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कांतारा

इस फ़िल्म का पोस्टर ही इतना सुंदर बनाया गया हैं। कि उसे देखने के बाद कोई भी इस फ़िल्म को बिना देखे रह ही नहीं सकता। उस पोस्टर में जो दैव कोला का चित्र हैं। उनको देखने पर अपने आप ही अंदर से एक आकर्षण् महसूस होता हैं।

सुंदरता एक बड़ा सामान्य से शब्द होगा चित्र की विशेषता बताने के लिए, इसके लिए सही शब्द मनोहर जैसा कुछ होना चाहिए। तब शायद चित्र की विशेषता अधूरी लगे।

सच कहूँ तो ये फ़िल्म एक अलग ही दुनिया में मन को ले जाती हैं। खासकर अंत में, अंत में लगता हैं। जैसे मन का कोई भाव हैं। जो कुछ कहना चाह रहा हैं। लेकिन उस भाव को कहने के लिए सही शब्द नहीं मिल रहे हैं।

कहानी; 1870 में एक राजा जो सांसारिक सुविधाओं से बिल्कुल परिपूर्ण हैं। लेकिन उसका मन परेशान रहता हैं। वो अपने मन की शांति के लिए जंगलों की तरफ निकल पड़ता हैं। जंगल में पहुँचने पर उसे एक आवाज़ सुनाई देती हैं। वो उस आवाज़ के पीछे-पीछे चलता हैं। और चलता-चलता एक पत्थर के आगे रुक जाता हैं। वो पत्थर वहाँ जंगल में रहने वाले लोगों का पञ्जुली देव होता हैं। राजा जंगल के लोगों से देव को मांगता हैं। और बदले में उन्हें कुछ भी देने के लिए तैयार हो जाता हैं। जिसके चलते देव वहाँ मौजूद लोगों में से एक शरीर धारण कर, राजा से लोगों के लिए जमीन माँगते हैं। और राजा उन्हें अपने कहें अनुसार ज़मीन दे देता हैं। ये कहानी शुरुआती पंद्रह मिनट की हैं।

अब यहाँ से कहानी सीधा 1970 में आती हैं। जहां शिवा(ऋषभ शेट्टी) के पिता देव कोला का नृत्य करते रहते हैं। तभी वहां पर राजा के वंशज का एक आदमी आकर अपनी ज़मीन वापस मांगता हैं। और वहीं पर शिवा के पिता गायब हो जाते हैं। अब वो क्यों हुए ये फ़िल्म में देखना, ये कहानी भी 20 मिनट चलती हैं।

अब कहानी 1990 में आ जाती हैं। जहाँ शिवा बड़ा हो गया हैं। और गांव में मटरगस्ती करता हुआ घूमता हैं। सरकार वहाँ पर गांव की ज़मीन को फारेस्ट रिज़र्व के अंदर लाना चाहती हैं। कहानी में एक सस्पेन्स हैं। जो कहानी आगे बताने से वो खुल जाएगा तो इसलिए जिसे फ़िल्म देखनी हैं। उसका मज़ा खराब हो जाएगा। इसलिए उसे रहने देते हैं।

निर्देशन; ऋषभ शेट्टी खुद ही फ़िल्म के लेखक् और निर्देशक हैं। और हीरो भी तो फ़िल्म का निर्देशन खराब होगा। ये सोचना अपने आप में दिमाग खराब होना हैं। क्योंकि जिसने कहानी लिखी हैं। वो निर्देशन तो अच्छा करेगा ही, क्योंकि सीन की बारीकी को वो अच्छे से समझता हैं। औऱ अगर वो खुद लीड रोल में हो तो बस फिर तो कहने ही क्या, एक दम परफेक्ट निर्देशन हैं। फ़िल्म का

एक्टिंग: ऋषभ शेट्टी क्या कह दिया जाए। इनकी एक्टिंग के लिए, नेपोकिड को अपने घर में इनकी तस्वीर लगाकर पूजा करनी चाहिए। कि ऐसे भी एक्टिंग होती हैं। स्प्लिट में जेम्स मकोय, अवकेनिंग्स में रोबर्ट देनिरो ने, जो एक्टिंग की हैं। उस जैसी या उस से भी ऊप्पर हैं। खास कर लास्ट में, क्या था वो "awesom" उस एक्टिंग के बारें में तो जो कहा जाए वो कम ही हैं।

फ़िल्म के अंदर बाकी किरदारों ने भी अच्छा काम किया हैं। शिवा के दोस्त, उसकी माँ, सरपंच, हीरोइन, पुलिस सबने अपने किरदार को ईमानदारी से निभाया हैं।

पटकथा; इस फ़िल्म की पटकथा बड़े सीधे ढंग से लिखी गयी हैं। फ़िल्म का पूरा सेट गांव, जंगल मे सेट किया हैं।

खास बात ये हैं। कि एक सीन जब खत्म होता हैं। तब ही दूसरा शुरू होता हैं। ना कि तीन चार सीन एक साथ चलते हैं। और वे दिमाग पर बेमतलब का बोझ डालते रहते हैं। दूसरी बात सीन लंबे- लंबे बहुत हैं। लेकिन वो बोर नहीं करते, उन्हें देखने में मज़ा आता हैं।

फ़िल्म के अंदर संवादों को लेकर भी कोई फालतूगिरी नहीं की गई हैं। जहां जैसे संवादों की जरूरत हैं। वहाँ वैसे डाले गए हैं।

कुछ नारीवादी किस्म के लोग फ़िल्म के कुछ दृश्यों से खफा हो सकते हैं। पर गांव की पृष्ठभूमि में वो सब नार्मल लगता हैं। और जिन दृश्यों से वो खफ़ा होंगे वो उनके घरों में हो रहा हैं। लेकिन मानसकि रूप से बीमार लोगों के बारे में क्या कहा जा सकता हैं।

फ़िल्म की एक खास बात इसमें पुलिस को गुंडा-मवाली टाइप नहीं दिखाया जो आजकल का प्रचलन चल रहा हैं। बल्कि पुलिस गांव वालों का साथ देती हैं।

फ़िल्म का BGM जबरदस्त हैं। इमोशनल सीन, और फाइट सीन में तो अलग ही लेवल पर पहुंच जाता हैं।

फ़िल्म के गाने ठीक हैं। और जब देव कोल नृत्य करते हैं। तो उसका हिंदी डबिंग तो नहीं किया हैं। लेकिन देखने पर लगता हैं। कि हमें सब समझ आ रहा हैं।


पूरी बात का सार ये हैं। कि इस फ़िल्म में कमी बहुत बारीक किस्म की हैं। किरदारों का अभिनय, निर्देशन, पटकथा सब मिलकर ढक देते हैं। लेकिन जैसे ही अंत आता हैं। तो कमी फ़िल्म के अंदर क्या हैं। वो एक झटके में दिमाग से गायब हो जाती हैं। और थिएटर से निकलते वक्त केवल होठों पर फ़िल्म की तारीफ रह जाती हैं। तो अंत फ़िल्म जिसको देखनी हैं। उसे थिएटर में ही देखनी चाहिए।