Agnija - 113 books and stories free download online pdf in Hindi

अग्निजा - 113

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण-113

केतकी को समझाने-बुझाने, पटाने का कोई भी उपाय सफल नहीं हुआ। उसे जीतू नाम का प्रकरण जल्द से जल्द भूलना था। उसे यह नाम ही अपने जीवन से हमेशा के लिए मिटा देना था। केतकी विचारों में खोयी हुई थी।

‘प्रेम सतत बहते हुए पानी की तरह होना चाहिए....निर्मलता के साथ...उसमे सच्चाई होनी चाहिए...चौबीस कैरेट सोने की तरह...जो ह्रदय को स्पर्श करे, वह प्रेम होता है...मन को प्रफुल्लित करे, वह होता है  प्रेम....जीवन को रससिक्त करता है प्रेम...फिर भी कई लोग प्रेम को समझ क्यों नहीं पाते भला? प्रेम को इतना भी क्षणभंगुर नहीं होना चाहिए कि उसे बचाए रखने के लिए हर पल भावनाएं व्यक्त की जाएं। मोबाइल की तरह उसे रिचार्ज करना पड़े..’ वह खिन्न हो गयी थी। ‘शब्दों में दिखावा, उथलापन, दंभ और खोखलापन हो तो भी क्या वे इतने परिणामजनक हो सकते हैं? अपने अस्तित्व को ही लहूलुहान कर देते हैं...संबंधों में सर्वनाश करने वाली सुनामी ला सकते हैं ये शब्द...प्रेम को किसी गवाह-सबूतों की दरकार नहीं होती...क्योंकि प्रेम मौन होता है...निःशब्द होता है...लेकिन शब्द तो गवाह-सबूत देते हैंष शब्द बोलते हैं। सुनाई भी पड़ते हैं। ऐसा क्यों? हम अपरिपक्व हैं, हमारी समझदारी अपरिपक्व है या फिर संबंधों में ही कोई कमी होगी?’

केतकी ने मन ही मन तय कर लिया कि आगे से प्रेम के चक्कर में नहीं पड़ना है न ही शब्दों के। उसके कानों में खोखले, नकली, झूठे और क्षणभंगुर शब्द गूंज रहे थे। मन में अनेक सवालों का तूफान उत्पात मचा रहा था। अनेक सवालों की लहरें टकरा रही थीं। उन लहरों की मस्ती में ह्रदय को न जाने कितने ही आघात सहने पड़ रहे थे, लेकिन शब्दों को उनकी कहां परवाह थी?

भावना बिना कुछ कहे चुपचाप केतकी का निरीक्षण कर रही थी। उसे समझ में आ रहा था कि केतकी अकेली पड़ गयी है। उसे तकलीफ तो होनी ही थी न...बाल गये, घर छूटा, मां से दूर होना पड़ा और अब जीतू से भी संबंध टूट गया...भावना ने चुप बैठना ही ठीक समझा और उसने केतकी को कुछ देर अकेला छोड़ दिया...उसे विचार करने दिया जाए...शांति से...दोनों एकदूसरे से बातचीत कम कर रही थीं। अपने विचार एकदूसरी को मालूम न चलने पाएं, इसकी सावधानी बरत रही थीं।

केतकी धीरे-धीरे सोशल मीडिया में मन लगाने लगी थी, भावना इस बात को समझ रही थी। वह फेसबुक पर अपरिचित और अनजान लोगों के सामने अपने विचार व्यक्त करने लगी थी।  वह हिंदी में और कभी-कभी अंग्रेजी में भी पोस्ट डालने लगी थी। हर किसी की प्रतिक्रिया पढ़कर उन्हें जवाब देने लगी थी। रात को देर हो जाए या सुबह कितनी ही जल्दी में क्यों न हो, फेसबुक की तरफ एक चक्कर अवश्य लगा लेती थी। भावना को यह अच्छा लग रह था। इस परिवर्तन को प्रसन्न ने भी महसूस किया। उसने उसकी तारीफ भी की। अच्छे लेखन के लिए उसे बधाई दी और पूछा, ‘भावना अपने माता-पिता के पास चली गयी है क्या....?’ ‘ नहीं तो ...ऐसा क्यों पूछा भला?’

‘अरे, आप इतनी देर तक ऑनलाइन दिखाई पड़ती हैं तो मुझे लगा कि अकेली होंगी और टाइमपास कर रही होंगी। ’

प्रसन्न के इस वाक्य से केतकी सोच में पड़ गयी। यानी वह इतनी आत्मकेंद्रित हो गयी थी? फेसबुक पर ऐसे लोगों के कारण जिन्हें न कभी न देखा, न जिनसे कभी मिली, जिनके सच-झूठ की कोई गारंटी नहीं ऐसे लोगों से बातें करते हुए वह अपनी भावना को ही भूल गयी? उसके जीवन में भावना का कितना महत्व है यह जानते हुए भी वह ऐसा कैसे कर पायी? भावना उस पर कितना प्रेम करती है और उसके लिए अपनी जान तक दे सकती है, उसे वह कैसे भूल गयी? केतकी को पश्चाताप हुआ। वह इतनी स्वार्थी और आत्मकेंद्रित कैसे हो गयी, वह भी भावना के मामले में?

उसने प्रसन्न का हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘थैंक्यू तो नहीं कहूंगी, लेकिन मैं ये बात कभी नहीं भूलूंगी... आपने मेरी आंखें खोल दीं। मैं अपनी तकलीफ में खो गयी थी और भावना को भूल गयी थी। वह अभी कितनी छोटी है। मेरे इस तरह के व्यवहार से उस बेचारी को कैसा महसूस हो रहा होगा, कितनी तकलीफ पहुंच रही होगी। ’

‘केतकी, मुझे लगता है कि आपको अपने जीवन में किसी की आवश्यकता है।’ यह सुनकर केतकी ने भौहें तान लीं। प्रसन्न हंसने लगा, ‘आपको, यानी आप दोनों को पसंद हो ऐसा कोई व्यक्ति आपके जीवन में आ जाए तो?’

केतकी को कुछ समझ में नहीं आया, वह उसकी तरफ देखती रही। प्रसन्न ने सुझाया, ‘चलिए, दक्कन सेंटर में बैठकर इस पर आराम से बात करेंगे।’

‘चलेगा, पर भावना?’

‘उसको बुलाने की जिम्मेदारी मेरी है... वह आएगी ही।’

दोनों रिक्शे में बैठ गये। प्रसन्न ने भावना को फोन लगाया, ‘नहीं कहने की अनुमति तुमको नहीं है, तुरंत दक्कन सेंट में आओ...तुम पूछो इससे पहले ही तुम्हें बता देता हूं कि मैं और तुम्हारी केतकी बहन वहीं पहुंच रहे हैं....बाय...प्रसन्न ने फोन काट दिया।’ केतकी उसकी तरफ देखती ही रह गयी, ‘अच्छी दादागिरी कर लेते हैं आप तो...’

‘इसे अपनापन कहते हैं...’

रास्ते भर दोनों इधर-उधर की बातें करते रहे। प्रसन्न ने जानबूझकर जीतू के बारे में कुछ पूछा नहीं, परंतु केतकी और भावना के अकेलेपन को दूर करने का एक उपाय अवश्य सुझाया। केतकी को उसकी बात अच्छी लगी। लेकिन फिलहाल इसके बारे में किसी से चर्चा न करने के लिए कहा। प्रसन्न ने हामी भरी। दोनों दक्कन सेंटर में पहुंचे और जब तक ऑर्ड देते, भावना भी वहां पहुंच गयी। केतकी उठी और उसने भावना को गले से लगा लिया। दोनों को ऐसा लग रहा था, मानो बड़े दिनों बाद मिल रही हों। उस दिन खाने-पीने की बजाय पुनर्मिलन का आनंद अधिक था। प्रसन्न को भी उन दोनों का आनंद देखकर खुशी हुई।

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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