Tum door chale jana - 11 books and stories free download online pdf in Hindi

तुम दूर चले जाना - 11

उस रात किरण एक पल भी नहीं सो सकी। उसचाह कर भी उसे नींद नहीं आयी। सारी रात उसने जागकर ही काट दी। उस रात सितारे सरकते रहे। बादल अपनी आवारगी में सारे आकाशमण्डल में भटकते फिरे… और पूरा नैनीताल खामोशियों का बुत बना हुआ, चुपचाप किरण की परिस्थिति को देख-देखकर, अपनी बेबसी पर आँसू बहाता रहा। झील खामोशी से उदासियों का प्रतिबिम्ब बनकर उसके दर्द में भागीदार बनकर सारी रात काँपती रही। वनस्पति भीगती रही। आकाश से शबनम की बूंदें रात की वियोगिन बनकर अपने आँसू बहाती रहीं, परन्तु किरण को एक पल भी चैन नहीं आया। वातावरण की उदासियों का सहारा लेकर वह और भी अधिक उदास हो चुकी थी। रो रही थी। अकेले-अकेले ही। चुपचाप … तथा दीपक एक ओर अपनी करवटें बदल रहा था। किरण सोचती थी और रोती थी। उसकी प्रत्येक तड़पन में एक कसक थी। दर्द था- असीम, अनकहा, दुख से भरा हुआ था- और होता भी क्यों नहीं? प्यार की वह एक जीती हुई बाजी अचानक ही हार बैठी थी। उसके सपनों पर अकस्मात ही बरबादियों के पहाड़ टूट पड़े थे। इस प्रकार कि दिल की हर हसरत, प्रत्येक इच्छा, अभिलाषाएँ, चिता की राख बनकर उड़ चुकी थीं।


सोचते-सोचते किरण ने इतना और भी सोचा- दीपक के प्रति फिर विचारा- यही कि क्या दीपक के साथ सचमुच ही यही विवशता आ गयी है? क्या सचमुच ही वह विवाहित है? उसके पत्नी और बच्चे भी हैं? यदि हैं तो उसने पहले कभी क्यों नहीं बताया? क्यों वह ये सब छुपा गया था? क्या उसके दिल में पहले ही से कोई छल था? क्या उसे ऐसा फरेबी बनना ही था? या वह मेरा प्यार पाकर उसे खोना नहीं चाहता था? और इसका सुबूत उसे मिल भी गया है- उसे धीरे-धीरे वह दिन, और वह घटना भी याद आ गयी, जबकि वह भरतपुर से वापस आयी थी। अपने पिता के निधन के परचात। मथुरा के बस-स्टॉप पर तब उसे अचानक ही सूरज मिला था। एक अन्य छोटी लड़की के साथ । शायद तारिका कहकर उसे दीपक ने संबोधित भी किया था? अवश्य हो वह दीपक की पुत्री होगी? नहीं होती तो वह क्यों दीपक को देखकर, उसके करीब आ गयी थी? क्यों दीपक ने दूसरे पहलू में सूरज से बातें की थीं? इसका अर्थ है कि दीपक के मन में पहले ही से उसके प्रति कोई खोट थी। अवश्य कोई पाप था। नहीं होता तो वह क्यों ऐसा करता? क्यों उसके साथ खेलता? और क्यों वह अन्त में इस प्रकार बेसहारा हो जाती? --- सोचते-सोचते किरण फिर फफक पड़ी। रोने लगी। आँसू स्वत: ही उसके दिल का सम्पूर्ण दर्द बनकर उसकी प्यार की लुटी हुई कहानी दोहराने लगे और किरण इस प्रकार रोती ही रही… । सारी रात अपने आँसू बहाती रही- अपनी बिगड़ी हुई किस्मत पर। अपने नसीब के प्रति। अपने दर्द में बढ़ती हुई रात के हर पल के साथ रह-रहकर तड़पती रही। किरण के इस दु:ख में कोई भी उसका साथी नहीं था। सिवा इसके कि वह परिस्थितियों की एक बेबस दुखिया नारी बनकर अपनी बरबाद मुहब्बत के पृष्ठ पलटती रहे- अपने हाथ की लकीरों को देख-देखकर स्वयं को दोषी कहती रहे। कोई भी उसका दु:ख नहीं जानता था- केवल दीपक के अतिरिक्त, परन्तु वह भी उसके इस दर्द में कोई भी बँटवारा करने में असमर्थ था, क्योंकि दु:ख उसका था। दर्द उसका था और प्रीत भी उसकी ही थी। वह 'दीपक' था, और 'किरण' उसकी थी- 'दीपक' और 'किरण'- दोनों का एक-दूसरे से सम्बन्ध था। बहुत करीबी रिश्ता था। एक-दूसरे के पूरक थे, परन्तु फिर भी उन दोनों के जीवनों में घोर अन्धकार था- 'क्रिरण' और 'दीपक' होकर भी वे अपने-अपने हिस्सों में काले थे। शायद यही प्यार है? प्यार का प्रतिफल कि प्यार करने से पहले अन्धकार, और प्यार का अंजाम पाने के पश्चात भी हर प्रेमी दुनियावी अन्धकार में ही कहीं खो जाता है- शायद फिर से उदित होने के लिए ही? कभी भी- वह फिर एक बार विलीन होने के लिए ही। कहीं भी… और इस प्रकार मानव-जीवन का ये सिलसिला चलता ही रहता है।


दूसरे दिन ही किरण मथुरा वापस आ गयी। मन मारकर- एक बेदम लाश के समान जीने की एक नाकाम कोशिश करने लगी। कहते हैं कि वक्त इन्सान के दु:ख का सबसे बड़ा मरहम होता है। किरण ने जीना सीख लिया। अकेले-अकेले ही- घुट-घुटकर। समय ने उसके आँसू पोंछे नहीं थे। परन्तु रोजाना की दिनचर्यारूपी हवाओं ने उन्हें सुखा अवश्य दिया था। दीपक को चाहकर भी वह अपने दिल से निकाल नहीं सकी थी, मगर उसके सामीप्य से तटस्थ अवश्य हो गयी थी। घाव उसके भरे नहीं थे, परन्तु उन पर समय की पपड़ी अवश्य जम गयी थी. और इस प्रकार दीपक से इस तरह अलगाव की स्थिति को कायम किये हुए, वह अपने जीवन के शेष दिन काटने लगी।


संसार में रहकर उसे जीना तो था ही- यही सोचकर वह जी रही थी। समाज, आसपास के नातेदारों, यहां तक कि अपनी सहेलियों तक से वह रिश्ता तोड़ चुकी थी। स्वत: ही वह गम्भीर हो गयी। मलिन। इस हद तक कि उसके होंठ अरसा गुजर गया, एक फीकी मुस्कान तक के मोहताज हो गये। आंखों में दुनिया-जहान का दर्द समा गया और सारा मुख- मुख की सम्पूर्ण आभा मटमैली चाँदनी की कोई अधूरी आस बनकर मृत हो गयी। दिल में कोई शोर नहीं था। मस्तिष्क में ना कोई तरंग- उल्लास- कुछ भी तो उसके पास बचा नहीं था। फिर भी अपनी जिन्दगी के इस भीषण मोड़ पर आकर भी वह दीपक से घृणा नहीं कर सकी- कर भी कैसे सकती थी? और फिर क्यों? जिस युवक के साथ वह घूमी थी। प्यार किया था। दिल-औ-जान से जिसे चाहा था और जिस पर वह अपना सबकुछ कुरबान कर चुकी थी, उसको वह यूं आसानी से नकार भी कैसे सकती थी? जिन्दगी के इतने बड़े सच-सच के इस जहर को वह हजम भी कैसे करती? दीपक से उसने प्यार किया था। कोई खेल तो नहीं खेला था- फिर ऐसी दशा में वह उसे क्योंकर झुठला पाती? यही कारण था कि दीपक उसको अक्सर याद आ जाता था। वह रह-रहकर उसे परेशान करता। उसका दिल दु:खाता, तब ऐसी परिस्थिति में किरण अपने को असहाय और बेबस जानकर अपनी बरबादियों पर आँसू बहाने लगती। बड़ी देर तक रोती रहती। हिचकियों के मध्य रो-रोकर उसकी आँखें लाल पड़ जातीं। गाल भी आँसू पोंछ-पोछकर लाल पड़ जाते। अधिकांशत: यही होता था- यही हो भी रहा था- हर क्षण-हर समय।


दिन तो किरण का जैसे-तैसे कट भी जाता, मगर जैसे ही रात्रि आती और अन्धकार का लबादा बढ़ने लगता, तो वैसे ही किरण की जान-सी निकल जाती। रात बैरागिन बनकर उसे कोसने लगती- चन्द्रमा होता तो वह उसकी उजड़ी और बरबाद मुहब्बत की दुर्दशा देखकर स्वत: ही मुँह छुपा लेता- बेबसी से, कहीं भी ओट में छिप जाता- तारिकाएँ सारी रात उसको तमाशा बना देखकर टुकुर-टुकुर ताकती रहतीं। रात की ठण्डक बढती और जब हवाएँ भी सिसकने लगती तो किरण और भी अधिक उदास पड़ जाती। फिर काली रात के समान अपनी जिन्दगी को ढलने देती- सुबह होने की प्रतीक्षा में- यही सोचकर कि शायद नये दिन की शुरुआत उसको कोई नवजीवन दे दे? शायद उसकी अन्धकार में डूबी 'किरणों' को कोई 'दीपक' अपनी ज्योति से प्रकाशमान कर दे? शायद कभी ऐसा हो जाये- हो जाये तो कितना अच्छा हो। कितना बेहतर और कितना अधिक सुखमय !


X X X


कई दिन व्यतीत हो गये।


कई हफ्ते- महीने होने को आये। किरण इसी प्रकार घुटती रही- अन्दर-ही-अन्दर बुझती रही।


नैनीताल से आये हुए उसे दो माह से अधिक होने को आये थे और वह इस बीच दीपक से एक बार भी नहीं मिली थी। भेंट करने की उसने आवश्यकता भी महसूस नहीं की थी। दीपक से क्या, वह तो अब किसी से भी नहीं मिलना चाहती थी, क्योंकि दीपक ने उसके जीवन से अपना मुख फेरा था, तो इसके साथ ही वह हर पुरुष से अपना मुँह फेर बैठी थी। जीवन के इस कठोर आघात और अपने असफल प्यार के दु:ख-दर्द और जोखिमों ने उसे कठोर कर दिया था- इसकदर कि वह हर पुरुष को अब नफरत की दृष्टि से देखने लगी थी। सुन्दर और आकर्षक युवकों से उसे ग्लानि हो आयी थी। भावुक व्यक्तियों से वह अब बात भी नहीं करती थी। उनकी और देखना भी वह मुनासिब नहीं समझती थी। उसने स्वयं ही प्रत्येक पुरुष से खुद को अलग रख कर रहना सीख लिया। खुद ही वह उनसे दूर हो गयी। अपने दिल की इस बेरुखी को वह दुनिया का सबसे बडा जहर समान समझकर झुठला गयी- वह केवल अपने काम-से-काम रखती। कम बोलती- आवश्यकतानुसार ही वह लोगों में दिलचस्पी लेती। जरूरत होती तो उनसे उतनी ही बात करती, जितनी वह आवश्यक समझती, वरना बात ही नहीं करती। मगर उसे क्या ज्ञात था कि कोई अन्य भी उसमें रुचि ले रहा था। चुपके-चुपके। बिना उसको बताये। एक तरफा ही सही, पर अपने मन की सारी आत्मा से उसकी जैसे आराधना कर रहा था!

सूरज।

सूरज कथाकार।

दर्दभरी कहानियों का लेखक !

एक गम्भीर व्यक्तित्व- खामोशी का कोई जीता-जागता इन्सान। उसके देखने का अन्दाज ऐसा कि वह जहाँ भी देखे वहां एक प्रश्नचिन्ह ही छोड़ दे। हरवक्त उसकी आँखें आकाश की शून्यता को निहारती रहती. किरण उसके विषय में इतना ही जानती थी।

सूरज जब किरण को एक दिन फिर काँलेज के नुक्कड़ पर बैठा दिख गया, तो उसके कदम स्वत: ही ठिठक गये। वह चौक गयी- चौकना स्वाभाविक ही था। काफी दिन व्यतीत हो चुके थे, जब से उसने सूरज को यहां काँलेज की चारदीवारी के बाहर बैठे नहीं देखा था। आरम्भ में ही सूरज कुछ दिन बैठा करता था, तब से अब तक एक अरसा गुजर गया था, परन्तु आज? आज सूरज को एक बार फिर उसी मुद्रा में बैठा देख किरण आश्चर्य कर गयी थी। ना चाहकर भी उसके कदम सूरज की ओर बढ़ गये। पास आकर वह पलभर को खडी हुई, स्थिर होकर वह सूरज से सम्बोधित हुई- बोली,

"सुनिये ! "

“... ?”

सूरज बोला कुछ भी नहीं, परन्तु उसने घूमकर किरण को निहारा।


"एक बात बता सकेंगे आप?" किरण ने जैसे उससे अनुरोध किया।


"कैसी बात.? "

"वह आपके मित्र दीपक… "

"काफी दिन हो गये हैं, मेरी उससे भेंट नहीं हो सकी है"। सूरज ने असमर्थता प्रकट की।

"मगर आप दोनों तो एक ही विभाग में कार्य करते हैं? किरण ने जैसे तर्क किया।

"हां ! फिर भी हम नहीं मिल सके हैं और यूँ भी मेरी सबसे कुछ अलग-अलग रहने की आदत-सी है। वैसे यदि आपको कोई विशेष कार्य हो तो, मैं उसको सूचित कर सकता हूँ।" सूरज ने कहा।

इस पर किरण थोड़ी देर को चुप हो गयी । फिर गम्भीर होकर, माथे पर बल डालकर बोली,

"कार्य तो कुछ खास नहीं है। ऐसे ही कुछ पूछना चाहती थी।"

"क्या?"

"क्या हाल हैं उनके, और उनके परिवार के? "

"ठीक ही होंगे, मगर ये सब आप क्यों पूछ रही हैं? " सूरज ने आश्चर्य से किरण को निहारा।


"क्यों क्या, मुझे अधिकार नहीं है, ऐसा कुछ भी पूछने का?"

"अधिकार? ये तो आपको बेहतर मालूम होगा। मैंने तो इसलिए कहा है कि आपकी भेंट तो दीपक से शायद प्रतिदिन ही होती थी, फिर भी … "

"होती थी, मगर अब नहीं होती है।"

"क्या में करण जान सकता हूँ? "

"जी नहीं । "

"क्यों?”

"मिस्टर सूरज ! समझदार लोग ना तो इस प्रकार की बातें कभी पूछा करते हैं और ना ही मेरे जैसे लोग कभी जाहिर किया करते हैं।"

“... ?”

सूरज किरण की इस बात पर उसे पलभर को ताकता ही रह गया। उससे कुछ भी नहीं कहा गया, फिर कह भी कैसे सकता था? किरण ने उसी के हथियार से उस पर हमला किया था। उसकी आदर्शों से युक्त उसूलों भरी बात स्वयं उसके ही मुख पर मार दी थी। कल तक जिस बात को वह कहता आया था और जिसकी शिक्षा वह दूसरों को देता आया था, उसके खिलाफ वह कुछ बोल भी कैसे सकता था। एक दिन था कि जब किरण ने यहीं इसी स्थान पर उसके दिल का भेद जान लेना चाहा था। उससे कुछ पूछा भी था, मगर तब उसने किरण का मुँह बन्द कर दिया था। यही बात तब उसने किरण से कही थी- और किरण तब अपना-सा मुँह लेकर रह गयी थी।


किरण ने उसकी मनोस्थिति को भाँप लिया, तो वह उसकी गंभीर मुद्रा को देखकर सबकुछ समझ गयी। हल्की-सी मुस्कुराहट के साथ वह बात को आगे बढाते हुए बोली,


"तो मैं उम्मीद करूँ कि आप मेरा कार्य कर देंगे?"


"शत प्रतिशत। में आज ही दीपक से भेंट करूँगा।"


ये कहकर सूरज उठ गया। किरण भी उसको जाते हए देखते रही। दूसरे दिन ही सूरज की किरण से भेंट हुई। निश्चित समय पर। निर्धारित स्थान पर। तब सूरज ने उसे बताया कि दीपक उससे मिलना चाहता है- बस स्टैंड पर अथवा और कहीं भी। पर कुछ दिनों के पश्चात ही क्रिसमस आया तो किरण की भेंट दीपक से हुई। पहले के निर्धारित किये हुए समय और स्थान पर। उन दोनों की ये भेंट सूरज के कारण ही हो पायी थी। उसी स्थान पर, पहले की तरह, जहां वे प्राय ही मिला करते थे, परन्तु पहले की भेंट और इस बार की भेंट में जमीन और आसमान का अन्तर था । दो मित्र, दो प्रेमी, दो साथी, एक होकर भी आपस में सदियों की दूरियाँ स्थापित कर चुके थे। बहुत पास थे। दिल से एक-दूसरे के अत्यन्त करीब थे, परन्तु फिर भी सदा के लिए अब दूर हो चुके थे। किरण इतना बड़ा सदमा झेलकर भी सन्तुलित हो चुकी थी, मगर दीपक फिर भी अपने को काफी कुछ दोषी, अपराधी महसूस कर रहा था। किरण से उसकी आँखें मिलाने का साहस भी नहीं हो पा रहा था। एक हीन-भावना से वह स्वत: ही भर गया था।


किरण बहुत देर तक दीपक को निहारती रही। चुपचाप उसकी मुखमुद्रा को भाँपने का प्रयत्न करती रही। स्वयं दीपक भी। उसकी भी यही स्थिति थी। काफी दिनों के पश्चात दो भटके हुए प्रेमी मिले थे, परन्तु ये उनका दुर्भाग्य था? उन दोनों की कैसी तकदीर थी? कितनी बड़ी विवशता थी? कैसी विडम्बना थी कि वे अब एक क्षण को भी पास नहीं आ सकते थे। वक्त की मार और स्वयं की अपनी ही भूलों के कारण वे अलग-अलग हो चुके थे। दोनों में से अभी तक कोई भी कुछ नहीं बोला था। दोनों ही चुप थे। क्रिसमस की रात थी। ठण्ड के कारण सारा वातावरण ही ठिठुर गया था। हवाओं में सिसकी थी। आकाश से ओस भी गिरने लगी थी और इसके साथ ही मिशन स्कूल तथा उसके पास में बने चर्च और पास की मसीही बस्ती में मकानों की छतों और दीवारों पर लोग मोमबत्तियाँ भी जलाने लगे थे । अपने प्रिय उद्धारकर्ता यीशु के जन्म-दिवस के इस पुण्य पर्व पर वे सब ही खुशियां मना रहे थे ! दीप जला रहे थे ! उनकी बस्तियों में एक हर्ष और उल्लास का वातावरण था। आज सचमुच ही जैसे उन्होंने अपने उद्धारकर्ता का दर्शन पा लिया था- जीजस क्राइस्ट उन सब के दिलों में जन्म ले चुका था।


काफी समय की एक लम्बी चुप्पी के पश्चात किरण ने ही बात आरम्भ की- बोली,


कैसे हो?”


"समझ में नहीं आता है कि क्या कहूँ ? "


"किसके लिए? " किरण ने पूछा ।


"तुम्हारे लिए।"


"मेरे लिए ? " किरण ने आश्चर्य से उसके ही शब्द दोहरा दिये। फिर जैसे उदास और गम्भीर होकर वह आगे बोली,


"मेरी तुमको यदि इतनी ही चिन्ता थी, तो शायद जान-बूझकर तुम कभी भी इतना आगे नहीं बढते, मुझे धोखे में नहीं रखते? "


"किरण ! ''


"फिर भी मैँने बुरा नहीं माना है। सारा दोष तुमको नहीं दिया है, क्योंकि जो कुछ भी हुआ हैं, उसमें तुम्हारी ही नहीं, बल्कि कुछ हद तक मेरी भी मर्जी शामिल थी। केवल दु:ख इस बात का है, कि यदि तुम ये सब नहीं छुपाते, तो मैं शायद कभी भी इतना आगे नहीं बढती। खैर ! जो भी हुआ, उसके लिए मैंने अपने आपको समझा लिया है।"


"लेकिन मैं तो अभी तक अपने आपको समझा नहीं सका हूँ ?" दीपक ने कहा।


"उसे समझाने और अपने आपको मेरे कारण परेशान करने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैंने ठोकरें खा-खाकर चलना सीख लिया है।"


" किरण ! "


"और हाँ ! तुम जो कुछ भी ये उपहार मेरे लिए लाये हो, उसे अपनी पत्नी चन्द्रा को दे देना। ईश्वर ने मुझे बहुत कुछ दिया है। नहीं मिला है तो वह जिसकी तमन्ना हर लडकी को रहती है- और उस वस्तु का तुम बँटवारा करके, किसी अन्य का दामन खाली करके मेरे आँचल में डालो, ये मैं कभी भी स्वीकार नहीं करूँगी, क्योंकि में भी एक औरत हूँ और दूसरी औरत का हक और दर्द समझ सकती हूँ।"


“अब इतना गंभीर भी मत बनो। फिर भी मेरी ओर से ये तुम्हारे क्रिसमस का उपहार है और कुछ भी नहीं।" दीपक ने कहते हुए पैकेट किरण की ओर बढाया तो किरण बोली,


"नही ! अब ऐसा नहीं हो सकता है और ऐसा अब कभी होना भी नहीं चाहिए।"


"नही होना चाहिए था, तो तुमने फिर मुझे क्यों बुलाया था यहां? क्यों मुझे चाहती हो? अब भी क्यों ऐसा कर रही हो, जबकि खूब अच्छी तरह जानती हो कि मैं तुम्हारा कोई भी भला नहीं कर सकूंगा। तुम्हारे किसी काम नहीं आ सकता। तुम्हारे लायक भी नहीं हूँ। फिर ऐसा क्यों? दीपक से जब नही रहा गया तो वह बिफर गया।


“...?"


इस पर किरण खामोशी से दीपक को निहारने लगी- बहुत गौर से। दीपक उसे बहुत ही अधिक भावुक लगा। उसके दिल ने चाहा कि वह उसे प्यार कर ले। यदि कोई अन्य स्थान और समय होता, तो शायद वह उसे चूम भी लेती, परन्तु अपनी वास्तविकता का खयाल आते ही वह स्वयं में ही तड़प गयी- तरसकर उसने दीपक को देखा। फिर कहा,


"तुम जानना चाहते हो कि अब भी मैं ऐसा क्यों करती हूँ ?"


"हाँ ! "


"इसलिए कि प्यार अन्धा होता है। मैं भी अन्धी हो गयी हूँ तुम्हारे प्यार में। तुम्हारी चाहत में। जब कभी भी यथार्थ के धरातल से हटकर तुम्हारे प्रति सोचती हूँ, तो सबकुछ अपना-सा लगता है। तुम अपने लगते हो। तुम पर प्यार आता है, मगर जब असलियत में आती हूँ तो दिल तड़पता ही नहीं, टूट भी जाता है। एक टूटा हुआ दिल फिर टूटता है। इतना सबकुछ होने पर भी में तुमसे कुछ माँगती नहीं हूं। तुम्हारे मार्ग में बाधा भी नहीं बनना चाहती हूं। एक भारतीय नारी हूं। तुमसे प्यार कर बैठी हूं तो करती भी रहूँगी। बिना किसी भी स्वार्थ और लालच के तुम्हारे ही गीत गाती रहूँगी। तुम्हारी आराधना करुँगी... बस और कुछ भी नहीं।"


"फिर भी ऐसा कब तक चलेगा? "


"जब तक वक्त चाहेगा। "


"परन्तु…. ?" दीपक कहते-कहते रुक गया, तो किरण ने उसे समझाया कि,


"तुम क्यों चिन्ता करते हो? मैं तुमसे ये तो नहीं कहती कि तुम मेरे लिए अपना घर छोड़ दो। अपनी पत्नी चंद्रा को त्याग दो। अपनी 'उल्का' और 'आकाश' को छोड़ आओ। अपनी 'तारिका' की तरफ देखना छोड़ दो- सुनो, यदि तुमने कभी भी ऐसा किया या सोचा भी तो जानते हो कि मैं क्या करूँगी ? "


"क्या करोगी?"


"आत्महत्या कर लूँगी।"


"किरण … ?"


दीपक अचानक ही जैसे डर-सा गया, तब किरण ने कहा,


"देखो दीपक, यू बी ए गुड फादर, बी ए गुड हसबैंड एण्ड बी ए गुड लवर टू " (तुम एक अच्छे पिता बनो, एक अच्छे पति बनो और एक अच्छे प्रेमी भी बनो)।


“तुम तो मेरे सारे शब्द ही छीन लेती हो किरण !" किरण के दिल की महानता और त्याग को देखकर दीपक का दिल पलभर में ही गदगद हो गया, तुरन्त ही उसके मस्तिष्क में सैकड़ों विचार आ गये। वह किरण के प्रति गहराई से सोचने पर विवश होगया। उसने गंभीरता से किरण को देखा। उसकी आँखों में छिपे दर्द को समझना चाहा। सोचा कि, निश्चय ही उसने इस भोली लडकी के प्यार को छलकर, अपने जीवन की कोई सबसे बड़ी और भयानक भूल की है। ऐसी गलती की है कि इसकी सजा यदि उसे सारे जीवनभर मिलती रहे, तो भी वह पाप का भागीदार बना रहेगा। ईश्वर उसे कभी भी क्षमा नहीं करेगा। किरण जो वास्तव में उसके जीवन में एक 'किरण' ही बनकर आयी थी, उसकी जिन्दगी में अन्धकार का जहर घोलकर वह अपराधियों की पंक्ति में सबसे आगे हो गया है। उसे ऐसा तो कमी भी नहीं करना चाहिए था। एक भोली-भाली, बेसहारा लड़की का जीवन उजाड़ने का उसे क्या अधिकार था? प्यार करने का अर्थ ये तो नहीं होता है कि किसी की जिन्दगी ही नष्ट कर दो। अब ऐसी दशा में किरण क्या करे? क्या करेगी वह? क्या कर सकती है? सिवा इसके कि अब वह सारी उम्र एक पश्चाताप की आग में जलती और झुलसती रहे। अपने खोटे नसीब को कोसती रहे। अपनी बेवफा मुहब्बत की उजड़ी और तबाह हुई लाश पर जिन्दगी की सबसे बडी भूल के आँसू बहाती रहे। रोती रहे। तड़पे और सिसकती रहे। हर वक्त। हर क्षण। दिन और रात। प्रत्येक मौसम में। शायद प्रतिदिन ही !


उस दिन की भेंट समाप्त हो गयी तो किरण ने उससे अगली मुलाकात का वायदा और समय ले लिया। फिर निश्चित समय पर किरण तो आ गयी, पर दीपक नदारद रहा। काफी देर तक वह पलकें बिछाये खड़ी रही। एक आस और उम्मीद पर हर क्षण उसकी दृष्टि दूर तक खामोश सड़क की वीरानगी को ताकने लगती। एक आशा से वह देखती, परन्तु वहां दीपक को ना पाकर वह मायूस-सी हो जाती। काफी अधिक देर हो गयी थी। सूर्य की अन्तिम किरणें भी मद्धिम पड़नी आरम्भ हो गयी थी। संध्या की अन्तिम रोशनी की अन्तिम किरणों की बौछार के कारण काँलेज के अन्दर लगे हुए यूक्लेप्टिस के पेड़ों की परछाइयाँ दूर-दूर तक सड़क को पार करके न जाने कहां पहुँच जाना चाहती थी। काँलेज में शान्ति छा गयी थी। शाम का वातावरण था। डूबती हुई साँझ की इस बेला में किरण फिर भी खड़ी थी- खड़ी-खड़ी प्रतीक्षा की घडियाँ गिन रही थी। दीपक की राह देख रही थी। प्यार की खातिर वह कहां तक बढ़ आयी थी, यहाँ तक कि अपना सबकुछ लुटाने के पश्चात् भी उसे कुछ भी नहीं मिला था और अब कुछ मिलना भी नहीं था। जिसे जिन्दगी माना था, वही उसके लिए मृत्यु बनकर उजागर हो चुका था, परन्तु फिर भी ये उसका कैसा प्यार था? कैसी इच्छा थी? दिल की कौन सी तमन्ना थी कि सब कुछ जानते हुए भी वह एक उम्मीद लगा बैठी थी। कुछ भी नहीं मिलना था, परन्तु तब भी वह अपना आँचल पसारे हुए थी। दीपक पर किसी अन्य का अधिकार था। आज से नहीं। बहुत पहले से ही वह चन्द्रा का हो चुका था, मगर ऐसी विषम परिस्थिति में भी वह उसकी प्रतीक्षा कर रही थी।


खड़े-खड़े किरण को आवश्यकता से अधिक देर हो गयी, और सांझ अच्छी तरह से डूब गयी। यहां तक कि दिन का सारा प्रकाश भी समाप्त होने लगा। मथुरा में कहीं दूर-दूर तक विद्युत बत्तियाँ भी जल गयीं- आस-पास के मन्दिरों में शाम की आरती के घण्टे भी बजने लगे और उसके काँलेज में भी बल्ब जल गये, तो उसने दीपक की आस भी छोड़ दी। सोचा कि कुछ कार्य लग गया होगा? तभी नहीं आ सका… ? आदि सोचकर वह वापस चलने को हुई कि तभी अपने पीछे किसी छाया को खड़ा देखकर वह स्तब्ध रह गयी। उसने गौर से निहारा, तो देखकर आश्चर्य भी कर गयी। .. सूरज उसके पीछे खडा था। शायद बहुत देर से?


"आप ! आप यहां ? " सहसा ही किरण के मुख से निकल गया।


“... ?"


सूरज किरण को कोई भी उत्तर नहीं दे सका।


"यहाँ कब से आये हो ? " किरण ने सीधा-सीधा ही पूछा।


"शायद बहुत देर से?"


"शायद ? …बहुत देर से ?" किरण ने आश्चर्यचकित होकर उसके ही शब्द दोहरा दिये।


"हां, काफी देर हो गयी, जब से मैं यहां पर हूँ।" सूरज ने अपने मन की बात कही तो किरण को समझते देर नहीं लगी। सूरज यहाँ क्यों आया है? क्यों छुपकर पीछे खड़ा था? खड़ा भी था तो बहुत देर से क्यों? आना ही था तो अपने विषय में उसने अवगत क्यों नहीं कराया? फिर यहां उसके पास, इस एकान्त में आने का कारण क्या है? ऐसे तन्हा स्थान में, जबकि आस-पास कोई है भी नहीं। ये ऐसे प्रश्न थे कि किरण को समझते देर नहीं लगी। वह क्षण भर में ही सूरज के मन की बात समझ गयी… तुरन्त ही उसके मस्तिष्क में अपने पिछले वह दिन भी चलचित्र की भाँति घूम गये, जबकि उसने सूरज को इसी काँलेज के नुक्कड़ पर अक्सर बैठे देखा था। घण्टों बैठा हुआ वह जाने क्या सोचता रहता था? इन सारी बातों के उत्तर किरण को तुरन्त ही मिल गये- यही कि, सूरज उसे प्यार करता है। मन-ही-मन उसे चाहता है। उस पर अपनी जान दिये फिरता है- जाने कब से? उसे चाहता आ रहा है? पर आज तक कभी भी वह अपने दिल का भेद उससे कह नहीं सका है। कभी भी जाहिर नहीं कर पाया है। अपने मन की बात तो वह उससे कह ही सकता था, मगर उसने तो कभी उससे कुछ कहा नहीं- क्यों नहीं कह सका वह? शायद दीपक के कारण? वह दीपक का मित्र है- मित्र होकर वह किस प्रकार अपने मित्र की मुहब्बत पर डाका डालता? शायद यही कारण था कि सूरज ने कभी भी अपने दिल का भेद उससे नहीं कहा। किरण ने अपने दिल में सोचकर, इसी प्रकार तसल्ली कर ली। उसने अपने विचार अपने तक ही सीमित रखे। सूरज से कुछ भी कहना उसने उचित नही समझा। फिर कहकर करती भी क्या? उसे क्या लेना था? ऐसे तो सैकड़ों उस पर मरते होंगे। अपनी जान छिड़कते होंगे। उसे तो जिसे प्यार करना था कर चुकी है। अपने जीवन में उसने दो बार प्यार किया था- दो बार उसने दिल से किसी को चाहा था, मगर दोनों ही बार वह असफल हो चुकी थी। इस कारण इस बारे में, 'प्यार' जैसै शब्द के विषय में वह अब सोच भी कैसे सकती थी? फिर सोचकर करती भी क्या? जब पिछले दोनों बार ही वह हार गयी। विधाता को उसका ये खेल पसन्द नहीं आया, तो उसे अब और आगे कदम बढाकर करना भी क्या था? आधी जिन्दगी तो उसकी कट ही गयी थी। बाकी भी कट जायेगी। इसी तरह रो-रोकर, घुट-घुटकर। शायद प्रतिदिन तिल-तिल कर मरते हुए? सोचते-सोचते, उसने विचारों से अलग हटकर सामने निहारा तो उसे अपनी स्थिति का ध्यान आया। सूरज अभी तक खड़ा हुआ था। वैसा ही। बहुत खामोश ! पूर्व मुद्रा में। एक आशा और आरजू की थाली लिए, शायद अपने मन के कोने में किसी छुपी हुई हसरत की भीख माँगना चाह रहा था !


"आप क्या सोचने लगी ? " सूरज से जब नहीं रहा गया, तो उसने पूछ ही लिया।


"कुछ नहीं।" कहकर किरण ने बात टाल दी। सूरज भी चुप हो गया। किरण उसके सामने से चली गयी। बिना कुछ भी कहे हुए और वह खड़ा-खड़ा उसे जाते हुए देखता ही रह गया।


इस प्रकार वह भेंट समाप्त हो गयी। सूरज वहीं खड़ा रहा। किरण चली गयी थी। सबकुछ समझकर भी वह अनजान बनकर, उसे टालकर चली गयी थी और सूरज अपने दिल पर हाथ रखकर ही रह गया। तरसता हुआ-सा। एक हसरत लिए हुए ही। ऐसा कई दिन चलता रहा। सूरज उसके पीछे-पीछे भागता रहा और किरण उससे दूर-दूर ही चलती रही। काँलेज के नुक्कड़ पर सूरज ने अब प्रतिदिन ही बैठना आरम्भ कर दिया था और फिर धीरे-धीरे वह किरण के पीछे साये के समान हर समय रहने की कोशिश करने लगा। कोई भी स्थान होता, चाहे कोई भी समय, अक्सर ही किरण की भेंट सूरज से हो जाती थी। बाजार में, रेस्टोरेंट में, एकान्त और सार्वजनिक स्थानों में भी, सूरज उसका जैसे हमसफर बन गया था…. और दीपक जैसे उससे अब सदा के लिए किनारा कर गया था।


एक अजीब ही दशा थी। किरण एक अनूठी ही परिस्थिति में घिर-सी गयी थी। वह दीपक को चाहती थी, और दीपक उसके प्यार को स्वीकार करने में पूर्णत: असमर्थ था- असमर्थ ही नहीं वरन् बंदिश में पड़ गया था। किरण ने दीपक को चाहा था- मगर दीपक किसी अन्य का था। चन्द्रा का- अपनी पत्नी, अपने बच्चों का रखवाला था और किरण को अब सूरज प्यार कर रहा था। जाने कब से। कितने दिनों से वह अकेले-अकेले किरण का प्यार पाने के लिए बेचैन था। इस बात को किरण ने समझा अवश्य था- महसूस भी कर लिया था, परन्तु वह भी क्या करती? दिल के हाथों वह भी मजबूर हो चुकी थी। उसकी समझ में ऐसे में कुछ भी नहीं आ पाता था कि वह क्या करे और क्या नहीं? दीपक पर वह हर दृष्टिकोण से मर- मिटी थी और अब आगे वह किसी अन्य को चाहा भी कैसे सकती थी?


कहते हैं कि प्यार की राहों पर चलनेवाला मनुष्य अंजाम की परवाह नहीं करता है। वह तो बस अपने मन में प्रियतम की छवि को बसाये हुए चलता रहता है- मंजिल की चाहत में। उसे मिले या न मिले, इसकी उसको कतई भी परवा नहीं होती। यही हाल सूरज का था। वह भी जैसे अब हाथ धोकर किरण के पीछे पड़ गया था। इसलिए वह अक्सर ही किरण के आगे-पीछे बना रहता था। किसी-ना-किसी बहाने उसके समक्ष आता ही रहता। आरम्भ में किरण ने उसकी दीवानगी समझकर ये सब टाल दिया, मगर जब सूरज ने हद कर दी, तो उसने भी इस मुसीबत से छुटकारा पा लेना उचित ही समझा। क्या फायदा था कि किसी को धोखे में रखने से, इसलिए किरण ने शुरु में काँलेज से एक माह की छुट्टी लेकर मथुरा शहर से कुछ दिनों के लिए बाहर जाना ही उचित समझा।


निश्चित समय पर वह छुट्टी लेकर अपने एक निकट सम्बन्धी की सहेली के यहां जा पहुँची। यही सोचकर कि सूरज के पास से कुछ दिन दूर रहकर वह सूरज के दिल से अपनी याद, अपना प्रभाव समाप्त कर सकेगी, परन्तु होनी को तो कूछ और ही स्वीकार था। सूरज वहां भी पहुंच गया- पहुंच गया तो खीझकर वह इलाहाबाद आ गयी। यहां पर उसके दूर के एक रिश्तेदार रहते थे।


इलाहाबाद में किरण जी कड़ा करके आ तो गयी, परन्तु यहां उसका मन पलभर को भी नहीं लग सका-लगता भी कैसे? अपरिचित स्यान, अनजाने लोग, लोगों की भीड़ में वह अकेली। उसकी सहेली हर समय तो उसके साथ नहीं रह सकती थी। वह भी एक स्कूल में अध्यापिका थी। प्रतिदिन पढ़ाने जाती थी। फिर शाम को घर पर भी वह ट्यूशन करती थी। आरम्भ के कुछ दिनों तक तो उसकी सहेली साथ-साथ बनी रही। कई-एक जगह उसको, उसने घुमा भी दिया। अपना स्कूल भी दिखाया, परन्तु बाद में उसने भी रहना कम कर दिया। आखिर घर के खर्च चलाने के लिए उसको स्कूल में जाकर नौकरी तो करनी ही थी। नौकरी तो नौकरी ही थी। इस कारण जब किरण का मन इलाहाबाद में ऊबने लगा, तो उसने वहाँ से लौटना ही ठीक समझा।


किरण अपने लौटने का कार्यक्रम बना ही रही थी और साथ में वह सूरज के लिए भी सोचती जाती थी, जिसके कारण उसे इलाहाबाद आना पड़ा था। इसी उधेड़बुन में वह एक दिन गंगा के किनारे पुल पर खड़ी हुई थी। विचारों में तल्लीन कि वह कभी दूर-दूर तक बहती मदमाती गंगा की लहरों को देखती, तो कभी उसमें दूर-दूर से स्नान करने आये हुए तीर्थ यात्रियों को। सड़क पर भीड़ थी। गंगा के मध्य नावें बड़ी बे- फिकरी से तैर रही थीं। किनारे-किनारे पण्डों और पुजारियों की छतरियां भी तनी हुई थीं और कहीं-कहीं पर कई-एक चितायें भी अपने शोलों और धुएँ के साथ इस दुनिया से अलविदा कहनेवालों को अन्तिम संदेश दे रही थीं, कुछेक ठण्डी पड़ चुकी थी, तो कुछ धूं-धूं करके जल रही थीं।


किरण का मन भी इन्हीं जलती हुई चिताओं के समान कभी-कभी सुलग जाता था। दिल में सैकड़ों अँगारे दहक उठते थे। जिन्दगी का कितना बड़ा दर्द उसके जेहन में भरा हुआ था। किसकदर उसको एक मार मिली थी। कितनी अधिक वह छली गयी थी। इसकदर कि वह अपना सब कुछ प्यार की चंद बातों में लुटाकर यहां बेबस आ गयी थी। जिन्दगी ने कितना अधिक उसे सताया था। कितना अधिक उसको दु:ख मिला था। ये वह जानती थी और उसका कोमल नारी दिल- दिल में सैकड़ों कफन सजे हुए थे। उसके प्यार की मजार के लिए। उसके अरमानों की अर्थी- अर्थी के सारे फूल उसके प्यार का प्रतिफल बनकर पलभर में ही उसके सारे शरीर को झकझोर देते थे- दूर चितायें जल रही थीं। लोग तो मरने के बाद जलते है, परन्तु वह तो जीते जी जल रही थी।


वैसे भी दिल टूटने का कोई शोर नहीं हुआ करता है- दिल पर पड़ी चोट कितनी घातक होती है, ये तो वही जानता है, जिस पर ये सब घटित होता है। किरण भी अपना दु:ख समझती थी। महसूस करती थी। प्यार की पिछली बातें उसे रह-रहकर याद आ जाती थीं। दीपक के साथ के गुजारे हुए दिन- दिनों की वे ख्वाहिशें ! प्यार के वायदे, कसमें और उसके वह सुनहरे सपने, जो क्षणभर में ही दीपक की बेवफाई पाकर अपनी मृत कामनाओं की अर्थी देखकर रो देते थे- रोते थे और किरण को तड़पा-तड़पा कर रख देते थे। दीपक की हर याद पर उसके कलेजे में टीस उठकर रह जाती थी। आँखों में सोचने ही मात्र से आँसू आ जाते थे- छलक जाती थीं। वह बार-बार अपने को अकेली, अनाथ और बेसहारा महसूस कर तरसकर ही रह जाती थी। हर बार टूटती थी। बिखरती थी और शायद प्रतिपल मरती भी थी !


किरण को पुल पर खड़े-खड़े काफी देर हो चुकी थी। आकाश में धूप खिली हुई थी। गंगा की लहरों पर नावें मस्त होकर इठला-इठलाकर फिसल रही थी। हर मनुष्य उसको खुशदिल नजर आता था। सभी अपने में ही लीन थे। किसी को भी किरण की मौजूदगी का शायद एहसास भी नहीं था। इस प्रकार किरण का दिल भी 'संगम' के इस भरे-भराए माहोल से हटकर न जाने कहाँ भटक गया था? भटककर खो गया था। इस समय उसे किसी का भी होश नहीं था। कहीं की भी परवाह नहीं थी। परवाह थी तो अपनी उजड़ी हुई जिन्दगी की। जिन्दगी के उस कठोर आघात की, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी- कभी सोचा भी नहीं था- सोच लेती तो शायद उसे ये आज़ का दिन यूं नहीं देखने को नसीब होता।


मानव जब विचारों में लीन होता है तो उसे किसी भी बात का तनिक भी होश नहीं होता है। सोचों और विचारों की दुनिया में भटककर वह अपने को ही भूल जाता है। अपने आस-पास की प्रत्येक वस्तु, हर-एक खटके तक को वह महसूस नहीं कर पाता है। यही दशा किरण की भी थी। अपने पिछले जिये हुए दिनों की यादों में वह इस कदर खो गयी थी कि उसे ये भी होश नहीं रह पाया था कि कोई उसको न जाने कब से ताक रहा है। पल-पल में उसकी एक-एक मुद्रा को निहार रहा है। उसके चेहरे के आते-जाते विचारों को भी महसूस कर चुका है। किरण अभी तक उसी दशा में थी और उसके प्यार का दीवाना- उसका प्रेमी सूरज न जाने कब से पुल के दूसरी ओर खड़ा-खड़ा, उसी को निहारे जा रहा था। चुपचाप, अकेले-अकेले-वह कभी अपने विचारों में खोयी हुई किरण को देखता, तो कभी पुल के नीचे बहते हुए जल की लहरों को। किरण अभी तक अपने अतीत के जहर को याद कर रही थी। दीपक उसे रह-रहकर याद आ जाता था। उसकी हर याद पर वह तड़प-तड़प जाती थी।


सूरज से जब अधिक प्रतीक्षा नहीं हो सकी, तो वह किरण के समक्ष आ गया, चुपचाप- बहुत आहिस्ते से। धीर से आकर वह ठीक उसके सामने ही खड़ा हो गया, तभी अचानक ही किरण की तन्द्रा टूटी। उसने ख्यालों से हटकर सामने देखा, तो देखकर आश्चर्यचकित हो गयी ! उसे अपनी आँखों पर विश्वास भी नहीं हुआ- 'सूरज यहां भी आ सकता है ?' ऐसा सोचकर, आश्चर्य से अपने आसपास देखकर, वह सूरज से सम्बोधित हुई- चौंककर बोली,


"आप… और यहां भी ?"


“... ?” सूरज किरण के इस प्रश्न पर चुप ही रहा।


"कैसे आना हुआ आपका ?” किरण ने तुरन्त ही पूछा।


"आपकी खातिर !" जाने किस भावावेश में सूरज कह गया।


"मेरी खातिर… क्यों? " जानबूझकर अनजान बनते हुए किरण ने कहा फिर थोड़ा रुककर … सोचकर आगे बोली,


"कहिये मुझसे क्या कार्य आ पड़ा है आपको? " किरण ने भेदभरी दृष्टि से देखते हुए पूछा।


"कार्य तो ऐसा कोई विशेष नहीं था, पर मैंने सोचा कि आप अकेली, अनजान शहर में- अगर आपके साथ कुछ हो गया तो… ?" सूरज ने कहा।


इस पर किरण कुछेक क्षेणों को गम्भीर हो गयी। उसने थोड़ी देर सोचा-विचारा, फिर व्यंग्यभरी मुस्कान के साथ सूरज से बोली,


"अच्छा ! बहुत खयाल है आपको मेरा? लेकिन क्या आपको मालूम है कि मेरे साथ क्या कुछ नहीं हो चुका हैं? "


"मुझे अन्दाजा है… "


"फिर भी…? आप अपने कदमों को आगे बढ़ने से रोकने की चेष्टा क्यों नहीं करते हैं? "


"क्योंकि अभी तक आपने मेरे आने का कारण तो नहीं पूछा है, किरण जी ! ''


"मैंने इसकी आवश्यकता नहीं समझी ?"


"पर मैं समझता हूँ कि मुझे इसकी जरूरत है।"


“क्यों ?"


"ये तो नहीं कह सकता कि क्यों है? लेकिन इतना जानता हूँ कि आपको अकेला और तन्हा मुझसे देखा नहीं जाता… ।"


"लगता है कि आपको झूठी थाली में खाने की आदत पड़ गयी है।"


"ये बात तो नहीं हैं, पर हां भरी-भराई थाली की बेकद्री मुझसे देखी नहीं जाती है।"


"ये बात तो आपको अपने मित्र दीपक से कहनी चाहिए थी?"


"उससे में क्या कहूँ? मैं तो आपको सम्मान देना चाहता हूँ।"


"सम्मान देना चाहते हूँ या मौका देखकर आप भी मुँह मारना चाहते है?”


''किरण जी ! "


"और फिर यदि यही बात थी तो यही सब-कुछ आपने पहले से मुझसे क्यों नहीं कहा? क्या अपने दोस्त की खातिर आपने अपने होंठों पर ताला लगा रखा था क्या?


“... ?” चुप्पी।


सूरज किरण की इन स्पष्ट और बेबाक बातों को सुनकर अचानक ही सहम गया। उसके दिल में धक सी होकर रह गयी। उसके गले से आवाज भी नहीं निकली। वह मन-ही-मन जैसे आत्मग्लानि से भर गया। उसने सोचा कि शायद उसने ऐसा कहकर कोई भूल कर दी हैं? किरण से उसे ऐसा कभी नहीं कहना चाहिए था। उसे इस प्रकार की बातें करने का क्या अधिकार? वह किरण को प्यार करता है तो क्या हुआ? उसके प्यार करने का ये तो अर्थ नहीं हुआ कि किरण भी उसे प्यार करती हो?


"क्या सोचने लगे ?" सूरज को गुमसुम पाकर किरण ने टोक दिया।


“जी … कुछ भी नहीं !


इसके आगे कोई भी कुछ नहीं बोला। सूरज से तो कुछ कहा ही नहीं गया और किरण ने भी अधिक बात करना उचित नहीं समझा। फिर यूं भी खुली सडक पर, आम लोगों के मध्य … पुल के बीचों-बी … उसे वैसे भी ये सब अच्छा नहीं लगता था। हालांकि, वह सूरज के मन की स्थिति खूब अच्छी प्रकार समझती थी। दिल से उसके सारे जज्बातों को महसूस भी करती थी, परन्तु दिल के ही हाथों वह मजबूर भी थी। जिन्दगी में दो बार के प्यार में उसे जो जहर पीना पड़ा था, उससे वह तिलमिला गयी थी। पिछला दर्द अभी भूल भी नहीं सकी थी। फिर प्यार के क्षेत्र में वह अब आगे कहीं भी नहीं जाना चाहती थी। जीवन में दो बार के प्यार का सबक ही उसको अपनी सारी उम्र के प्यार के तोहफे के रुप में जो मिल चुका था.


‘प्लूटो’ और 'दीपक' से उसने जो कुछ भी पाया था उसको वह अब 'सूरज' की चाहतों के पर्दे में ठीक करके, वह अपने उजड़े हुए प्यार पर कोई भी पैबन्द नहीं लगाना चाहती थी। यही कारण था कि उसने जिन्दगी में अब कभी भी प्यार न करने की कसम खा ली थी। इसी वजह से वह सूरज के दिल की मनोस्थिति को समझते हुए भी अनजान बनती थी- उसके निःस्वार्थ और असीम प्यार को कोई महत्व नहीं दे पा रही थी।


सूरज अभी तक खड़ा हुआ था। बिलकुल वैसा ही, पूर्व मुद्रा में। मौन और खामोश ! किरण ने उसके चेहरे को देखा- देखते ही वह उसके दिल के अन्दर अपने प्रति प्यार की असीम गहराई को समझ गयी, परन्तु फिर भी उसने सूरज को पहल करने का कोई भी अवसर नहीं दिया। चुपचाप उसने इधर-उधर देखकर सूरज से कहा,


"अच्छा ! बहुत देर हो चुकी है। मुझे शीघ्र जाना भी है ।" कहकर वह उसके सामने से पीछे ही वापस हो ली। सूरज उसको जाते हुए देखता रहा। मौन। ठगा-ठगा सा। अपलक निहारता ही रहा…बस।


रात पड़ने लगी और जब किरण अपने बिस्तर पर आ गयी, तो न चाहते हुए भी दीपक के साथ-साथ सूरज भी उसकी नैनों की खिड़की खोलकर उसके मस्तिष्क के ख्यालों में प्रवेश कर गया। वह सूरज के लिए सोचने पर विवश हो गयी। उसने सोचा, कि सूरज? हां ! सूरज ही- सूरज कथाकार। एक लेखक- उपन्यास लेखक। कितना गम्भीर चेहरा है उसका। किसकदर वह खोया-खोया रहता है। चेहरे पर भरपूर खामोशी- खामोशी में जैसे कोई आवाज छुपी हो। सुन्दर चेहरा। भरपूर व्यक्तित्व ! अच्छी लम्बाई। गेहुँआ रंग। कीर्तिमान आँखें, परन्तु जैसे सारे दुनिया जहान का दर्द समेटे हुए- कितना अधिक वह चुप रहता है? किसकदर उसको चाहता है। चुपचुप उसको ही देखता रहता है। चोर नजरों से उसे ताकता है। कितना अधिक उसे प्यार करता है। शायद बहुत ही अधिक, मगर क्या हुआ? ऐसा ही प्यार उससे दीपक ने भी तो किया था। बिलकुल इसी प्रकार वह भी दीवाना था, परन्तु कितना अधिक छली निकला ! फरेबी ! धोखेबाज- नीच ! उसका सब कुछ छीनकर ले गया। क्या पता ऐसा ही प्रतिरूप सूरज का भी हो? वह क्यों सोचती है सूरज के विषय में? वह भी तो दीपक का ही मित्र है। हो सकता है कि उसके भोलेपन में भी कोई चाल हो। उसे फिर से ठगने का कोई इरादा हो? पुरुषों की नियत का क्या भरोसा? लेकिन क्या हुआ? सूरज उसे जी-जान से प्यार तो करता ही है। शायद दीपक से भी अधिक? यदि वह उसकी बन जाये, उसकी हो जाये तो? सूरज से विवाह करने में बुराई ही क्या है? लेकिन तब क्या वह स्वयं को समझा सकेगी? खुद को तसल्ली दे सकेगी? जहां सूरज उसको इतना अधिक प्यार करता हैं। उसके दिल में एक पवित्रता है। क्या वही सब उचित है कि वह दीपक की होकर भी सूरज की बन जाये। उससे नाता जोड़ ले? क्या ये सब उचित होगा? छि:, ऐसा तो कभी भी नहीं होना चाहिए। उसे तो इस बारे में सोचना भी नहीं चाहिए। अब आगे कुछ भी सोचना पाप होगा! उसे दो बार प्यार करने का अवसर मिला था। अब ये उसका भाग्य था कि दोनों ही बार वह असफल रही। प्लूटो और दीपक उसके नसीब में नहीं थे, मगर अब उसे सूरज को तो धोखा नहीं देना चाहिए। उसको अँधेरे में नहीं रखना चाहिए। यदि कल को सूरज को ये ज्ञात हो जाये कि वह उसके मित्र दीपक को अपनी लाज तक सोंप चुकी है, तो क्या वह उसे स्वीकार कर लेगा? शायद कर भी ले? मगर इस बात का क्या भरोसा है कि वह उसके और दीपक के सम्बन्धों की स्मृति को भी भुला देगा? वह उसे दुतकार भी तो सकता है। ये भी हो सकता है कि उसके जीवन के इस कालेपन को पाकर उसका सारा प्यार पलभर में ही घृणा और नफरत में परिवर्तित हो जाये। सूरज उससे नफरत करने लगे। उसे उससे अलगाव हो जाये। यदि ऐसा हुआ तो क्या वह इतना सबकुछ बर्दाश्त कर सकेगी? कभी भी नहीं- नहीं तो इससे बेहतर यही होगा कि वह सूरज के करीब ही न आये। उसे तनिक भी प्रोत्साहन न दे। जो होना था, वह तो हो ही चुका, मगर अब आगे उसे ये सब कुछ भी नहीं करना चाहिए- अब तो उसे फूंक-फूंककर अपने पग रखने चाहिए।


सोचते-सोचते किरण ने स्वयं ही निर्णय ले लिया कि वह सूरज को अब कभी भी पहल नहीं करने देगी। वह उसके पास यदि आयेगा भी, तो वह कोई भी ध्यान नहीं देगी। उससे सदैव दूर ही रहेगी और अवसर मिलते ही वह एक-न-एक दिन अवश्य ही सूरज को साफ़-साफ कह देगी। किसी को धोखे में रखने से लाभ भी क्या?

क्रमश :