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अपना-पराया

 

अपना-पराया

बात उस समय की है जब भावेश की नई पोस्टिंग हुई थी भोपाल में। सब कुछ नया था। नया परिवेश, नए लोग इसलिए जाहिर सी बात है कि नई परिस्थितियां भी थीं। उन परिस्थितियों का सामना करना भी बहूत जरूरी था। भावेश जैसे तरक्कीपसंद लोगों के लिए नई परिस्थितियों का सामना करना कोई नई बात नहीं है। हर बार परिस्थितियां अगर बलिष्ठ साबित हुई तो भावेश महाबलिष्ठ साबित हुआ था। मगर पहले की बात अलग थी। भोपाल में आने से पहले वो शादीशुदा नहीं था, शादीशुदा होने के कारण भावेश के मन में तरह तरह की शंकाए अकस्मात पनप जाती।
भावेश अपनी पत्नी भावना को यह कह कर आया था कि ’’ पन्द्रह दिनों में जब वहाँ ठीकाना बना लूंगा तो तुमको भी ले जाउंगा। ’’
भावना ने अपने दिल पर बड़ा सा पत्थर रखकर अपने पति को विदा किया, हाँ बड़ा पत्थर ही तो था। विवाह के चार दिन बाद कुछ दिनों के लिए ही सही, बढ़ी दुरी।
भोपाल में भावेश अपने चाचा-चाची के घर ठहरा था, बच्चों के लिए मिठाई तो अवश्य लेकर गया था मगर मिठाई की मिठास रहने तक ही भावेश ने अपनापन महसूस किया। भावेश के वहाँ पहूँचते ही उनके घर में समझदार आदमी की जो जरूरत थी वो पूरी हो गई थी।
आज छुट्टी के सुहाने दिन में भावेश भोपाल घुमने की योजना बना ही रहा था। दिन तो सारा छह दिनों की व्यस्तता भरी दफ्तर की थकान मिटाने के लिए सोच में बिता दिया और शाम को नया फरमान आ गया।
भावेश को तैयार होते देखकर उसके चाचा ने कहा ’’ आटा खत्म है, गेंहू पिसवा कर ले आओ और हाँ ध्यान रहे कि मालती फ्लावर मिल में ही जाना और गेहंू बदल न ले, अपनी नज़र गड़ाए रखना। ’’
भावेश ’’ हाँ ’’ में सिर हिलाकर चाचा के दिए गए फरमान को पुरा करने में लग गया, अन्ततः घुमने जाने की योजना पर कुठाराघात हुआ।
पचास किलो गेहूं के बोरे को हाथ में लेकर ले जाना, बीस आदमी के बाद उसकी बारी का आना, भावेश को शारिरिक और मानसिक रूप से काफी थका चुका था। भावेश को पहले ही दिन बता दिया गया था कि हमारे घर में शाम को नाश्ता करने का नियम नहीं है, हालांकि उसने एहसास किया कि गब्लू जो अभी अन्दर की तरफ भाग है उसके हाथ में स्नैक्स से भरा प्लेट था, खैर वो नज़रअंदाज कर गया। भावेश आश्चर्य से आटा के थैला को देख रहा था और अपनी चटकती नसों का एहसास भी कर रहा था।
रात को खाना खाने के समय भावेश को अपनी चाची की बहूत बड़ी कलाकारी का ज्ञान हुआ। सभी की थालीयों में तो रोटी सामान्य आकार और मोटाई की थी मगर खुद उसकी थाली में रोटी रूमाल की तरह पतली थी, उसने दो रोटी गटकने के बाद कहा ’’ चाची और रोटी दीजिए न, दो रोटी और उसकी थाली में डाल दी गई।
रूमाल जैसी पतली चार रोटियां भी भावेश के पेट में पल रहे चुहे का कुछ भी बिगाड़ नहीं पाईं, भावेश ने मन ही मन सोचा कि अगर अब और रोटी मांगा तो लोग पेटू समझेंगे। नतीजनत वो बस बोल गया।
अगले दिन भावेश के चाचा ने कहा ’’ थोड़ी सी मेरी मदद करो, मिटींग में बहूत दिनों से नहीं जा पाया हूँ, उन लोगों ने कहा है कि सदस्यता चली जाएगी। सो चाची को बाजार ले जाना और जो भी काम बोले कर देना। ’’
भावेश ने हाँ में सिर हिलाकर अपने चाचा को आश्वस्त किया। फिर क्या था कार्यालय से आने के बाद उसका दो घंटा घर के काम में ही बितता। अपने लिए भावेश कभी समय नहीं निकाल पाता। इसी बीच उसने अपनी चाची से भावना को यहाँ अपने साथ लाकर रखने की बात भी कही, मगर चाची ने अनसुना कर दिया, उनके अनसुना करने का मतलब ही है सीधे तौर पर खारिज कर देना।
एक दिन चाची को बाजार से लाने के क्रम में भावेश को चाचा की मिटींग का भी ज्ञान हुआ। सभागार कोई चार दिवारी में नहीं, बल्कि खुले आकाश के नीचे थी। जरूरी काजगजात के स्थान पे सबके हाथ में ताश के पत्ते थे। उसके चाचा खिलखिला कर हंस रहे थे और ताश के पत्ते बांटते हुए अपनी सदस्यता खत्म होने से बचा रहे थे।
भावेश के मन-मस्तिष्क पे एक तो भावना की याद और चाची की नोंक-झोंक एक साथ हाबी हुई।
घर जाकर लौट कर आने का बहाना बनाकर भावेष चाचा-चाची के घर से निकला और फिर वहाँ कभी नहीं गया।
भावना को जब साथ लेकर भोपाल आया तो बिल्कूल नई जगह पे किराया का मकान उसने लिया। नए जगह पर मिस्टर वर्मा के व्यवहार से उसको ऐसा लगा कि उसको बहूत दिनों से जानते हैं। बात बात में उनका सर जी कहना भावेश को अच्छा लगा।
मिसेज वर्मा का भावना के संग इस तरह से घुल-मिल जाना भावेश और भावना को बहूत अच्छा लगा।
अपना-पराया, अपनों ने पराया सा व्यवहार किया और पराए ने अपनों सा व्यवहार किया।

समाप्त