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अग्निजा - 99

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण-99

केतकी के हाथों में भरी हुई चार शॉपिंग बैग्स थीं। देखकर यशोदा को आश्चर्य हुआ, उसके पीछे पीछे रिक्शे वाला तीन और बैग लेकर आया। यशोदा कुछ कहती इससे पहले केतकी उसका हाथ पकड़कर गोल-गोल घूमने लगी। मानो किसी सहेली के साथ फुगड़ी खेल रही हो। तीन-चार फेरियां लगाने के बाद उसने यशोदा को गले से लगा लिया। यशोदा ने उसे किनारे करके चेहरा देखने लगी। केतकी बहुत खुश थी। इतनी खुश? लेकिन यशोदा को डर लगा, ये लड़की वास्तव में खुश है या दिखावा कर रही है? लेकिन केतकी अपने ही विचारों में गुम थी।

उसने यशोदा का हाथ पकड़ कर सोफे पर बिठाया। और उसके सामने बैठ कर बैग से साड़ियां निकालीं। छह साड़ियां थीं। ‘मां, दो साड़ियां घर में पहनो। कितनी पुरानी हो गयी हैं तुम्हारी साड़ियां....अब कल से इन्हें पहनना। ’

‘लेकिन...’

‘अब बीच में कुछ मत बोलो। ये देखो..ये दो साड़िया जब बाहर जाने का मन हो तो पहनना। पसंद आयीं कि नहीं?’

‘लेकिन इतना खर्च करने की क्या ....’

‘जरूरत थी...और देखो...ये दो साड़ियां महंगी हैं...इसमें से एक तुम भावना की शादी में पहन सकोगी...और एक...’

‘इतनी महंगी साड़ियां पहन कर मुझे जाना कहां है...?’

‘बीच में मत बोलो...’ दूसरी थैली से उसने वूलन स्वेटर निकाले। एक स्लीवलेस था दूसरा पूरी बाजू वाला।

‘ठंड में पहनने के लिए लेकर आयी हूं...पुराने सब फेंक दो अब।’

तीसरी थैली में हाथ डाल कर उसने एक छोटी सी डिबिया निकाली। उस डिबिया में सोने की एक पतली सी चेन थी। उसने वह यशोदा के गले में डाल दी। यशोदा उठ खड़ी हुई। ‘पागल हो गयी हो क्या? ये क्या, ये कोई समय है इतने पैसे खर्च करने का? जाओ, सब वापस कर आओ।’

‘ये तो मैं सब वापस कर भी आऊं, पर तुमने जो मुझे दिया है, उसे कैसे वापस करूं? कहां से करूं?’

‘मैंने तुम्हारे लिए कब क्या किया बेटा?’

‘मुझे जन्म दिया...मेरे लिए दूसरी शादी की...उस राक्षस के साथ डरते-डरते अपना जीवन गुजार दिया...ये सब क्या कम है? ये ऋण मैं कभी नहीं भूल पाऊंगी...’

‘अरे...ये तो मां का कर्तव्य होता है...’

‘तो फिर इसे बेटी का कर्त्वय समझो... और ये सब आज बिना वजह नहीं किया है...आज तुम्हारा अधिकार है...’

‘आज? अधिकार? मैं समझी नहीं कुछ...’

‘कल तुम्हारा जन्मदिन है, इसलिए ये सब उपहार हैं, मैंने तुम्हें अब तक कुछ नहीं दिया। ’

‘बेटा, मेरे जीवन में तुम्हारा आना ही सबसे बड़ा उपहार है मेरे लिए...और अब बुढ़ापे में भला क्या जन्मदिन मनाना...अच्छा नहीं लगता।’

‘जिनको अच्छा नहीं लगता वे अपनी आंखें बंद कर लें...मैं तुम्हारा जन्मदिन अच्छे से मनाना चाहती हूं।’

‘इसलिए इतना सब उठा कर लायी हो?’

‘तुम्हारे लिए बस इतना ही...बाकी की थैलियों में भावना के लिए सामान है। रेडीमेड ड्रेस, ड्रेस मटेरियल. साड़ी, वेस्टर्न आउटफिट, फैंसी चप्पल, इमीटेशन ज्वेलरी और जीन्स टी शर्ट।’

‘अच्छा...मुझे पता नहीं था कि मेरे साथ-साथ उसका भी जन्मदिन है...’

‘तुम्हारा ताना मैंने समझ लिया...देखो मां, शॉपिंग के लिए निकली थी तो उसके लिए भी कुछ सामान ले लिया। मेरे दो प्रिय व्यक्तियों के चेहरे पर मुझे खुशी देखनी थी।’

‘तुम चाहे जो भी कारण बताओ...पर मुझे ये कुछ जंचा नहीं।’

‘ठीक है, तुम बैठी रहो विचार करते हुए। मैं खाना अंदर रख कर आती हूं। पाव भाजी और पुलाव। तुम्हारी पसंद के रसगुल्ले और भावना के लिए गुलाबजामुन। और आइसक्रीम भी।’

‘हे भगवान...तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है...तुम्हारे बाप की बैंक है क्या जो ऐसे पैसे उड़ा रह हो?’

‘रणछोड़दास की बैंक नहीं ये तो सच है...और होती भी तो वह मुझे एक कौड़ी तक नहीं देता...हा जनार्दनभाई की बैंक होती तो उसने मुझ पर लुटा दी होती...’ इतना कहकर केतकी अंदर चली गयी।

यशोदा विचारों में खो गयी। ‘आज जनार्दन होता तो केतकी की प्रगति देख कर कितना खुश होता। खैर, जहां होगा वहां से अपनी बेटी को आशीर्वाद दे रहा होगा और खुश भी हो रहा होगा ये तो पक्का है। उऩकी मां झमकूबेन क्या कर रही होंगी? जीती हैं या मर गयी होंगी?...जो भी हो...मैं भला क्यों ये सब विचार करने बैठ गयी। ’

यशोदा सारा सामान फिर से बैग में भरने लगी। ‘नहीं...रहने दो...भावना को दिखाने के लिए...लेकिन उसके पिता और सासूमां को यह सब अच्छा नहीं लगेगा...बड़बड़ न करें तो ही ठीक...बेटी की खुशी पर पानी न फेरें ये लोग।’ अंदर न मालूम केतकी क्या कर रही थी। यशोदा ने आवाज लगायी। ‘मैं तैयार हो रही हूं, तुम भी जो साड़ी पसंद हो, पहन लो। तुम्हारे पास जो ब्लाउज हो उससे मैच करने वाली।’

यशोदा को उठना ही पड़ा। केतकी भीतर आईने के सामने खड़ी थी। अपने व्यक्तित्व को निहार रही थी। ‘मैं जो करने जा रही हूं वह ठीक है न? मेरे पास और कोई विकल्प नहीं। रोज रोज मरना, हर क्षण तड़पते रहना..लोगों की घायल करने वाली नजरें...आरपार बेधने वाली आंखें...मेरे स्वाभिमान को ध्वस्त कर डालती हैं... सब कुछ सहनशक्ति से पार हो गया है। लेकिन मां और भावना का विचार करना चाहिए कि नहीं? किया...बहुत किया...उन दोनों को दुख होगा...लेकिन वक्त गुजरने के साथ वे भी भूल जाएंगी। लेकिन केतकी नाम के बंधन से वे भी मुक्त हो जाएंगी। भावना और कितने दिनों तक मेरे भरोसे रहेगी? उसका अपना भविष्य है कि नहीं?’

केतकी बहुत अच्छे से तैयार हुई, मानो दुल्हन बनी हो। आज मां का जन्मदिन। वह खत्म होते ही मेरे पुनर्जन्म का दिन। इस जन्म में बहुत कुछ सहन किया, बहुत दुख भोगा...कभी नींद न खुले ऐसी चिरनिद्रा में सोने का इरादा है...चिता पर लेटते समय लोग मेरे गंजे सिर को देख कर हंसी उड़ाएंगे या दया दिखाएंगे?

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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