Robert Gill ki Paro - 6 books and stories free download online pdf in Hindi

रॉबर्ट गिल की पारो - 6

भाग 6

‘‘रात्रि भोजन कर लें।’’ लीसा ने बातचीत में व्यवधान डाला। दोनों सहर्ष तैयार हो गए. मि. ब्रोनी ने कुछ ज्Þयादा ही पी ली थी। वे भूखे भी हो रहे थे और उनींदे भी।

तीनों ने खाना खाया। मि. ब्रोनी उठकर सोने चले गए। लीसा रॉबर्ट को छोड़ने बंगलो के सामने की ओर आई। रॉबर्ट ने लीसा को लिपटा लिया। घने पेड़ की फुनगी पर कोई पक्षी चिल्लाया तो डर से लीसा रॉबर्ट से और भी लिपट गई। वह पुन: लीसा को छोड़ने रुम की ओर आया तो देखा मि. ब्रोनी गहरी नींद में हैं।

‘‘चलो हम यही करते हैं। तुम मुझे मेरे कमरे तक छोड़ो फिर मैं तुम्हें तुम्हारे कमरे तक, है न?’’ लीसा ने कहा।

दोनों हँसने लगे। रॉबर्ट को लगा टैरेन्स के परिवार की कहानी का अंत हो गया है।

वह अपने बिस्तर पर लेट गया। पुस्तकों की अलमारी पर एक बड़ा जाला लटक रहा था। कल या परसों यह नाट्य मंडली चली जाएगी। वह एकटक जाले को देखता हुआ सोचता रहा। वह भी अकेला यहाँ क्या करेगा। लीसा के बगैर यह बंगलो एकदम सूना हो जाएगा। जैसे अगाथा के बगैर यह तब सूना हुआ होगा।

टैरेन्स ने बताया था कि उसकी दादी अपनी माँ के घर रहती है। पिता ने उसे सैनिक स्कूल में भर्ती करवा दिया था। जहाँ उसके पिता ने कभी आकर उसका हालचाल नहीं पूछा। पहले तो वह स्कूल की छुट्टियों में ननिहाल जाता रहा। बाद में उसने कहीं भी जाने से इनकार कर दिया था। माँ जीवित नहीं हैं। दादी बहुत बूढ़ी हो चुकी हैं। मोटी काँच का चश्मा पहने रहती हैं और स्टिक लेकर चलती हैं। डैड के नाना - नानी नहीं हैं। किम उससे मिलने आते हैं, बल्कि आते थे यह कहेंगे। वह स्कूल के दिन थे, तब आते थे। सुना था व्यापार के सिलसिले में वह अक्सर बाहर रहते हैं। अर्जेन्टिना ज्Þयादा जाते हैं। लेकिन, अपनी मौसी जीनिया के बारे में टैरेन्स ने कभी कुछ नहीं बताया। रॉबर्ट को तो यह कहानी अभी पता चली। जबकि रॉबर्ट का कुछ भी टैरेन्स से छुपा नहीं था। टैरेन्स जितना बताता था, वहीं उसे पता था। उसे यह भी नहीं मालूम कि उसकी कोई मौसी भी है, जिसने उसकी माँ की ज़िंदगी झिंझोड़ कर रख दी है।

कभी टैरेन्स कुछ बताता भी तो ऐसा लगता जैसे बताते बताते कहीं खो गया हो। शायद मैं उसके सामने ही नहीं हूँ, या वह स्वयं वहाँ है ही नहीं। वह माँ की नोटबुक (डायरी) हाथ में लिए रहता। कहीं किन्हीं पन्नों के बीच में उंगली फंसी रहती। फंसी उंगलियों के बीच में वह देखता रहता, कभी नजरें उठाता तो रॉबर्ट समझ नहीं पाता कि यह उसके चेहरे के सुख-दु:ख का मिला-जुला भाव है या एक चमक जो उदासी में परिवर्तित हो जाती। वह इस चमक, उदासी को टैरेन्स के चेहरे पर महसूसता। मानों उसने सैकड़ों बार पढ़ी डायरी के उन पृष्ठों पर कुछ पा लिया हो अथवा एक ऐसी उदासी मानो उसमें छुपे किसी खजाने को उसने खो दिया है।

अब इन दिनों उसे टैरेन्स के उन रहस्यों की जानकारी मिल गई है तो क्या वह कभी टैरेन्स को यह सब बता पाएगा। या बताना उचित रहेगा? और अगर नहीं बता पाएगा तो उसने यह सब जाना ही क्यों? अपने अभिन्न  मित्र, उसके बचपन का मित्र, उसके सैनिक जीवन का मित्र , जिसकी उदासियां उसे विचलित कर देती हैं। यह सारी बातें उससे छुपा पाएगा ?

लेटे-लेटे वह अचानक उठा और अलमारी पर लगा जाला उसने साफ कर दिया। वह अलमारी के पीछे झाँकने लगा। उजाला सिर्फ वहीं था जहाँ लैम्प जल रहा था। बाकी जगह काला और उदास अंधेरा फैला हुआ था। बाहर इतनी रात को भी फिर कोई पक्षी चीख रहा था। मानो कोई उससे ताकतवर जीव उसकी ओर बढ़ रहा हो।

उसने झटके से अलमारी खोल दी। टैरेन्स की मंगवाई किताबों को वह पहले ही छांट चुका था।  ...अब वह झाँककर उन किताबों के बीच देखना चाहता था कि शायद उसे कुछ और मिले... वे एक जोड़ी गरीब आँखें जो प्रेम चाहती थीं... सुख चाहती थीं। एक रहस्य... एक ऐसा रहस्य जो मि. ब्रोनी भी नहीं जानते हो। एक अजीब सी गंध ने उसे समूचा घेर लिया... वही गंध जो तब आई थी, जब यहाँ वह टैरेन्स के साथ था। एक मृत्यु गंध... एक लंबी सुरंग से आती हुई... और गंधों से एकदम अलग। वह उस गध में समूचा डूब गया। एक गहरी उदासी ने उसे घेर लिया। यह एक मृत्यु गंध की उदासी थी। या लीसा के प्रति अनोखी चाहत कि वह उसे पा नहीं सकता... कि वह फ्लावरड्यू का है। यहाँ यह ‘अनोखी चाहत’ ने उसे उधासी में पोर-पोर डुबो दिया था। वह जानता था कि वह कल या परसों फिर फ्लावरड्यू के पास होगा। लीसा नहीं होगी। वह फिर एक प्रेम भरी दुनिया से निकलकर जादुई दुनिया में पहुंचा दिया जाएगा। फिर क्या वह लीसा को याद रख पाएगा?

विचारों को उसने झटक दिया था। लैम्प वाले टेबिल को वह अलमारी के पास तक खिसका लाया। उसने किताबें निकालीं बिल्कुल यों ही, सिलसिलेवार नहीं। कोई भी किताब बाहर खींच ली। एक लाल पोटलीनुमा बैग भी खिसक आया। वह सचमुच हैरत में पड़ गया। उसे उन किताबों के बीच में ऐसे कागज (पन्ने) मिले जिन पर कुछ न कुछ लिखा था। अगाथा का दर्द, किम कूरियन के लिए प्रेम का समर्पित भाव... छोटी-छोटी पर्चियाँ ... मानो पढ़ते-पढ़ते अगाथा ने कुछ कहना चाहा हो उससे। कितनी कीमती थीं ये पर्चियाँ । वह इन्हें इकट्ठा करने लगा। क्या वह टैरेन्स की धरोहर थीं... या टैरेन्स को पता ही नहीं था। उसने लगभग भागते हुए दूसरे टेबिल पर जाकर उन किताबों को खंगाला, जिन्हें टैरेन्स ने मंगवाया था। लेकिन उन किताबों में कुछ नहीं था। पढ़ते-पढ़ते बीच में रुकने का टैग भी नहीं। अर्थात किस प्रेरणा से वह उठ बैठा था। और इन किताबों को ढूंढ़ने लगा था। उसे महसूस हुआ कि कोई अन्य है जो उसे कुछ बताना चाहता हो। कभी-कभी कैसा होता है कि अपनों को छोड़कर कोई और माध्यम बन जाता है कि तुम अपने को उसके सामने व्यक्त कर सको। वह पर्चियाँ इकट्ठा करता रहा।

यह कैसी ‘मृत्यु’ थी। जाने न जाने की कशमकश के बीच की मृत्यु। मानो अगाथा का जाना तय था। लेकिन वह जाना नहीं चाहती थी। क्या हुआ था अगाथा को? उसे जानना ही है मि. ब्रोनी से और वह यहाँ नहीं तो लंदन में सुनेगा पूरी कहानी।

उसने सारी पर्चियाँ इकट्ठा कर लीं। किताबों को वह वैसी जमा पाया या नहीं। लेकिन अलमारी को उसने खंगाल तो दिया ही था।

कल जब लीसा चली जाएगी तो वह इन पर्चियों को पढ़ेगा। ताकि लीसा के जाने को वह सहन कर सकें। क्योंकि परसों सुबह उसे फ्लावरड्यू के पास पहुंचना है।

शायद यह सच है कि एक ही दिन में कितना कुछ बदल जाता है। कुछ दिन, कुछ घंटे, कुछ मिनिट ही समूची ज़िंदगी को बदल डालते हैं। बल्कि यह हमारी पूरी ज़िंदगी को प्रभावित करते हैं। ऐसी ही थी अभी तक अगाथा की ज़िंदगी। कितनी छोटी-छोटी घटनाएं थीं। मामूली उथल-पुथल ने एक बड़ा रूप ले लिया था। मि. जॉन कुछ भी करता वह क्षम्य था। लेकिन अगाथा की ज़िंदगी में कुछ भी क्षम्य नहीं था। लेकिन रॉबर्ट के लिए सब कुछ नए अर्थों से भरा था। उसे देखने का महज एक तरीका जो मि. ब्रोनी के शब्दों में परत-दर-परत खुल रहा था।

उनके अनुसार अगाथा ने धीरे-धीरे समय के साथ अपने आपको पीछे खींच लिया था।

सोचो तो कितना अजीब लगता है कि अगाथा मर चुकी हैं। और इस घर से बाहर हो चुकी हैं। क्या वह सचमुच इस घर से बाहर ले जाई गई हैं या वापिस यहाँ की दीवारों में, यहाँ की अलमारियों में पुन: लौट आई हैं। एक गंध के साथ जो वहाँ पर महसूस की जा सकती है।

’’’

सुबह-सुबह सूरज की किरणें चीड़ से छनकर उस बंगलो के खुले दरवाजे पर अटकी खड़ी थीं। नींद खुली तो देखा लीसा दरवाजे पर है। उसके कत्थई (डार्क ब्राउन) बालों पर सूरज की सुनहली किरणें उसके चेहरे को बेपनाह खूबसूरत बना रही थीं। रॉबर्ट छटपटाकर उठकर बैठ गया। वह चाहता था कि यह क्षण दरवाजे की चौखट पर यूं ही फ्रेम में जड़ी तस्वीर-सा स्थिर हो जाए। वह ऐसे ही लीसा को देखता रहे। लेकिन लीसा अंदर आ गई। उसने रॉबर्ट की आँखों में अपने लिए बेतरह प्रेम देखा। उसने आँखें मूंद लीं। रॉबर्ट ने लीसा का हाथ पकड़ा और उसे अपने पलंग पर खींच लिया। लीसा मंत्रमुग्ध-सी समर्पित होती गई।

बेइंतहा प्यार और आकर्षण की दास्तान बन गई यह सुबह। रॉबर्ट ने लीसा के हर अंग पर चुंबनों की बौछार कर दी। सूरज की किरणों ने दरवाजे से थोड़ा और प्रवेश किया, लीसा ने रॉबर्ट के होठों पर उंगली रख दी और ‘नहीं’ में सिर हिलाया। अपने अस्तव्यस्त कपड़ों को ठीक करती लीसा मुस्कुराने लगी।

‘‘हम लोग आज ही निकलेंगे। लंदन में नाटक का शो अगले हफ्ते ही होगा। फिर हम और भी शहरों में नाटक करेंगे। फिर एक शो और लंदन में होगा। करीब दो महीने पश्चात। फिर मैं अपने घर लौटुंगी। माँ इंतजार करती है।’’ लीसा ने कहा।

‘‘लंदन में मिलोगी न?’’ रॉबर्ट ने पूछा।

‘‘हा! जरूर। लेकिन दो महीने पश्चात अंतिम नाटक के समय।’’ लीसा ने कहा।

‘‘ऐसा क्यों?’’

‘‘क्योंकि रॉबर्ट! पहले नाटक के पश्चात मैं तुम्हें जरा भी समय नहीं दे पाऊंगी। एकदम पैकअप करना पड़ता है, तुरन्त दूसरी जगह निकल जाना पड़ता है।’’ लीसा ने कहा।

‘‘ठीक है मैं इंतजार करूंगा और फिर तुम्हारे रेखाचित्र को किरणों के सुनहली आभा का साक्षी भी तो बनाना होगा, उसमें सात रंग भरकर। आज का साक्षी।’’ रॉबर्ट ने कहा।

‘‘तो बिदा लेते हैं, दोस्त।’’ लीसा ने उठते हुए कहा। रॉबर्ट ने लीसा को फिर से लिपटा लिया। कुछ देर बाद दरवाजे पर दोनों पहुंचे तो देखा मि. ब्रोनी नीचे उतर रहे थे। साथ में वे दोनों नाटक के पात्र भी। उनकी पीठ पर बड़े-बड़े किट थे, जिनमें सामान था।

‘‘तुम्हारा डरपोक प्रेमी कहाँ है?’’ रॉबर्ट ने पूछा।

लीसा हँसने लगी। ‘‘वह पहले ही नीचे उतर गया। लेकिन मेरा सैनिक प्रेमी तो मेरे साथ है।’’ मोड़ पर काला रंग का किट उसने उठाया और फिर मुड़कर रॉबर्ट की ओर देखा।

रॉबर्ट भावुक हो उठा। वह देर तक दूर जाती लीसा को देखता रहा। आँखों से जब वह साया ओझल हो गया तो लंबे पेड़ों की ओट में उस सुबह को पहचाना, जिसमें वह अकेला रह गया था।

कमरे में वापिस आकर वह लेटा नहीं। उसे लगा कि वह यहाँ रह नहीं पाएगा आज ही या कल सुबह वह सेन्टल्यूक चेलसिया के लिए निकल जाएगा। जहाँ फ्लावरड्यू है। छुट्टियाँ भी खतम हो रही हैं। शायद टैरेन्स भी अपनी दादी के पास से लौटा होगा। ‘दादी बीमार हैं।’ ऐसा ही उसने कहा था।

’’’

रॉबर्ट लीसा के जाने से उदास हो गया। किचिन में जाकर उसने चॉकलेट ड्रिंक बनाया, जो वह अपने साथ लाया था।

कामों में क्या बाकी था। उसे सामान सहेजना था। रेखाचित्रों को सहेजना था। सोचा आज वह नीचे उतरेगा और बाजार जाकर फ्लावरड्यू के लिए कुछ गिफ्ट खरीदेगा। वह फ्रेश होकर बाजार जाना चाहता था। लेकिन आलस्य ने उसे कुछ नहीं करने दिया। वह तकिए से टेक लगाकर पलंग पर अधलेटा बैठ गया। अगाथा की अलमारी से ढूंढ़ी सारी पर्चियाँ उसने अपने सीने पर रख लीं। वह इन्हें पढ़ना चाहता था। क्या होगा इसमें? क्या ऐसा करना उचित होगा? आज तक तो टैरेन्स ने भी यह नहीं पढ़ी होंगी। अगर पढ़ी होतीं तो इस तरह अलग-अलग किताबों में यह नहीं मिलतीं। या हो सकता है टैरेन्स ने देखा ही न हो।

सीने पर रखी पर्चियों पर उसने अपना हाथ रख लिया। वह लीसा के ख्यालों में खोया तो सामने फ्लावरड्यू आ गई। कोई उसके हृदय से पूछता तो उसे लीसा उसे अपनी तरह की लग रही थी जबकि फ्लावरड्यू की हैसियत के बराबर वह अपने आपको खड़ा नहीं कर पा रहा था। खैर!

उसने अपने सिर को झटका दिया, मानो विचारों को झटक देना चाहता हो।

अचानक ही उसे इस कमरे में एक सुख और आराम महसूस होने लगा। मानो वह सदियां गुजार सकता है इस कमरे में... जहाँ बहुत कुछ जानने को है, एक सम्पूर्ण ज़िंदगी... एक दु:ख, एक सुख भी, जो शायद किसी और के हिस्से में आता हो। जिदगी के दु:ख ने छोटी-छोटी पर्चियों का रूप ले लिया था। हर चीज अपनी जगह स्थिर थी। मानो सभी की जगह अगाथा ने मुकर्रर कर दी हो। फिर न मि. जॉन एफ पीटर ने उसे बदला होगा न ही टैरेन्स ने।

हाँ! शायद अगाथा को यह आशा बंधी होगी कि उनके मरने के बाद भी यह सब जीवित रहेगा। टैरेन्स या उसका कोई बहुत नजदीकी मित्र यहाँ आएगा और पृष्ठ दर पृष्ठ उसकी ज़िंदगी खुलती जाएगी। उसने सीने पर रखी एक पर्ची उठा ली। न कोई तारीख थी, न कोई सन्। बहुत ही बेढंगी लिखाई में लिखा हुआ था-‘‘मैं एक हताश औरत जिसे न पति का प्यार मिला और न ही घर की ऐसी चौखट कि वह वहाँ प्यार और स्वाभिमान से रह पाती। जो स्वयं सुरक्षित नहीं वह अपने बच्चे को क्या सुरक्षा दे पाएगी। मेरे मन में अपनी माँ के प्रति कोई विरोध नहीं है।

क्या करती वह? चंद भेड़ें... कुछ आऊन्स ऊन, घर की दुर्दशा और छोटी बेटी की उछृंलता, वह भी हारी होगी। जैसे मैं। लेकिन मुझे किम का प्यार मिला। बेवफाई की मैंने... लेकिन क्या जॉन एफ ने नहीं की। शायद हर इन्सान प्यार का भूखा होता है। ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ।’’

आगे भी वे दर्द थे जो मन की गांठ खोल रहे थे। वह नहीं पढ़ पाया। एक ग्लानि सी मन में उठी और हृदय पर बोझ बन गई। क्यों वह इस तरह टैरेन्स के परिवार की ज़िंदगी में झाँक रहा है।

उसने सारी पर्चियाँ तहाकर रख दीं। आगे वह इस पर्ची को भी नहीं पढ़ पाया और उसे रख दी। लोभ संवरण नहीं कर पा रहा था वह इन्हें पढ़ने का। इन पर्चियों को वह जहाज में अपने साथ ले जाएगा। उसने अपने आप से कहा।

उसने अपने बैग में जो ब्राउन कलर का था और उसे अत्यन्त प्रिय था, सामान पैक किया। लाल पोटलीनुमा बैग उसने सबसे नीचे रखा। फिर रेखाचित्रों को गोल-गोल घुमाकर एक धागा बाँध दिया और उन्हें बैग में एक ओर रख दिया। कपड़े पैक किए, सारी दैनिक जरूरतों की चीजों को भी पैक करके रखा। पहने हुए बगैर धुले मोजे, रूमाल और फिर सबसे ऊपर उन पर्चियों को रखा, इतना सहेजकर कि वे बर्बाद न हो।

इतनी जल्दी निकलना बेकार था। कोई वाहन मिलेगा नहीं सेन्टल्यूक तक जाने के लिए। सामान सहित वह बंगले के बाहर बनी पत्थर की बेंच पर बैठ गया।

लीसा जा चुकी थी। अगले महीने ही लंदन में नाटक खेला जाएगा। फिर मुलाकात होगी लीसा से वह प्रसन्नता से भर उठा।

*********

रिकरबाय हवेली से थोड़ी दूर पर वह उतर गया। यह चार पाहियों वाली कैरेज थी। यह एक फैन्सी फिटन (उं११्रँी) थी, जिसमें दो घोड़े इसे खींच रहे थे। उसके साथ बैठे अन्य तीन व्यक्ति पहले ही उतर चुके थे। वह चाहता तो रिकरबाय हवेली के सामने भी उतर सकता था। लेकिन उसने वहाँ तक पैदल ही जाना ठीक समझा। बैग उसने अपनी पीठ पर लटका लिया था। लंबा, दुबला, भूरे बालों वाला रॉबर्ट काफी आकर्षक लग रहा था। उसने काला ट्राउजर और उस पर बादामी पीला कोट पहना था। अंदर वैसे ही रंग की कमीज थी। वैसे वह अधिकतर सफेद कमीज पहनना पसंद करता था। वह फ्लावरड्यू के घर जाने के लिए ही यह कपड़े लाया था। उसने टैरेन्स के बंगलो पर भी इन कपड़ों को नहीं निकाला ताकि गंदे न हों।

वह झिझका-सा हवेली के सामने खड़ा हो गया। बड़े-से गेट के सामने खड़े उसे कुछ मिनिट हुए थे कि दरबान ने उसे पहचान लिया। वे आदरपूर्वक उसे हवेली के अंदर ले गए। भीतर सन्नाटा था। भीतर के नौकर ने खबर की होगी तभी फ्लावरड्यू की माँ वहाँ निकल आईं। वे शायद कहीं जा रही थीं। उन्होंने रॉबर्ट को भीतर बुलाया।

रॉबर्ट ही बोल पड़ा-‘‘छुट्टियाँ खतम हो रही थीं। सोचा लौटते हुए आप लोगों से मिलता चलूं।’’

उन्होंने बताया- फ्लावरड्यू के दादा, दादी, उसके पिता और दोनों छोटे भाई उनकी दूसरी ‘हवेली’ में गए हैं। वहाँ भी दूसरा व्यापार है। हम दोनों नहीं जा सकेंं क्योंकि फ्लावरड्यू को तेज बुखार है।

‘अरे’ बोलकर वह उसके कमरे की ओर तेजी से बढ़ गया।

वे भी रॉबर्ट के साथ बेटी के कमरे की ओर बढ़ीं। रास्ते में बोली-‘‘तीन दिन से तेज बुखार है।’’

फ्लावरड्यू ने आहट से आँखें खोलीं। उसे देखकर मुस्कुराई।

‘‘ड्यू कैसी हो?’’ रॉबर्ट उसके सिरहाने बैठ गया।

जहाज जैसे बड़े ऊंचे पलंग पर मखमली गुदगुदे चादर पर वह बैठ गया। चारों तरफ से लगाई मसहरी इस समय एक तरफ से ऊंची कर दी गई थी। उसने फ्लावरड्यू का हाथ पकड़ लिया।

उसकी हथेलियों में पसीना था और तेज बुखार की तपिश में वह जल रहे थे। उसने आँखें झपकाईं, मानो कह रही हो ‘‘देख तो रहे हो कैसी हूँ।’’

उसने माथा सहलाया। और माथे पर एक चुम्बन लिया।

‘‘क्यों बीमार पड़ीं?’’ रॉबर्ट ने कहा।

‘‘ताकि तुम मुझे देखने आओ रॉबर्ट।’’ तकलीफ में भी वह मुस्कुरा पड़ी। वह भी मुस्कुरा दिया और उसकी हथेलियों को दबाकर कहा- ‘‘हाँ! मुझे आना ही था फ्लावरड्यू।’’

ड्यू के खुले बाल सफेद तकिए पर फैले हुए थे। आज वह फिर काले लिबास में थी। शरीर पर कोई जेवर नहीं था। तीन दिन के बुखार से उसका शरीर मलिन और निस्तेज हो रहा था। चेहरा मुरझा गया था।

‘‘कितनी पेन्टिंग्ज बनाईं?’’

यकायक सामने लीसा आ खड़ी हुई। लीसा... फ्लावरड्यू ... फ्लावरड्यू और लीसा।

‘‘क्या कर रहे हो रॉबर्ट?’’ उसने अपने आप से कहा। दुबारा पूछा फ्लावरड्यू ने तो वह चौक पड़ा।

‘‘हाँ! बनाई पेन्टिंग्ज, अब लंदन जाकर उनमें रंग भरूंगा।’’

तभी फ्लावरड्यू की माँ कमरे में आ गईं।

‘‘रॉबर्ट चलो, दूर से आए हो, फ्रेश हो लो। फिर अपने रुम में आराम करो। मैं कॉफी भिजवाती हूँ। ’’

वह उठा। देखा फ्लावरड्यू ने आँखें बंद कर ली हैं।

रुम में आकर उसने जूते उतारे। फ्रेश क्या होना था? कोट उतारकर बिस्तरे पर रखा। तभी कॉफी, पाव, बटर आलू चिप्स, कई तरह की चटनियां आदि उसके कमरे में आ गए।

वह धीमे-धीमे खाने लगा। सब कुछ बेहद स्वादिष्ट था। कॉफी पी और पलंग पर लेट गया। उसे लगा था वह सचमुच थका हुआ है। ‘‘जहाँ हो वहीं का सोचो’’ उसने अपने आप से कहा। पहले तो उसे यह वाक्य अच्छा लगा, बाद में उसे लगा कि यह बहुत ही स्वार्थी वाक्य था। उसे नींद आने लगी और वह गहरी नींद में सो गया।

शाम को बगीचे में टहलता रहा। कैमरा साथ था तो कुछ तस्वीरें लीं। फ्लावरड्यू के कमरे में वह झाँक आया था। वह सोई हुई थी। तभी दो लोग बैठ सकेंं ऐसी घोड़ा गाड़ी आई और लाल बजरी की सड़क पर रुक गईं। अर्थात् माँ घर पर नहीं थीं।

‘‘मिले फ्लावरड्यू से?’’ माँ ने रॉबर्ट से पूछा।

‘‘हाँ! गया था उसके रुम में लेकिन वह सो रही थी।’’

उन्होंने चिंतित होकर उस व्यक्ति की ओर देखा।

‘‘कुछ नहीं केवल आज तक ही है बुखार। कल तक उतर जाएगा। ऐसे बुखार  चार -पांच दिन ही रहते हैं।’’ उस व्यक्ति ने कहा।

स्पष्टत: वह चिकित्सक ही था। वह भी उन दोनों के पीछे फ्लावरड्यू के कमरे में आ गया।

फ्लावरड्यू ने आँखें खोलीं। माँ ने माथा छुआ।

‘‘बुखार अब नहीं है।’’ वह बुदबुदायीं। उन्होंने उसे उठाकर तकिए के सहारे बैठा दिया। उसके होठ सूखे और पपड़ाए हुए थे।

चिकित्सक ने फ्लावरड्यू को चैक किया। कुछ गोलियां कागज में बाँधकर दीं। हिदायत दी और लगातार सिर हिलाता रहा, कुछ पूछता भी रहा और फिर आश्वस्त होकर चला गया।

‘‘जूस भिजवाती हूँ।’’ कहते हुए माँ कमरे से बाहर चली गईं।

रॉबर्ट ने फ्लावरड्यू के निकट कुर्सी खींची और फिर उसका माथा सहलाने लगा।

‘‘बुखार उतर चुका है। सिर में दर्द भी नहीं है।’’ फ्लावरड्यू ने कहा।

रॉबर्ट ने उसका हाथ पकड़ लिया।

अब हथेलियों में न पसीना ही था न बुखार की तपिश। माँ ने जूस और कॉफी भिजवाई। रॉबर्ट ने सेवा करने के इरादे से फ्लावरड्यू को जूस पिलाया। माँ पीछे दरवाजे की ओट लिए खड़ी थीं। इस व्यवहार से वे गदगद हो गईं। रॉबर्ट सचमुच प्यार करेगा उनकी बेटी को। वे जानती हैं उनकी बेटी रुष्ट स्वभाव की है। वह बोलते समय किसी की परवाह नहीं करती।

लेकिन रॉबर्ट सब सम्हाल लेगा। उन्होंने सोचा और इस सोच के साथ वे बाहर आ गईं। रॉबर्ट दो-तीन दिन तो रुकेगा ही वे बगैर रॉबर्ट से पूछे समझ गई थीं।

रॉबर्ट सचमुच  तीन दिन रुका। इस बीच अपनी छुट्टियाँ बढ़वाने के लिए उसने आॅफिस को मैसेज भिजवा दिया।

दूसरा दिन भी फ्लावरड्यू के कमरे के अंदर बैठे-बैठे बीता। बुखार भरे कपड़े बदलकर और बालों को संवारकर अब वह स्वस्थ दिख रही थी।

रॉबर्ट ने टैरेन्स के बंगलो के बारे में जानकारी दी। यह भी बताया कि पीछे के हिस्से में नाटक की रिहर्सल चलती थी, जो किराए पर दिया गया था। उसने मि. ब्रोनी और सभी कलाकारों की भी जानकारी दी। लेकिन लीसा के बारे में सब कुछ छिपा गया।

फ्लावरड्यू आज अपने बगीचे के लॉन में टहल रही थी। साथ में रॉबर्ट भी था। कुछ दिनों की छुट्टियों पर गई सायसा भी आज ही लौट आई थी। सायसा दु:खी थी कि जब ड्यू को मेरी जरूरत थी तब मैं छुट्टियों पर थी।

रात खाने पर वे तीनों टेबिल पर अपनी-अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे। अब बुखार से पीछा छुड़ाकर ड्यू काफी स्वस्थ और गुलाबी-गुलाबी नजर आ रही थी। जब वह आया था तब ड्यू का चेहरा फीका, सफेद, मलिन था।

‘‘पहले सूप लो ड्यू। यदि उससे पेट भर जाता है तो ठीक है, लेना चाहो तो पाव-बटर ले लेना।’’ माँ ने कहा।

उसने ‘हामी’ में सिर हिलाया। फिर बोली-‘‘मुझे पाव कुरकुरे और गरम चाहिए, बटर के साथ सिके।’’

किचिन से खाद्य सामग्री लाए नौकर ने रॉबर्ट को उबला चिकन परोसा। सूप और पाव दिया। सामने एक तिकोनी प्लेट में करीने से सजा चावल रखा था। उसमें भी शिमला मिर्च, चिकन के टुकड़े, हरी मिर्च लम्बाई से कटी और भी लाल-पीली सब्जी नजर आ रही थी। ऊपर बेहतरीन कुटे पिसे मसालों की गंध थी।

‘‘शुरू करो रॉबर्ट।’’ माँ ने कहा। ‘‘और ड्यू के लिए कुरकुरे पाव लाओ। आज वह भी चार दिन बाद डाइनिंग टेबिल पर है और खा रही है।’’ माँ ने कहा।

‘‘मैं भी लूंगा कुरकुरे पाव।’’ हालांकि रॉबर्ट की ऐसी फरमाईश कभी नहीं रही और रहती भी किससे? ड्यू धीमे-धीमे सूप का घूंट भरती रही और हर बार नैपकिन से अपने होठ पोंछती रही। तभी कुरकुरी पाव आ गईं और रॉबर्ट ने लेने से इंकार कर दिया क्योंकि वह फ्राइड राइस ले चुका था।

ड्यू लगातार अपने होठ पोंछती रही, और पाव कुतरती रही।

रॉबर्ट ने सोचा यहाँ एक दिखावटी ज़िंदगी है। और लीसा... उसके हाथ का खाना, उसका गिलासों में व्हिस्की भरना। विशेष प्रकार की कुटी हुई चटनी, आलू जिसको वह स्वयं फ्राई करके स्वादिष्ट मसाला छिड़कती थी।

न कोई नैपकिन, न कोई वैभव की वस्तु। हँसते खिलखिलाते खाना खाना और खिलाना। वह सामान्य-साधारण जीवन का आदि था। यहाँ टेबिल पर तीन लोग थे। न कोई किसी से बात कर रहा था, न मुस्कुरा रहा था। सब अपनी तहजीबों में कैद। जैसे एक जरूरी काम हो रहा हो ।

**************

भोले चेहरे पर घुंघराले बाल छाए हुए। होठ जो सदा मुस्कुराते रहते। कुल मिलाकर एक संपूर्ण आकर्षक व्यक्तित्व। अपनी शर्तों पर जीती लीसा... एक डरपोक सैनिक की माशूका, जिसने अपने अभिनय से नाटक में जान डाल दी थी। ऐसा मि. ब्रोनी ने बताया था।

‘‘और राईस ले लो मि. रॉबर्ट।’’ माँ ने कहा तो वह चौंक पड़ा, वापस वर्तमान में आया, जहाँ दूर-दूर तक फैला रेगिस्तान था। और, एक मृगमरीचिका कि कहीं तो ऐसा कोई द्वीप होगा जहाँ की गीली सुखमयी रेत पर वह अपने कदम बढ़ाएगा।

‘‘नहीं! ठीक है, पेट भर गया।’’ रॉबर्ट ने कहा।

‘‘एस्क्युज मी।’’ कहते हुए ड्यू उठ गई। उसका खाना प्लेट में पड़ा था। उससे खाया नहीं गया।

‘‘ओह, मेरी बच्ची!  रुको मैं तुम्हें तुम्हारे रूम तक ले चलती हूँ।’’ माँ ने कहा।

तभी सायसा पीछे आकर खड़ी हो गई। वह ड्यू को उसके कमरे तक ले गई और उसे लिटाकर मोटी चादर ओढ़ा दी।

रॉबर्ट भी उठकर खड़ा हो गया। माँ को गुडनाइट कहकर वह अपने कमरे में आ गया। सगाई पर सबका स्वागत करती माँ इतनी नरम दिल की भी नहीं है। शायद फ्लावरड्यू का स्वभाव माँ जैसा ही हो। उसने सोचा।

कल ही उसे वापिस लंदन के लिए निकल जाना है। वह अपने कमरे में आकर थोड़ी देर ही बैठा था कि उसने सोचा वह फ्लावरड्यू से मिल ले। उसे सुबह ही निकलना था। शायद, वह सोती रहे और उसे निकलना पड़े।

उसने ड्यू के कमरे का दरवाजा हल्के से खोला। मद्धिम रोशनी में ड्यू ने अपनी पलकें खोलीं। वह मुस्कुराया... ड्यू भी मुस्कुरायी। रॉबर्ट उसके बिस्तर पर बैठ चुका था। दोनों अलिंगन बद्ध थे। रॉबर्ट उसे चूमता रहा। उसके बाल सहलाता रहा। फिर उसने फ्लावरड्यू के मुलायम बदन से सटे ब्लाउज की तरफ हाथ बढ़ाया तो ड्यू ने हाथ पकड़ लिया।

‘नो! मि. रॉबर्ट।’’

‘‘क्यों?’’

‘‘नहीं! न मैं, न माँ यह सब पसंद करतीं। अभी हम अविवाहित हैं।’’

‘‘हमारी ज़िंदगी पर अभी भी माँ का अधिकार है?’’ रॉबर्ट ने ऐसे कहा मानो उसकी आवाज किसी गहरे कुएं में से निकल रही हो।

‘‘हाँ, जब तक मैं उनके पास हूँ, तब तक।’’ ड्यू ने कहा।

रॉबर्ट स्थिर होकर थोड़ी देर बैठा रहा। शायद उसके अहं को चोट लगी थी। क्या वह ऐसा करके ड्यू को धोखा देता। नहीं उसके दिमाग के किसी कोने में भी ऐसा इरादा नहीं था। वह उसकी मंगेतर थी। उसने थकान का अनुभव किया। और, सामने पड़ी कुर्सी पर बैठ गया।

‘‘मि. रॉबर्ट, गलत भी नहीं है मॉम। मेरी कजिन मौसी अर्थात माँ की मौसी की लड़की के साथ भी यही हुआ। नाना की फैमिली जमींदार है। माँ की शादी के पश्चात उनकी (मौसी) की शादी तय हुई। लेकिन उनका मंगेतर लगातार घर आता रहा और मौसी प्रेगनेंट हो गई। फिर वह कहीं दूर देश व्यापार के सिलसिले में चला गया और कभी नहीं लौटा। उनकी बड़ी बहन भी जन्मजात लंगड़ी थी। इस तरह दोनों बहनें अविवाहित रहीं। लेकिन बच्चा नहीं हुआ। कुछ ऐसी दवाएं खिलाई गईं कि बच्चा...।

वह उकता गया यह कहानी सुनकर। आगे यह भी नहीं सुना कि फिर मौसी का क्या हुआ? वह ‘‘ठीक है, गुडनाइट ड्यू।’’ कहकर कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। ड्यू का चेहरा उतर गया। उसने भी अपमानित महसूस किया रॉबर्ट के इस तरह उठ जाने से।

क्या रॉबर्ट का उसके परिवार के अन्य सदस्यों से कोई रिश्ता नहीं होगा। अभी नहीं तो विवाह के पश्चात भी नहीं।

रॉबर्ट ड्यू के नजदीक आया। उसके माथे का चुंबन लेकर कहा- ‘‘मैं कल सुबह-सुबह चला जाऊंगा। शायद तुमसे मुलाकात न हो। लेकिन ध्यान रखना मैं तुम्हारी मौसी के मंगेतर जैसा नहीं हूँ। मुझमें संवेदनाएं हैं, खासकर लड़कियों के प्रति।’’ वह बिना मुड़कर पीछे देखे कमरे से बाहर निकल गया।

फ्लावरड्यू सन्न सी रह गई। क्या उसने यह सब बताकर रॉबर्ट के हृदय को चोट पहुंचाई है। उसे हर्ट किया। वह पलंग पर धीरे से नीचे खिसक गई। सिर के नीचे लगा तकिया उसके आंसुओं से भीगने लगा।

’’’

लंदन के रॉयल थिएटर में गहमागहमी थी। आज मि. ब्रोनी का नाटक खेला जाएगा। सवेरे ही लीसा ने अपने किसी प्रशंसक के हाथ एक बंद लिफाफा भेजा था। उसने खोला तो उसमें रॉयल थिएटर का निमंत्रण और दो पास और एक लाल सूखा बुरुन्स का फूल था डंडी सहित। याद आया उसने यह फूल रेखाचित्र बनाते समय चर्च के पास लगे पेड़ पर से तोड़कर दिया था, बल्कि दिया नहीं था उसके घुंघराले उलझे बालों में पिन की मदद से लगा दिया था।

बाद में जब लीसा अपने कमरे में जा रही थी तो उसने लीसा के हाथों में यह फूल देखा था। रॉबर्ट भावुक हो उठा था। यह निमंत्रण देखकर।

फूल के साथ लीसा के हाथों की लिखी एक कविता की कुछ पंक्तियां थीं :

 

तुम्हें,

तुम्हारी धूप के

उन कुनकुने टुकड़ों

की याद में

जिनकी दिलकश

हरारत

एक लम्हा

मन प्राणों में

झंकृत हुई

 

-लीसा-

 

हाथ में लिफाफा लिए वह नाटक शुरू होने से काफी पहले थियेटर पहुंच चुका था। उसे ग्रीन रुम में जाना था, जहाँ सभी कलाकार होंगे। लेकिन, उसे वहाँ जाने से पहले ही रोक लिया गया।

‘‘तुम अंदर नहीं जा सकते।’’ बाहर खड़े संतरी ने उसे रोका।

वह उदास होता इससे पहले मि. ब्रोनी उसे ग्रीन रूम के दरवाजे से आते दिख गए। उन्होंने बहुत पुराना बॉटल ग्रीन कोट पहना था। वैसा ही ट्राउजर और अंदर से हल्की पीली शर्ट झाँक रही थी। शर्ट के ऊपर का बटन टाइट बंद था, जिसमें काली बो उन्होंने ऊपर से लगाई थी। सफेद रूमाल कोट के पॉकिट में करीने से सजा हुआ था। शायद जूतों की वजह से वे भी बॉटल ग्रीन ही दिख रहे थे। क्योंकि जूते बहुत गंदे थे। और जूतों में चैक के कपड़े के दो पैबन्द (पैच) लगे थे। अपने झड़े बालों में से बाकी बालों को संवारकर मि. ब्रोनी ने ऐसा व्यवस्थित किया था कि उनकी गंजी चांद छुप जाए, यदि वे हैट लगाते तो भी अच्छा था।

‘‘ओह! मि. ब्रोनी। ’’ रॉबर्ट जोर से चिल्लाया।

वे उसी की तरफ मुड़ गए। ‘‘लीसा कहती थी कि तुम जरूर आओगे। हाँ! वह तुम्हारा दोस्त टैरेन्स नहीं आया।’’ मि. ब्रोनी ने पास आते हुए कहा। ‘‘नहीं, आज ही उसे दूसरी जगह सीनियर्स ने भेजा है। शायद वह पूरे सात दिनों में आएगा। नहीं तो मैं उसे जरूर साथ लाता।’’ रॉबर्ट ने कहा।

‘‘ओके, आओ मि. रॉबर्ट, लीसा के पास, चलते हैं।’’

उसने मुड़कर दरवाजे के पास खड़े संतरी को देखा, जिससे नजरें मिलीं तो वह कहीं और देखने लगा। दोनों ग्रीन रूम में दाखिल हुए। लीसा एक छोटी-सी गुदगुदी सीट की तिपाई पर बैठी थी। रॉबर्ट को देखकर एकदम खुश होकर खड़ी हो गई। रॉबर्ट ने उसे लिपटा लिया।

‘‘निमंत्रण भेजने का तरीका अच्छा लगा।’’ रॉबर्ट ने लिफाफा दिखाकर उसे सामने वाले पॉकेट में रखा। दोनों मुस्कुरा दिए।

लीसा ने उसके कंधे पर हल्के से थप्पड़ मारा... मानो उलाहना दे रही हो। ‘‘कितना छेड़ेंगे?’’

नाटक के अन्य पात्रों से वह मिला।

डरपोक प्रेमी जंजीरों में जकड़ा बैठा था। उसे धकेलकर स्टेज पर प्रस्तुत (एंट्री) करना था। उसने काली पोशाख पहनी थी। बाकी के सैनिक सेना की पोशाख में थे। लीसा भी काली पोशाख में थी। उसके घुंघराले बाल भी एक काले रिबिन में बंधे थे। हाथ का कड़ा सफेद मैटल का था। वैसी ही अंगूठी जिसमें एक नग जड़ा था। नाटक के अंत में अपने प्रेमी को फांसी दिए जाने के बाद वह अंगूठी से हीरा निकालकर खा लेगी। तभी पर्दा गिरेगा। इतना दर्दनाक अंत। वैसे आज तक लिखे नाटकों की कहानियां मृत्यु पर ही खत्म होती थीं।

पहली घंटी बजी थी। सभी अपनी सीट पर बैठने लगे थे। रॉबर्ट जा ही नहीं रहा था। लीसा ने उसे ढकेलकर ग्रीन रूम से बाहर निकाला ताकि वह थियेटर में जाकर अपनी जगह पर बैठे।

लीसा ने बताया था स्टेज पर हम लोग दो बार रिहर्सल कर चुके हैं। जो सेट लगाया गया है उसी में रिहर्सल हुआ। लेकिन किसी भी कलाकार के चेहरे पर थकावट का चिह्न नहीं था।

दूसरी घंटी बजी। पर्दा हिला। फिर तीसरी घंटी पर पर्दा खुल गया। ग्रीन रूम के दरवाजे पर स्टूल में बैठे मि. ब्रोनी दिखे। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच नाटक आरंभ हुआ।

एक आवाज नेपथ्य में गूंजी थी। छह सैनिकों को मौत की सजा सुनाई गई थी। पांच ने मौत को स्वीकार कर लिया था। लेकिन छठवां मात्र उन्नीस वर्ष का, उसे मौत स्वीकार नहीं थी। वह बेड़ियों में जकड़ा थर-थर कांप रहा था। मि. ब्रोनी बुलंद आवाज में कमेन्ट्री दे रहे थे। नाटक नेपथ्य में जाता है। उन्नीस वर्षीय हैरीन की प्रेमिका है लीसा। नाटक में भी उसका नाम लीसा है। दोनों प्रेम में लीन हैं। हैरीन ने मिलिट्री ज्वाइन की है। तभी युद्ध की घोषणा होती है। हैरीन को युद्ध में जाना है। उसे अपनी प्रेमिका से दूर होना पड़ता है। लीसा दिलासा देती है। ‘‘तुम जरूर लौटोगे हैरीन।’’ लेकिन हैरीन अन्य सैनिकों की तरह मजबूत नहीं है। वह युद्ध के नाम से ही घबराता था। लीसा कहती है फिर सेना में जाना स्वीकार क्यों किया। और भी विकल्प थे सामने। करीब डेढ़ घंटा बीत चुका था दोनों के प्रणय दृश्यों ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया था। आधे नाटक में हैरीन का परिवार, विदाई और युद्ध स्थल के दृश्य थे।

एक घंटी बजी थी। हॉल तालियों की गड़गडा़हट से गूंज रहा था। रॉबर्ट उठा और ग्रीन रूम की ओर भागा। जहाँ सभी कलाकार पानी पी रहे थे। हैरीन हाँफ रहा था। वह लीसा की ओर बढ़ा। फिर हैरीन के पास पहुंचा-‘‘हैरीन, क्या तुम सचमुच भयभीत हो?’’

‘‘हाँ! ऐसा लगता है। मानो मैं अब लीसा से कभी नहीं मिलूंगा। अब कभी नहीं लौटूंगा।’’ हैरीन ने कहा। मि. ब्रोनी रॉबर्ट के नजदीक आ गए। उन्होंने रॉबर्ट का हाथ दबाया।

‘‘उसे अपना रोल जीने दो। तुम्हारी दिलासा देने से वह मान बैठेगा कि वह ओवर एक्टिंग कर रहा है। जानते हो न हमें पूरे इंग्लैंड में नाटक करने हैं। मैं नहीं चाहता कि मेरा कोई पात्र यूं हताश होकर बैठे।’’

रॉबर्ट ने आश्चर्य से मि. ब्रोनी को देखा। वे एक मंजे हुए निदेशक थे। उन्हीं के निर्देशन में तो सब जीवंत अभिनय कर रहे थे।

लीसा गुमसुम तिपाई पर बैठी थी। उसने लीसा को उसे अब तक के अभिनय के लिए बधाई दी।

घंटी बजी थी। नाटक का दूसरा सीन होने वाला था। रॉबर्ट थियेटर में अंदर पहुंच गया। तब तक पर्दे के पीछे युद्ध स्थल का सैट लगा दिया गया था।

लैम्प की रोशनी मद्धिम थी। लेकिन पीछे खंभे पर लगी लैन्टर्न का प्रकाश लीसा के भूरे ब्राउन बालों पर पड़ रहा था। रॉबर्ट के पीछे बैठे किसी दर्शक ने लीसा को देखकर कहा था-‘‘खूबसूरत लड़की है। क्या मैं उसे हासिल कर सकता हूँ?’’ तब नाटक चल रहा था तो रॉबर्ट ने पीछे पलटकर नहीं देखा। लेकिन वह सीन खतम होते ही उसका ध्यान उनके  कहे इस वाक्य पर  गया तो उसने पीछे पलटकर देखा। वहाँ ठीक उसकी सीट के पीछे अमीर परिवारों के  तीन चार लड़के बैठे दिखे। वाक्य उसके एकदम पीछे से आया था। वे लड़के रॉबर्ट के ही उम्र के थे। इतना वाहियात कमेंट करके वे सभी हँस भी रहे थे। रॉबर्ट की इच्छा हुई उनकी नाक पर दो चार घूंसे जड़ दे। लेकिन वह कंट्रोल करके बैठा रहा। मारपीट से थियेटर में चल रहे नाटक की गरिमा को ठेस लगेगी। हो सकता है थियेटर ही दो-चार दिनों के लिए बंद कर दिया जाए। उसने यह विचार दिमाग से निकाल दिया।

पर्दा हट रहा था। लीसा और हैरीन अंतिम विदाई के लिए चुम्बन लेते हुए लिपटे खड़े थे। रॉबर्ट को यह दूसरा झटका था। लीसा चुम्बन और आलिंगन में किसी दूसरे की बांहों में लिप्त थी। उसकी मुट्ठियां भिंच गईं। हथेलियों में पसीना आ गया। फिर लीसा ने हैरीन के माथे पर चुम्बन लिया। उसने अपनी अंगूठी का हीरा उंगली में ऊपर की ओर किया और फिर हीरा दांतों से निकाल कर मुंह में रख लिया। ‘‘मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ हैरीन।’’ उसका चेहरा पसीने से भीग गया।

क्या लीसा उसकी थी। वह दोराहे पर खड़ा था। एक ओर फ्लावरड्यू और दूसरी ओर लीसा।

हैरीन को जंजीरों से जकड़कर फांसी तक ले जाया जा रहा था। बाकी के सैनिक भी जंजीरों में जकड़ दिए गए थे। उन्हें ले जाया जा रहा था। लेकिन हैरीन विचलित था। वह अपने आपको खींच रहा था, जबकि बाकी सैनिक शांत थे। हैरीन भय से कुछ बुदबुदा रहा था। बाकी सैनिक चुपचाप थे। ‘मृत्यु’ सत्य थी, जो कुछ क्षणों में उन सबको अपने आगोश में ले लेगी। ऐसा लग रहा था मानो किसी जानवर को काटने ले जा रहे हों। जानवर भी समझ जाता है इसलिए अपनी रस्सी खेंचने लगता है। फिर उसे घसीटा जाता है। इसी प्रकार दुश्मन के सैनिक हैरीन को घसीट रहे थे। वह किसी बकरे की तरह मिमिया रहा था।

‘‘मुझे मत मारो, मुझे मत मारो। मुझे जीना है।’’ अब वह चीख रहा था।

दुश्मन के सैनिक अट्टाहास कर रहे थे। मि. ब्रोनी की कमेंट्री जारी थी। लैम्प को दूसरी ओर मोड़ दिया गया था। फांसी स्थल पर अंधेरा था। वहाँ से एक वेदना भरी चीख उभरी थी। सब कुछ खतम हो चुका था। यह चीख लीसा की थी। उसके मुंह से खून बह रहा था। वह हैरीन के मृत शरीर के पास बैठी थी। फिर निढाल होकर उसके शरीर पर गिर गई।

दृश्य इतना मार्मिक था कि थियेटर में सन्नाटा छा गया। कुछ स्त्रियों की सिसकियों की आवाज आ रही थी। वे रूमाल से अपने आंसू और नाक पोछ रही थीं।

रॉबर्ट ने सबसे पहले ताली बजाई। और फिर उसका अनुसरण करते हुए पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।

ढाई घंटे के नाटक का सफलतापूर्वक मंचन हो चुका था। स्टेज पर अंधकार था। लैन्टर्न की पीली रोशनी में दोनों प्रेमी निर्जीव नजर आ रहे थे। तभी थियेटर के दरवाजे खोल दिए जाते हैं।

टैरेन्स के बंगलो पर तो उसने कभी अभिनय देखा ही नहीं था। बस बातें, आवाजें और डायलॉग ही सुने थे। आज अभिनय के साथ कमरे के पीछे से आती आवाजों को उसने जब स्टेज पर देखा तो वह मि. ब्रोनी के दिशा निर्देश और उनके द्वारा लिखे नाटक को देखकर सचमुच उनका प्रशंसक बन गया।