Robert Gill ki Paro - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

रॉबर्ट गिल की पारो - 1

1

दिसंबर 1849 में रॉबर्ट गिल को डायरेक्टर आॅफ कोर्ट की मुहर लगा लिफाफा मिला। इतने वर्षों बाद उसे मेजर के पद पर पदोन्नत किया गया था। वह 1824 में कैडेट के रूप में लंदन में सेना में भर्ती हुआ था। उसके बाद 44 वीं मद्रास नेटिव इन्फेंट्री में उसकी पोस्टिंग हुई थी। वह ऐच्छिक नियुक्ति पर इंडिया आ गया था। सितंबर 1826 में वह लेफ्टिनेंट बना।.

फिर 6 मई 1840 को कैप्टन। अब वह मेजर के पद पर था और साथ ही विशेष अनुरोध पर रॉबर्ट को अजंता में बौद्ध गुफाओं का एक चित्रमय रिकॉर्ड बनाने के लिए नियुक्त किया जाता है। उसे इन गुफाओं के भित्ति चित्र, फोटोग्राफी, पेंटिंग, रेखा चित्र, गुफाओं की मैपिंग और उनका रिकॉर्ड रखने एवं कैटलॉगिंग करने और संबंधित गुफाओं के छायाचित्र भी लंदन भेजने के लिए आदेश दिया गया। इसके लिए रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ने उसे कैमरा प्रदान किया। गुफाओं के रखरखाव की जिम्मेदारी भी उसी की थी। हैदराबाद के निज़ाम द्वारा अजंता ग्राम स्थित बारादरी में उसके रहने का प्रबंध किया गया। इस काम के लिए उसे 5 वर्षों का समय दिया जाता है। सेना के मेजर पद के वेतन के साथ उसे 200 रुपये वार्षिक अतिरिक्त राशि भी दी जाएगी। इसके अलावा चार बैटमैन भी दिए जाएंगे, जिनके वेतन की जिम्मेदारी हैदराबाद के निज़ाम की होगी।

यदि अतिरिक्त कर्मचारियों की ज़रूरत उसे गुफाओं की साफ-सफाई हेतु लगेगी तो यह ज़िम्मेदारी भी हैदराबाद के निज़ाम की होगी ।

आदेशानुसार

डायरेक्टर आॅफ कोर्ट

हस्ताक्षर

(मुहर)

रॉबर्ट को लगा कि आज बड़ी ही खुशी का दिन है। और वह अकेला है... नितांत अकेला।

बारिश बीत चुकी थी और यह दिसंबर का महीना... क्या कहते हैं इसे हिन्दी में शरद का मौसम। आज उसे समुद्र तट और यह मौसम सुहाना लग रहा था। कितने ही दिनों की उदासी आज खुशी में तब्दील हुई थी।

अभी तक वह इंडिया आकर कलकत्ता, मद्रास, बेंगलोर, जालना और बर्मा में भी रह चुका था। लेकिन औरंगाबाद जहाँ से अजंता ग्राम जाना होता हैं, वह कैसा होगा वह सोचने लगा। औरंगाबाद जाने का तो उसे एक अवसर पहले मिला भी था। लेकिन वह अजंता ग्राम नहीं जा पाया था। हाँ, वह तो विलेज है तो छोटा-सा ही होगा, उसने सोचा।

अभी तक तो वह बड़े शहरों में रहा था। लेकिन अब अपनी इच्छानुरूप वह अजंता जा रहा है।

न जाने कितने विचारों से वह घिरा था। उसे याद आया, जब वह लंदन में आर्मी स्कूल में था। उसकी वहाँ की ज़िंदगी... फिर इंडिया आना और यहाँ बीते बरसों का समय।

वह अपनी ज़िंदगी में पीछे लौट पड़ता है। इस बीच कितना कुछ बीत गया उसकी ज़िंदगी में... और वह एकदम अकेला।

सभी बड़े शहरों में उसे तमाम सुविधाएं प्राप्त थीं। जैसे एक फिटन गाड़ी, जिसमें आमने-सामने दो-दो सीटें थीं। जिनमें दो कद्दावर घोड़े जुते रहते थे। लाल मखमल की गुदगुदी सीटें और फिटन के ऊपर एक ऐसा टप जिससे धूप अंदर न आ सकें। जयकिशन ने फिटन गाड़ी के ट‌प पर पीतल की घंटियां लगा दी थीं। जिससे तेज दौड़ती गाड़ी को घंटियों की लय वाद्यमय बना देती थी। गाड़ी को चलाने वाला गाड़ीवान जिसे रॉबर्ट ड्राइवर कहता जब घोड़ों को चाबुक मारता तो घोड़े हवा से बातें करते हुए भागने लगते। उसके पास एक और फिटन गाड़ी थी, जिसमें दो पहिए थे। आगे-पीछे दो सीटें और एक ही घोड़ा जोता जाता। इंडियन्स इसे इक्का बोलते थे।

अक्सर एक ही घोड़े वाली गाड़ी की सवारी रॉबर्ट करता। जब फ्लावरड्यू यहाँ थी तब वे बड़ी फिटन में बैठते।

मद्रास के समुद्र तट पर जहाँ चहल पहल होती वहाँ वह नहीं जाता था। उसे शांत जगह पसंद थी। समुद्र तट पर उसकी चित्रकारी का सामान उसके बैटमेन लाते, जिसमें एक लकड़ी का बड़ा बोर्ड होता। उसे वे समुद्र किनारे रेत में गड़ा देते। दोनों बैटमेन मिलकर उस पर कैनवस लगाते और साथ ही एक ऊंचा स्टूल रखकर रंगों की कूचियां और रंगों का डिब्बा लेकर खड़े हो जाते। वह पेन्टिंग बनाए या न बनाए वे वैसे ही खड़े रहते। कभी-कभी पेन्टिंग करते या स्कैच बनाते हुए वह ऊंचे स्टूल पर बैठ भी जाता। यदि स्कैच बनाता तो उनमें रंग भरने का काम घर पर ही करता।

वह डूबते सूरज का चित्र, उगते सूरज का चित्र, समुद्र के असीम विस्तार और उसमें दिखते तरह-तरह के इंद्रधनुषी रंगों का चित्र, रेत, समुद्र में खेलते नंगे काले बच्चों की आकृति, दूर जाती मछुआरों की नौकाएं, उनके फेंके जाल आदि को अपने कैनवस पर उतारता।

आश्चर्य है कि हर दिन एक नया कैनवस, सूर्योदय वही लेकिन चित्र अलग-अलग अंदाजों में बनते। कितने ही चित्र उसने सूर्योदय के बनाए, जब सूर्य की झिलमिलाती किरणें समुद्र पर चमकीली रौशनी डालकर अटखेलियां करती थीं। तब समुद्र तट एकदम खाली होता। कभी-कभी कुछ ब्रिटिशर चहलकदमी करने आ जाते और उनके साथ होतीं उनकी पत्नियां। जो बड़ा हैट लगाकर समुद्र किनारे दौड़ती रहतीं। अगर उन्हें समुद्र में तैरना या स्नान करना होता तो उस तरफ किसी भारतीय को आने की अनुमति नहीं दी जाती। फिटन वाले भी समुद्र की ओर पीठ करके खड़े हो जाते।

इसलिए भी कि सवेरे समुद्र किनारे अंग्रेज युवतियां स्नान करेंगी या विभिन्न प्रकार के खेल पानी में खेलेंगी तो कोई अन्य भारतीय उस तट पर आता ही नहीं।

मद्रास के समुद्र तट से मछलियों का व्यापक व्यापार होता था। जब सूर्योदय भी नहीं हुआ होता उस अंधेरे में मछुआरे अपनी नौकाओं पर सवार काले दिखते पानी और हरहराते समुद्र में अपने जाल फेंक देते थे। वे पानी में सुदूर चले जाते और फिर दृष्टि से ओझल हो जाते। बिलकुल तभी सूरज अपनी लालिमा समुद्र में बिखेर देता। मछुआरे अपनी नावों पर सवार दिखाई देते। और कुछ ही समय बाद विशाल समुद्र में कहीं दूर एक काले धब्बे की तरह दीखते। उसने इन सभी के चित्र अपने कैनवस पर उतारे थे।

कभी-कभी वह यों ही समुद्र किनारे टहलता रहता तब दोनों बैटमेन उसके कैनवस को तीव्र होती हवाओं में संंभाले, रंगों- ब्रशों को थामे अपने मालिक का इंतजार करते रहते। फिर गाड़ी की ओर बढ़ते उसके कदमों को देख समझ जाते कि आज कैनवस कोरा ही बंगले पर वापस जाएगा।

वह अपनी फिटन में बैठ जाता। सुबह की कुनकुनी धूप उसे अच्छी लगती थी। अत: वह गाड़ी का टप खुला ही रखता।

अपने बंगले पर पहुंचकर वह हल्का-सा नाश्ता लेता। फलों से भरी तश्तरी उसके बंगले के सामने वाले वरांडे में पहुंचा दी जाती। जहाँ उससे मिलने वाले लोग भी आते। वरांडा जुही और मधुमालती की बेल से ढका था। जिनमें से छनकर सुबह की धूप उसे नहलाती रहती। वह धीरे-धीरे फलों को खाता रहता और कहीं खोया रहता, किसी अज्ञात की प्रतीक्षा में। मन भटकता और कभी-कभी सुदूर रहती पत्नी के पास भी पहुंच जाता। यहाँ भी दोनों उसके विशेष बैटमेन कैनवस खड़ा कर देते। और एक लम्बी काली शीशम की लकड़ी से बनी तिपाई पर कूचियां (ब्रश) और रंग रख देते। ताड़ से बना एक बड़ा पंखा हरी (बैटमेन) हाथ में लिए सदैव खड़ा रहता।

वह अपने रेखाचित्रों को और सही आयाम देता और रंग भर देता। अद्भुत... कभी-कभी वह स्वयं इन चित्रों को देखकर ठगा-सा खड़ा रह जाता।

पिछले हफ्ते उसी समुद्रतट पर शाम के समय एक अंग्रेज लड़की उसके पास आकर खड़ी हो गई थी और मुग्ध होकर कैनवस पर उतरे सूर्यास्त को देख रही थी। उसने इस पेन्टिग पर वहीं पर रंग भरे थे।

‘‘हैलो’’ वह बोला- ‘‘मैं रॉबर्ट गिल।’’

‘‘हैलो! मुझे मालूम है मिस्टर रॉबर्ट गिल। मैं एनी। मेरे पिता ब्रिटिश आर्मी में हैं। मुझे इंडिया घूमने की बहुत इच्छा थी, इसलिए मैं यहाँ आई।’’

‘‘अच्छा किया। वैसे इंडिया गरम देश है। मुझे तो बहुत गर्मी लगती है।’’ रॉबर्ट ने कहा।

‘‘नहीं। पूरा देश गरम नहीं है। मैंने शिमला वगैरह देखा है, हालांकि उधर जाना डेन्जरस है। रास्ते नहीं हैं। लेकिन फिर भी मुझे वहाँ बहुत अच्छा लगा। एकदम ठंडा और लोनली।’’

‘‘हाँ! मैं भी गया हूँ काफी पहले। सबसे पहले मैं कलकत्ता में ही रहा, मुझे कलकत्ता अच्छा लगा था। उसने कहा।

‘‘आपकी पेन्टिंग देखकर बहुत अच्छा लगा। बहुत सुंदर है यह। बल्कि सूर्यास्त को भी पता नहीं होगा कि वह उगते समय इतना सुंदर होता है।’’ दोनों हँस पड़े इस बात पर।

रॉबर्ट को याद आया ऐसी ही बातें लीसा के साथ होती थीं। और लीसा की याद आते ही उसका मन उदासी से भर उठा।

लड़की ने अपना हैट ठीक किया। लम्बी झालरवाली गुलाबी रंग की लंबी फ्रॉक वह पहने थी, गुलाबी रंग की मोतियों की माला हाथ में मोतियों की ब्रेसलेट... वह गुलाबी रंग की परी की भांति थी। रॉबर्ट ने उसे अपने बंगले पर आमंत्रित किया। उसने कहा कि वह अपने पिता के साथ आएगी।

पिता का नाम सुनकर कि वह भी आएगा वह चुप हो गया। लड़की समझ गई। उसका पिता उसके रैंक का नहीं है अत: वह नहीं चाहता कि वह उसके बंगले पर आए।

’’’

21-6-2022

प्लेट से फल का आखिरी टुकड़ा मुंह में रखते ही उसने देखा कि सामने फाटक पर एक सुंदर लड़की लाल लिबास में वहाँ खड़े संतरी से बात कर रही है। हैट से उसने पहचान लिया और उसे भीतर भेजने का इशारा किया।

‘‘हैलो एनी आओ।’’ उसने कहा।

‘‘हैलो मि. रॉबर्ट, आश्चर्य नहीं हुआ मुझे यहाँ देखकर?’’

‘‘हुआ, मैंने सोचा भी नहीं था कि तुम यहाँ आओगी।’’

‘‘दरअसल, मि. रॉबर्ट, मुझे पेन्टिंग बनाने का शौक है, मैं लंदन में इसकी बाकायदा शिक्षा ले रही हूँ। और साथ ही मूर्तियां बनाने का शौक है। एक मुलायम मिट्टी को पूर्णता देती हूँ। आपको एक मूर्ति बनाना चाहती हूँ।’’

‘‘मेरी ही क्यों?’’ रॉबर्ट ने पूछा।

‘‘आप मुझे अच्छे लगते हैं, मेरी ही रुचि के गंभीर और आकर्षक भी।’’ उसने नजरें झुकाकर कहा।

सत्रह-अठारह वर्ष की इस फूल-सी लड़की को ऐसा कहते सुनकर वह पसीने से नहा उठा। हड़बड़ी में कुछ नहीं सूझा तो वह उसे अपने उस हॉल तक ले गया जहाँ उसकी पेंटिग्ज रखी थीं।

हॉल बहुत बड़ा था। पूरे हॉल में लाल रंग का कालीन बिछा था। संभवत: ईरान से आया होगा। ऐसा उसके डैड ने बताया था कि यहाँ के आॅफिसर अंग्रेज आॅफिसर्स के लिए कालीन, झाड़फानूस, काँच के हंडे , जिनमें दिए जलाकर हॉल और बरामदे में लटकाए जाते हैं आदि चीजें ईरान से आती हैं। कालीन को देखते हुए रॉबर्ट ने कहा-‘‘लाल रंग मुझे ऊर्जा देता है, एक अद्भुत शक्ति कि तुम कुछ भी कर सकते हो।’’

‘‘अच्छा,’’ वह आश्चर्यचकित थी। ‘‘ऐसा भी होता है?’’ उसने कहा।

‘‘मालूम नहीं, मैं महसूस करता हूँ ऐसा।’’ रॉबर्ट ने कहा।

‘‘खैर! देखो मैंने कितनी पेन्टिंग्ज बनाई हैं। यह कलकत्ता की हैं। और यह ब्रह्मपुत्र नद मुझे अच्छा लगता रहा है। इसके किनारे बैठकर मैंने बहुत कुछ पाया है। उन यादों को जिया है, एकदम आसपास जो मुझसे बिछड़ चुकी हैं। मेरे बेहतरीन दोस्त, मेरा शहर... लंदन के वे झाड़-पेड़, वहाँ की भेड़ें, चिड़ियां और बहुत कुछ। वहीं पर फादर रॉडरिक्स भी थे। वे चर्च और सेना के वे यादगार पल जो मैंने वहाँ जिया।’’

‘‘बहुत याद आता है लंदन?’’

‘‘हाँ! याद आता है, जहाँ तुम्हारा बचपन बीता, जहाँ तुमने पढ़ाई की और जहाँ तुमने यौवन में कदम रखा, वह सब तो याद आएगा ही।’’ कहते हुए वह गमगीन हो उठा।

‘‘फिर छोड़ा ही क्यों अपना देश?’’

‘‘मैंने यहाँ आना खुद चुना।’’ रॉबर्ट ने कहा।

‘‘ताकि काले गुलामों को सही रास्ता बता सको।’’ एनी ने कहा।

वह हँसने लगा।

‘जो भी समझो।’’ रॉबर्ट बोला।

मैं जब ब्रह्मपुत्र की ओर गया था। तब इसने मुझे बहुत प्रभावित किया। इसमें मैं दूर-दूर तक तैरता रहता था। बिल्कुल अकेला। यहाँ तक कि शाम गहरा जाती थी। पूर्व में वैसे भी शाम जल्दी हो जाती है। मेरी पेन्टिंग का विषय चेहरे का स्केच होता है। फिर उनमें रंग भरना। मुझे लगता है चेहरा ठीक ही बन जाता है। सूर्य, चंद्रमा, नदी, पहाड़, समुद्र, जंगल और चर्च और शिकार करता मैं स्वयं और लेपर्ड का स्कैच। ओर दूर-दूर तक जाती लंबी सड़क जहाँ पर दोनों ओर लगे रोशनी के हंडे। या किनारे-किनारे फैले छतनार पेड़। ये मुगल भी यहाँ आए, लूटपाट करने और फिर यहीं बस गए। यही उनका देश हो गया। कतारबद्ध पेड़ लगवाना, सुंदर बड़े सुरक्षित किले बनवाने का कार्य भी उन्होंने किया।’’

‘‘और यह देखो... यह मेरी मदर है।’’

‘‘तो अपनी मदर को नहीं देखा?’’

‘‘नहीं, माता-पिता की धुंधली-सी याद है। मैं लंदन के शेयर दलाल का बेटा हूँ।’’

‘‘तो? माता-पिता’’ एनी की आँखें आश्चर्य से फटी रह गईं।’’

‘‘तो क्या? दुनिया में आ चुके हैं, तो साँसें तो लेनी ही होंगी। जीना पड़ेगा।’’ रॉबर्ट ने कहा।

‘‘छोड़ो देखो, यह लंदन की पेंटिंग्ज हैं। यह मेरी मित्र है लीसा। हम कई बार मिले। वह नाटक मंडली में काम करती थी उन दिनों। एक बेहतरीन कलाकार। बताते हुए और लीसा की तस्वीर दिखाते हुए वह फिर उन दिनों की याद में खो गया था।

‘‘आपकी अंतरंग मित्र रही होंगी लीसा?’’ एनी ने पूछा।

‘‘हाँ, बहुत अधिक।’’ रॉबर्ट ने कहा।

‘‘यह तस्वीरें शायद लंदन की हैं?’’

‘‘नहीं लंदन से दूर... वहाँ मेरे मित्र टैरेन्स का बंगलो है। हम वहीं मिले थे।’’ रॉबर्ट ने कहा।

‘‘और, यह तस्वीरें, स्कैचेज वगैरह तो इंडिया की ही हैं। इंडिया मुझे बहुत अच्छा लगता है। यहाँ ऐसा कुछ है जो मुझे अपनी खींचता है। जानती हो, जब लंदन में जहाज पर चढ़ा और मद्रास में पहला कदम रखा तो लगा बस अब यहीं रहना है। मृत्यु भी यहीं कहीं  होगी आसपास। ’’ और हाल में ऐसी नजरों से कुछ खोजने लगा, मानो मृत्यु को खोज रहा हो, वह यहीं आस-पास खड़ी है। सिहर उठी एनी।

‘‘क्यों ऐसा लगा आपको?’’ एनी ने पूछा।

‘‘नहीं मालूम, कभी अपने भीतर का अहसास हमें काफी कुछ बता देता है। जैसे यहीं मृत्यु है, तो यहीं प्यार है... यहीं जीवन है। एनी मैं सेना में जरूर हूँ। लेकिन भावुक बहुत हूँ। जबकि इस क्षेत्र में भावना का कोई काम नहीं होता।’’

‘‘आपकी बातें मुझे ठीक से समझ में नहीं आ रही हैं। मैं सोचती हूँ मैं कल फिर आऊंगी।’’ वह असहज महसूस कर रही थी।

‘‘नहीं! कल क्यों? हम ड्राइंग रूम में बैठते हैं।’’ कहते हुए वे हॉल से निकलकर एक बड़े दूसरे कमरे में आ गए। यह एक बड़ा हवादर अनेक खिड़कियों वाला कमरा था। ऐसी खिड़कियाँ मैंने शिमला में देखी हैं। एनी ने सोचा। लेकिन वे बंद रहती है।

‘‘क्या सोच रही हो एनी?’’ उसने पूछा।

‘‘ कुछ नहीं बस यूं ही।’’ एनी ने कहते हुए चारों ओर नजरें घुमाईं। लाल शनील मढ़ी गुदगुदी, कुर्सियां, वैसे ही छोटे-छोटे कुशन। कई रंगों से बुना एवं लाल रंग लिये कालीन। कोने में रखे गमले जिनमें बांस के सहारे चढ़ी फूलों की बेलें। बीचों बीच एक टेबिल पर रखा गोल गमला जो गेरू (गमले में पोती जाने वाली मिट्टी) से पुता हुआ, उसमें पानी भरा हुआ था और बेंगनी कुमुदनी के फूल और मोटे पत्ते। केवल कुमुदनी के फूल हल्के बेंगनी थे बाकी पूरी सजावट लाल रंग की। बंगले की बहुत ऊंची-ऊंची दीवारें और ऊपर, खपरैल की छत, जिसमें से सूरज की एक किरन भी झाँक नहीं सकती थी। लंबाई से पूरे हॉल में हवा देने वाला झालर वाला पंखा, जिसकी डोर बाहर बैठे आदमी के हाथ में रहती थी।

दीवार पर एक बहुत बड़ी शायद 5-5 फीट की एक पेन्टिंग लटकी थी। रात का दृश्य था फिरभी सड़क पर भीड़ थी। यह शायद कलकत्ता होगा। उसमें एक  लम्बी सड़क थी, जिसके दोनों ओर लैम्प पोस्ट लगे थे। आभास दे रहे थे कि यह प्रकाशमान है। दूर हुगली नदी पर बना ब्रिज और कुछ स्पष्ट-अस्पष्ट चेहरे। दो-तीन यूरेशियन लड़कियों के चेहरे, जिनके बालों की पोनी-टेल ऊंची बंधी हुई, बाकी बंगाली लड़कियां बंधी चोटी और बंगाली साड़ी में... लैम्प पोस्ट के नीचे खड़े धोती कुर्ता में बंगाली व्यक्ति।

‘‘मि. रॉबर्ट आपने पूरा कलकत्ता इस पेन्टिंग में दिखा दिया। कमाल की सुंदर पेन्टिंग है।’’

कमरे में भारी पर्दों पर, पीतल की घंटियां लटकी थीं। उसी पर्दे पर से डोर बाहर जा रही थी। जब पंखे वाला बैटमेन डोर खींचता तो मधुर ध्वनि से घंटियां टुनटुना उठतीं। तभी जोर से घंटियां बजीं और एक 17-18 साल का लड़का अंदर आया। उसके हाथ में एक लकड़ी की गोल ट्रे थी जिसमें दो गिलास जूस से भरे रखे थे। उसने बहुत सलीके से दोनों को जूस पेश किया।

रॉबर्ट ने देखा - अजब इत्तेफाक है एनी की ड्रेस भी लाल है। उसकी ब्रेसलेट में लगे नग भी लाल हैं। और गले में पहनी माला और उसकी जूतियां भी सुर्ख लाल हैं। वह मुग्ध होकर देखता रह गया।

‘‘एनी! तुम्हें कैसे मालूम, मुझे लाल रंग पसंद है?’’ रॉबर्ट ने पूछा।

‘‘मतलब? मि. रॉबर्ट,’’ वह आश्चर्य में डूब गई।

‘‘तुम्हारी लाल ड्रेस।’’ उसने कहा।

एनी के गाल आरक्त हो उठे। वह शरमाकर नीचे देखने लगी।

‘‘वैसे मुझे पहली बार मालूम हुआ कि पुरुषों को भी लाल रंग इतना पसंद है।’’ कहते हुए वह मुस्कुराने लगी।

‘‘ये पेन्टिंग’’ उसने मि. रॉबर्ट की नजरें दूसरी ओर खींचने के लिए कहा जो लगातार उस पर टिकी थीं। उसने दीवार पर लगी एक दूसरी पेन्टिंग की ओर इशारा किया।

‘‘यह गोधूलि अर्थात ३६्र’्रॅँ३ का दृश्य है। मैं शाम को देखता था, शाम को सुनता था। शाम को महसूस करता था। एनी, मेरी ज़िंदगी में शाम बहुत जल्दी आ जाती थी। कभी कभी दुपहर को भी शाम आ जाती थी।’’

‘‘दोपहर को शाम?’’ एनी ने पूछा।

रॉबर्ट कहीं दूर शाम को महसूस करता रहा। एक बार फादर रॉडरिक्स ने पूछा था- ‘‘रॉबर्ट यह नीम अंधेरे में खड़े क्या देख रहे हो?’’ तो उसने कहा था- ‘‘फादर मैं शाम को देख रहा हूँ।’’ यह शाम लंदन की थी या इंडिया की वह समझ नहीं पाई। रॉबर्ट उसके लिए एक अबूझ पहेली की तरह होता जा रहा था।

‘‘मि. रॉबर्ट, अभी शाम नहीं है, दिन के ग्यारह बजे हैं।’’

‘‘हाँ!’’ वह चौंक पड़ा।

तब तक एनी ने जूस पी लिया था। उसका गिलास वैसा ही पड़ा था।

‘‘ओके। मिस एनी, हम और मिलेंगे गुड बाय। लेकिन तुम बहुत सुंदर लग रही हो।’’ कहता हुआ वह उठ गया। साथ ही एनी उठकर दरवाजे से बाहर हो गई। उसने एनी को ब्रिटिश आर्मी के क्वार्टर्स तक छोड़ देने का प्रबंध पहले ही करवा दिया था।

’’’

छह-सात दिन पश्चात एक दिन एनी फिर रॉबर्ट के बंगले पर खड़ी थी। उसने लेमन रंग की बारीक कपड़े की लम्बी फ्रॉक पहनी थी। उसकी पतली नाजुक कमर पर चौड़ा काले चमड़े का बेल्ट था। उसके आभूषण काले चमकीले पत्थरों और काले मोतियों से बने थे। उसका हैट फ्रॉक के रंग का था, जिसमें काली क्रोशिए से बनीं झालर थी, जो उसके चेहरे को और भी सुंदर बना रही थी। एनी के हाथ में चमकीले रंग बिरंगे मोतियों का बैग था। बैग बहुत बड़ा था। उसमें उसकी पेंटिंग और एक डिब्बे में मुलायम पीसी मिट्टी थी। वह आज पूरी तैयारी और पूरे मन से आई है, जिससे मि. रॉबर्ट गिल के चेहरे को वह मूर्ति का रूप दे सकें। बंगले के गेट पर फिर वही रूकावट। यह भी एक संयोग था कि मि. रॉबर्ट आज दुपहर को ही आॅफिस  से अपने बंगले पर लौट आया था।

सामने खड़े संतरी ने बताया-‘‘ यह साहब का आराम का समय है। आपको गेस्ट रुम में बैठना होगा।’’

‘‘आने दो उन्हें।’’ सामने बरामदे में रॉबर्ट खड़ा था। दोनों चौंक पड़े। एनी आगे बढ़ी और दोनों ने एक दूसरे से हाथ मिलाया।

‘‘यह आपके आराम का समय था, माफी चाहूँगी।’’

‘‘नहीं आओ, यह बैटमेन के लिए है, कि मैं आराम कर रहा हूँ। लेकिन आज मन बहुत बेचैन है। बल्कि किसी इंतजार में भी था।’’

‘‘इंतजार किसका?’’ एनी ने पूछा और अपने गालों को आरक्त होते हुए महसूसा।

‘‘शायद तुम्हारा।’’ रॉबर्ट ने कहा और चुप हो गया। लेकिन यह सच नहीं था। उसे किसका इंतजार रहता था वह समझ नहीं पाया। बचपन से ही वह ऐसा ही था। शांत और गंभीर। कभी-कभी उसे सबके बीच रहते हुए भी इतना अकेलापन लगता था कि वह घोड़े पर सवार होकर दूर-दूर निकल जाता तब फ्लावरड्यू उसे खोजने के लिए जयशंकर को भेजती थीं।

वे दोनों ड्राइंग रुम में बैठ गए। शायद हर दो-तीन दिन में मि. रॉबर्ट गिल अपनी बैठक का कायाकल्प करते होंगे ऐसा उसने सोचा। क्योंकि आज नीले झालरदार पर्दे ड्राइंगरूम में लगे थे। सोफे के कुशन और गद्दियां भी हल्की नीली थीं, जिसके चारों ओर बारीक कपड़े की झालर और उसमें लेस लगी थी। टेबिल पर बीचों-बीच वही बड़ा गोल गमला रखा था। लेकिन आज उसमें गुलाबी छोटे कमल के फूल खिले थे। कालीन वही था लेकिन वह उन रंगों की सजावट पर खिल रहा था। रॉबर्ट ने उसे बैठने का इशारा किया। वह बैठकर चारोंतरफ देखने लगी। अब तक उसने यही जाना था कि मि. रॉबर्ट गंभीर व्यक्तित्व के हैं। इसके ठीक विपरीत एनी चंचल और चुलबुली लड़की थी। वह मि. रॉबर्ट से ढेर सारी बातें कर लेना चाहती थी। लेकिन फिर जब वह रॉबर्ट को देखती तो उसकी हिम्मत ही नहीं पड़ती। वह सोचती कि मैं ही नहीं सामने वाला कोई व्यक्ति ऐसे व्यक्तित्व से डर ही जाएगा।

‘‘एनी! कैसे आना हुआ?’’

वह सकपका गई। फिर बोली- ‘‘मि. रॉबर्ट मैं आपकी एक मूर्ति बनाना चाहती हूँ।’’

रॉबर्ट हँस दिया।

‘‘क्या होगा मूर्ति का?’’ मुझमें ऐसी क्या विशेषता है कि मेरी मूर्ति बनाई जाए।’’

‘‘आप कलाकार हैं। आपके भीतर एक प्रेमभरा दिल धड़कता है। दूसरे कलाकार के लिए यह काफी है। और मैं इसे लंदन ले जाऊंगी। अपनी इंडिया यात्रा के यादगार स्वरूप।’’

वह फिर अकेला हो गया था। ऐनी ने महसूसा ।  तभी पर्दे की घंटियां टुनटुनायीं। फिर वही लड़का हाथ में ट्रे लिए खड़ा था, जो पिछली बार आया था। आज्ञा पाकर उसने फलों के रस का गिलास एनी के आगे बढ़ाया। उसने गिलास ले लिया और सोफे के पास रखी तिपाई पर रख दिया। बहुत देर लड़का खड़ा रहा। लेकिन रॉबर्ट ने गिलास की तरफ देखा भी नहीं। लड़का लगातार झुका रहा। ऐसा लगा कि रॉबर्ट सब कुछ भूल गया है और संभवत: वह अकेला बैठा है।

‘‘मि. रॉबर्ट।’’ एनी ने खड़े होते कहा-‘‘मैं शायद आपके आराम के समय आ गई माफ कीजिए। मैं कल आती हूँ। या आप जब कहें।’’

‘‘नहीं।’’ लौट आया था रॉबर्ट वर्तमान में।

‘‘बैठो। जूस पियो और बताओ कहाँ बैठना है, मेरी मूर्ति बनाने के लिए।’’

‘‘गार्डन ठीक रहेगा।’’ एनी एकदम खुश हो गई।

बाहर लॉन में चारों ओर ऊंचे-ऊंचे दरख्त थे। बेहद गुदगुदी घास पर नीले-काले-पीले रंग के कपड़े से बनी ऊंची छतरी लगी थी। उसके नीचे आराम कुर्सियां थीं। पीछे तगड़ की छोटी छोटी झाड़ियाँ थीं, जिनमें सफेद फूल मुस्कुरा रहे थे। लेकिन आरामकुर्सी पर बैठे रॉबर्ट के चेहरे पर कोई मुस्कुराहट नहीं थी। एनी ने अपने मोती के बैग से एक डिब्बे में भरी चिकनी सनी गीली मिट्टी निकालकर सामने टेबिल पर रख दी। रॉबर्ट आराम कुर्सी पर बैठकर एकटक एनी को देखता रहा। एनी वाकई सुंदर है।बहुत सुंदर....वह सोचता रहा। एनी ने रॉबर्ट की नजरों को अपने चेहरे पर महसूसा और फिर उसके गाल गुलाबी हो उठे। दोनों हाथों से उसने मिट्टी का गोल लौंदा बनाया। फिर रॉबर्ट के चेहरे को देखते हुए वह उस मिट्टी को आकार देने लगी- ‘‘कितना समय लगेगा?’’ रॉबर्ट ने पूछा।

वह झिझकी...‘‘क्या आप मुझे एक-डेढ़ घंटा दे सकते हैं?’’

‘‘श्योर।’’ रॉबर्ट ने ऊपर आसमान की ओर देखा।

‘‘बारिश नहीं आएगी, क्योंकि आसमान साफ है। बस कुछ पक्षी उड़ रहे हैं, नीले आकाश में।’’ मानो रॉबर्ट ने खुद से कहा।

‘‘सॉरी।’’

‘‘नहीं, कुछ नहीं। मैं अपने आप से बातें करता हूँ। मुझे अच्छा लगता है।’’

बहुत देर मिट्टी को चेहरे का आकार देते हुए जब एनी ने रॉबर्ट की ओर देखा तो वह तब भी आसमान की ओर देख रहा था।

‘‘आप चेहरा मेरे सामने कीजिए। अब मैं सिर्फ आपको देखना चाहती हूँ।’’

वह हँस दिया। चेहरा सामने किया और चेहरे पर मुस्कुराहट लाते हुए वह एनी को देखता रहा।

एनी मिट्टी को रूप देने में जुट गई। बीच बीच में पानी, जूस, कटे हुए फल, सिके हुए काजू-बादाम आदि प्लेट में आते रहें। दोनों ही ने कुछ नहीं खाया।

पीछे शायद रसोई थी। बावर्चियों की आवाजें आनी शुरू हो गयी थीं। जबसे रॉबर्ट फ्लावरड्यू को यहाँ लाया था, किचिन का रूप ही बदल गया था। अब 2-3 बावर्ची काम करने लगे थे। रसोई से अदरक, प्याज, लहसून के काटे जाने और पीसे जाने की खुशगवार खुश्बू उसके नथुनों में भरने लगी थी। तभी एक मुर्गा जोर से चिल्लाया और फिर शांति छा गई। मुर्गा कट चुका था और उसके माँस के टुकड़े किए जाने की आवाज बाहर तक आ रही थी। मि. रॉबर्ट शायद अकेले ही हैं। कोई तो नहीं दिखता आसपास। डैडी बता रहे थे उनकी वाइफ लंदन में ही है। शायद 1-2 बच्चे भी हैं।

कैसी होगी उनकी वाइफ वह सोचने लगी।

एक व्यक्ति का खाना और इतने व्यंजन?

अब मछलियों के छिलके साफ करने की आवाज आने लगी थी। वह इन आवाजों को अच्छे से पहचानती थी क्योंकि सैनिक छावनी में रसोई घर के पास ही वह अपने पिता के साथ रहती थी। उसकी माँ कैसी होंगी? शायद... बीमार... प्रतीक्षारत। कि कब एनी आएगी। भाई तो बदमाश है... सुबह का निकला रात को घर लौटता है। ताकि माँ के लिए कुछ करना न पड़े। लेकिन उसे इंडिया आना ही था। देखना था यहाँ कैसे रहते हैं लोग? डैडी बताते थे यहाँ हाउस बर्ड (गौरेया चिड़िया) को भी आदमी लोग सड़क के किनारे नचाते हैं। वह लकड़ी के बने तरह-तरह के शेप के मंडप पर फुदकती हैं और एक-एक पैर उठाकर नाचती है। बीड़ी और माचिस की तीली उस आदमी को उठाकर देती है। यहाँ डमरू पर बंदर नाचते हैं। बंदरिया रूठती हैं। फिर बंदर को सजा दी जाती है।

जादू जैसा देश है। उसे देखना ही था। यहाँ के जंगल, नदियां, झरने और यहाँ के नग्न साधु, सारे शरीर में राख लपेटे अपनी इन्द्रियों पर काबू किए हुए... कितना आश्चर्यजनक है सब कुछ। उसके डैडी पता नहीं क्या-क्या बताते हैं।

भगवान कितने धर्म हैं, कितनी अलग-अलग आस्थाएं, विश्वास हैं। और यहाँ सांपों के भी मंदिर हैं। एक खास दिन सांपों की पूजा होती है। कैसे इतना बड़ा देश निरंतर गुलामी में जकड़ा जा रहा है। वह भी इतनी दूर देश की गुलामी में जहाँ से यहाँ पहुंचने में महीनों लग जाता है। बहुत सारे सवाल थे, जिनका उत्तर वह क्रमश: खोज ही रही थी।

उस दिन जब उसने सुबह समुद्र तट पर मि. रॉबर्ट गिल को देखा तो लगा था कुछ तो है इस इन्सान में, जो अपनी ओर आकर्षित करता है। क्या उनकी आँखों में एक अज्ञात निमंत्रण था या सम्पूर्ण व्यक्तित्व में ऐसा अनोखा आकर्षण कि वह बिंधी चली आई थी। और आज ऐसे गंभीर सेना के उच्च अधिकारी के सम्मुख बैठकर वह उसके चेहरे को मिट्टी से रूप-आकार दे रही थी।

आसमान अब भी नीला था। छतरी से धूप सरककर घनी झाड़ियों पर पसरी पड़ी थी। जब बारिश के बाद आसमान साफ हो जाता है तो गर्मी लगती है। लेकिन यहाँ जरा भी गर्मी नहीं थी। बीच बीच में ठंड़ी हवा के झोंके लॉन में लगे पेड़ों की डालियों को झुका देते थे। फिर हवा स्थिर हो जाती थी, मानो पेड़ किसी शाप से स्थिर हो गए हो।

अभी कैसा होगा ग्रेट ब्रिटेन का मौसम? उसे अपने देश पर गर्व हो आया। अपने ही देश के कारण आज वह यहाँ इतनी इज्जत पा रही है... क्या माँ बाहर बैठी होगी या अपने बिस्तर पर होगी। कितने बरस हो गए उसके पिता को यहाँ रहते हुए। वह फौज में नहीं आना चाहते थे। लेकिन उन्हें आना पड़ा। पहले वह बर्मा में रहे। फिर इंडिया भेज दिए गए। चाहकर भी फौज की नौकरी छोड़ने की इजाजत नहीं है। बहुत सारी सख्तियां है, जिन्हें मानना पड़ता है।

‘‘.मि. रॉबर्ट, क्या आपने अपनी मर्जी से फौज में आना स्वीकार किया?’’ एनी के हाथ मिट्टी में सने थे और अभी वह चेहरे को चिकना कर रही थी। उसकी ऊंगलियां गालों पर थीं। हल्की उगी दाढ़ी को उसने नजरअंदाज करते हुए चेहरा दाढ़ीविहीन बनाया था।

रॉबर्ट ने उसके पूछने का कोई उत्तर नहीं दिया। शायद सेना के नियमों का मामला था, जो उसने कठोरता ओढ़ी हुई थी। कहीं कुछ न कुछ पद की अहमियत तो होती ही है जो स्वभाव को उसके अनुरूप बना देती है।

पेड़ अब भी हरे थे। क्योंकि अब आसमान साफ नहीं था। बादलों के काले सफेद टुकड़े आसमान पर तैरते नजर आ रहे थे। थोड़ी-सी धूप छुपती है तो पेड़ काले नजर आते हैं, लेकिन पेड़ हरे थे।

रॉबर्ट ने एक पैर दूसरे पैर पर रख दिया। उसने मिट्टी के चेहरे को सामने टेबिल पर रख दिया। और लॉन पर घुटनों के बल बैठ गई। सामने झुकी तो फ्रॉक का वी शेप का गला झूल गया। और अंदर से संगमरमरी स्तन झाँकने लगे। ध्यान तब गया जब उसने रॉबर्ट की नाक को आकार देने के लिए उस ओर देखा जिसकी आँखें अपलक उसके उघड़े शरीर को निहार रही थीं। वह अचकचा गई और उठकर पीछे रखी कुर्सी पर बैठ गई।

करीब दो घंटे की अथक मेहनत के बाद रॉबर्ट का मूर्तिमय चेहरा टेबिल पर रखकर वह मुस्कुरायी। उसने रॉबर्ट की ओर देखा, जिसकी आँखों में सागर के अनेक रहस्य छुपे से महसूस हुए। भूरी आँखों में ऐसा क्या था? एनी की नीली आँखों ने झाँका। क्या प्रेम... या एक प्रेम भरे हृदय की याचना? मद्रास के समुद्र तट से समुद्र की ओर देखते हुए सागर की गहराई को देखते हुए कुछ हरा या भूरापन...

’’’

दूसरे दिन सुबह मौसम एकदम साफ था। फिटन में पीछे चित्रकारी का सामान रख दिया गया था। रॉबर्ट ने अपने एक घोड़े की गाड़ी ली थी। जो पूरी खुली हुई थी। दोनों बैटमेन समुद्र तट के लिए निकल कर जा चुके थे। ड्राइवर ने गाड़ी मोड़ी और उतरकर खड़ा हो गया। रॉबर्ट गाड़ी में बैठा और गाड़ी चल पड़ी। हवा में धूप की गहराई नहीं आ पाई थी। क्योंकि क्षितिज में सूर्य की लालिमा थी। लगभग सारे ब्रिटिशर सुबह की सैर को समुद्र किनारे निकल जाते थे। या गाड़ी से जाते थे। और फिर समुद्र किनारे घूमते थे।

फिटन के पहुंचते ही बैटमेन ने चित्रकारी का सामान उतारा। कैनवस पर पेपर लगा दिया गया। तैलीय रंगों को लेकर एक बैटमेन कैनवस के पास खड़ा हो गया। दूसरा लकड़ी के स्टैण्ड को पकड़ा रहा। ताकि कैनवस न हिले और न ही तेज हवा में गिरे। रॉबर्ट लंबे पंप शू पहने था। वह समुद्र किनारे रेत का गुबार उठाता टहल रहा था। आज उसके घूमने में अनोखी चंचलता थी। इसीलिए रेत का गुबार उसके टेढ़े-मेढ़े कदमों से उठ रहा था। दूर-दूर तक एनी दिखाई नहीं दे रही थी। उसकी आँखें उसे खोज रही थीं।

तभी एक घोड़ा पास से गुजरा... अरे! वह चौंक पड़ा। क्या यह एनी है। लेकिन वह लड़की एनी नहीं थी। बल्कि बिलकुल वैसी ही कोई दुबली पतली लड़की थी। उसने ढेर सारे पॉकेट वाला नीला ट्राऊजर पहने हुआ था। उस पर सफेद शर्ट और बालों में नीला स्कार्फ पहने हुए था।

उसने एनी समझकर आवाज लगाई थी-‘‘एनी... सॉरी, मैं समझा।’’

‘‘कोई बात नहीं हैंडसम... मैं घोड़े पर सैर करती हूँ रोज ही। शायद आपने कभी इस ओर ध्यान ही नहीं दिया। वह घोड़े से नीचे उतरने लगी। ... आप इस पर बैठिए, बहुत मजा आएगा...।’’

‘‘नहीं सॉरी, मैं नए घोड़े पर नहीं बैठता। मैं इसे जानता तक नहीं।’’ रॉबर्ट ने कहा।

‘‘लेकिन यह आपको जानता है। हम ब्रिटिशर हैं। बस इतना ही इस घोड़े के लिए काफी है।’’ वह अहम से बोली।

वह हँसने लगा- ‘‘ठीक है आप घूमिए।’’ शायद यह किसी कैप्टन या मेजर की बेटी होगी। उसने सोचा। वह बोली- ‘‘मेरा नाम मीना है। हम पैदल ही चलते हैं मि. रॉबर्ट।’’

‘‘नहीं, मैं ड्राइंग बनाऊंगा। मुझे किसी का इंतजार है। लेकिन आप मुझे कैसे जानती हैं?’’ उसने पूछा।

‘‘ड्रॉइंग बनाने वाले आप अकेले ही हैं इस तटपर। मैं ही क्या, सभी आपको जानते हैं।’’

वह मुस्कुरा दिया।

‘‘मि. रॉबर्ट मेरी मदर ने मेरा नाम मीना रखा। इंडियन्स भी यह नाम रखते हैं। मॉम यहाँ बरसों से हैं न इसलिए शायद।’’ वह फिर मुस्कुराया। और मीना की और विमुख होता हुआ उधर बढ़ गया। सामने से एनी आती दिखाई दी। वह सुनहले भूरे रंग का लंबा फ्रॉक पहनी थी, भूरे रंग का टॉप और गले में बड़े-बड़े मोतियों की गाढ़े भूरे रंग की माला। उसने शूज उतारकर हाथों में ले लिए थे। वह रेत पर लगभग दौड़ती हुई आ रही थी।

लड़की बुदबुदायी-‘‘शायद आपका इंतजार खत्म हुआ।’’

वह घोड़े पर चढ़ी और दूर निकल गई।

वह भी भागता हुआ एनी के पास पहुंच गया। दोनों आमने-सामने थे और हाँफ रहे थे।

इतनी देर क्यों हुई आज? क्या रोज यहाँ नहीं आती तुम? आकाश से लालिमा गायब हो चुकी थी। सुनहरी मध्यम धूप एनी के कपड़ों को और सुनहरा बना रही थी।

‘‘ऐसा लगता है जैसे धूप तट पर तुम्हारे लिए आई हो।’’ उसने एनी के दोनों कंधे पकड़ लिए।

एनी के गाल आरक्त हो उठे। उसके एक हाथ में शूज थे। होठों के ऊपर हल्का पसीना था। वह विस्फारित नेत्रों से उसे देखे जा रही थी।

‘‘गुड मार्निंग  मिस्टर रॉबर्ट।’’

‘‘ओह मार्निंग। देखो आज मैं तुम्हारा स्कैच बनाऊंगा। ...चलो जल्दी।’’ उसने एनी का हाथ पकड़ लिया। और कैनवस के पास ले जाने लगा। उसने एनी को ऐसी जगह खड़ा किया जहाँ से उसके ऊपर धूप न आए। केवल बालों पर धूप पड़ रही थी, जिससे वे और ज्Þयादा चमकीले दिख रहे थे। एनी ने कुछ बोलना चाहा तो रॉबर्ट ने चुप रहने का इशारा किया। कैनवस के पास खड़े लड़के ने रॉबर्ट को एक मोटी-सी पेन्सिल थमाई। चित्र बनने लगा। नाक, आँखें, होठ, गाल, माथा, सिर पर हैट और हैट से निकले बाल। कुछ समय बाद कैनवस पर हूबहू एनी खड़ी थी।

‘‘आओ, देखो।’’ उसने कहा।

कल चिकनी मिट्टी से रॉबर्ट का चेहरा उकेरते हुए उसने सोचा भी नहीं था कि चेहरे की इन बारीक रेखाओं में एक प्रेम भरा हृदय धड़कता है।

मि. रॉबर्ट, यह तो एकदम मैं हूँ।’’ चित्र देखकर एनी हतप्रभ थी। वह हँस दिया। कहा- ‘‘अब इसमें मैं रंग भरूंगा लेकिन बंगले पर जाकर।’’

बैटमेन रंग, कूची, पेन्सिल, कैनवस समेट रहे थे। केनवास पर लगे पेपर को रोल करके वे हाथ में लेकर चलने लगे। वे अपने साहब के मिजाज से इतना परिचित थे कि बिना कहे ही सब समझ जाते थे।

एनी ने हैट को आगे खींचा। रॉबर्ट ने उसका हाथ पकड़ लिया। एनी की हथेलियां पसीने से गीली थीं। न जाने कैसी घबराहट से एनी का हृदय धड़क रहा था। दूर समुद्र में नौकाएं एकदम काली दिख रही थीं। समुद्र का पानी और उसकी लहरें सोने-चांदी जैसी चमचमा रही थीं। आकाश एकदम साफ था। नीले आकाश पर और बहुत ऊंचाई पर चीलें उड़ रही थीं।

आज सुबह से ही बारिश हो रही थी। खूब झमाझम नहीं किन्तु इतनी तो थी ही कि अपने घोड़ा गाड़ी में रॉबर्ट बिल्कुल भीग जाता। उसने बरामदे में ही कैनवस रखवा लिया था, एकदम दीवार से चिपकाकर क्योंकि अल्हड़ हवाएं आधा बरामदा भिगो रही थीं। कैनवस पर एनी का पोट्रेट था। उसने एक ऊंचे स्टूल पर तैलीय रंगों को रखवा लिया था। वह एकटक एनी के चित्र को देखता रहा। उसने अपनी हथेलियों में एनी की हथेलियों को महसूस किया। जो पसीने से चिपचिपा रही थीं।

अचानक ही लीसा उसके सामने आकर बैठ गई थीं। घबराहट में उसकी हथेलियाँ भी ऐसे ही पसीज उठती थीं। उसे याद है जब चर्च के समक्ष पत्थर पर बैठी लीसा की बालों की बँधी पोनी को उसने खोल दिया था और उसके बालों को उसके कंधों पर छितरा दिया था, तब भी लीसा ठंड़क में भी पसीने से नहा उठी थी। लीसा कहती थी ब्रिटेन में सालभर चारों मौसम चलते रहते हैं। कभी ठंड और बर्फ, कभी गर्मी और बारिश तो चाहें जब... उसे पतझड़ का मौसम पसंद नहीं था। लेकिन सूखे गिरे पत्तों पर चलना पसंद था। पेड़ पर उगे नए पत्तों को वह मुग्ध होकर देखा करती थी।

एनी का चित्र देखते हुए वह लीसा के लिए अपराध बोध से भर उठा। जब वह इंग्लैंड से यहाँ आया था तो अनिच्छा से ही सही, लेकिन वह जानता था कि यहाँ आने का मतलब एक दुनिया को छोड़कर दूसरी दुनिया में जाना नहीं था। बल्कि इसी को अपनी दुनिया बनाना था। इच्छा से ही उसने इस परिवर्तन को अपनाया था। बाद में फ्लावरड्यू की अनिच्छा बीच-बीच में उसकी भी अनिच्छा बनती जा रही थी। वह चाहकर भी वापस नहीं जा सकता था। और, अब वह इस अपनी दुनिया में अपनों को दुबारा पाने का प्रयत्न भर था।

एनी ने उसके सोए हुए तारों को झिंझोड़ा था। पत्नी फ्लावरड्यू वापिस लंदन लौट गई थी। और वह यहाँ निपट अकेला रह गया था। क्या वह प्रेम चाहता था या केवल संग साथ या एनी का शरीर। शायद यह सब कुछ...। एनी ने अचानक उसकी ज़िंदगी में प्रवेश किया था और उसके सपनों को इंद्रधनुषी रंग दिए थे। क्यों वह काले, भूरे रंग में ही सिमट रहा था। उसकी ज़िंदगी में कुछ भी स्थायित्व प्राप्त नहीं कर रहा था। वह किसी की साथ की चाहत से समूचा भीग उठा। ब्रश उठाया और एनी के चित्र को वह रंगों से नहलाने लगा। एनी को सजाते हुए उसके माथे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा उठीं।

रेखा चित्र तैल रंगों से पूरा होकर एक समूची एनी के रूप में कैनवस पर चमक रहा था। वह थक कर वापिस कुर्सी पर बैठ गया। बरामदे में बैठा हुआ वह बारिश की बौछारों को सामने लगे युकिलिप्टस के पेड़ों पर पड़ती देखता रहा। जिसके सफेद पींड़ और तने बिलकुल एनी की टांगों की तरह पतले-पतले और चिकने थे। वह एनी को संपूर्ण पाने के लिए बेताब हो उठा। उसने कब एनी को इस तरह देखा था याद नहीं। कभी वह इन बातों में पड़ा ही नहीं। जो सामने आता गया यदि स्वीकार योग्य था तो वह स्वीकार करता गया। लेकिन अब तक की ज़िंदगी में उसने लीसा को टूट कर प्यार किया था। फ्लावरड्यू के मदार्ना स्वभाव को उसका अहं स्वीकार नहीं कर पाता था।

यहाँ से क्या उसकी वापिसी होगी या यहाँ ही मृत्यु निश्चित है। कितनी बार उसने इस बात को सोचा है।

मेरी ज़िंदगी का एक मौन और शांत पहिया सदैव मेरे चारों ओर घूमता रहता है। जहाँ पत्नी से वैचारिक मतभेद हैं। लेकिन उससे जुड़े रहना एक गंभीर ‘सत्य’ है। क्योंकि वह मेरे बच्चों की माँ है। वह कर्कशा है, कड़वा बोलती है। जबकि वह अधिकतर शांत ही रहता है। प्रेम से भरा लेकिन क्या जैसा वह चाहता था पत्नी उसे दे पाई। उससे प्रेम मिल पाया?

अचानक ही एक अल्हड़ हवा के झोंके ने उसके चेहरे पर ठंडे पानी की बौछार करा दी। वह मुस्कुरा उठा। जहाँ चाहतों पर लगाम नहीं, वहाँ हवा पर कैसे लगाम लगाई जा सकती है। उसका अपना घोड़ा ‘टाइगर’ तो नहीं जो उसके हर स्पर्श को पहचानता हो। उसे दु:खी देखकर सिर नीचे डाल देता हो। मानो वह कोई जानवर नहीं, बल्कि उसका ऐसा कोई प्रिय हो, जिससे जन्मों का नाता हो।

जब जर्मनी से घोड़ों का पूरा काफिला लाया गया था तो उसने यह छोटा बच्चा घोड़ा अपने लिए चुन लिया था। काले चमकीले बालों वाला। बंगले के पीछे ढलान पर उसका अस्तबल था। जहाँ दो घोड़े और थे और वे भी उतने ही प्रिय हैं जितना यह बच्चा घोड़ा टाईगर। दूसरा घोड़ा गाढ़े कत्थई रंग का था, जिसका नाम फेन्टम और बाद में आए सफेद घोड़े का नाम रखा गया था चेन्डोबा।

दो कुत्ते थे। जॉनी जो इंडियन नस्ल का था। और फ्रेंकी जो फ्लावरड्यू की फीमेल डॉग थी। और उसकी शादी के पश्चात उन दोनों के साथ इंडिया आई थी।

सच तो यह था कि फ्रेंकी ने उसे आने ही नहीं दिया था। जैसे इन दोनों के साथ चलने की उसने जिद ही कर ली थी। समुद्री सफर लंबा था। नया-नया विवाह और पत्नी साथ थी। फिर भी वह फ्रेंकी के कई रेखाचित्र बना चुका था और डेक पर ढेर सारी तस्वीरें भी ले चुका था। फ्लावरड्यू उसे अपने अब तक के जीवन की ढेरों बातें बताती थी। वह चुप सुनता रहता था और जब वह चुप हो जाती तो दूर कहीं ब्रह्मांड में मानो कुछ ढूंढ़ने लगता।

यह खूबसूरत फ्लॉवर ड्यू मुझे कुछ रुखी, बदमिजाज-सी लगी। कितनी उम्र होगी फ्लॉवर ड्यू की... इस  समय शायद महज बीस-इक्कीस वर्ष या अधिक ही। उसे तो वह काफी बड़ी ही लगी थी। तनहा लेकिन प्रेम से भरा, छोटे-छोटे जोक्स (मजाक) में डूबा रॉबर्ट जानता ही नहीं था कि यह स्त्री उसकी पत्नी बनेगी और वह समूचा उस स्त्री के उस समाज में उसके ऐश्वर्यशाली वैभव और उसके (डॉमिनेंटिंग) प्रभुत्व स्वभाव तले कुचल ही जाएगा। जब फ्लावरड्यू की दादी, दादाजी और उसकी माँ रॉबर्ट को अपने वैभवशाली बैठक में लेकर गए तो वह चमत्कृत होने के बजाय एक उदासी से घिर गया था। उसके अच्छे स्वभाव के कारण नेक इंसान चर्च के फादर ने फ्लावरड्यू के परिवार से उसकी प्रशंसा की थी। वह आर्मी में था और संपूर्ण व्यक्तित्व उसका आकर्षक और संवेदना से भरा हुआ था। लेकिन वह इंकार कर नहीं सकता था क्योंकि इस रिश्ते में चर्च के फादर बीच में थे, जो उसके लिए पितातुल्य थे। फ्लावरड्यू काफी देर उसकी तरफ देखती रही थी। एक लंबी काली फ्रॉक, पफ वाली बांहे वी शेप का कॉलर वाला गला जहाँ उसकी काली चोली से सफेद स्तनों का उभार झाँक रहा था। हीरे-मोती से जड़ा कंगन जो उसके सफेद पतले हाथों में चमक रहा था। वैसे ही कान के टॉप्स और घुंघराले कत्थई बालों को एक पोनी में कसी वह किसी राजकुमारी से कम तो नहीं थी। लेकिन उसे वह किसी स्कूल की सख्त टीचर जैसी लगी थी। न वह मुस्कुराई, न उसने कोई अभिवादन ही किया। माँ के कहने से अनिच्छा से ‘हलो’ कहा।

और उसी शाम संभ्रात लोगों की उपस्थिति में उन दोनों की सगाई हो गई। सगाई के समय वह तो अपनी उसी पोशाक में था, जिसे पहनकर वह आया था लेकिन फ्लावरड्यू ने बारीक कपड़े की फ्रिल वाली नीली लंबी फ्रॉक पहने थी और उसी तरह के जेवरात से वह सजी थी। सिर पर फ्रॉक से मिलता-जुलता हैट था। जिसमें से उसके बाल इधर-उधर निकल कर बिखरे हुए थे।

दादा-दादी ने रॉयल परिवार की तरह सुनहरे और सफेद कपड़े पहने हुए थे। दादी के कानों में हीरे की टॉप्स चमचमा रहे थे। हाथों में कड़े और हीरे का खूबसूरत हार उनके बदन पर उनकी समृद्धि की दास्तान बयां कर रहे थे। दादा जी ने लंबा कोट सफेद-सुनहरा रंग का पहना था, जिसमें हीरे के बटन थे और पॉकिट से चेन में लटकी घड़ी जिसका रेडियम चमचमा रहा था।

फ्लावरड्यू के पिता की अनुपस्थिति में और फ्लावरड्यू के दोनों छोटे भाईयों की भी अनुपस्थिति में बहुत हँसमुख स्वभाव की उसकी माँ ने उन दोनों की सगाई करवाई थी। उसे तो मौका ही नहीं मिला कि वह फ्लावरड्यू के लिए कोई गिफ्ट ला पाता और टैरेन्स भी नहीं आ पाया था। रॉबर्ट की तरफ की अंगूठी भी उन्हीं ने मंगवाई थी। सगाई के बाद मधुर संगीत और वाद्यों की धुनों के बीच सभी ने नृत्य किया था। बहुत अनिच्छा से रॉबर्ट फ्लावरड्यू के साथ नृत्य कर पाया था क्योंकि नृत्य आदि में उसकी कोई रुचि ही नहीं थी। उन संभ्रांत आमंत्रित मेहमानों के बीच उसने अपने आपको बेहद अकेला महसूस किया था। लेकिन, नृत्य के बीच उसने फ्लावरड्यू की गरम सांसों को अपने सीने पर महसूस किया था। वह दूसरे दिन ही सेन्टल्यूक चेलसिया से लंदन लौट गया था।

फादर रॉडरिक ने मुस्कुराकर उसका स्वागत किया था। लेकिन न ही उन्होंने उससे कुछ पूछा और न ही उसने कुछ बताया था। संभवत: सारी खबर उन्हें उसके पहुंचने के पूर्व ही मिल चुकी थी। लौटकर वह अपने चित्रों में रम गया था। मानो सगाई एक ‘घटना’ थी, जो उसकी ज़िंदगी में आकर गुजर चुकी थी। लगा था उस संभ्रांत घराने के लिए वह बना ही नहीं था। लंदन में भी रिकरवाय घराने को सभी जानते थे क्योंकि वह एक अमीर घराना माना जाता था। उसकी साँसें सेन्ट ल्यूक चेलसिया में घुट रही थीं। उसके भीतर एक युवा दिल था जो फ्लावरड्यू की गरम सांसों में बहुत तेज धड़का था। क्या था जो गरम सांसों और तेज धड़कन के बीच भी उसे पसंद नहीं आ रहा था। वह ऐसी सामंती दुनिया से बहुत दूर था इसलिए लंदन आकर वह खुल कर सांस ले सका था।

उसने चाहा भी था और सुन रहा था कि वह शीघ्र ही इंडिया भेजा जाएगा। उसके बहुत से साथी इंडिया जा भी चुके थे। सभी यही समझते और मानते थे कि इंडिया पिछड़ा देश है, फिर भी उसे जाना ही था। उसके कैनवस, रंग, ब्रश को इंडिया पुकार रहा था। उसने यह भी सुना था कि वहाँ की औरतें कमर पर लंबा कपड़ा बाँधती है, जिसे साड़ी कहते हैं और ऊपर स्तन खुले होते हैं। ओह...

लेकिन बत्तीस वर्षीय रॉबर्ट गिल की किस्मत के खाली पन्ने लिखे जा चुके थे।

फ्लावरड्यू से विवाह के नाम पर उसके सेना के साथी उसे छेड़ते थे। इतना अमीर आधुनिक सामंती खानदान। क्या करोगे रॉबर्ट इंडिया जाकर। यहीं मजे करो।