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उजाले की ओर –संस्मरण

नमस्कार

स्नेहिल मित्रों

इस अद्भुत जीवन में अद्भुत घटनाएँ होती रहती हैं | हम जानते भी नहीं कि इनके पीछे दरसल है क्या ? ये पवन की भांति घटित होती जाती हैं और हमारे मनों में कभी शीत की लहर का आभास लाती हैं तो कभी ग्रीष्म की गर्माहट !

मैंने इस स्थिति को जीया है इसलिए जब यह घटना पढ़ी तो इसे साझा करने से स्वयं को रोक नहीं सकी | कभी-कभी हम बहुत सी गलतफहमियों में जीते रहते हैं लेकिन जब तक हमें वास्तविकता का भान होता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है | हम लकीर पीटते रह जाते हैं, अफ़सोस करते रह जाते हैं, बस --इससे अधिक कुछ नहीं |

नीचे कहीं पढ़ी हुई घटना साझा कर रही हूँ, आशा है हम सब इसके भीतर कि गंभीरता को समझने का प्रयत्न करके कुछ सीखने का प्रयास करेंगे |

किसी घर की बहू कहीं अच्छे ओहदे पर कार्यरत थी | घर के बेटे यानि उस बहू के पति का बहुत अच्छा व्यवसाय था | परिवार में चारों ओर खुशहाली, आनंद बरसता | कुछ ऐसी परिस्थितियाँ हुईं कि बेटे के व्यवसाय में बहुत हानि हो गई | बहु उच्च पद पर थी, समझदार थी | उसने पति व अपने सास-ससुर से कहा कि वे चिंता न करें, वह भी तो परिवार की सदस्य है | यह समय का चक्र होता है | जब तक परिस्थितियाँ ठीक नहीं हो जातीं, वह सब कुछ संभाल लेगी |

परिवार की बेटी का विवाह सिर पर था लेकिन बेटी के ससुराल वाले भी समझदार थे | सबने मिलकर सोचा कि ये परिस्थितियाँ आनी-जानी होती हैं | कुछ दिनों में सब ठीक हो जाएगा | हुआ भी ऐसा ही | घर की बेटी के विवाह में अधिक खर्चा नहीं कर सके किन्तु जो भी हुआ, बहुत अच्छी तरह से सम्पन्न हो गया | बस, घर की बड़ी महिला यानि माँ को बहुत अधिक धक्का लगा था | स्त्रियाँ अपने बच्चों की बातों को लेकर अधिक संवेदनशील होती हैं | उन्हें अपनी बेटी के इतनी सादगी से विवाह का बहुत धक्का लगा क्योंकि बिटिया के विवाह को लेकर उनके सपने बहुत ऊँचे थे और वे बिटिया की सादगी से की गई शादी से बहुत लज्जित महसूस कर रही थीं |

उन्होंने इस बात को इतना दिल से लगा लिया कि बीमार रहने लगीं | कुछ दिनों में उनका स्वर्गवास हो गया | तक उस घर में माँ थीं तब तक कोई विशेष उलझन नहीं थी | वे अपने पूरे परिवार में एक सेतु का काम करती थीं | कोई कुछ भी न भी कहता, उसके काम पूरे हो जाते लेकिन उनके जाने के बाद बहू पर यह उत्तरदायित्व आ गया | उधर उसके पति को अपना व्यवसाय फिर से खड़ा करने में बहुत श्रम करना पड़ रहा था, वह अपने पिता को अधिक समय नहीं दे पाता था इसलिए बहू को ही सब ध्यान रखना पड़ता| बेटी के ससुराल चले जाने व पत्नी के इस प्रकार न रहने पर वे अकेले से पड़ने लगे और भीतर ही भीतर बहुत अकेलापन महसूस करने लगे |

घर में बुज़ुर्ग ससुर औऱ उसके पति के अलावा सेवक थे जो बहुत पुराने और अच्छे थे लेकिन परिवार के सदस्य की बात और होती है | पिछले कुछ दिनों से बहू के साथ एक विचित्र बात होती ।बहू जब जल्दी जल्दी घर का काम निपटवाकर कर ऑफिस के लिए निकलती ठीक उसी वक़्त ससुर उसे आवाज़ देते औऱ कभी कहते बहू, मेरा चश्मा साफ कर मुझे देती जा।कभी कहते उनकी फलाने रंग की कमीज़ नहीं मिल रही है, आज वही पहननी है, कभी कोई और बहाना बना देते लेकिन ठीक उसी समय उसे आवाज़ लगातार ऑफिस के लिए निकलते समय बहू के साथ यही होता । काम के दबाव औऱ देर होने के कारण क़भी कभी बहू मन ही मन झल्ला जाती लेकिन फ़िरभी अपने ससुर को कुछ बोल नहीं पाती ।

जब बहू अपने ससुर के इस आदत से पूरी तरह ऊब गई तो उसने पूरे माजरे को अपने पति के साथ साझा किया । पति को भी अपने पिता के इस व्यवहार पर बड़ा ताज्जुब हुआ लेकिन उसने अपने पिता से कुछ नहीं कहा। पति ने अपनी पत्नी को सलाह दी कि तुम सुबह उठते के साथ ही पिताजी का चश्मा साफ करके उनके कमरे में रख दिया करो, उनके सारे कपड़ों को रात में ही उनके कमरे में रखव दिया करो, फिर ये झमेला समाप्त हो जाएगा ।

अगले दिन बहू ने ऐसा ही किया जैसे उसके पति ने सलाह दी थी |औऱ अपने ससुर के चश्मे को सुबह ही अच्छी तरह साफ करके उनके कमरे में रख आई।लेकिन फ़िरभी उस दिन वही घटना पुनः हुई औऱ ऑफिस के लिए निकलने से ठीक पहले ससुर ने अपनी बहू को बुलाकर उसे चश्मा साफ़ करने के लिए कहा। बहू गुस्से में लाल हो गई लेकिन उसके पास कोई चारा नहीं था। बहू के लाख उपायों के बावजूद ससुर ने उसे सुबह ऑफिस जाते समय आवाज़ देना नहीं छोड़ा ।

धीरे धीरे समय बीतता गया औऱ ऐसे ही कुछ वर्ष निकल गए। अब बहू पहले से कुछ बदल चुकी थी। धीरे धीरे उसने अपने ससुर की बातों को नजरअंदाज करना शुरू कर दिया और फ़िर ऐसा भी वक़्त चला आया जब बहू अपने ससुर को बिलकुल अनसुना करने लगी । ससुर के कुछ बोलने पर वह कोई प्रतिक्रिया नहीं देती औऱ बिलकुल ख़ामोशी से अपने काम में मस्त रहती। गुज़रते वक़्त के साथ ही एक दिन बेचारे बुज़ुर्ग ससुर भी गुज़र गए।अब वह ससुर की उन्हीं बातों को मिस करती |

छुट्टी का एक दिन था। अचानक बहू के मन में घर की साफ़ सफाई का ख़याल आया। वो अपने घर की सफ़ाई में जुट गई। तभी सफाई के दौरान मृत ससुर की डायरी उसके हाथ लग गई।बहू ने जब अपने ससुर की डायरी को पलटना शुरू किया तो उसके एक पन्ने पर लिखा था-"दिनांक 24-08-09.... आज के इस भागदौड़ औऱ बेहद तनाव व संघर्ष भरी ज़िंदगी में, घर से निकलते समय, बच्चे अक्सर बड़ों का आशीर्वाद लेना भूल जाते हैं जबकि बुजुर्गों का यही आशीर्वाद मुश्किल समय में उनके लिए ढाल का काम करता है। बस इसीलिए, जब तुम चश्मा साफ कर मुझे देने के लिए झुकती थी तो मैं मन ही मन, अपना हाथ तुम्हारे सिर पर रख देता था क्योंकि मरने से पहले तुम्हारी सास ने मुझें कहा था कि बहू को अपनी बेटी की तरह प्यार से रखना औऱ उसे ये कभी भी मत महसूस होने देना कि वो अपने ससुराल में है औऱ हम उसके माँ बाप नहीं हैं। उसकी छोटी मोटी गलतियों को उसकी नादानी समझकर माफ़ कर देना । वैसे मेरा आशीष सदा तुम्हारे साथ है बेटा!! डायरी पढ़कर बहू फूटफूटकर रोने लगी। आज उसके ससुर को गुजरे कई साल बीत चुके हैं लेकिन फ़िर भी वो रोज़ घर से बाहर निकलते समय अपने ससुर का चश्मा साफ़ कर, उनके टेबल पर रख दिया करती है, उनके सब कपड़े और ज़रूरत की चीज़ें उसने ऐसे ही संभालकर रखी हैं जैसे उनके सामने रहती थीं | उसे महसूस होता है कि अनदेखे हाथ से मिले आशीष अब भी उसके साथ हैं ।

जीवन में हम रिश्तों का महत्व महसूस नहीं करते हैं, चाहे वो किसी से भी हों, कैसे भी हों और जब तक महसूस करते हैं तब तक वह हमसे बहुत दूर जा चुके होते हैं।

कहीं पर यह उपरोक्त घटना पढ़ी थीऔर मुझे अपने साथ हुई कई बातें याद आ गईं थीं | इसीलिए इसको साझा करने का मन बना लिया |

मित्रों ! सोचें, क्या ऐसा हम सबके जीवन में ही कभी न कभी नहीं होता है ?

आप सबकी मित्र

डॉ . प्रणव भारती