अवस्था में शुद्ध समभाव और सम्यक संचेतन की अनुभूति होती है जो परम ज्ञान के पथ में आधारभूत है |      सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कर्मान्त, सम्यक आजीव, सम्यक आजीव, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि प्राप्त करने की चेष्टा करने वाले व्यक्ति के मार्ग में 5 बंधन या बाधायें आती हैं. ये 5 बाधायें हैं – लोभ, द्वेष, आलस्य, विचिकित्सा और अनिश्चय. इसलिये इन बाधायों पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है. इन पर विजय प्राप्त करने का मार्ग समाधि है. लेकिन, यहाँ ये समझ लो कि समाधि, सम्यक समाधि से अलग है, भिन्न है. समाधि का मतलब है चित्त की एकाग्रता. यह एक तरह का ध्यान है जिसमें ऊपर लिखी पाँचों बाधायें अस्थाई तौर पर स्थगित रहती हैं. खाली समाधि एक नकारात्मक स्थिति है. समाधि से मन में स्थाई परिवर्तन नहीं आता. आवश्यकता है चित्त में स्थायी परिवर्तन लाने की. स्थायी परिवर्तन सम्यक समाधि के द्वारा ही लाया जा सकता है. सम्यक समाधि एक भावात्मक वस्तु है. यह मन को कुशल कर्मों का एकाग्रता के साथ चिन्तन करने का अभ्यास डालती है और कुशल ही कुशल सोचने की आदत डाल देती है. सम्यक समाधि मन को अपेक्षित शक्ति देती है, जिससे आदमी कल्याणरत रह सके.

“वह एकमात्र स्थान जहां पर सपने असंभव होते हैं, वह स्वयं आपका मस्तिष्क है।” 
“The only place where dreams are impossible is in your own mind.” 

 समाधि का तात्पर्य ध्यान की उच्चतम अवस्था से लगाया गया है | सम्यक समाधि को पाली भाषा में ‘सम्मा समाधि’ के रूप में जाना जाता है | बौद्ध धर्म के अष्टांगिक मार्ग में समाधि त्रि-रत्न के तहत सम्यक प्रयास , सम्यक संचेतना और सम्यक समाधि का महत्वपूर्ण स्थान है | समाधि शब्द मूल धातु ‘सम -अ -धा’ से मिलकर बना है जिसका अर्थ है ‘एक साथ लाना ‘ | समाधि का तात्पर्य मन अथवा चित को एक साथ लाना है | सामान्य भाषा में इसे ही ‘चित एकाग्रता’ भी कहा जाता है | मनुष्य जीवन की जो भी उपलब्धि है वह चित की एकाग्रता अथवा सम्यक समाधि से ही जुडी हुई है |

संबंधक बिना जगत् किस प्रकार धारण होता है ? भीत गृह की छत आदि को धारण करती है परंतु काष्ठ आदि से उस का संबंध होता है, सो आत्मा बिना संबंध के जगत् को किस प्रकार धारण करता है इस का गुरु समाधान करते हैं कि, अहो मैं बड़ा आश्चर्यरूप हूं इस कारण अपने स्वरूप को नमस्कार करूं हूं, आश्चर्यरूपता दिखाते हैं कि, परमार्थदृष्टि से तो मेरा किसी से संबंध नहीं है, और विचारदृष्टि से देखो तो मुझ से भिन्न भी कोई नहीं है और यदि सांसारिकदृष्टि से देखो तो जो कुछ मन वाणी से विचारा जाता है वह सब मेरा संबंधी है परंतु वह मिथ्या संबंध है, जिस प्रकार सुवर्ण तथा कुंडल का संबंध है, इसी प्रकार मेरा और जगत् का संबंध है अर्थात् मेरा सब से संबंध है भी और नहींभो है, इस कारण आश्चर्यरूप जो मैं तिस मेरे अर्थ नमस्कार है ॥ त्रिपुटीरूप जगत् तो सत्यसा प्रतीत होता है फिर जगत् का और आत्मा का मिथ्या संबंध किस प्रकार कहा, इस शिष्य को शंका का गुरु समाधान करते हैं कि, ज्ञान ज्ञेय तथा ज्ञाता इन तीनों का इकट्ठा नाम “त्रिपुटी” है, वह त्रिपुटी वास्तविक अर्थात् सत्य नहीं है, तिस त्रिपुटी का जिस मेरे ( आत्मा के ) वि मिथ्या संबंध अर्थात् अज्ञान से प्रतीत है, वह मैं अर्थात् आत्मा तो निरंजन कहिये संपूर्ण प्रपंच से रहित हूं ॥

 

य इमां विद्यामधीते स सर्वान्वेदानधीते । स सर्वैः क्रतुभिर्यजते ।
स सर्वतीर्थेषु स्नाति । स महापातकोपपातकैः प्रमुच्यते । स
ब्रह्मवर्चसं महदाप्नुयात् । आब्रह्मणः पूर्वानाकल्पाऽश्चोत्तरांश्च
वंशान्पुनीते । नैनमपस्मारादयो रोगा आदिधेयुः । सयक्षाः
सप्रेतपिशाचा अप्येनं स्पृष्ट्वा दृष्ट्वा श्रुत्वा वा
पापिनः पुण्यांॅल्लोकानवाप्नुयुः । चिन्तितमात्रादस्य सर्वेऽर्थाः
सिद्ध्येयुः । पितरमिवैनं सर्वे मन्यन्ते । राजानश्चास्यादेशकारिणो
भवन्ति । न चाचार्यव्यतिरिक्तं श्रेयांसं दृष्ट्वा नमस्कुर्यात् ।
न चास्मादुपावरोहेत् । जीवन्मुक्तश्च भवति । देहान्ते तमसः परं
धाम प्राप्नुयात् । यत्र विराण् नृसिंहोऽवभासते तत्र खलूपासते ।
तत्स्वरूपध्यानपरा मुनय आकल्पान्ते तस्मिन्नेवात्मनि लीयन्ते ।

न च पुनरावर्तन्ते ।

ज्ञानज्ञेयंतथाज्ञातात्रितयं नास्तिवास्तवम्।
अज्ञानाद्भातियत्रेदंसोऽहमस्मिनिरञ्जनः ॥

JUGAL KISHORE SHARMA

91-9414416705  BIKANER RAJASTHAN 

JUGAL’s Newsletter

##मैं पिछले20 वर्षो से थाइराइड,डायबेटिक,हार्ट संबंधित रोग,लीवर आदि प्रमुख बीमारियों का खानपान में परिवर्तन कर शतप्रतिशत इलाज का प्रयास कर रहा हू, सही आहार एंव न्युनतम होम्योपेथिक दवाओं से पूर्णतया बीमारी को जड़ से खत्म किया जा सकता है ऐसा मेरा यह मानना है, तथा मैने शतप्रतिश हजारो लोगों में तथा हर आयुवर्ग में सफल प्रयोग किया है, न्युनतम व्यय- प्राय हम हम जो सात्विक भोजन पर व्यय करते है उसी के अनुरूप ही व्यय है को किया जाकर हमारी दैनिक आदतों में बीमारी से लड़ने तथा ठीक होने के प्रयास मोजूद है । यह  कि आहार में प्रमुख परिवर्तन करके ही बीमारियों से लड़ा जा सकता है तथा बीमारियों से निजात पाई जा सकती है ।

लाईफ यानि की जीवन! मूल्यों और अनुशासन पर भी आश्रित ही रहना चाहिए, केवल कल्पना और ठोस प्रयास के अभाव में जीवन केवल ट्रक की लाईट के पीछे भटका बाईक सवार जो शायद रास्ता पार ही लगाये । हमेशा ईवी स्कूटर की तरह जीवन जीये, संतुलित सहज,शान्त और निरन्तर प्रतिदिन चार्ज डिस्चार्ज । पर गतन्व पर धीरे पर अवश्य पहुच निश्चित!
केवल मल्टीग्रेन का इस्तेमाल खाने में करे स्वस्थ रहे सभी प्रकार की बीमारियों को भगाये! मल्टीग्रेन में जौ,ज्वार,मक्का,बाजरा,चना,मूंग और मोठ का इस्तेमाल रितु के अनुसार लेवें इसी मल्टीग्रेन में 90प्रतिशत मोटे अनाज है एंव 10 प्रतिशत दाले है । रोटी,दलिया का उपयोग चार बार अवश्य करे । संतुलित भोजन स्वस्थ जीवन।

 

//PL USE THE BARLEY,SHORGUM,MILLET,GRAM,MAIZE LENTIL LIKE MOONG AND MOTH//

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For the last 20 years, I am trying to cure 100% of the major diseases like thyroid, diabetic, heart related diseases, liver etc. It is, and I have done 100% successful experiment in thousands of people and in every age group, the minimum expenditure - usually the expenditure we spend on sattvik the whole grain 8-9 type coarse gains- the veg food is the same as it should be done in our daily habits to fight disease and get cured. The effort exists. That only by making major changes in the diet, diseases can be fought and diseases can be overcome.

Benefits of Multigrain-Health.gov's 2015-2020 Dietary Guidelines for Americans suggests that you eat 6 ounces of grain daily and get at least half of that from whole grains,

Benefits of Multigrain - How can We are diet plan with whole grains,bean and lentils Present study was undertaken for development of gluten free processed products i.e. cookies and pasta by incorporation of gluten-free ingredients in different proportions. Gluten free raw ingredients i. e. finger millet (FM), pearl millet (PM), soya bean (SB) and ground

I have learned over the years that when one's mind is made up, this diminishes fear; knowing what must be done does away with fear.

contd part