Tum door chale jana - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

तुम दूर चले जाना - भाग 5

प्लूटो की दी हुई वह पीतल की चेन, क्या कुएँ के जल ने निगल ली थी कि उसके पश्चात् ही किरण के प्यार में जैसे घुन लगना आरम्भ हो गया। प्लूटो के पत्र अचानक ही आना बन्द हो गये। वह अपनी ओर से लिख-लिखकर परेशान हो गयी, परन्तु प्लूटो ने एक भी पत्र का उत्तर नहीं दिया- नहीं दिया तो उसे अपना प्यार ही दुखी करने लगा। प्लूटो और उसके विश्वास में उसे खोट नजर आने लगी। उसके विश्वास पर वह शंकित हो गयी। सन्देह होना स्वाभाविक ही था। जो युवक उसको सप्ताह में चार-चार पत्र लिखता हो? हर पत्र में अपने प्यार का विश्वास दिलाता हो? प्यार की कसमें खायी हों? ढेरों-ढेर वायदे कर बैठा हो? यदि वही अचानक-से सुस्त पडने लगे? यकायक ठप्प-सा हो जाये? एकदम से मौन साध ले तो मनुष्य का उसके विषय में शंकित होना बहुत आवश्यक भी हो जाता है।

यही हाल किरण का भी हुआ। प्लूटो ने पत्र लिखने बन्द कर दिये तो वह उसके प्यार और विश्वास पर शक कर बैठी। उसका विश्वास हिल गया। उसकी खायी हुई कसमों और वायदों में वह एक झूठी तसल्ली की आस करने लगी। आरम्भ में किरण ने ऐसा कुछ भी नहीं सोचा था। प्लूटो के पत्र न लिखने का कारण, उसने उसकी कार्यों की व्यस्तता ही समझी- 'समय नहीं मिल पाता होगा!- कार्य और प्रशिक्षण कुछ अधिक ही बढ़ गया होगा?' आदि सोचकर वह खुद को तसल्ली देती रही, परन्तु जब हफ्ते-पर-हफ्ते समाप्त हो गये। महीने भी सरकने लगे तो वह प्लूटो की तरफ से निराश ही नहीं हुई, बल्कि पूर्ण विश्वास भी हो गया। वह उसको विशवासघाती नजर आने लगा। प्लूटो के प्यार में उसको कालापन झलकता प्रतीत होने लगा। वह उसे झूठा, फरेबी और धोखेबाज समझ बैठी- समझ बैठी तो इसके साथ ही उसकी सारी आशाओं के दीप स्वत: ही बुझ गये। सपने चटक गये। काँच के महलों के समान प्लूटो के किये हुए सारे वायदे, प्यार की कसमें टूट-टूटकर उसकी उजड़ी और खोयी हुई मुहब्बत का मजाक बनाने लगी- उसे स्वयं पर और प्लूटो पर धिक्कार आ गया। वह उदास हो गयी। गम्भीरता निराशा का दमन थाम कर स्वयं ही उसके मुखड़े की सम्पूर्ण आभा पर अपना अधिकार कर बैठी। अपनी जिन्दगी के जब प्रथम प्यार की आबरू का ही वह तमाशा बनते देख उठी, तो वह सहन भी नहीँ कर सकी। प्यार की सारी हसरतें और लालसाएँ मृत काफिलों के समान उसकी नज़रों के सामने से अर्थहीन गुबार छोडती हुई सरकने लगीं तो वह सारी दुनिया को ही झूठा समझ बैठी। उसका संसार उजड़ गया। नष्ट हो गया। संसार में वह खुद को एक लुटी हुई और तबाह नारी समझ बैठी और फिर इसके साथ ही 'प्यार' नाम से उसको नफरत हो गयी। घृणा हो आयी। प्लूटो के साथ-साथ उसे समस्त युवक जाति से ही नफ़रत हो आयी।

इस प्रकार जब वह पूर्णत: निराश हो गयी तो उसने प्लूटो का नाम भी लेना छोड़ दिया। उसके विषय में सोचना बन्द करने की एक असफल कोशिश करने लगी और फिर किसी भी तरह स्वयं को समझाकर वह अपनी पढाई में समय व्यतीत करने लगी।

… और फिर समय गुजरा तो एकदम से गुजरता ही चला गया। जाड़े की ऋतु समाप्त हो गयी। वसंत भी पतझड़ करके चला गया। काँलेज में वार्षिक परीक्षाओं की तिथि भी घोषित हो गयी। परन्तु किरण ने अपने खोये हुए प्यार और प्लूटो के द्वारा हारी हुई प्यार की इस बाजी का जिक्र किसी से भी नहीं किया। स्वयं ही उसने सारा दु:ख झेला और खुद को तरसा-तरसाकर समझा भर लिया। फिर अब कहने से होता भी क्या था? उसका प्यार तो एक प्रकार से छिन ही गया था- प्यार में यद्यपि वह लुटी नहीं थी, लेकिन छली अवश्य गयी थी, साथ ही उसकी हसरतें तो बरबाद हो ही गयी थीं। किसी से कहने-सुनने से उसे मिल भी क्या जाता? सिवाय इसके कि लोगों के मध्य उसका प्यार, स्वयं उसके ही अपमान का कारण बनता- सखियां उस पर ही व्यंग्य करतीं, सो अलग।

फिर किसी तरह किरण ने परीक्षाओं का भार अपने सिर पर से उतारा । परिश्रम और लगन से उसने परीक्षा दी और परिणाम की प्रतीक्षा करने लगी, मगर अभी उसको शायद और भी अधिक आघात मिलने थे। उसका प्यार खो गया था। प्लूटो की तरफ से वह पूर्णत: निराश हो चुकी थी, परन्तु उसके सदमों का असर अभी भी जैसे बाकी था। परीक्षा परिणाम से पूर्व ही उसको अपनी मुहब्बत और प्यार की हारी हुई बाजी का कारण ज्ञात हुआ- जबकि उसके पिता ने उसको बताया था कि प्लूटो की पैराशूट का प्रशिक्षण लेते समय दर्दनाक मृत्यु हो चुकी है- वायुयान से कूदने के पश्चात किसी कारण पैराशूट खुल नहीं सका था और प्लूटो का सारा शरीर क्षत-विक्षत हो गया था, जिसके फलस्वरूप घटना-स्थल पर ही उसकी मृत्यु हो गयी थी! किरण के पिता को प्लूटो की मृत्यु की खबर प्लूटो के पिता ने अपने एक दु:खद पत्र के साथ भेजी थी. किरण ने सुना तो सुनकर ही रह गयी। उसके दिल को एक आघात लग गया- आघात ही नहीं, किरण के लिए ये एक जबरदस्त झटका था! प्लूटो के द्वारा पत्र न लिखने का कारण जब उसको ज्ञात हुआ तो वह स्वयं को कोसे बगैर नहीं रह सकी। प्लूटो की उसे रह-रहकर याद आने लगी। उसकी हर याद में आँसू मानो प्लूटो के महान् प्यार और अमर याद की कहानी कह उठे। वह तड़प-तड़प गयी। सारे दिन रोती ही रही। सिसकती रही… । उसकी हरेक सिसकी में प्लूटो का ध्यान था। उसकी स्मृतियाँ थीं। गले की एक-एक हिचकी में उसके प्यार के वायदों और कसमों के विश्वास की एक ठोस शिला थी. साथ ही चेहरे पर पश्चाताप की झलक भी। दिल में एक पछतावा था, क्योंकि उससे पहले उसने प्लूटो को मन-ही-मन कितना अधिक भला-बुरा कहा था। वह उसके प्यार और विश्वास पर सन्देह करती आयी थी। शायद प्लूटो की मृत्यु की खबर इसी कारण उसके पास अपने विश्वास और प्यार की एक सच्ची और अनूठी अमर-गाथा समान गवाही के तौर पर किरण को प्राप्त हुई थी, ताकि 'प्लूटो' की 'किरण' मृत्यु के पश्चात भी उसपर कोई सन्देह न कर सके।

प्लूटो की मृत्यु के पश्चात किरण का जीवन स्वत: ही मलिन हो गया। उदासी उसका घर-संसार बन गयी। गम्भीरता उसकी सखी, और उसकी बड़ी-बड़ी गहरी आँखों में समायी हुई दुनिया-जहान की खामोशी उसके जीवन का पथ-प्रदर्शक बनकर उसको मार्ग दिखाने लगी। अपने को किसी तरह समझा-बुझाकर उसने विधि के कारनामों को स्वीकार कर लिया। समय से वह समझोता कर बैठी और जीवन में कभी भी दूसरा प्यार न करने का संकल्प कर लिया। जब जिन्दगी का प्रथम प्यार ही ईश्वर ने उससे छीन लिया था, तो फिर वह क्योंकर किसी गैर पर आस करती? फिर भारतीय नारी तो वैसे भी जीवन में सच्चा और अमर प्यार केवल एक से ही करती है। केवल एक ही पुरुष को अपना देवता समझकर जीवन भर पूजती रहती है। किरण ने भी सारी उम्र प्लूटो के बगैर रहना चाहा। उसकी स्मृतियों के सहारे वह अपने जीवन की दूरी और बाकी बची हुई नैया को खेने लगी। प्यार की दृष्टि से उसने पुरुषों की और देखना भी बन्द कर दिया था… और फिर एम. ए. करने के पश्चात् जब तुरन्त अध्यापिका के लिए उसका चयन हो गया, तो वह मथुरा के गर्ल्स स्कूल में आकर पढ़ाने लगी।

मथुरा आकर भी किरण के दिल का गहरा जख्म भरा नहीं था, परन्तु समय की उस पर पपड़ी अवश्य जम गयी थी। वैसे भी बढ़ता हुआ समय मानव के किसी भी दु:ख का सबसे बड़ा इंजैक्शन होता है। समय की हर पल बढती, बदलती हुई तारीखों ने किरण को जीना सिखाया। उसकी आँखों के आँसू किसी ने पोंछे नहीं थे, परन्तु वक्त की हवाओं ने सुखा अवश्य दिये थे। अब वह प्लूटो की याद में रोती नहीं थी, परन्तु तड़प अवश्य जाती थी। जब कभी भी उसे प्लूटो का खयाल आता, तभी उसके कलेजे में एक टीस-सी उठकर रह जाती। दिल में अन्दर-ही-अन्दर दर्द का गुबार उठता रहता। पहले वह घंटों रोती रहती थी। आँसू बहाती रहती, परन्तु अब उसकी स्मृतियों में सिसकी अवश्य जाती थी… । इतना होने पर भी किरण ने अपने दिल के इस दु:ख का राज किसी से भी नहीं कहा। एक बार भी उसने जिक्र तक नहीं किया, बल्कि अपनी जिन्दगी के जिये हुए पिछले दिनों की इस कटु याद को दिल के एक कोने में सुरक्षित अवश्य कर लिया था। इसीलिए वह दुनिया की अन्य बातों को छोडकर अपने काम से मतलब रखती. काँलेज जाती। लड़कियों को पढाती, फिर वहां से सीधी घर आती। यही उसका कार्यक्रम था। यही उसके जीवन के कार्यों के रहे-बचे अवशेष मात्र थे, जिनके तहत वह केवल जिन्दा लाश बनकर जी रही थी; और फिर वह अब करती भी क्या? तमन्नाएँ उसके पास थी नहीं। वह किस आस और उम्मीदों पर मुस्कुराती? आकांक्षाएँ सुस्त पड़ गयी थीं। जीवन के सारे आकर्षण प्लूटो की समाप्ति पर उसके लिए मर चुके थे। प्यार की यदि वह बाजी हार जाती, तो उसे प्रयत्नों से एक बार फिर से जीत लेने की वह आशा तो रख सकती थी, परन्तु यहां तो सब-कुछ विपरीत ही हुआ था। अपना प्यार हारने के बजाय, वह नष्ट कर चुकी थी। स्वयं विधाता ही ने उसका सब-कुछ छीना था। वह किसे दोष देती, और किसे नहीं? एक बार को पत्थरों पर भी घास उगा ली जाती है। लुटे हुए लोग फिर से आबाद हो जाते हैं। बिके हुए लोग खरीदार भी बने हैं, मगर मरे हुए इन्सान और मृत लालसायें कभी भी पुनर्जन्म नहीं लिया करती हैं। ऐसी स्थिति में किरण किस उम्मीद पर मुस्कुराती? किसके सहारे जीती? ऐसा किरण अक्सर ही सोच लेती थी- सोचती थी, और मन-ही-मन रो भी लेती थी, मगर कोई नहीं जानता था कि उसके दिल में कोई नासूर भी है, जो कभी भी पनपकर बड़ा हो सकता है। कभी भी ये नासूर उसका रहा-बचा जीवन नष्ट कर सकता है। कोई उसके प्यार के इस दुख-भरे जख्म पर अपनी सहानुभूति का मलहम लगाकर, उससे नाजायज फायदा भी उठा सकता है?

तब जीवन की इन्हीं रोजमर्रा की तंग-व्यस्त मशीनी राहों पर चलते हुए किरण की भेंट अचानक से दीपक से हुई थी। आरम्भ में वह दीपक को एक साधारण मनुष्य से अधिक महत्व नहीं दे सकी थी, परन्तु वह जब उसे प्राय: ही मिलने लगा तो वह भी स्वयं उसके करीब आती गयी। धीरे-धीरे- बिना किसी भी बात की परवाह किये बगैर…. ।

दीपक स्वभाव से बहुत ही हँसमुख और खुशदिल इन्तान था। किरण को देखते ही वह मुस्कुरा पड़ता। घंटों एक ही विषय पर बातें करता रहता। दिल खोलकर वह पैसा खर्च करता। … और किरण भी दीपक की उपस्थिति में प्रसन्न रहती। उसकी संगति में जी भरके मुरुकुरा लेती- हँसती तथा अपने अतीत की विषभरी स्मृतियों से मुक्ति पा लेती थी, लेकिन जब वह दीपक से मुक्ति पाकर अपने कमरे में आती तो प्लूटो की याद भर से ही उस का दर्द पुन: बढ़ जाता था। आँखें छलक जाती। कलेजे में बीते हुए दिनों की मधुर यादें किसी तीव्र नाइट्रिक अम्ल की आग बनकर उसको घायल कर जाती। ऐसी परिस्थिति में तब वह कुछ भी नहीं कर पाती। कुछ सोच भी नहीं पाती। अतीत और वर्तमान, दोनों ही उसके समक्ष अपनी-अपनी वास्तविकता दिखाने लगते। अपनी हैसियत और अपनी ताकत का जोर देते, तब ऐसे में दोनों ही का पलड़ा भारी हो जाता। कभी प्लूटो अपना हक और प्यार याद दिलाता। एक फर्ज और कर्तव्य की दीवार बनकर उसके आगे खड़ा हो जाता, तो कभी दीपक अपने वर्तमान की खुशियों का आकर्षण प्रस्तुत करने लगता। एक जिन्दगी वह थी, जो वह जी चुकी थी और जिसमें उसका प्यार था। किसी का प्यार से भरा अधिकार था। उसके कर्तव्य और फर्ज की दीवारें थीं, तो दूसरी तरफ़ उसका भावी जीवन भी था। भविष्य और वर्तमान का चैन और जीवन की खुशियाँ भी थीं। पिछले अतीत की यादों को दोहराकर वह रोती थी … तड़पती थी, तो वर्तमान का सुखभरा संगीत उसके जख्मों पर मलहम लगा देता था। दोनों ही क्षेत्रों का प्रभाव उस पर था। प्लूटो और दीपक दोनों ही उसके लिए एक जैसे हो गये थे- बिलकुल बराबर। ना वह प्लूटो को भूल सकती थी और ना ही वह दीपक के बगैर अपनी बची हुई जिन्दगी की खुशियों में कोई जहर घोलना चाहती थी। प्लूटो उसका पिछला और दिवंगत प्यार था- उसके अतीत का दर्द और दीपक उसके वर्तमान और भविष्य की खुशियाँ! उसके भावी जीवन की ज्योति- एक आशाओं से भरा प्रकाश! दोनों ही उसके लिए महान थे। एक अतीत की स्मृति के रूप में, और दूसरा वर्तमान और भविष्य की स्मृतियों की उपज के महत्व से; और इन दोनों की महानता को वह किसी भी दृष्टिकोण से नकार नहीं पा रही थी। जब-जब दीपक उसे मिल जाता और वह उसके सामने होता, तो उसे पाकर वह बेहाल-सी हो जाती। वह अपने पर नियन्त्रण नहीं कर पाती और तब ऐसी स्थिति में उसके अतीत का दर्द स्वत: ही उन क्षणों के लिए उसके दिल के एक कोने में छुप जाता था।

फिर दीपक ने ऐसे ही एक दिन, छुटूटी के समय किरण के साथ व्यतीत करने का कार्यक्रम बनाया। पिकनिक के रूप में- प्रातः दस बजे वे दोनों एक स्थान पर आकर मिले । दीपक ने बाजार से खाने-पीने की आवश्यक वस्तुयें खरीदीं। बिस्कुट और नमकीन के पैकेट लिए। ठंडा पेय भी लिया। फिर वह किरण को स्कूटर पर बैठाकर गोकुल की ओर चल दिया। शहर के बाहर आकर उसे सड़क साफ मिली तो उसने स्कूटर की गति भी बढ़ा दी। गति बढ़ गयी तो किरण ने दीपक को कमर में हाथ डालकर पकड़ लिया- यही सोचकर कि अधिक गति के कारण वह कोई भी दुर्घटना का कारण न बन जाये। कुछेक क्षण इसी में बीत गये। स्कूटर पर अपने प्रेमी के साथ वह उड़ने लगी, तो मन में बसे विचार भी पंख फैला उठे। किरण को सहारा मिला तो अन्त में उसने अपना सिर दीपक की पीठ पर रख दिया- बहुत खामोशी से और फिर भविष्य के सुन्दर सपनों की खोज में खो गयी। ठंडी-ठंडी हवा के कारण उसके सारे शरीर में हरारत-सी हो उठी थी। दीपक स्कूटर चलाने में व्यस्त-सा था, फिर स्कूटर पर बैठकर उसके शोर के कारण अधिक बात करने में भी असुविधा होती थी।

गोकुल आकर दीपक ने स्कूटर एक सुविधाजनक स्थान पर खड़ा किया, फिर वह एक अच्छे और सुरक्षित स्थान की तलाश में इधर-उधर देखने लगा। इतने में किरण भी उसके करीब आ गयी। आते ही अनजाने में उसने दीपक का हाथ पकड़ लिया। दीपक ने उसकी ओर निहारा, तो वह हल्का-सा मुस्कुरा पड़ी। दीपक ने भी उसकी मधुर मुस्कान का उत्तर मुस्कुराकर दिया। फिर वह उसका हाथ थामकर एक वृक्ष की छाया में बैठ गया। नीचे ही- हरी-हरी घास पर।

किरण भी उसके बगल में ही बैठ गयी- बैठकर वह दीपक का हाथ पकड़कर सहलाने लगी। शहर से दूर, एकान्त और खामोशी-भरे प्रवास के सहारे वे प्यार के सुन्दर-सुन्दर सपनों में खो गये। गोकुल के करीब ये एक पुराना-सा बाग था। भिन्न-भिन्न प्रकार के इसमें वृक्ष और पौधे थे- घना अधिक था, परन्तु फिर भी स्वच्छ था। शायद इसका माली इसको बहुत ही अच्छे ढंग से सँवारे हुए था। अधिकांशतय: प्रेमी युगल तथा परिवारी जन इसमें किसी भी छुट्टी के दिन अपना समय मनोरंजन के रूप में व्यतीत करने आते थे, मगर आज के दिन इस बाग में कोई भी नहीं था- केवल दीपक और किरण ही एक वृक्ष के नीचे बैठे हुए अपने प्यार की कसमें खा रहे थे। उन दोनों के अतिरिक्त किसी अन्य की उपस्थिति का कहीं भी आभास नहीं मिल रहा था। आस-पास, दूर-दूर तक सारा बाग खामोशियों का जैसे बेजान बुत प्रतीत होता था और उसके अन्दर किरण तथा दीपक इस बुत समान एकान्ती बाग की इबादत की सी तमन्ता लिए हुए, कोई खोये और भटके हुए तींर्थ-यात्री लगते थे। बाग में इस कदर खामोशी छायी हुई थी कि घास और ज़मीन में छिपे हुए जंगली कीड़े-मकोड़ों की कभी-कभार कोई आवाज उठती थी, तो वह स्पष्ट सुनायी दे जाती थी। बाग का माली भी अपनी कुटिया से अनुपस्थित लगता था। बाग की इन्हीं ढेर सारी खामोशियों का सहारा मिला, तो किरण दीपक के और भी पास खिसक आयी- प्यार से। साड़ी समेटकर वह उसके करीब ही बैठ गयी। दीपक ने भी बहुत प्यार से उसकी कमर में हाथ डाल दिया। फिर धीरे-से उसके कोमल हाथों की अँगुलियों को पकड़ लिया। स्पर्श का मधुर अनुभव हुआ, तो उसने किरण की अँगुलियों में अपने हाथ की अँगुलियां फँसा दी। अपने प्यार के ठोस और अडिग विश्वास का एहसास कराकर उसने किरण की आँखों में झाँका- बहुत गौर से। बड़ी देर तक वह निहारता ही रहा। किरण ने उसको इस मुद्रा में बेचैन-सा पाया, तो तुरन्त पूछ बैठी,

"इस तरह से क्या देख रहे हो?"

"तुम्हारी आँखों को।" दीपक ने उसी लहजे में कहा।

“क्यों, क्या कोई विशेष बात है इनमें?" किरण ने पूछा ।

"हाँ !”

"क्या?”

"बहुत गहरी हैं।”

"और? "

"कोई भी डूब सकता है इनमें !"

“... ?”

इस पर किरण कुछ नहीं बोली। वह चुप ही रह गयी। खामोश और गम्भीर होकर, उसने फिर कोई बात चलाये बिना अपना सिर दीपक की गोद में रख दिया। दीपक ने उसको इस दशा में पाया, तो स्वत: ही उसका हाथ उसके सिर के मुलायम बालों पर फिसलने लगा। किरण मी चुपचाप अपना सिर रखे रही… रखे-रखें सोचती रही- कृछ अपने बारे में, कुछ दीपक के प्रति। दीपक से जुड़ी हुई उसकी अभिलाषाओं के विषय में, और उन ढेर सारी आरजूओं, तमन्नाओं के प्रति, जिनकी प्लूटो के सहारे पूर्ण होने की कभी उसने आस रखी थी। एक उम्मीद रखी थी। दीपक को क्या ज्ञात था कि किरण की इन्हीं ढेरों-ढेर अतीत की मृत लालसाओं में उसका दर्द समाया हुआ हैं। उसके प्लूटो का कोई छिन्न-भिन्न सपना टूटा-बिखरा पडा है, और जिसके फिर से पूर्ण होने की आशा किरण ने स्वयं उससे ही लगा रखी है। एक बहुत बड़े विश्वास की आस लगाकर, वह उसकी शरण में आयी है। उस पर मर-मिटी जा रही है- इसी आशा में कि एक-न-एक दिन दीपक उसके जीवन में भविष्य की उन सारी खुशियों का प्रकाश भर देगा, जो कभी प्लूटो की मृत्यु के कारण उसके अतीत में नष्ट हो चुका था।

"किरण?" काफी देर बाद दीपक ने कहा।

"हूँ !" किरण वैसे ही सिर रखे-रखे बोली।

"क्या सोच रही हो?"

"सोच रही हूँ अपने बारे में।"

"क्या?"

"यही कि कहीं मैं तुम्हें बहुत अधिक तो नहीं चाहने लगी हूँ?"

"चाहने भी लगी हो तो क्या, मुझ पर विश्वास नहीं है क्या?' दीपक ने पूछा।

"है तो, लेकिन …”

"लेकिन क्या?"

"नियति का क्या भरोसा?"

"इतना डरती हो।"

"चोट खायी हुई घायल चिड़िया जो हूँ। डर जाती हूँ कि कहीं फिर हाथ मलती ही न रह जाऊं!"

तब किरण और भी अधिक गंभीर होकर बोली,

"क्या भरोसा जमाने का! ये तो वक्त है, कभी भी पलट जाये। किसी से कभी भी चाहे कुछ भी, छिन जाये। कौन परवाह करता है यहाँ? फिर मेरी भाग्य-रेखा यूं भी बहुत अधिक दुर्बल है।"

"तुम तो एकदम से निराश हो जाती हो। मेरे साये में आकर भी। यही तो कमजोरी है तुम्हारी!"

"तो क्या बहुत चाहते हो मुझे?" किरण दीपक की आँखों में आँखें डालकर बोली।

तब दीपक ने भी उसकी आँखों में देखा- कुछेक पल। उसकी झील-सी शांत गहरी आँखों में अपना प्रतिबिम्ब देखा। फिर उसका चेहरा अपने हाथ से ऊपर उठाते हुए बोला,

"बहुत नहीं, सबसे अधिक।"

इस पर किरण ने अपना सिर तुरन्त उसकी गोद में से उठा लिया। एक बार दीपक को निहारा। उसकी आँखों में देखा। थोड़ी देर नहीं, बल्कि बड़ी देर तक। जी भरके। उसमें बसे अपने प्रति प्यार के अवशेषों को ध्यान से ढूंढने लगी- ढूंढती रही- तब बड़ी देर में वह दीपक से सम्बोधित हुई। उसके सीने पर अपना सिर रखकर बोली,

"दीपक !"

"हां !"

"मुझे कभी भी छोडना मत !"

"नहीं! कभी नहीं! तुम ऐसा क्यों सोचती हो? 'दीपक' कभी भी अपनी 'किरण' के बिना जीवित नहीं रह सकता है। 'किरण' की ज्योति में ही "दीपक" का प्रकाश होता है। मैं सदैव तुम्हें अपने पास रखूंगा। किरण सदा-सदा तक तुम्हारे ही लिए जिऊँगा और मरूँगा भी और फिर पुन: कभी पुनर्जन्म में तुमसे ही मिलूँगा भी ! "

"छि: ! " किरण ने तुरन्त उसके होंठों पर अपनी अँगुली रख दी फिर बोली,

"ऐसा नही कहते हैं। मरें तो हमारे प्यार के दुश्मन।"

इस प्रकार किरण और दीपक अभी भी अपने प्यार की दुनिया बसाने में लीन थे कि, अचानक से गोकुल शहर से लाउड-स्पीकर से प्रसारण सुनायी देने लगा… म्युनिसिपल बोर्ड की तरफ़ से सूर्य-ग्रहण पड़ने की पूर्व सूचना का प्रसारण होना आरम्भ हो गया था। दिन के दो बजकर तीस मिनट हो रहे थे और ठीक पाँच मिनट के पश्चात, इस सदी का सर्वाधिक पूर्ण सूर्य-ग्रहण पड़नेवाला था। सोलह फरवरी, उन्नीस सौ अस्सी का शनिवार का दिन। बयासी वर्षों के बाद ये ग्रहण पड़ रहा था। इसी कारण लाउड-स्वीकर से प्रसारण करके शहरवासियों को इस ग्रहण की परा-बैगनी किरणों से बचाव रखने की चेतावनी दी जा रही थी, क्योंकि इस दशा में सूर्य की तरफ देखना आँखों की ज्योति के लिए हानिकारक हो सकता था। दीपक और किरण ने अचानक से इस प्रसारण को सुना तो चकित रह गये। तब उनकी समझ में आया कि क्यों सारा बाग वीरान और सुनसान नज़र आ रहा था ।

किरण तो भयभीत होकर दीपक की गोद में ही समा गयी, परन्तु दीपक तुरन्त किसी सुरक्षित स्थान की तलाश करने लगा. बाग में माली की कुटिया के अतिरिक्त दीपक को अन्य कोई सुरक्षित स्थान दिखायी नहीं दिखाई दिया। काफी देर तक वह इधर-उधर ही ताकता रहा। फिर अन्त में किरण का हाथ पकड़कर वह शीघ्र ही कुटिया के करीब पहुँच गया। संयोग था कि माली भी नदारद था। शायद सूर्य-ग्रहण के कारण वह भी नहीं आया था। इसी कारण वह भी नहीं था। कुटिया में अन्दर फूस पड़ा हुआ था। एक स्थान पर आग जलाने के लिए जमीन में हल्का-सा गइढा खोदकर स्थान सुरक्षित कर लिया गया था। वहीं कोने में छोटी-छोटी लकडियां, माचिस तथा कुछेक उपले भी रखे हुए ये। बैठने के लिए कुटिया में फूस के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। दूसरे कोने में पानी का घड़ा था। घड़े पर लोटा भी, वहाँ की सारी आवश्यकताओं की पूर्ति का एक हिस्सा बन कर इस बात की गवाही दे रहा था कि कोई-न-कोई उसमें अवश्य ही रहता है। चाहे वह माली हो अथवा कोई साधु-महात्मा।

दीपक ओर किरण कुछेक पल खड़े-खड़े ये सब देखते रहे। फिर दीपक ही उसमें प्रविष्ट हो गया। उसके पीछे-पीछे किरण भी आ गयी। ऐसे में वे अब कर भी क्या सकते थे। अनभिज्ञता में वे प्यार में अंधे होकर यहाँ चले आये थे। सूर्थ-ग्रहण होगा और उसका इस कदर खौफ उन्होंने जाना भी नहीं था। फिर इस समय इस कुटिया के अतिरिक्त वे कहीं अन्यत्र सुरक्षित स्थान पर शीघ्र जा भी तो नहीं सकते थे, क्योंकि सूर्य-ग्रहण पड़ना आरम्भ हो चुका था। धूप हलकी पीली पड़ती जा रही थी- किसी पीलिया के सताये हुए मरीज़ के समान हर पल वह कमजोर और दुर्बल पड़नी आरम्भ हो गयी थी। आकाश में कोई भी बादल या बदली नहीं थी। दूर-दूर तक कोई भी मनुष्य आता-जाता नहीं दिखायी देता था। दीपक और किरण अब तक कुटिया में बैठ चुके थे। कुछ भयभीत और कौतूहल-से बने हुए ! दोनों के मन में उत्साह और उमंग के स्थान पर एक हल्का-सा भय और संकोच भी था! शंका थी- यही कि ना मालूम क्या होनेवाला हैं? क्या होगा? कहीं कुछ अनिष्ट न हो जाये- किरण तो कम-से-कम यही सब सोच रही थी, परन्तु दीपक फिर भी संयम बनाये हुए था। बार-बार वह किरण को समझा भी देता था। उसके दिल में बसी भय की किसी शंका को समाप्त करने की कोशिश करता था।

इसी शंका-आशंका ओर चिन्ता में तीन बज गये। धूप और भी अधिक हलकी पड़ गयी। शाम जैसा वातावरण हो गया। बाग में वृक्षों पर कौओं और अन्य पक्षियों ने आकर शोर-सा मचाना आरम्भ कर दिया। फड़फड़ाते और घबराते हुए वे पेड़ों पर बैठने लगे। बसेरे की आस में, आकाश में अन्य सारे पक्षी भी बेचैन-से होकर वृक्षों की ओर भागने लगे थे… और इस प्रकार धीरे-धीरे लगभग संध्या के चार बजकर पचपन मिनट तक यही आलम बना रहा। कहीं कोई नहीं निकला। सभी अपने-अपने सुरक्षित स्थानों में बन्द हो गये थे। किसी भी मनुष्य, गाडी, स्कूटर आदि की झलक तक दिखना बन्द हो गयी थी। दीपक और किरण भी कुटिया में ही दुबके रहे। किरण ने तो भय के कारण अपनी आँखें बन्द कर ली थीं- बन्द कर वह दीपक की गोद में ही सिर रखकर, सहारा लेकर अधलेटी-सी थी और दीपक भी उसके बालों में कंघी करता रहा। साथ-साथ उसके रूप-सौन्दर्य को निहारता रहा। मीठी-मीठी, विश्वासभरी बातें करके उसका दिल बहलाता रहा। प्यार से उसे समझाता रहा। किरण भी उसका सामीप्य पाकर पलभर में ही अपने सारे दु:ख भूल गयी। दीपक का प्यार और अपनत्व पाकर वह स्वयं को अकेली न समझ सकी । 'दीपक' में उसे अपने 'प्लूटो' की झलक दिखने लगी। उसकी आँखों में प्लूटो का खोया हुआ प्यार का प्रतिबिम्ब नजर आया, तो प्यार की इस दीपावली में उसने अपनी बाँहें दीपक के गले में डाल दीं। गले में हार समान वह खुद भी झूल गयी… इस कदर कि भाव-विभोर होकर उसने अपने होंठ दीपक के होंठों पर रख दिये। गर्म-गर्म साँसों का आदान-प्रदान हुआ, तो दो दिल स्वत: हो धड़क गये। दोनों ही की धड़कनों पर जोर पड़ गया… शरीरों में हरारत हो गयी। फिर दीपक ने भी बहुत आहिस्ता-से, दुनिया से बेखबर होकर किरण को अपने अंक में भर लिया। इस प्रकार कि किरण क्षणभर की तृप्ति को पूर्ण करने की आशा में अपनी वर्षों की प्यास को भी भूल गयी। दो दिल मिल गये। साँसें एक हो गयी। तन एक हो गये। प्यार के बहके हुए कदम सँभलने से पूर्व ही फिसल गये… शायद, इसी निचाई तक पहुँचने के लिए, मनुष्य अपने को एक प्यासा पंछी समझकर तड़पता रहता है? यही वह स्थान है कि जहाँ पर पहुँचने के लिए मनुष्य क्या-से-क्या कर बैठता है? वह बहुत कुछ खोता है। कुछ पाता है, और कभी-कभी क्षणभर के आनन्द की तलाश में वह अपना सबकुछ नष्ट भी कर देता है- अपना धर्म, ईमान और व्यक्तित्व भी! शायद इसी कारण प्यार की राहों पर मतवाले होकर दौड़ते हुए कदम थमते नहीं हैं, परन्तु फिसलते हैं। किरण भी दीपक की चाहत में फिसल चुकी थी। उसकी इस फिसलन का अंजाम आगे जाकर क्या होगा? ये वह नहीं जानती थी। यदि जानती होती, तो शायद वह दीपक के इतना अधिक करीब कभी भी नहीं आती?

अगला भाग दिनांक जनवरी 22, 2023.