Tum door chale jana - 7 books and stories free download online pdf in Hindi

तुम दूर चले जाना - 7

किरण जब दीपक के साथ मथुरा के बस- अडूडे, पर उतरी, तो उस समय तक दिन डूबा जा रहा था। ठीक उसी के दिल की दशा के समान। जैसे मन-ही-मन वह भी निराश कामनाओं की ठण्डी अर्थी समान निढाल हुआ जा रहा था। आकाश पर सूर्य की अन्तिम लाली की रश्मि कभी भी अपनी जीवनलीला समाप्त कर सकती थी। दिनभर की सफर की थकी-थकायी किरण को देखकर दीपक ने पहले थोडा विश्राम कर लेना उचित समझा, इसलिए वह उसको साथ लेकर बसंस्टेड के बाहर बने एक रेस्टोरेंट की तरफ बढने लगा। किरण भी चुपचाप उसके साथ चल दी।

दीपक अभी स्टैंड के बाहरी दरवाजे के पास पहुँचा ही था कि सामने से किसी परिचित को आता देख, वह अचानक ही ठिठक गया। किरण ने तुरन्त ही उसकी मनोदशा को भांपकर सामने की ओर निहारा तो सूरज के साथ एक छोटी बच्ची को देखकर, वह भी आश्चर्य कर गयी। दीपक भी सूरज को देखकर चौक अवश्य गया था, परन्तु सूरज दीपक को पाकर पलभर को मुस्कुराया था। सूरज की इस पल-दो-पल की मुस्कान में दीपक और उसका कोई पुराना परिचय छुपा हुआ है, इस बात को किरण तुरन्त ही महसूस कर गयी थी। इसी कारण वह चुपचाप कभी दीपक को देखती तो कभी सूरज और उसके साथ आयी उस मासूम, प्यारी-सी अबोध बच्ची को प्रश्नसूचक निगाहों से ताकने लगती थी।

सूरज स्वयं ही दीपक के पास आकर खड़ा हो गया और वह छोटी बच्ची भी तुरन्त मुस्कुराकर दीपक की बगल में आकर खड़ी हो गयी ।
"सब ठीक तो है?" सूरज को यूँ आया देख दीपक ने पूछा ।
"हां ! लेकिन कहकर जाना चाहिए था तुम्हें ! यूँ अचानक चुपचाप …?"
"यार ! परिस्थिति ही कुछ ऐसी आ पड़ी थी- किरण फादर हैव गोन।" मायूस और गम्भीर होकर दीपक बोला, तो सूरज भी अचानक से चौक गया- फिर आश्चर्य से उसने कहा,
"क्या? ''
"हाँ ! दो दिन पूर्व उनकी हृदयगति रुक जाने से देहान्त हो गया है !" दीपक ने स्पष्ट कर दिया तो, सूरज पलभर को कुछ कह नहीं सका। दीपक के मुख से ऐसी अप्रत्याशित बात को सुनकर वह भी क्षणभर को उदास पड़ गया। उसका चेहरा तुरन्त ही फीका पड गया। फिर कुछ देर बाद वह किरण की और सम्बोधित हुआ। उसने कुछ कहना चाहा था, परन्तु कह नहीं सका। किरण का उदासियों में डूबा मुखड़ा देखकर, वह वहीं स्थिर हो गया था।

क्षण-दो-क्षण के लिए तुरन्त ही वहां पर उदासी छा गयी। सब ही मौन हो गये थे। सूरज ने अनजाने में बात ही ऐसी पूछ डाली थी कि सबको चुप होना पड़ा था और किरण को तो अपने पिता का जिक्र चलते ही रोना-सा आ गया था। इसी बीच दीपक ने उस छोटी बच्ची के सिर पर हाथ रखा। प्यार से उसके सिर के बाल सहंलाये- फिर बहुत अपनत्व से उससे बोला कि,

''तारिका ! ''
“... ?”
उस छोटी, प्यारी-सी बच्ची ने सिर उठाकर दीपक को निहारा, तो दीपक ने उससे पूछा,
"मम्मी कैसी हैं तुम्हारी?"
"अच्छी।" कोमल और मधुर आवाज में बच्ची बोली, तो दीपक ने ने तुरन्त उसे गोद में उठा लिया। फिर वह सबके साथ रेस्टोरेंट में प्रविष्ट हो गया। किरण भी उसके साथ-साथ चल दी।

रेस्टोरेंट में थोड़ा हल्का नाश्ता करने के पश्चात् दीपक ने सूरज से कुछ देर बात की, फिर उसने तारिका को उसके साथ भेज दिया। सूरज चला गया तो दीपक कुछ देर पश्चात् किरण के साथ वृन्दावन पहुँचा।

इसी बीच किरण ने दीपक को विदा करने से पूर्व सूरज के विषय में पूछा,
"दीपक ! "
"हां !”
"सूरज को तुम कब से जानते हो?" किऱण ने सीधी-सीधी ही बात की। एक अरसा गुजर रहा है। वह भी मेरे ही विभाग में काम करता है। वैसे ….”
"वैसे क्या ?"
"स्वभाव से वह लेखक है, बड़े प्यारे उपन्यास लिखा करता है। दीपक ने ऐसा कहा तो किरण बोली,
"उपन्यास लिखता है, ये तो मैं जानती हूँ, मगर क्या अकेला रहता हैं, या तुम्हारे साथ रहता है... विवाहित है या… मैं ज्यादा नहीं जानती हूँ उसके बारे में? "
"क्या-कहा? क्या तुम सूरज को पहले ही से जानती हो?" दीपक ने आश्चर्य से पूछा,
“हाँ ! "
"वह कैसे ?"
"पता नहीं क्यों मेरे काँलेज की चारदीवारी के नुक्कड़ पर अक्सर बैठा रहता है- घंटों बैठा-बैठा जाने क्या सोचा करता है?"
"ओह ! अच्छा … ? " दीपक बोला. फिर कुछ देर थमकर बड़ा ही निराश होकर आगे बोला,
"देवदास. अजीब ही जीवन है बेचारे का?"
"बेचारा? क्या मतलब है तुम्हारा?" किरण ने आश्चर्य से पूछा।
"हाँ ! ऐसा ही समझो। "
“वह क्यों?"
"वैसे मुझे तो कुछ बताता नहीं हैं। बस अन्दर-ही-अन्दर घुटता रहता है। जल रहा है- धीरे-धीरे- मानो कम हुआ जा रहा है?" दीपक ने कहा।
"लेखक जो ठहरा।" किरण बोली ।

फिर तुरन्त ही कुछ सोचकर बोली कि,
"तुम तो उसके फ्रैंड हो ! बहुत कुछ जानते होंगे, उसके बारे में? "
"इसी का तो रोना हैं किरण ! अगर मैं उसके दिल के दर्द का भेद जानता होता तो अब तक तो उसका समाधान करके, उसके मुँह पर मुस्कानों का "साइन बोर्ड' कस देता, मगर मैं करुं क्या ? लेखक-कलाकार जाति जो ठहरी। कितना भी करो इनके साथ। कोई लाभ नहीं। ये तो जियेंगे तो अपनी मर्जी से, मरते भी हैं तो शायद अपनी मर्जी से! जीवन का कोई औचित्य ही नहीं होता है इनके लिए- ना ही कोई मूल्य ! बस ये तो अपनी ही धुन के पक्के होते हैं। हां ! इतना फिर भी कहूँगा कि कलाकार कोई भी हो- हाथ चूमने के काबिल होते हैं इनके। इसी को देखो, इसने वह प्यारी-प्यारी दुख और दर्द-भरी कहानियां लिखी हुई हैं, कि उनके विषय में बस इतना ही कहूँगा कि ये उनके प्रकाशन के साथ-साथ स्वयं भी अमर हो जायेगा।"

" . . .?"
दीपक ने इतना कुछ सूरज के बारे में कहा, तो किरण भी खामोश हो गयी। बडी देर तक वह चुप्पी साधे रही। वह कुछ भी नहीं बोली। फिर जब कई-एक क्षण यूँ ही व्यतीत हो गये तो उसने आगे पूछा,
"तो क्या सूरज अब भी अकेला ही है?"
"बिलकुल। वह नितांत अकेला ही नहीं वरन् एकान्त-प्रिय भी हो गया है ! ''
"ये तो होना ही था। "
"मतलब?"
"यदि ये सब कुछ उसके साथ नहीं होता, तो वह कलाकार कैसे बनता? ''
"हां ! वैसे सूरज स्वभाव का बहुत नेक है।" दीपक ने उसकी जैसे तारीफ की।
"अच्छा वह लड़की उसके साथ कौन थी?" किरण को और अधिक जिज्ञासा हुई तो उसने उस बच्ची के लिए भी पूछ लिया।
"वह… वह … अच्छा, तारिका ! " दीपक अचानक ही किरण के इस बे-मेल प्रश्न को सुनकर सकपका गया।
“हां, वही ?”
"वह… वह तो उसकी भतीजी है। " दूसरे पहलू में दीपक ने तारिका के विषय में बताया तो किरण कुछ समझ नहीं सकी। फिर उस भोली-भाली किरण को क्या ज्ञात हो सकता था? वह क्या समझ सकती थी कि दीपक अपनी असलियत को भी छुपा लेगा- छुपायेगा ही नहीं वरन् उसको जाहिर भी नहीं होने देगा, हालाँकि दीपक ने किरण से कोई झूठ नहीं बोला था, मगर सच भी तो नहीं कहा था। सारी बात उसने दूसरे लहजे में कह दी थी। इस प्रकार कि किरण सब कुछ देखकर भी कुछ समझ नहीं पायी थी और अब समझती भी कैसे? किस प्रकार? किस आस और उम्मीद पर वह दीपक को गलत समझ पाती? ऐसी स्थिति में जबकि वह अपना सारा कुछ उस पर कुरबान कर चुकी थी। फिर कैसे उसकी आँखें दीपक में खोट निकाल पातीं? एक नारी होकर वह तो ऐसा सोच भी नहीं सकती थी. सोचना तो दूर शायद कल्पना भी नहीं कर पाती, क्योंकि दीपक ही अब उसका सब कुछ हो गया था। उसका सहारा था। उसके दिल का प्यार। उसका अतीत, वर्तमान और भविष्य भी… और अब इसी 'दीपक' के प्रकाश में उसे अपनी जिन्दगी गुजारनी थी। अपने जीवन की अस्त होती हुई किरणों को एक ज्योति देनी थी।

क्रमश: