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डॉक्टर जी

बच्चा पैदा करने के लिए फीमेल डॉक्टर चाहिए। मेल नहीं, इस कॉन्सेप्ट पर बनी हैं। ये फ़िल्म, पर पूरी फ़िल्म में इस चीज़ के अलावा सब कुछ हैं। बस ये नहीं हैं। इस तरह की फिल्मों को किस जॉनर का कहें। ये समझ नहीं आता। इसलिए मैं इन्हें सस्ता टाइम पास जॉनर कहता हूं।

अक्षय कुमार बॉलीवुड की अर्थी अपने कंधों पर उठाकर चल रहे हैं। और आयुष्मान खुराना वो हैं। जो इस अर्थी में अग्नि दे रहे हैं। इनकी हिम्मत कैसे हो जाती हैं। ऐसा बकवास बनाने की, ऊप्पर से ये लोग खुद को बहुत बड़ा सुपरस्टार कहते हैं। आयुष्मान खुराना की हर फिल्म में एक जैसी एक्टिंग, एक जैसी कहानी, एक जैसे गाने, एक जैसा बजट, एक जैसा कैमरा वर्क, मतलब जो भी फ़िल्म के नाम पर स्क्रीन पर चल रहा हैं। वो सब एक हमेशा एक जैसा हैं।

कहानी; यू ट्यूब पर आए दिन इस तरह की वीडियो बनती रहती हैं। और इस फ़िल्म के मेकर्स ने उन वीडियो को देखकर ये कारनामा बना दिया। और कहानी हैं। भी क्या, वो ही छोटा शहर, रोजमर्रा की घटने वाली घटनाओं का सिलसिला, और अंत दर्शकों के भावों का विरेचन करने के लिए एक घटना जो जब पर्दे पर घटती हैं। तो गाँवों में होने वाली नोटंकी इनसे ज्यादा अच्छी लगती हैं। क्योंकि उसके बारें में पता तो होता हैं। कि नोटंकी हैं। लेकिन यहाँ तो फ़िल्म नाम देकर कुछ भी किया जा रहा हैं।

(आयुष्मान हड्डियों का डॉक्टर बनना चाहता हैं। लेकिन रैंक कम आने की वजह से गायकनोलोजिट्स में एडमिशन ले लेता हैं। उसके बाद वो ही जो दर्शक अपने मन में सोचता हैं। वो फ़िल्म में होता रहता हैं। और अंत में एक भद्दे से सीन के साथ फ़िल्म खत्म)

संवाद; संवाद के नाम पर मेडिकल टर्मिनोलॉजी, डबल मीनिंग बातें, सॉरी, और बेसर पैर की बातें जिन्हें ना भी सूने तो भी कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। और हद तो जब हैं। जब डॉक्टर मरीज़ से डबल मीनिंग में मज़ाक कर रहा हैं। जिन्हें निर्देशक ने ज्ञान परोसने के इरादे से रखा हैं। और दर्शकों को वो जबरदस्ती लग रहा हैं। "एक उदाहरण; एक औरत कहती हैं। कि मुझे सुई से डर लगता हैं। तो डॉक्टर क्या कहती हैं। इतनी छोटी सी सुई से डर लगता हैं। और अपने पति से इतना बड़ा इंजेक्शन लिया तब डर नहीं लगा।"



सच कहूँ तो ये फ़िल्म किसी भी एंगल से देखने लायक नहीं हैं। आयुष्मान की माँ की एक्टिंग करने वाली एक्ट्रेस इस तरह से एक्टिंग कर रही हैं। कि भांग चाट रखी हो, पूरी फिल्म में उसे देखकर अपने चेहरे को नोचने का मन करता हैं। रकुल प्रीत फ़िल्म में ही क्यों इस बात को पूरी फिल्म समझा नहीं पाती हैं। इस फ़िल्म के हर सीन में अथाह ज्ञान है। एक ज्ञान ढंग से पूरा नहीं हुआ अगला ज्ञान उसी सीन के अंदर चालू हैं। सबसे बेकार इसमें वो सीन हैं। जिनमें नारीवाद दिखाया जा रहा हैं। बीजीएम ऐसा देने की कोशिश की जा रही हैं। कि कितना कॉमेडी सीन चल रहा हैं। और हँसतें-हँसतें दर्शक कुर्सी से गिर पड़ेगा। एक बात तो मैं इस फ़िल्म को देखने के बाद पक्के तौर पर कह सकता हूँ। ये फ़िल्म बनाने वाले जब इस तरह की फ़िल्म बनाते हैं। तो इन्हें लगता हैं। कि फ़िल्म कम और समाज सेवा ज्यादा कर रहे हैं। पर मैं बस यहीं कहूंगा कृपया मत देखना इस तरह की समाज सेवा को।