Agnija - 110 books and stories free download online pdf in Hindi

अग्निजा - 110

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण-110

जयश्री ने दादी की ओर देखा, ‘उसकी जगह मैं होती तो कभी वापस न आती, वो क्यों वापस आए?’

शांति बहन ने जयश्री को आंखें दिखाईं, ‘क्यों मतलब? अपनी होशियारी बाजू में रखो। वो लौटकर नहीं आयी तो घर के काम कौन करेगा, तुम की तुम्हारा बाप? मुझसे अब कोई कामधाम नहीं होगा, कहे देती हूं...इतने साल हो गये...अब नहीं होगा..फिर सारी जिम्मेदारी तुम्हारे सिर पर आएगी... ’

‘हटो...मेरे पास समय नहीं और इच्छा भी नहीं है घर के काम करने की...’

‘तो अब तेरे बाप को तीसरी औरत नहीं मिलने वाली...समझ गयी न...एक तो इन दिनों के घर छोड़कर चले जाने से गांव भर को बातें बनाने का मौका मिल गया है...’

बड़ी देर से चुपचाप बैठा हुआ रणछोड़ बोला, ‘अब मेरी तीसरी बीवी की बात छोड़ो...मां तुम्हें क्या लगता है, वह वापस आएगी?’

‘मैंने अपने बाल धूप में सफेद नहीं किये हैं...देखो, वो दोनों लड़कियां चाहे जो कहें, पर यशोदा वापस लौटकर ही रहेगी। सच कहूं तो अपना भाग्य बलवान है जो ऐसी औरत हमें मिली है...वो जरूर लौटेगी।’

‘लेकिन वो लौटेगी क्या?’ जीतू के मुंह से ये वाक्य निकला और मीना बहन चिढ़ गयीं, ‘मूर्ख कहीं के, ये पराक्रम करने के लिए निकल रहा था तो कम से कम मुझसे बात कर ली होती। न जाने तुमको इतनी जल्दबाजी क्यों है घर के कागजपत्रों पर उसके दस्तखत लेने की?’

‘पव्या ने मुझको बताया कि... ’

‘जैसा तू, वैसा ही तेरा पव्या...मंदबुद्धि हो तुम लोग...पहले शादी करनी ती, फिर तो घऱ अपने आप तेरा ही होने वाला था। लेकिन नहीं, तुमको तो अपनी मर्दानगी दिखाने का शौक है न? उस लड़की ने क्या किया? टीशर्ट फाड़ दिया और तुमको पुलिस के हवाले कर दिया न?’

‘लेकिन मां...’

‘शेरनी है वह लड़की, शेरनी....एक बार वह घर में आ जाए, फिर मुझे तेरी चिंता नहीं रहेगी।..’

‘लेकिन वो वापस आएगी क्या?’

‘उसकी मां भेजे या बाप धकेले...फिर भी वो आने वाली नहीं...लेकिन..’

‘...लेकिन क्या मां...?’

‘यदि तुम अपना मुंह बंद रखो, उससे माफी मांग लो...झूठमूठ का प्रेम दिखाओ तो मुझे लगता है कि अभी भी उसके वापस आने की थोड़ी-बहुत संभावना है...’

‘तुम्हारी कसम...मैं सब कुछ करूंगा...तुम कहोगी वह सब करूंगा....’ जीतू वचन तो दे रहा था लेकिन उसके मन में दूसरे ही विचार चल रहे थे...एक बार शादी करके वह आ तो जाए...मैं उसको सीधा कर दूंगा...गिन-गिन कर सब बदले नहीं ले लिए तो मेरा नाम जीतू नहीं...अपने बाप का नाम नहीं लगाऊंगा...बस एक बार वो हां भर कह दे...उसकी मां के बारे में बहुत सुना है, लेकिन उसकी हालत मां से भी बुरी कर दूंगा तब उसको लगेगा कि उससे तो उसकी मां ही सुखी है...। लेकिन तब तक साला नाटक करना पड़ेगा। उससे माफी मांगनी पड़ेगी। उस गंजी औरत से प्रेम का नाटक करना होगा....उसके पास घर और इतनी अच्छी नौकरी न होती तो उस जैसी को मैं घर पर नौकरानी भी न रखता। रोज सुबह उठकर उसका मुंह देखना पड़ेगा? ’

मीना बहन ने जीतू को झकझोरा,‘एक तो तेरा दिमाग काम नहीं करता उस पर से उल्टे-सीधे विचार करते रहता है। ऐसा ही चलता रहा तो लड़की तुझे ठिकाने से लगा देगी..समझ गया न...’

‘नहीं, नहीं मां...अब से तुम जैसा कहोगी, मैं वैसा ही करूंगा...’

‘ठीक है...ठीक है...अब चाल मेरे हाथ में दे...मैं प्यादा आगे बढ़ाती हूं मरने के लिए....’ जीतू को कुछ समझ में आया नहीं। मीना बहन ने रिसीवर उठाया और फोन लगाया। सामने से फोन उठते ही वह मीठी भाषा में बोलने लगी. ‘भिखाभा...तुम तो बहुत बड़े आदमी हो...तुम तो हमें भूल ही गये...? ’ उसके बाद मीना बहन ने जिस तरह से वार्तालाप किया उसे सुनकर तो जीतू अचंभित रह गया। केतकी जैसी जंगली घोड़ी को काबू में रखने के लिए मां की मदद लेनी ही पड़ेगी, यह उसे अच्छे से समझ में आ गया।

यशोदा के पैर उठ नहीं रहे थे। हाथ सुन्न पड़ गये थे। जैस-जैसे उसने हाथ उठा कर दरवाजे की बेल दबायी। अलसा कर जयश्री उठी और की-होल से देखा। बाहर यशोदा को खड़ा पाकर उसे अपनी आंखों पर भरोसा ही नहीं हुआ। वह धीरे से बोली, ‘वह वापस आ गयी ...’ यह सुनते ही शांतिबहन ने थर्मामीटर अपने मुंह में रख लिया और रणछोड़ एक हाथ से अपनी छाती पर बाम लगाने लगा। यह देखकर जयश्री ने जैसे-तैसे अपनी हंसी रोकी। चेहरा गंभीर बनाकर दरवाजा खोला, और यशोदा की तरफ बिना देखे ही अंदर आ गयी। उसके पीछे-पीछे यशोदा आयी। शांति बहन के पास आकर उसने उनका हाथ पकड़ा और कहा, ‘डॉक्टर ने क्या कहा?’

शांति बहन उसकी तरफ देखती रह गयीं। ‘अब डॉक्टर की नहीं, यमराज की राह देख रही हूं मैं...’

‘ऐसा मत कहिए मां..सब ठीक हो जाएगा...बुखार तो नहीं लग रहा है...’

‘डॉक्टर ने कहा है कि झटका लगने से ऐसा होता है...लेकिन तुम मेरी चिंता छोड़ो...क्या लेने आयी हो? ले लो, फिर जयश्री तुम्हारे लिए रिक्शा बुला देगी। उधर वो दोनों लड़कियां राह देख रही होंगी, बेचारी अकेली पड़ गयी होंगी... ’

‘आप दोनों की तबीयत खराब है इसलिए मैंने मां को फोन किया था...’

‘उसकी क्या जरूरत थी? मेरे मरने के बाद उसे पता चल ही जाता...’

यशोदा रणछोड़ के पास दौड़ कर गयी। दोनों हाथ जोड़कर आंसू भरी आंखों से बोली, ‘ऐसा मत कहिए...मेरी कसम है आपको...किसी को भी कुछ नहीं होगा...मैं मसाला डालकर चाय बनाकर लाती हूं...पहले वो पीजिए...’

यशोदा ने भीतर जाकर देखा तो वहां खाना पकाने के कोई लक्षण दिखाई नहीं दे रहे थे। जूठे बरतन नहीं थे। इधर, तीनों ने एकदूसरे को देखकर हंसते हुए आंख मारी। तभी यशोदा तुरंत बाहर निकल कर आयी, ‘तीनों ने खाया खाया या नहीं? जल्दी से कुछ बना दूं?’

रणछोड़ ने उत्तर दिया, ‘रहने दो वह झंझट...भूख ही मर गयी है...चाय के साथ रोटी दे दो...’

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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