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अनसुनी यात्राओं की नायिकाएं - भाग 1

(उपन्यास)

प्रदीप श्रीवास्तव

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समर्पित

पूज्य पिता

ब्रह्मलीन

प्रेम मोहन श्रीवास्तव जी

एवं

प्रिय अनुज ब्रह्मलीन प्रमोद कुमार श्रीवास्तव, सत्येंद्र श्रीवास्तव की स्मृतिओं को

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भाग 1

ढेरों रंग-गुलाल से भरी होली एकदम सामने अठखेलियां करने लगी थी. फाल्गुन में फगुनहट जोर-शोर से बह रही थी. पेशे से तेज़-तर्रार वकील, मेरे एक पारिवारिक मित्र 'दरभंगा' से वापस 'लखनऊ' आ रहे थे. इस यात्रा के दौरान ट्रेन में उनके साथ बड़ी ही अजीब घटना हुई.

ऐसी कि परिवार नष्ट होते-होते बचा. परिवार के सकुशल बच जाने का पूरा श्रेय वो ईश्वर और अपनी ब्रॉड माइंडेड पत्नी को देते हैं. यह अक्षरश: सत्य भी है. क्यों कि, यदि उनकी पत्नी बहुत सुलझे, खुले विचारों वाली नहीं होती, तो परिवार का बिखरना सुनिश्चित था.

घटना से वह इतना आहत थे कि, पूरी होली किसी से मिलने नहीं गए. पचीस वर्ष में पहली बार मेरे यहाँ भी नहीं आए. होली बीतने पर जब मैंने फ़ोन किया तो बड़े अनमने ढंग से बोले,''आता हूँ किसी दिन.''

दो दिन बाद रविवार को आए तो उसी समय उन्होंने उस अजीब घटना के बारे में मुझे बताया. जिसे सुनकर मैं अचंभित रह गया. घटना पर विश्वास करना मेरे लिए बड़ा कठिन हो रहा था. मैंने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था, न ही कभी किसी से सुना या पढ़ा था कि, ट्रेन में ऐसा भी हो सकता है.

मेरे वह मित्र झूठ का सच, सच का झूठ करने वाले पेशे के ऊंचे खिलाड़ी हैं. लेकिन व्यक्तिगत जीवन में समान्यतः वह सच ही बोलते हैं. अपनी बात को सीधे-सीधे मुखरता से कह देते हैं. किसी को बुरा लगेगा या भला, इसकी परवाह रंच-मात्र नहीं करते.

मैंने उनकी बात पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा,'' समझ नहीं पा रहा हूं कि, इस घटना को आपके लिए अच्छा कहूं या बुरा, खुशी व्यक्त करूं या दुःख.''

वह चिप्स का एक टुकड़ा मुंह में रख कर कर्र-कर्र की कर्कश आवाज के साथ खाने के बाद बोले, '' देखिये मेरे हिसाब से इस घटना के दो हिस्से हैं. एक हिस्सा खराब है, दूसरे हिस्से को क्या कहूं यह समझ नहीं पा रहा हूं, लेकिन महत्वपूर्ण यह है भाई कि, मैंने आपको एक-एक बात बता दी है. जैसा हुआ, जो कुछ हुआ, सब कुछ. आपको एक जबरदस्त उपन्यास के लिए विपुल मात्रा में उपन्यास-तत्व दे दिए हैं. अब आप अपनी कलम चलाइये.

आपकी जबरदस्त लेखनी से पाठकों को एक और बढ़िया उपन्यास पढ़ने को मिलेगा. हाँ, मेरी प्राइवेसी हर स्थिति में बनी रहे, इसका सबसे पहले ध्यान रखियेगा. इस घटना की जानकारी रखने वाले मेरी पत्नी, मेरे बाद आप तीसरे व्यक्ति हैं. आश्वासन नहीं आपसे वचन चाहता हूँ कि, भाभी जी या अन्य किसी से भी चर्चा के दौरान भी मेरा नाम प्रकाश में नहीं आएगा. ''

मैंने हंसते हुए कहा, '' निश्चिन्त रहिये. किसी की प्राइवेसी भंग न हो इस बात का मैं पूरा ध्यान रखता हूँ. एक ज़िम्मेदार लेखक होने के नाते मैं इसे अपना कर्तव्य मानता हूँ. जहाँ तक लिखने का सवाल है तो इस सम्बन्ध में मैं यही कहूंगा कि, मैं जब लिखता हूं तो, किसी के लिए लिखना है, यह सोच कर, या ध्यान में रख कर नहीं लिखता.

मैं एक ही बात पर ध्यान केंद्रित रखता हूं कि, मेरे उपन्यास, कहानी अपने माप-दंडों पर पूर्णतः खरे हों. दूसरी बात यह कि, आपके साथ जो घटना हुई है, वह ऐसी है कि, उसे उपन्यास में परिवर्तित करने के लिए मेरा मानना है कि, बहुत ज्यादा बोल्ड होना पड़ेगा. और मैं समझता हूं कि, यदि लिखूंगा तो हमारा समाज पढ़ेगा तो खूब रस ले-ले कर, लेकिन नैतिकता की चादर ओढ़ कर बेहद तीखी प्रतिक्रियाएं देगा. आलोचक-गण नैतिकता की गन से मुझ पर बर्स्ट फायर झोंक देंगे, टूट पड़ेंगे सब मुझ पर.''

मेरी बात सुन कर उन्होंने गहरी सांस ली, फिर मेरी आँखों में देखते हुए कहा,

'' हूँ, तो क्या आप प्रतिक्रियाओं, आलोचनाओं के डर से लिखना बंद कर देंगे? आपकी बातों से तो यह प्रमाणित होता है कि, आपका ध्यान लिखने से पहले प्रतिक्रियाओं पर रहता है.''

इसके साथ ही वह मुझे डरपोक लेखक सिद्ध करने में जुट गए. मैं उनका उद्देश्य साफ़-साफ़ समझ रहा था कि, वह उपन्यास लिखवाने के लिए मुझसे तत्काल हाँ करवाना चाहते हैं. लंबी बहस, खाने-पीने के बाद वह परिवार के साथ चले गए. लेकिन उनकी बताई घटना उनके साथ नहीं गई. वह मेरे दिमाग में घूमती रही कि, ऐसा कैसे कर लेते हैं लोग? इसे समाज का घोर पतन कहूं या कि.....

मैं उनके साथ घटी इस घटना को याद नहीं रखना चाहता था. लेकिन वह विस्मृत ही नहीं हो पा रही थी.

जीवन के साथ-साथ समानांतर चलती रही. देखते-देखते करीब बीस फाल्गुन निकल गए. इस बीच वकील साहब ने अपना कद कई गुना बढ़ा लिया. मेरे यहां से उनका रिश्ता भी हर फाल्गुन के साथ और गहरे रंग में रंगता चला गया. उनकी बेटी, मेरा बेटा मित्रता के इस रिश्ते को रिश्तेदारी में बदलने की ओर क़दम बढ़ाए चले जा रहे हैं. दोनों घरों का मौन उन्हें मौन स्वीकृत, ऊर्जा दे रहे हैं.

मैं भी रिटायरमेंट के करीब पहुंच गया हूँ. इस बीच मैंने कई किताबें पूरी कीं. लेकिन उनके साथ हुई विचित्र घटना पर लिखने का मूड नहीं बना पाया. जबकि वकील साहब गाहे-बगाहे याद दिलाना नहीं भूलते थे. विशेष रूप से जब मेरी कोई पुस्तक प्रकाशित होती, उसकी प्रति उन्हें भेंट करता, तो वो यह जरूर कहते, '' दुनिया भर की किताबें लिख डालेंगे. लेकिन मेरे साथ जो हुआ, उस पर कलम चलाने को कौन कहे, उसे छुएंगे भी नहीं.

आप लेखकों को भी न्यायमूर्तिओं की तरह समझना दुष्कर्य कार्य है. वो कब क्या करेंगे, इसका कभी भी, कुछ भी पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता. एक ही प्रकृति के एक केस में जमानत दे देंगे, तो दूसरे में जेल भेज देंगे.

जहाँ कोई औचित्य नहीं वहां भी स्वतः संज्ञान ले लेंगे. जहाँ स्वतः संज्ञान लेना ही चाहिए, वहां सच में आँखों पर काली पट्टी बाँध कर वास्तविक मूर्ति से भी ज्यादा बड़ी मूर्ति बन जायेंगे. यही हाल आप लेखकों का है. कब क्या लिखेंगे सोचा ही नहीं जा सकता.''

उनकी ऐसी बातें मैं हर बार हंस कर टाल देता था.

मगर इक्कीसवीं फगुनहट की बयार के साथ जैसे ही आम के बिरवा बौराए (आम की फसल का मौसम आने पर उसके वृक्षों पर बौर अर्थात आम की मंजरी का आना), साथ रंगोत्सव होली त्यौहार ले आए, तभी एक संयोग ऐसा हुआ कि, मूड एकदम से बन गया. कारण यह रहा कि, ऑफिस में मेरे एक सहयोगी ने लंच के समय एकदम वैसी ही एक घटना के बारे में बताया. जो उनके एक रिश्तेदार के साथ घटी थी.

सहयोगी ने एक बार मुझसे भी उनका परिचय कराया था. यह परिचय जल्दी ही हल्की-फुल्की मित्रता में परिवर्तित हो गई थी. इनके मामले में पुलिस केस होते-होते रह गया था. यहाँ भी परिवार टूटते-टूटते बचा था. लेकिन इसलिए नहीं कि इनकी भी पत्नी ब्रॉड माइंडेड थी, बल्कि इसलिए कि पति ने अजीब घटना के बारे में बड़ी होशियारी के साथ चुप्पी साध ली थी.

तथ्य प्रमाण सब सामने थे, इसलिए दूसरी घटना की भी सत्यता पर कोई प्रश्न नहीं खड़ा किया जा सकता था. इस बात-चीत के दौरान ही मैंने निश्चय कर लिया कि, अब इस विषय पर उपन्यास जरूर लिखूंगा. प्राथमिकताओं में यह काम शीर्ष पर होगा. संयोग यह भी देखिये कि, यह घटना भी मेरे सामने होली के कुछ समय बाद ही आयी.

फगुनहट बयार, आम के बौरों की भीनी-भीनी गंध लिए तब भी हर किसी के मन- मष्तिष्क़ को मदमस्त कर रही थी. मैंने सोचा प्रकृति के इस ऊभते-चूभते मौसम में ही यह उपन्यास अपनी पूरी खूबसूरती के साथ शिखर को छू पाएगा.

सहयोगी से बात खत्म करते-करते मैंने पूरा प्रोग्राम बना लिया कि, दो दिन की छुट्टी है, उसके तुरंत बाद रविवार है, उपन्यास का प्रारंभ इन्हीं दिनों में करता हूँ. इसके बाद रोज ऑफिस से घर पहुँचने के बाद समय दूंगा. जितनी जल्दी हो सका इसे पूरा करूंगा.

उसी समय पता नहीं क्यों मुझे, विलक्षण कथाकार भुवनेश्वर की एक कहानी ' भेड़िये ' याद आ गई, जिसे महान कथा सम्राट प्रेमचंद ने अपनी पत्रिका 'हंस' के अप्रैल १९३८ के अंक में प्रकाशित किया था.

वह भुवनेश्वर के लिए कहते थे कि, ' वह अपनी कटुता त्याग दें तो उनका भविष्य बहुत उज्ज्वल है.' अब पता नहीं उन्होंने कटुता त्यागी थी कि नहीं, लेकिन 'भेड़िये' कहानी मेरे इस उपन्यास की सहयात्री बन गई. जबकि मुझे उनकी इस कहानी से कोई रिश्ता नहीं दिखता. लेकिन जब-जब मैं कलम उठाता, यह कहानी मेरी कलम के शीर्ष पर विराजमान हो जाती.

साथ ही महामारी कोविड-१९ को लेकर मन में तरह-तरह के संशय भी उभरते रहे कि, क्या विशेषज्ञों का आकलन सच होगा कि, दूसरी लहर आने ही वाली है. क्योंकि पहली लहर से हुई जन-धन की व्यापक हानि को लोग कुछ ही हफ्तों में भुला कर घोर लापरवाही बरत रहे हैं. न मॉस्क, न सेनिटाइजर बस घूमना-फिरना, पार्टी-बाजी, त्योहारी उत्सव और सरकार की बचाव के सारे प्रयासों के साथ-साथ जारी है चुनावबाजी भी.

दूसरों को क्या कहूँ स्वयं मेरा परिवार भी इसी हवा में बह रहा था. मैं परिवार की सुरक्षा को लेकर बहुत चिंतित रहने लगा. तरह-तरह के भय के चलते इंश्योरेंस की हेल्थ सहित दो अन्य बड़ी पॉलसियां भी ले लीं, कि यदि मुझे कुछ हो जाए तो परिवार आर्थिक रूप से मजबूत बना रहे.

पहली लहर में ऑफिस के कई लोगों के देहांत के बाद उनके परिवारों को मानसिक ही नहीं आर्थिक रूप से भी बिखरता देखा था. यह सब देख कर मन दहल उठता था. मैंने सोचा कि, अगर दूसरी लहर आई और पहले की तरह लॉक-डाऊन लगा तो लिखने के लिए समय तो खूब मिल जाएगा, लेकिन क्या उस हाहाकारी तनावपूर्ण वातावरण में पहले की तरह फिर लिख पाऊँगा. फिर सोचा जैसा होगा देखा जाएगा और मैंने लिखना शुरू कर दिया.

घटना कुछ ऐसी है कि, मेरे वकील मित्र किसी काम से बीस वर्ष पहले 'दरभंगा' गए थे. काम पूरा करने में समय ज्यादा लग गया. बीच में समय मिला तो वहां 'अहिल्या स्थान', गौतम स्थान', 'कुशेश्वर स्थान', 'शिव मंदिर', 'पक्षी-विहार', 'श्यामा और नवादा दुर्गा मंदिर' भी घूम लिया.

उनसे यह सुन कर मैंने कहा था, ''इतने कम समय में, इतने स्थानों पर घूमना कहाँ हुआ. यह तो सिर्फ रास्ता नापना हुआ. घूमना-फिरना तो पर्याप्त समय में पूरी निष्ठा, मन के साथ होता है.''

तो उन्होंने कहा, ''यह तो अपनी-अपनी क्षमता है. आपको इतनी जगह घूमने के लिए हफ्ता-भर चाहिए, लेकिन मेरे लिए एक दिन ही काफी है.''

मैंने कहा, '' हां, सही कह रहे हैं. आपने ट्रेन में जो किया, वह आपकी तरह की क्षमता वाला व्यक्ति ही कर सकता है.''

यह कह कर मैं मुस्कुराने लगा तो वह भी मुस्कुरा दिए.

दरअसल वह अपना 'दरभंगा' टूर खत्म करके 'लखनऊ' वापस आ रहे थे. ट्रेन देर रात में थी. एक दिन बाद ही छोटी होली यानी कि, होलिका-दहन था. ट्रेन, बस, हर जगह भीड़ ही भीड़ दिख रही थी.

उन्होंने कोर्ट में न्याय-मूर्तियों के सामने बहस करने की शैली में बताया था कि, '' रिजर्वेशन काफी पहले कराने के कारण बर्थ क्लियर मिली थी. इसलिए मैं निश्चिंत था कि, अगले दिन होलिका-दहन के समय आठ-नौ बजे रात को मैं परिवार के साथ रहूंगा.

लेकिन जब स्टेशन पर ट्रेन आई तो भगदड़ सी मच गई. पूरे प्लेट-फॉर्म पर अपरंपार भीड़ थी. हर कंधा दूसरे कंधे से नहीं, पूरा शरीर आगे-पीछे, दाएं-बांये हर तरफ, दूसरे से सटा हुआ था. धक्का-मुक्की, चीख-पुकार, बच्चों का रोना-धोना, कान फोड़ रहा था...

मैंने उन्हें ध्यान से सुनते हुए सोचा, महोदय ऐसे समय पर गए ही क्यों ? इतना तो आपको सोचना ही चाहिए था कि, हर बरस होली, दीपावली के समय यही होता है. वह थोड़ा और जोर देकर बोले ,

'' कोई पैर कुचले चला जा रहा था, तो सिर पर सामान रखकर निकलने वाला, मेरे सिर को धकियाये चला जा रहा था. मेरे सिर को धकिया कर जब कोई निकलता तो मैं गुस्से से फनफना पड़ता.

मन करता कि उसे धकेल कर फर्श पर औंधे मुंह गिरा दूं. चढ़ बैठूं उसकी पीठ पर, और उसके बाल पकड़ कर, उसके चेहरे को फर्श पर तब-तक उठा-उठा कर पटकता रहूं, जब-तक कि, उसका भेजा बाहर निकल कर छितरा ना जाए. पूरी फर्श खून-खून ना हो जाए....

उनका यह क्रूर भाव, उनकी बातों ही नहीं, उनके चेहरे पर भी मुझे दिख रहा था. मुझे याद है कि, तब मेरी आँखें कुछ फ़ैल गई थीं. और एक बार फिर प्रेमचंद याद आये कि, वह इस भावना को सुनते तो इसे कटुता की किस श्रेणी में रखते. वकील साहब बोले जा रहे थे कि,

'' ट्रेन पूरी तरह रुक भी नहीं पाई थी कि लोग लटकने लगे दरवाजों पर, धक्का-मुक्की शोर-शराबा कई गुना बढ़ गया. तभी मुझे लगा कि, मेरी जेब पर कोई हाथ हरकत कर रहा है. मैंने झटके से पीछे की ओर घूमने की कोशिश की, लेकिन तब-तक वह भीड़ में खो गया. लेकिन मैं अपनी पर्स बचाने में सफल रहा. मगर इससे हुई हड़बड़ाहट के चलते मैं ट्रेन में नहीं चढ़ पाया. ट्रेन मेरे सामने से सरकनी शुरू हो गई थी, लेकिन मैं उसके दरवाजे के करीब भी नहीं पहुंच पाया था.''

''ओह तब-तो बड़ी गुस्सा आई होगी आपको ?'' उनकी पिछली क्रूर बात को ध्यान में रख कर मैंने पूछा तो उन्होंने कहा,

'' सुनिए तो, मेरा सूटकेस भी काफी भारी था, इसलिए ज्यादा तेज़ी नहीं दिखा पाया और ट्रेन मेरे सामने से निकल गई. मैं हाथ मलता उसे तब-तक देखता रहा, जब-तक की ट्रेन की आखिरी बोगी में पीछे लगी जलती-बुझती रेड-लाइट दिखती रही. मेरी तरह एक-दो नहीं करीब पचीस-तीस लोग थे, जो ट्रेन में नहीं चढ़ सके.

इसमें कई लोग परिवार सहित थे. मेरे सामने सिवाय अगली ट्रेन की प्रतीक्षा करने के और कोई रास्ता नहीं बचा था. बस से इतनी लंबी यात्रा करने के लिए मैं तैयार नहीं था. इन्क्वारी से पता चला कि, अगले कई घंटे तक कोई ट्रेन लखनऊ के लिए नहीं है. अब ट्रेन सुबह ही मिलेगी.''

'' ये बताइये जब इस यात्रा की योजना बना रहे थे, तब आपने यह नहीं सोचा था कि, त्यौहार का समय है, भीड़ के कारण यात्रा बहुत कठिन हो सकती है.''

'' यह सारी बातें ध्यान में थीं, मिसेज़ ने भी टोका था, लेकिन काम ऐसा था कि रुक नहीं सकता था.''

'' ओह, लेकिन ऐसा भी क्या काम था कि, दो-चार दिन आगे पीछे नहीं कर सकते थे.''

'' अभी इस बात को छोड़िये, क्रमवार सब बताऊंगा. तो ट्रेन जाने के बाद कुछ देर इधर-उधर टहलता रहा. फिर चाय पी कर प्लेट-फॉर्म पर ही, एक बेंच पर आसन जमा लिया. कुछ देर अपने गुस्से, खीझ को मिटाने के बाद मिसेज़ को फ़ोन करके बताया कि, 'ट्रेन छूट गई है, अब कल सुबह मिलेगी. जैसी स्थिति बन रही है, उसे देख कर तो लग रहा है, परसों सुबह तक पहुँच जाऊं तो बड़ी बात होगी. '

यह सुनते ही वह परेशान होकर बोलीं, ' बिना आपके त्यौहार कैसे मनेगा? सब रंग खेलने आएंगे, कैसे क्या होगा?' मैंने कहा, 'जैसे भी हो देखो, इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है.'

तीनों बच्चों से भी बात की. उन्हें समझाया कि, ज्यादा देर तक रंग नहीं खेलना. इस बार मौसम अभी भी काफी ठंडा बना हुआ है. बात करके बुकिंग विंडो पहुंचा कि, अगली ट्रेन में रिजर्वेशन करवा लूं, लेकिन विंडो बंद मिली.

इन्क्वारी पर बात की तो उसने कहा, 'अभी तो काफी समय बाकी है.'

उसे खाली बैठा देखकर मैंने सोचा, लोकल आदमी है, यह बस वगैरह की भी तो जानकारी रखता ही होगा. देखूँ अगर ढंग की कोई बस मिल जाए तो चलूं. सात-आठ घंटा इंतजार करने से अच्छा है कि, बस से ही चल दिया जाए. थोड़ी बहुत परेशानी बर्दाश्त कर लूंगा.

असल में मिसेज और बच्चों से बात करने के बाद मैं व्याकुल हो उठा था जल्दी से जल्दी घर पहुँचने के लिए.

पूछने पर उसने कहा, 'अब सुबह से पहले आपको कोई बस भी नहीं मिलेगी. ट्रेन का इन्तजार करना ही पड़ेगा. कल छोटी होली है, इसके बावजूद लोग कल से ही और ज्यादा रंग खेलने लगेंगे. आज ही जिधर देखो उधर रंग ही रंग दिख रहा था. ऐसे में तो बस में परेशान हो जाएंगे.' मुझे उसकी बात सही लगी. उसके भी बालों, माथे पर अबीर-गुलाल लगा हुआ था.

मैंने ट्रेन में रिजर्वेशन की बात उठाई तो उसने कहा, ' कहाँ रिजर्वेशन के चक्कर में पड़े हैं. जिनको जहां जाना था, जैसे-जैसे जाना था, वो चले गए. कल हर बार की तरह सारी ट्रेनें, बसें खाली ही रहेंगी. जनरल टिकट लेकर बैठ लीजियेगा, पूरी ट्रेन में जगह ही जगह मिल जाएगी.'

भोजपुरी शैली में उसकी बात-चीत का तरीका मुझे अच्छा लग रहा था. कुछ देर उससे बात करने के बाद, आखिर मैंने सामान की रखवाली करते, पूरी रात प्लेट-फॉर्म पर जागते हुए बिताई.''

'' हूँ, तब-तो आपकी वह रात बड़ी कष्टदाई रही.''

'' हाँ, ट्रेन छूटना ही इस यात्रा का निर्णायक मोड़ रहा. अगले दिन ट्रेन सुबह दस बजे थी, तो मैंने वहीं नहा-धो लिया. जिससे थकान आलस्य से थोड़ी सी राहत मिली. सुबह से ही बच्चों, मिसेज़ से तीन-चार बार बात हो चुकी थी. सब परेशान थे.

स्टेशन पर गिने-चुने लोग थे. जब ट्रेन आई तो उस आदमी की बात सच निकली. उसकी हर बोगी लगभग खाली थी.

मैंने जनरल टिकट लिया था. पीछे से सातवीं बोगी में सवार हो गया. चलते-चलते मैंने खाने-पीने की कुछ चीजें, पानी की दो बोतलें ले ली थीं. एक सीट पर अपना सामान रख कर उसके सामने वाली सीट पर बैठ गया.

कुछ देर बाद ट्रेन चल दी. जब वह आउटर क्रॉस कर गई तो मैंने सोचा कि देखूं और कितने लोग हैं बोगी में. चेक किया तो बोगी के आगे वाले गेट के पास वाली सीट पर तीन परिवार दिखे. कुल मिला कर दस-बारह लोग थे.

सोचा चलो अच्छा है, रास्ते में बात-चीत के लिए कुछ लोग तो हैं. मगर उन लोगों से बात-चीत करते ही, पांच मिनट में, मुझे मिली राहत उड़न-छू हो गई.''

''क्यों ?''

'' क्योंकि वह सब अगले ही स्टेशन 'समस्तीपुर' में उतरने वाले थे. मैं बुझे मन से लौट कर अपनी जगह बैठ गया. मन को खुद ही सांत्वना दी कि, वैसे भी यह सभी ऐसे नहीं दिख रहे हैं, जिनसे वार्तालाप या बतरस का आनंद ले पाउँगा. रास्ते का खालीपन भर पाऊंगा.

लेकिन रहा नहीं गया तो दूसरे गेट की तरफ चला गया कि, देखूं उधर कितने लोग हैं. मेरे आने के बाद कुछ लोग तो बैठे ही होंगे, इतना बड़ा शहर है. एकदम सन्नाटा थोड़े ही हो जाएगा. मगर इधर और बड़ी निराशा हाथ लगी.''

''क्यों,वहां कोई नहीं था क्या?''

'' था, कुल मिला कर वहां एक महिला थी. यही कोई पचीस-छब्बीस साल की. बगल में उसका सामान रखा था. प्लास्टिक की एक डोलची, मटमैले भूरे रंग का एक पुराना सा बैग. वह सीट पर दोनों पैर ऊपर किए, पालथी मारकर बैठी थी. काफी फ़ैल कर. गोद में चार-पांच महीने का बच्चा था, जिसे वह दूध पिलाते हुए खिड़की से बाहर देखे जा रही थी. उसे अस्त-व्यस्त देखकर मैं तुरंत आगे बढ़ गया.

गेट पर खड़ा होकर बाहर देखने लगा. ट्रेन अपनी पूरी गति में चल रही थी. तेज़ हवा में मुझे हल्की ठंड महसूस हो रही थी. मुझे लगा कि, नींद हावी हो रही है तो, वापस आकर सूटकेस को चेन से सीट में लॉक किया, और जूते उतार कर लेट गया. आंखें बोझिल हो रही थीं. फिर भी मैं किसी भी स्थिति में सोना नहीं चाहता था....

''क्यों ?''

''क्योंकि सूटकेस में रखे करीब पांच लाख रुपयों और सोने के हार की चिंता थी...

'' वाह, अच्छी-खासी फीस ली थी. लेकिन मैं काम के बारे में बिल्कुल नहीं पूछूँगा.''

यह कह कर मैं हंस पड़ा तो वह मुस्कुराते हुए बोले,

'' बात आगे बढ़ने दीजिये, काम भी बताऊंगा. तो हुआ क्या कि, नींद इतनी तेज़ थी कि, मैं लेटते ही सो गया. आँखें तब खुलीं जब ट्रेन 'समस्तीपुर' स्टेशन के प्लेट-फॉर्म पर हल्के झटके के साथ रुकी. साथ ही थोड़ी चहल-पहल की आवाजें कानों में पड़ीं.

मैं उठकर खिड़की से बाहर देखने लगा. पूरा प्लेट-फॉर्म खाली-खाली दिख रहा था. चाय पीने की इच्छा हुई, लेकिन दुकान काफी आगे थी. मैं नीचे जाना नहीं चाहता था. ट्रेन जब चलने ही वाली थी तभी ,'चाय-चाय' की तीखी आवाज कान में पड़ी. मैंने सोचा कि, कहीं यह भी न छूट जाए, इसलिए उसी के अंदाज में चीख कर बुलाया, 'चाय', उसने जल्दी से आकर चाय दी, मगर मैं शेष बचे रुपये नहीं ले पाया.