Kouff ki wo raat - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

ख़ौफ़ की वो रात (भाग-2)

अब तक आपने पढ़ा कि एक लड़का अपने दोस्त के बुलावे पर चला आता है , और घने जंगल में भटक जाता है। रात गहरा जाती है औऱ उसे काली अंधियारी रात में दो चमकती आंखे दिखती है।

अब आगें....

बस आँखे ही दिखाई दे रही थी। ये भी पहचान पाना मुश्किल था कि यह आँखे इंसान की है या हैवान की। बड़ी भयानक आँखे लग रही थीं। मैं पैर को सिर पर रखकर वहाँ से भागा।

अब भी लग रहा था कि वह आंख मुझें ही घूर रही है। दौड़ते - दौड़ते मैं एक कुँए के पास पहुंच गया। लगातार भागने के कारण प्यास से गला सूख गया था। कुँए में पानी है यह पता करने के लिए मैंने कुँए में पत्थर फैंककर देखा। पत्थर के नीचे गिरते ही छपाक की आवाज़ आई। कुँए में पानी तो था पर पानी निकालने का साधन नहीं था। अमावस होने के कारण आसमान में चंद्रमा भी नहीं था कि जिसकी चांदनी में कुछ देख सकूँ।

मैं कुँए की मेड़ के पास खड़ा होकर हाथ से टटोलकर बाल्टी या रस्सी ढूंढ रहा था। तभी मेरे हाथ मे मोटी सी रस्सी आई। मैंने तुरंत रस्सी को कसकर पकड़ लिया औऱ खींचने लगा। मैं रस्सी खींचता रहा पर बाल्टी ऊपर नहीं आई। माजरा क्या है यह जानने के लिए मैं कुँए मैं झाँकने लगा तभी किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा। मैं ज़ोर से चिल्लाया ...मेरे हाथ से रस्सी छूट गई । मेरी आवाज़ कुँए में गूंजने लगी जो बड़ी भयानक लग रही थी ।

मैंने पलटकर देखा तो छोटी सी चिमनी हाथ मे लिए एक अधेड़ उम्र की महिला खड़ी थी। उसका पहनावा बंजारों जैसा था और चेहरे पर गुदने के निशान थे।

मुझें लगा यह कोई प्रेतात्मा है जो कुँए की रखवाली करती होंगी। पर मेरा अनुमान गलत साबित हुआ।

वह बोली - " साहब! गौरव बाबू तो शहर से बाहर गए है। आपकीं बस बहुत देरी से आई। मैं आपको लेने बस स्टैंड गई थीं। जब बहुत देर इंतज़ार के बाद भी बस नहीं आई तो मैं जंगल मे लकड़ियां लेने चली आई ।"

मैंने हैरत से पूछा - पर मेरी तो गौरव से कल ही बात हुई थी। अचानक शहर क्यो चला गया ?

वह अचकाचते हुए बोली - मालूम नहीं साहब ।

"तुम कौन हो ...?" मैंने अगला सवाल दागा ।

"हम गौरव बाबू के यहाँ काम करता साहब " - कहकर उसने लकड़ियों का गट्ठर सिर पर उठा लिया और जाने लगीं।

मैं बिना कुछ कहे उसके पीछे चलने लगा। कुछ देर की चुप्पी के बाद मैंने कहा -क्या यहाँ हमेशा ऐसा ही अंधेरा रहता है ?

"हाँ साहब ! यहाँ बिजली-पानी की व्यवस्था नहीं है। " पर आप चिंता न करे आपके खाने-पीने का इंतजाम मैं कर दूंगी।

"गौरव कुछ कहकर गया है कि कब तक आएगा..?" - मैंने पूछा

"नहीं साहब , वो तो कभी कुछ बताकर नहीं जाते" - वह बोली ।

महिला की बात सुनकर मुझें गौरव पर बहुत गुस्सा आया।

"आप चिंता न करें साहब , गौरव बाबू जल्दी ही आ जाएंगे "- वह मुझें दिलासा देते हुए बोली।

हम्म...हुंकार में उत्तर देकर मैं चुपचाप उस महिला के पीछे चलता रहा। थकान से अब मन ने सोचना भी बंद कर दिया। कुछ ही देर बाद हम एक जर्जर से मकान के सामने पहुंच गये।

शेष अगलें भाग में...

क्या गौरव इस जर्जर मकान में रहता है ? और वह अचानक शहर क्यो चला गया ? जानने के लिए कहानी के साथ बने रहे।

धन्यवाद।