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उजाले की ओर –संस्मरण

स्नेहिल नमस्कार मित्रो

आज माँ - पापा को याद करते हुए

मित्रों को बसंत की स्नेहिल शुभकामनाएँ

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बसंत ऋतु आई,मन भाई फूल रहीं फुलवारियाँ

टेसू फूले, अंबुआ मौले, चंपा, चमेली सरसों फूले

फूट रही कचनारियाँ----

भँवरे की गुंजन मन भाए, ऋतु बासन्ती मन हर्षाए

आओ सब मिल शीष नवा लें, स्वर की साधना कर हर्षा लें

पुष्पित हैं अमराइयाँ ----

(माँ)

स्व.दयावती शास्त्री

माँ मन में हैं,वो ही मार्ग-दर्शन करती हैं | आँसुओं की लड़ी को अनदेखे ही अपने आँचल में छिपा मुख पर मुस्कान बिखरा देती हैं | माँ को विशेष रूप से मैं शायद ही कभी याद कर पाती हूँ | उस दिन तो बिलकुल  भी नहीं जिस दिन माँ का दिन ‘मदर्स-डे’ मनाया जाता हो | कभी यह एहसास ही नहीं हुआ कि माँ का कोई विशेष दिन होता है या होना चाहिए| वे हर पल एक विचार के रूप में मन में रहती हैं सीधी, सरल, सहज माँ ! संस्कृत की अध्यापिका माँ ! मुझे ज़बरदस्ती बी.ए में संस्कृत विषय दिलाने वाले माँ-पापा कहीं न कहीं मार्ग प्रशस्त करते ही रहते हैं | 

मैं ही उनकी योग्य संतान नहीं निकल पाई | हाँ,जो कुछ भी अंतर की गहन गहराइयों से निकलकर सामने आ खड़ा होता है, उसमें उनका अक्स निश्चित ही होता है अन्यथा मैं स्वयं में एक बहुत बड़ा शून्य!! माँ की डायरी में बहुत कुछ लिखा था लेकिन न तो मैं उनके लिखे हुए को सम्हाल पाई,न ही पापा की स्मृतियों को जो ‘वेद-भगवान’ के रूप में मेरे पास वर्षों रहीं लेकिन मेरा तो यही सोचने में समय निकल गया कि उनके इस ख़ज़ाने को सही स्थान कहाँ मिलेगा ? संभव है,मैं उनके लिए उचित स्थान नहीं तलाश सकी अब वे जिन हाथों में है, उनके द्वारा उन्हें उचित सम्मानित स्थान मिल सके | 

स्वामी गंगेश्वरानंद जी जन्मांध थे,चारों वेद उन्हें कंठस्थ थे, उन्होंने ही पिता के निवास पर दिल्ली में उन ‘वेद भगवान’ की स्थापना की थी जो एक ही जगह चारों वेद सुगठित रूप में थे और पूरे विश्व में गिने-चुने थे | स्वामी जी ने उनको ‘वेद भगवान’ का स्वरूप दिया | वेद मंदिरों की स्थापना बहुत स्थानों पर की | उन्होंने वेद मंदिरों में वेद भगवान की मूर्ति स्थापित की थी जिनके चार हाथों में चारों वेदों को दर्शाया गया है | पिता उनसे जुड़ ही चुके थे और अपना अधिकांश समय देश-विदेशों में वेद-प्रचार के लिए देते रहे | वे कभी भी परिवार से बहुत जुड़कर नहीं रह सके,अपने जीवन के अंतिम दिनों में तो बिलकुल भी नहीं | वे भले थे और वेद के प्रति उनका मोह ! ये वेद भगवान बहुत बहुमूल्य खजाना !लेकिन समय की बलिहारी,परिस्थितियों को प्रणाम जो पिता के न रहने पर न जाने क्यों मेरे पास आ गए | मैं उन्हें कहीं ऐसे स्थान पर प्रतिष्ठित करना चाहती थी जहाँ उनका पूरा सम्मान हो सके | इसी सोच में पूरी ज़िंदगी निकल गई और वे मेरे पास नहीं रहे | मुझे लगता है शायद इसके पीछे भी कोई ऐसा पुख़्ता कारण ही रहा होगा,जो शायद अपने आलस्य के फलस्वरूप मैं नहीं कर सकी,वह शुभ कार्य अब किसी के हाथों हो जाए !

इसी बात के साथ जुड़ी एक घटना की स्मृति हो आई | पापा उन दिनों अहमदाबाद आए हुए थे,आए हुए क्या थे,वे कहीं विदेश से वेदों पर व्याख्यान देकर बंबई की ओर से वापिस भारत आए थे | उन दिनों स्वामी जी अहमदाबाद के वेद-मंदिर में आए हुए हैं सो पापा भी वहीं आ गए | उन्होंने मुझसे कहा कि अच्छा अवसर है, मुझे स्वामी जी के दर्शन कर लेने चाहिए | मैंने बहुत दिनों पूर्व स्वामी जी के दिल्ली में दर्शन किए थे, पापा बताते रहते थे कि वे मुझे याद करते रहते हैं| 

उन दिनों मैं गुजरात विद्यापीठ से पीएच.डी कर रही थी| मैंने पापा से कहा कि वे वेद-मंदिर में पहुँचें मैं विद्यापीठ से सीधी पहुँच जाऊँगी | राजेन्द्र पाण्डेय मेरे सीनियर थे और मुझे वहाँ के सभी छोटे छात्र दीदी कहने लगे थे | राजेन्द्र को पता चला और उसने मुझसे स्वामी जी के दर्शन करने की इच्छा प्रगट की| जब मैं राजेन्द्र के साथ वेद मंदिर पहुँची तब पापा दिखाई नहीं दिए वे कहीं और व्यस्त थे | स्वामी जी से जुड़े अधिकांश लोग मुझसे परिचित थे अत: उन्होंने मुझे सीधे स्वामी जी के पास हॉल में जाने को कहा | 

मैंने हॉल में अपने कदम रखे ही थे कि स्वामी जी का स्वर सुनाई दिया, “प्रणव आई हैं क्या ?”

वहाँ बैठे हुए सब लोगों ने घूमकर देखा और मैं व राजेन्द्र सकपका गए | स्वामी जी ने बरसों पहले दो-एक बार मेरी पदचाप सुनी थी | उस स्मृति के सहारे वे मुझे पहचान गए थे | 

तब महसूस किया था कि आँखों से न देख पाने के बावजूद भी उनकी इंद्रियाँ कितनी सशक्त थीं| 

आज माँ शारदे के इस बासन्ती दिवस पर माँ की पंक्तियाँ याद आने के साथ न जाने कितनी स्मृतियों ने मनोमस्तिष्क के द्वार खटखटा दिए | 

सभी मित्रों को बसन्त की अशेष शुभकामनाएँ

माँ शारदे हम सब पर अपनी कृपा बनाएँ, हम सबको सद्बुद्धि दें | 

विश्व में नव-मंगलगान हो, सभी चिंताओं से मुक्त हों !

सस्नेह, आप सबकी मित्र

डॉ.प्रणव भारती