Tum door chale jana - 9 books and stories free download online pdf in Hindi

तुम दूर चले जाना - 9

किरण इस बार प्रसन्न ही नहीं, बल्कि सन्तुष्ट भी थी। इस समय उसे ज़माने के किसी भी दुख की परवाह नहीं थी। लगता था कि जैसे वह अपना पिछला सारा अतीत भूल गयी थी। इस समय उसका मन-मस्तिष्क, दोनों ही स्वस्थ और प्रसन्न ये। दीपक ने ऐसे ही वातावरण में अपने दिल का बोझ हल्का करने की बात सोची, तो वह अचानक ही गंभीर पड़ गया। आँखों में किरण के साथ के वे पिछले सारे दिन चलचित्र के समान आकर चले गये, जिन्हें वह अपने प्यार का वास्ता देकर उसके साथ बिता चुका था। जिन्दगी के इन ढेर सारे जिये हुए दिनों में उसने किरण का दिल जीता था। उसके साथ खेला था। खाया-पीया और उसके संग-साथ रहा था। उसके विश्वास को जीता था- किरण के साथ एक जीवन गुजारने की सच्ची-झूठी कसमें खायी थीं। उसको अपनत्व दिया था। अपनाया था। हर दृष्टिकोण से अपनापन उसका अपना था। किरण उसके आगोश में रही थी- उसको जी भरके वह प्यार करती रही थी। उसी पर अपने शेष जीवन की सारी आशाएँ लगा चुकी थी। उसके होंठों की सारी मुस्कानें दीपक पर ही केंद्रित हो चुकी थीं। वह उसे एक पल भी नहीं छोड़ सकती थी। उसके बिना वह कुछ भी नहीं थी। ऐसी विषम और कठोर स्थिति में वह कैसे सहन कर सकेगी? कैसे झेलेगी वह इतना सबकुछ? इतना बड़ा सदमा? जिन्दगी का इस कदर विष? इतना कठोर तमाचा? किस प्रकार वह स्वयं को समझा पायेगी? किस प्रकार वह इतना सबकुछ अपने दिल में उतार सकेगी? कैसे उसके कान सुनकर ये सब विश्वास कर सकेंगे? आँखों को किस तरह सन्तुष्टि होगी? होंठ क्यों नही तरस जायेंगे उसके? क्यों नहीं तड़पेगी वह, जब उसको ज्ञात होगा कि उसका प्यार एक धोखा है। दीपक ने उसके साथ छल किया है। उसे बहकाया है। उसे कहीं का नहीं छोड़ा है। उसे जीते-जी मारकर रख दिया है। उसकी जिन्दगी बिगाड़कर रख दी है। उसे जी भरके तबियत से लूटा है। बरबाद कर दिया है। एक जीवन- उसके जीवन के कितने महत्त्वपूर्ण दिनों को एक तमाशा बना दिया है। अभी किरण उसको कितना अधिक प्यार करती है। किसकदर चाहती है उसे। उस पर जान दिये रहती है। उसके दिल में कितनी श्रद्धा हैं उसके प्रति। कितना अधिक मान है। उसे तो वह अपना भगवान ही समझ चुकी है। देवता समझकर उसकी पूजा करती रहती है। दिन-रात उसकी ही आरती उतारती रहती है। ऐसी स्थिति में जब किरण को सारी वास्तविकता ज्ञात होगी, तो उस पर क्या नहीं बीत जायेगी। उसके दिल में बसी हुई सारी श्रद्धा एक नाली की गन्दगी में परिणित नहीं हो जायेगी? वह स्वयं भी टूट नहीं जायेगी, जब उसको ज्ञात होगा कि उसका प्यार तो एक छलावा है। दीपक के स्वरूप के पीछे एक धोखेबाज मनुष्य का चेहरा छुपा हुआ है। उसके 'दीपक' की पीठ में सारी जिन्दगी का काला घटाटोप अन्धकार बसा हुआ है। वह जिस युवक को अपना हमराज, हमसफर और हमकदम समझ रही है, वह तो उसके साथ एक कदम भी चलने लायक नहीं है। एक विवाहित और पिता पुरुष पर भरोसा भी क्या करना? दीपक इन्हीं सारी बातों को सोचता था, और परेशान हो जाता था।

किरण भी स्वयं बहुत देर से दीपक की इन विचारों में खोयी हुई मुद्रा को ध्यान से देख रही थी। उसके मुख की अचानक आती-जाती गम्भीरता को परखने-पढ़ने की चेष्टा करती थी। वह स्वयं भी कभी-कभी दीपक की इस मनहूस खामोशी को देखकर आश्चर्य कर जाती थी। पता नहीं क्यों आज दीपक सुबह से अचानक गम्भीर पड़ गया था? इस प्रकार कि हर पल उसके मुख की सारी मुस्कान कम होती जा रही थी। आकाश पर कभी बादल आ जाते, तो कभी पलभर में ही छँट भी जाते थे। फिर भी कुछेक बादल के टुकडे बरसकर चले भी जाते थे । दूर नैनीताल की झील पर नावें तैर रही थीं। इतनी ऊंचाई से वह छोटे- छोटे खिलौनों समान प्रतीत होती थीं। दीपक अभी तक खामोश था। साथ ही बेहद गम्भीर भी हो गया था। उधर पहाडी जवान अपने खच्चरों को खोले हुए निश्चिन्त बैठा हुआ कहीं अपने ही खयालों में गुम-सा हो गया था। चीड़ों में खामोशी भर गयी थी। पहाड़ी इलाके के इस भरपूर सौन्दर्य में भी यहाँ चुप्पी छायी हुई थी। हर वस्तु जैसे मौन हो गयी थी। दीपक अभी भी चुप ही था और उसकी इस चुप्पी को किरण बडी देर से ताके जा रही थी। किरण से जब नहीं रहा गया, तो वह दीपक के और भी पास आ गयी- बिलकुल करीब। पीछे से आकर वह उसकी बगल में ही बैठ गयी- बहुत प्यार से। उसने पहले तो दीपक को निहारा। उसकी गंभीर मुख की आभा को देखा- परखना चाहा- फिर उसके कंघे पर हाथ रखकर बोली,
"दीपक !”
“... ?” दीपक ने उसे खामोशी से गर्दन घुमाकर देखा।
"कहां खोये हुए हो? " किरण ने आश्चर्य से पूछा।
"कही भी तो नहीं।"

"तो फिर यूं अचानक से इतना सीरियस क्यों हो गये हो?" किरण ने उसे टटोलना चाहा।
"लगता है कि एक बडी मुसीबत में फँस गया हूँ मैं।" दीपक ने कहा।
इस पर किरण ने उसको देखा, सोचा और फिर वह भी गम्भीर होकर बोली,
"लगता है या सचमुच ऐसी बात है?"
"हां ! ऐसा ही है।"
"तो फिर मेरे साथ इस कठिनाई में बँटवारा कर लिया होता।"
"यही तो दिक्कत है।" दीपक ने परेशान होकर कहा।
"तो क्या मुझ पर विश्वास नहीं है?"
"जी भरके है…परन्तु फिर भी … "
"क्या ?"
"जाने क्यों डर जाता हूँ मैं?"
"मुझसे कहकर तो देखो।" किरण ने उसे बढ़ावा दिया।

“तुमसे …?"

“हुँ! मुझसे ! क्यों, क्या विशेष बात हो जायेगी, यदि तुम मुझसे कह दोगे?"
"नहीं ! तुमसे तो आखिरकार कहना ही है।"
"तो फिर क्यों सकुचाते हो?"
"डर लगता है।"
"मुझसे या अपने आप से?"
"दोनों ही से."
"फिर भी कहकर तो देखो- हो सकता है कि मैं तुम्हारी कोई सहायता कर सकूं। फिर मुझे भी तो अच्छा नहीं लगता है तुम्हारा यूँ हर वक्त का चुपचुप रहना। मेरी तो लालसा ही यही है कि तुम्हें सदैव खुश देखती रहूँ- सच ! तुम्हारी खुशियों के लिए चाहे मेरे जीवन की सारी खुशियाँ ही क्यों न दाँव पर लग जायें, फिर भी ये सौदा महँगा नहीं है-

"दीपक। कहो न- क्या बात है? बोलो ना, प्लीज ! एक बार कह दो। मैं वायदा करती हूँ कि फिर कभी भी तुम्हें यूँ परेशान करने नहीं आऊंगी। एक बार अपने दिल का सारा बोझ उतार दो। हो सकता है कि तुम्हें सन्तोष मिल जाये और मेरा तो दिल कहता हैं कि यदि मुझसे एक बार कह दोगे तो शायद तुम्हारे दिल का सारा पहाड़ जैसा बोझ भी सदा के लिए उतर जायेगा- दीपक। प्लीज, एक बार…कहो न?"

किरण ने जब इतना सबकुछ कहा, तो दीपक को थोड़ी तसल्ली-सी हुई। उसे साहस मिला। फिर उसने किरण से कहा,

"किरण ! "

"हाँ !”
"? " दीपक ने उसे बगल से निहारा। वह उसे बहुत भावुक लगी- भोली और अबोध-सी ! हर आनेवाली मुश्किल से बेखबर- निश्चिन्त-सी।
"कहो न ? " किरण ने उसे हिम्मत दिलायी।
"तुम मुझे बहुत प्यार करती हो?" दीपक ने अचानक ही पूछा, तो किरण उसके इस बे-मेल और असमय पूछे गये प्रश्न से क्षणभर को चौक गयी। आश्चर्य से उसने पहले तो दीपक को देखा, फिर गम्भीर होकर
बोली,

'क्यों, मेरे प्यार में क्या तुम्हें कोई शक है?"
"नहीं !"

"तो फिर ?"

"यूँ ही कह दिया था मैंने। हां, ये बताओ कि यदि मान लो कि कल को मैं तुमसे छीन लिया जाऊँ तो… "

"दीपक ! " किरण ने तुरन्त उसके मुख पर अपनी हथेली रख दी।
फिर तनिक भयभीत-सी होकर बोली,

"तुम्हारी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है। चलो नीचे चलते हैं।"

"?"

इस पर दीपक ने किरण को निहारा- बहुत खामोशी से, पर कहा कुछ भी नहीं ।

"चलो न ।" किरण ने आग्रह किया।

"किरण ! तुम तो मेरे दिल का बोझ सुनना चाहती थी?" दीपक बोला.

"हां ! सुनना चाहती थी मगर तुम तो बे-मतलब ही बकवास करने लगते हो ! " किरण ने शिकायत की।

"तुम इसे बकवास कहती हो? "

"और नहीं तो क्या? ये सब बेकार की बातें नहीं हैं तो फिर और ये सब क्या ... है ?”
"मेरे दिल का बोझ है। वही मुसीबत है कि जिसके कारण में परेशान हूँ."
"तुम्हारा मतलब . . . ? "
"मुझे तुमसे सचमुच ही छीन लिया गया है।"
“... ?”
किरण के सिर पर पहाड़-सा टूट पड़ा। छाती पर जैसे किसी ने बम का धमाका कर दिया हो । उरोजों पर दीपक ने आग रख दी थी । गले में जैसे अंगारे ठूंस दिये थे. मगर फिर भी किरण ने स्वयं पर संयम रखा । दिल के दर्द को बर्दाश्त करती हुई उसने कुछ कहना चाहा, मगर तभी दीपक ने आगे कहा,
"हाँ किरण ये एक सच्ची वास्तविकता है । तुम मेरी जिन्दगी में आयी इससे काफी पूर्व ही मैं तुमसे छीन लिया गया था । मैं एक विवाहित पुरुष हूँ. मेरे बच्चे हैं- पत्नी है । मैं तुम्हारा प्रेमी होने से पहले किसी की अमानत हूँ। अपनी पत्नी का पति भी हूँ … "
"नहीं ! नहीं ! मत कहो, मत बोलो दीपक ! प्लीज, मत कहो । इस ज़हर को इतना अधिक न उगलो कि मैं सुनकर मर ही जाऊँ … . किरण चीखते-चीखते ही रो पड़ी … इस प्रकार कि उसकी सिसकियों से कुमाऊँ की हर घाटी भी जैसे दहल गयी थी । शांत खडे हुए चीड़ों में हरकत-सी हो गयी । सारा वातावरण ही जैसे जान गया था- इस प्रकार कि जैसे मौन वातावरण में किसी अबला के सारे अरमान धूँ-धूँ करके जला दिये गये हों! राख हो गये हों ! किरण के स्वर में कितना दर्द था। किस कदर वह तड़प-सी गयी थी। उसका तो जैसे सारा कलेजा ही फाड़ दिया गया था । दिल के टुकड़े करके फेंक दिये गये थे। क्या उसने सोचा था, और क्या हो गया था…-क्या देखा था, और क्या पाया था ?

- क्रमश: