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अग्निजा - 96

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण—96

बाबा ने हाथ ऊपर करके दोनों को आशीर्वाद दिया। ‘फिकर मत कर माते। मुझे मालूम था कि यह होने वाला है। टोटका करने वाले बहुत करीब के लोग हैं। लड़की को यज्ञ के लिए तैयार नहीं होने देगा यह टोटका। लेकिन हम चुपचाप ही अपना काम करेंगे। आप एक-दो दिनों में चेले से आकर मिल लेना। मैं इक्कीस संतों को कहला भेजूंगा...जरा भी फिक्र मत करना, हम हैं न...?’

दोनों हाथ जोड़कर निकल गयीं। शिष्य वहां पर खड़ा ही था। उसने बिना पूछे सलाह दी।‘बाबा किसी भी क्षण काशी के लिए निकल सकते हैं। इस लिए जितनी जल्दी संभव हो, यज्ञ करवा लें। नहीं तो काम रुका रहेगा। ’

मीना बहन ने पूछा, ‘काशी से वापस कब आएंगे?’

‘साधू तो चलता भला...’ शिष्य ने हंसते हुए कहा। ‘मुझे याद है, सात साल पहले बाबा तीन दिन के लिए बोल के मुंबई गये थे. और वापस आये अभी तीन महीने पहले।’

पर बाबा ने एक बात नहीं बतायी कि बाबा मुंबई की जेल में बंद थे। ठगी और बलात्कार के गुनाह में। मीना बहन चिंता और गुस्से के साथ घर वापस लौटीं। घर जाकर उन्होंने जीतू की पेशी ली, ‘एक तो उसके बालों की चिंता हम करें...और वह मेरे सामने ही बाबा का अपमान करती है। जरा सोचो तो...बहू टकली होकर हमारे घर में आएगी तो लोग क्या कहेंगे?पति के जिंदा होते हुए बहू गंजी? उसको समझाओ...लेकिन संभल कर...उसे छोड़ देने से तो काम चलने वाला ही नहीं...साम दाम दंड भेद करके उसके बालों को वापस लाओ, फिर उसे घर लेकर आओ। ’ जीतू सोच में पड़ गया कि क्या किया जाए।

रणछोड़दास ने यशोदा और केतकी को आवाज लगायी। वह गुस्से में था। उसने केतकी की तरफ बहुत घृणा से देखा, उसके बाद यशोदा पर गुस्सा उतारते हुए बोला, ‘अपनी इस अभागिन को समझाओ। अब आगे से मैं इसकी देखभाल नहीं करने वाला हूं, कहते कहते मैं थक गया। अब बहुत हुआ। वह स्कूटर खरीदती है, घर खरीदती है तो उसको कहो बाबा को भी पचास हजार रुपये दे दे। बाल फिर से आते ही मंदिर में शादी करवा देंगे। किस जन्म का कर्ज उतार रहा हूं, मैं पता नहीं...’

यशोदा ने डरते-डरते कहा, ‘मैं उसको समझाऊंगी। ’ उसी समय केतकी एक कदम आगे बढ़ाकर यशोदा के पास गयी। ‘तुम अपना समय बरबाद मत करो। मैं किसी बाबा वाबा के पास नहीं जाऊंगी। मैंने खूब इलाज करवा लिया, प्रयास किये...उसके क्या क्या दुष्परिणाम हुए हैं, आप सभी को मालूम हैं। थोड़े में कहूं तो मैं इस बाबा के पास नहीं जाने वाली। ’ इतना कह कर केतकी वहां से निकल गयी। रणछोड़ उसे उसके कमरे में जाते हुए देखता रहा। फिर उसने यशोदा की तरफ देखा, ‘तुम्हारे साथ-साथ इसे भी बचपन से ही फटके मारने की जरूरत थी। अपने ननिहाल में बछड़े की तरह भटकती फिरती चरती रही। उसी का परिणाम है ये। उसको बता दो, बाल नहीं आए तो इस घर के दरवाजे उसके लिए हमेशा के लिए बंद हो जाएंगे। ’

केतकी बाहर से भले ही बहादुर दिखती थी, लेकिन मन से वह टूट चुकी थी। डरी हुई थी। उसे लग रहा था कि वह किसी अंधेरी अंतहीन गुफा में प्रवेश करने जा रही है। लगता था इस गुफा में एक दिन दम घुटकर वह मर जाएगी।

दूसरे दिन वह जब स्कार्फ बांध कर निकली तो रणछोड़ चिढ़ कर बोला, ‘किसी बंदरिया की तरह दिखती हो। ’ केतकी भाग कर अपने कमरे में चली गयी।

उसके पीछे पीछे भावना गयी। भावना ने उसको विग लगाकर देखने की सलाह दी। केतकी रोते रोते ही बोली, ‘विग मुझे नहीं जमता। परेशानी होती है। सिर पर कोई बोझ रखा हो, ऐसा लगता है। उससे तो ये स्कार्फ ही अच्छा।’

उसने मुंह धोया। आंसू पोंछे और स्कार्फ बांध कर स्कूल के लिए निकल गयी। रणछोड़ ने गुस्से में उसका स्कार्फ खींच लिया और बोला, ‘जाओ ऐसी ही...सब तुम्हें पागल न कहें तो देखना..एक बात याद रखो। तुम्हारी वजह से मेरी जयश्री को कोई परेशानी हुई तो मैं सहन नहीं करूंगा। तुम्हारे ऐसे नाटको की वजह से मेरे परिवार की बदनामी हुई तो ठीक नहीं होगा। ’

केतकी तीखी नजरों से रणछोड़ को देखती रही। धीरे से उसने स्कार्फ उठाया, सिर पर बांधा और बाहर निकल गयी। उसे लगा कि आज का दिन बुरा ही था। शाम को ये सिद्ध भी हो गया। शाम को जीतू आया, उसका हालचाल पूछऩा छोड़ कर गुस्से में कहने लगा कि तुमने मेरी मां का अपमान किया, बाबा का अपमान किया। इस पर केतकी कुछ नहीं बोली। यह देखकर वह फिर बोला, ‘अब दो बातें कान खोल कर सुन लो। सबसे पहले तो वो बाबा जो कुछ कह रहे हैं, सब कर डालो अपने खर्च से। और दूसरी बात कि तुम्हारा ऐसा स्वभाव और नखरे हैं इसे देखते हुए मुझे लगता है कि फ्लैट में तुम्हारे साथ साथ मेरा नाम भी बोना चाहिए। यानी किस्तें तुम ही भरना, लेकिन मेरी इजाजत के बगैर तुम फ्लैट नहीं बेच पाओगी। ’

‘मैं इतनी बीमार हूं, तनाव में हूं और आपको फ्लैट अपने नाम पर करने की सूझ रही है?’

‘बेकार जुबान मत चलाओ...मैं तुम्हारा होने वाला पति हूं..मैं दो कहूं चुपचाप उसे करो...मेरा एहसान मानो कि तुम जैसी गंजी औरत से मैं अभी भी शादी करने के लिए तैयार हूं। ऐसा कोई आदमी मिल जाए तो कहना...ये लो....ये एग्रीमेंट पेपर हैं। ये मैंने अपने वकील से बनवाये हैं...उस वकील को भी पैसे देने हैं...कितने, मालूम हैं? डेढ़ हजार... ’

केतकी के हाथ में एग्रीमेंट पेपर देकर जीतू वहां से निकलने को हुआ। थोड़ा आगे जाकर वह फिर वापस आया, ‘इन पेपर्स पर साइन करने के बाद ही शादी की बातें करना। अपने बाप को भी बता देना। भीखाभाई को मैं बता दूंगा...साला क्या-क्या और कितना सहन करूंगा मैं?’

केतकी यंत्रवत चलने लगी। उसके दिमाग में विचारों का चक्र चालू था। ‘बाल कभी वापस आएंगे भी या नहीं, क्या जीवन भर इसी तरह लोगों के मजाक और उपेक्षा का सामना करते रहना होगा, मेरे जीवन का आखिर मकसद क्या है? पिता ने तो मुझे कभी पसंद ही नहीं किया। मां मुझ पर भले ही प्रेम करती हो, लेकिन मेरे लिए वह कुछ कर नहीं सकती। वह अपने लिए ही कहां कुछ कर पायी। उसके अपने ही दुख इतने हैं कि अपना दुख उसके सामने किस तरह बताऊं, भावना मुझसे अपनी जान से ज्यादा प्यार करती है, लेकिन यदि वह इसी तरह मुझसे जीवन भर जुड़ी रही तो उसके भविष्य का क्या होगा, उसकी खुशियों का क्या होगा? नहीं उसका जीवन बर्बाद करने का मुझे कोई हक नहीं। जीतू....उसका नाम मेरे दिमाग में कैसे आ गया...? प्रसन्न...वह तो मेरा मित्र है, कलीग है और संवदेनशील व्यक्ति है, इसलिए मेरी भलाई के बारे में सोचता है, मेरी चिंता करता रहता है। दूसरो के लिए तो ठीक, लेकिन मैं तो अपने आप के लिए बोझ बनती जा रही हूं...मां और भावना को मेरी चिंताओं से मुक्त करना होगा। सभी को छोड़ कर कहीं दूर निकल जाऊं तो?’

उसी समय बाजू के शंकर मंदिर में घंटानाद शुरू हो गया. केतकी के पैर वहीं थम गये।

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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