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उजाले की ओर –संस्मरण

सुप्रभात आ. एवं स्नेहिल मित्रो !

आप सबको प्रणव भारती का नमन

एक बार एक पिता अपने सत्रह वर्षीय बेटे को किसी संत के पास लेकर गया |उसने संत से प्रार्थना की ;

“महाराज ! मेरे बेटे को ज्ञान दीजिए ,कृपया इसे बताइए कि यह जब तक शिक्षा में अपना मन नहीं लगाएगा,अच्छी बातें नहीं सीखेगा,सबसे प्रेम पूर्वक व्यवहार नहीं करेगा तब तक इसका जीवन उत्कृष्ट कैसे हो सकेगा ?”

संत ने कुछ विचार किया फिर पूछा ;

“आपके घर का वातावरण कैसा है ?”

“अर्थात्---”

बच्चे का पिता असमंजस में पड़ गया,आखिर संत उससे क्या पूछना चाहते हैं ?

“अर्थात्----जब से बच्चे ने अपना होश संभाला है आपने उसे अपने परिवार में किस प्रकार का वातावरण दिया है? क्या इसकी माँ अथवा आप अधिक क्रोध वाले हैं, क्या आप लोगों ने बालपन में इसकी अधिक मार-पिटाई की है अथवा उसे अधिक डांटा-डपटा है या परिवार के  लोगों के बीच में वैमनस्य की स्थिति रही है ?”

बच्चे का पिता सोच में पड़ गया संभवत: वह अपने घर की भीतरी स्थिति से संत को अवगत कराना नहीं चाहता था किन्तु उसकी माँ ने कहा;

“जी महाराज ! जब यह छोटा था उस समय मुझमें क्रोध व अहंकार की मात्रा बहुत अधिक थी |अपने घर से मुझे आदर, स्नेह व प्रेम के संस्कार नहीं मिल सके थे क्योंकि मेरी दादी बहुत क्रोध वाली महिला थीं |उनके व मेरी माँ के बीच हर समय ही शीत युद्ध चलता रहता था |जिसमें हम बच्चे व हमारे पिता भी पिस जाते थे | ऐसे वातावरण में हम सब भाई-बहनों का व्यवहार बहुत चिड़चिड़ा व अशोभनीय हो गया था |विवाह के उपरान्त मेरी सास व पति ने मुझे बहुत सी बातें समझाईं किन्तु उन्हें लगता था कि कहीं मैं उनकी बातों का बुरा न मान जाऊं|इस कारण ये लोग बहुत सी बातें मुझसे कहने में संकोच करते रहे |शनै: शनै: अपने पति व सास के स्नेहपूर्ण व्यवहार से मुझे अपनी त्रुटियाँ समझ में आने लगीं और मैंने स्वयं में परिवर्तन करना शुरू कर दिया जिससे मुझमें काफ़ी बदलाव भी आए|”

“फिर इस बच्चे में आपके परिवर्तित संस्कार क्यों नहीं आए?”संत ने बच्चे की माँ से पूछा|

“क्योंकि इसने मेरी कटु वाणी को सुना और सहा था,मैं अपनी सास और इनसे भी कटु व्यवहार करती थी, मुझे लगता था कि पूरी दुनिया में मुझसा बुद्धिमान कोई नहीं है ,किसीकी बात सुनना मुझे पसंद ही नहीं आता था |”बेटे की माँ ने स्पष्ट रूप से अपनी कमज़ोरी बता दी थी |

“आपका इस विषय में क्या कथन है?”संत ने बच्चे के पिता से जानना चाहा |”

“जी,ये सत्य कह रही हैं, इन्होंने सप्रयास अब अपने में बहुत से परिवर्तन कर लिए हैं किन्तु बहुत समझाने के उपरान्त भी हमारा बेटा हमारी बात समझने के लिए तैयार नहीं है|”  पिता व माँ दोनों ही बहुत दुखी थे |

“बेटे के व्यवहार से संबंधित सभी प्रश्नों के उत्तर आप दोनों के पास ही हैं |मेरे कुछ कहने की कोई आवश्यकता ही नहीं है |”संत ने शान्ति से कहा |

“प्रत्येक बात का समय होता है, जब समय निकल जाता है तब हमें कठिनाई आती है|बच्चे ने अनजाने में ही जिन बातों को अपने मन में समेट लिया है, वे उसके मन से आप लोगों के प्रयास स्वरूप निकल अवश्य सकती हैं किन्तु उसके लिए आपको प्रयत्न करना होगा व धैर्य रखना होगा |”संत कुछ देर रुके,पुन:बोले ;

“हम अपने अहं व क्रोध में बहुधा यह भूल जाते हैं कि इसका परिणाम हम पर तथा हमारे परिवार पर क्या होगा?किसीके समझाने से हम स्वयं को हेय समझते हैं किन्तु उससे कितनी परेशानियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, हमारी अहं की भावना हमें हमारी त्रुटियाँ समझने नहीं देती |वास्तव में हम किसीकी नहीं सर्वप्रथम अपनी ही हानि कर बैठते हैं|हम बातें तो बड़ी- बड़ी करते हैं किन्तु अपने व्यवहार में झांककर नहीं देख पाते|”

पति-पत्नी दोनों संत के समक्ष शर्मिंदा थे ,उनकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि वे इसका प्रायश्चित कैसे करें |संत ने उनकी परेशानी समझ ली ,उन्होंने कहा ;

“सत्य तो यह है कि किसी भी प्रकार की ईर्ष्या ,अहं अथवा क्रोध मन में रखकर हम सर्वप्रथम अपनी ही हानि करते हैं |जब हम किसीके बारे में कुछ गलत सोचते हैं तब पहले हमारे शरीर की तरंगें हमें व्यथित करती हैं जिनसे हमारा व्यवहार अपने से जुड़े लोगों अथवा सामने वालों के प्रति तो बाद में खराब होता है ,पहले हम स्वयं को बेचैन करते हैं | इस सबका परिणाम हमारे मन व शरीर पर भी बहुत खराब पड़ता है और अपने से जुड़े हुए अन्य लोगों पर कितना भयंकर हो सकता है आप स्वयं देख लें |आप अपने बेटे के लिए कितने परेशान हैं !”

“लेकिन अब क्या हो सकता है ?” पिता के समक्ष प्रश्नचिन्ह था |

“आपको अपनी त्रुटियों से ही शिक्षा लेनी चाहिए ,हमें किसी के समक्ष भी अपनी त्रुटियों को स्वीकार करने में कोई शर्मिन्दगी महसूस नहीं होनी चाहिए|आप स्वयं की त्रुटियों को इसके समक्ष खुले ह्रदय से स्वीकार कर लेंगे तो वह भी धीरे-धीरे अवश्य ही आपको देखकर व वास्तविकता को जानकार अपने स्वभाव में परिवर्तन ला सकेगा,वास्तव में स्नेह व प्रेम सब बीमारियों की दवा है,अहं तथा क्रोध नहीं |”

बहुधा बहुत सी ऎसी बातें हमसे ऎसी हो जाती हैं कि हम उनमें उलझ जाते हैं | किसी भी घटित बात को वापिस नहीं लाया जा सकता किन्तु उन्हें समझकर एक नए रूप में तो जीवन को शुरू किया ही जा सकता है जिससे बेशक हमारा बीता हुआ कल न सही आने वाला कल तो नई रोशनी लेकर हमारे जीवन को उज्जवल कर सके | अहं के स्थान पर प्रेम व स्नेह से जीवन को मधुर बनाया जा सकता है, इसमें कोई संशय नहीं है ;

ढाई अक्षर प्रेम का पढ़ लें सब दिल खोल ,

स्नेह, प्रेम यदि मिल सके, जीवन हो अनमोल||

अहं को त्याग स्नेह व प्रेम से हम न केवल स्वयं को अन्यथा सबको ही प्रसन्न रखकर स्वयं का तथा सबका उज्ज्वल मार्ग-दर्शन कर सकते हैं |

 

आप सबकी मित्र

 

डॉ.प्रणव भारती