Ansuni Yatraon ki Nayikaye - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

अनसुनी यात्राओं की नायिकाएं - भाग 4

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 4

इतना कह कर वकील साहब फिर ठहर गए. फिर मेरी आँखों में गौर से देखते हुए बोले,'' लेखक महोदय अपनी कलम से न जाने कैसे-कैसे, एक से एक अद्भुत दृश्य आपने कागज़ पर रचे होंगे. लेकिन उस समय मैंने जिस अद्भुत, अकल्पनीय दृश्य को देखा, वो आज भी मेरे मन-मस्तिष्क में कैद है.

इस समय भी मुझे ऐसा महसूस हो रहा है, जैसे कि मैं उसी बोगी में, उसी स्थिति में, उस अद्भुत दृश्य को देख रहा हूँ. जैसे किसी आर्ट फिल्म का दृश्य हो. सोचिये एक युवा स्त्री, गोद में अपने शिशु को लिए, बिलकुल नैसर्गिक स्थिति में खिलखिलाती हुई चली आ रही है.

तेज़ चलती ट्रेन के कारण, उसकी चाल में एक ख़ास तरह की लहर सी है. जैसे कि, वह एक सर्पाकार रेखा का अनुसरण करती हुई आगे बढ़ रही हो. सोचिये ज़रा कैसे असाधारण दृश्य को मैंने देखा था. करीब आते-आते वह बोली,

'अब ऐसे चलते में भी देखने का मजा ले रहे हो. औरत के बहुत बड़े रसिया लग रहे हो. बीवी बड़ी खुश रहती होगी. लगे हाथ तुम भी ऐसे ही जाओ तो हम भी देखें कैसे आता है मजा. अकेले-अकेले मजा ना लो.'

उसने ऐसे इठलाते हुए कहा कि, मुझे हंसी आ गई. वह बच्चे को लेकर बैठते समय थोड़ा लड़खड़ाई तो मैंने उसे तुरंत पकड़ लिया, तो वह बोली, 'अच्छा किया जो पकड़ लिया, नहीं तो गिर ही जाती. गाड़ी तो ऐसे हिल रही है, जैसे सड़क के गड्ढों में से गुजर रही है.'

वह बैठ गई तो मैंने उसकी छातियों की तरफ संकेत करते हुए कहा, 'ऐसी, इतनी बड़ी-बड़ी खूबसूरती लेकर चलोगी तो मुश्किल तो होगी ही.'

'यह कह कर मैं हंसा, तो वह भी हंस दी. मगर काउंटर करने में एक मिनट को भी चूकी नहीं. तुरंत ही मेरे एक हिस्से पर आंखों से ही इशारा करते हुए कहा, 'हाँ, ई तो है, लेकिन एक बार उधर भी देख लो, संभाल नहीं पा रहे हो, हिलते जा रहे हो.'

एक बार फिर हम-दोनों हंस दिए. तभी मैंने सोचा इसका कहना भी पूरा कर दूँ. और चला गया हाथ-मुंह धोने. वापस आ कर उसी की बगल में बैठ गया. उसकी धोती का एक हिस्सा खींच कर खुद पर डाल लिया, बड़े ही अधिकार के साथ. बच्चा दूध पीने में व्यस्त था. उसकी बातें फिर चलने लगीं. मैंने नमकीन का पैकेट खोल कर उसकी तरफ बढ़ा दिया. खुद भी खाने लगा.

उससे कहा, ' गाड़ी आगे किसी स्टेशन पर रुके तो कुछ खाने-पीने को लूँ. भूख लग रही है.'

'गाड़ी से बाहर ऐसे ही उतरोगे क्या? कपड़े तो पहन लो.'

'अभी तो गाड़ी ने एक ही स्टेशन क्रॉस किया है. कम से कम आधा घंटा तो लेगी ही अगले स्टेशन पर रुकने में.' तो उसने बहुत ही इठला कर कहा,

' तो तब-तक का किया जाए?'

बच्चा अब-तक दूध पीकर फिर निंदासा हो गया था. उसने अपनी बात, दोनों हाथ थोड़ा ऊपर उठा कर अंगड़ाई लेते हुए कही थी. इस अंगड़ाई में उसने जो थोड़ा बहुत कपड़ा खुद पर डाल रखा था, वह पूरा का पूरा सरक कर उसी की गोद में गिर गया. अब कमर से ऊपर उसके तन पर कुछ भी नहीं था.

बच्चा करीब-करीब सो चुका था. निपुल उसके दोनों होंठों के बीच फंसा हुआ दिख रहा था. उसने बड़ी धीरे से निपुल को बाहर खींचा, चुट सी आवाज हुई. इससे बच्चा थोड़ा कुनमुनाया तो उसने हल्की सी थपकी देकर फिर सुलाया और बहुत संभाल कर उसे, उसके बिस्तर पर लिटा दिया और फिर पहली बार से ज्यादा मादक अंदाज में बोली,

' जब गाड़ी रुकने में देर है, तो चलो आराम कर लें.'

यह कहती हुई, वह चादर पर एकदम किनारे खिसक कर लेट गई, जिससे उसकी बगल में काफी जगह खाली रही. उसने धोती को अपने ऊपर खींच लिया. इस तरह उसने सीधे-सीधे मुझे स्पष्ट मूक आमंत्रण दिया था. जिसे मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया. जगह ज्यादा नहीं थी, इसलिए हम एकदम गहराई तक सट कर लेते थे.

मैंने उसकी धोती अपने कुछ हिस्से पर खींच ली थी. मेरे लेटते ही उसने मेरी तरफ करवट लेकर मुझे अपनी बाहों में कस लिया. पत्नी से करीब पंद्रह वर्ष छोटी, हिर्ष्ट-पुष्ट महिला के मादक बाहुपाश से मैं मदहोश हो रहा था. मैंने भी उसे, उसी की तरह जकड़ लिया था. वह कुछ बोल नहीं रही थी. मेरी छाती में मुंह छिपाकर मुझे कसे हुए लेटी रही.

मैं चुप रहा. हम मौन जरूर थे. लेकिन शरीर पूरी तपिश के साथ प्रगाढ़ रिश्तों में जुड़ा हुआ था. कुछ ही देर बाद मैंने महसूस किया कि, उसकी पकड़ ढीली पड़ती जा रही है. दरअसल उसे नींद आ गई थी. वह सो गई थी. हाथ एकदम ढीला मेरे ऊपर पड़ा हुआ था.

नींद मुझे भी महसूस हो रही थी, लेकिन भीतर एक डर मेरी नींद को झिंझोड़-झिंझोड़ कर दूर कर दे रहा था. डर इस बात का कि, कहीं सो गया, इस बीच किसी स्टेशन पर गाड़ी रुकी और यह सूटकेस लेकर उतर गई तो.

लेकिन तभी मन यह भी कहता कि, यह ऐसा नहीं करेगी. ऐसी होती तो, इस तरह मुझ में समाई, इतनी निश्चिंत होकर ना सो रही होती. इस तरह तो कभी पत्नी ही सोया करती थी. अब तो बच्चों, घर की देख-भाल के बाद जब रात में सोती है तो, उसे अगले चार-पांच घंटे खबर ही नहीं रहती कि, कहां सोई है.

तरह-तरह के तर्कों के बाद भी, मेरा डर ही मुझ पर हावी था. वो मुझे सोने नहीं दे रहा था. आंखों में जलन हो रही थी. और मैं जाग-जाग कर उसे और बढ़ा रहा था. दूसरी तरफ एक लय में हिलते-डुलते, उसके तपते शरीर की तपिश से, मेरी धमनियों में प्रवाह बढ़ता जा रहा था. सुस्त हाथों में जोश बढ़ता जा रहा था. अजीब सी तरंगें बदन भर में उठ रही थीं. अंग-अंग विद्रोही होता जा रहा था.

मन कहने लगा, अब इसे भी उठाओ, इसका इस तरह सोते रहना, समय बर्बाद करना है. यह कोई अंतहीन सफर तो है नहीं कि, इस बोगी में ऐसे ही चलते रहेंगे. सफर तो कुछ ही घंटों का है. इसी कशमकश में मेरे हाथ उसकी गर्दन, सिर तो कभी कमर, नितम्बों, उसके स्तनों से मिलने-जुलने, खेलने लगे.

जिससे उसकी धमनियों में भी गर्माहट आए. उष्मा उनमें इतनी बढ़े कि, पूरी बोगी ही पिघलने लगे. एक तरफ जहाँ उसे जगाने, दहकाने की मेरी हर कोशिश नाकाम हो रही थी, तो दूसरी तरफ यह कोशिश करते-करते मेरा लहू, पिघले इस्पात सा धमनियों में, पूरे वेग से बहने लगा. इस वेग ने आखिर उसे अपनी धारा में शामिल कर उठा तो लिया, मगर समय इतना ले लिया कि, ट्रेन फिर से ट्रैक बदलने लगी....

'' ओफ्फो, बेहद दुर्भाग्य-पुर्ण्य.'' यह कहते हुए मैं हंस पड़ा. वकील साहब भी हंस कर बोले,

''अब देखिये आगे क्या होता है. ट्रैक बदलती ट्रेन के पहियों का शोर तेज़ होता जा रहा था. हिचकोले भी बढ़ रहे थे. खीझ कर मैंने सोचा, बढ़ता है जो, वह बढ़ता रहे, हमारी धमनियों में बहती धारा से ज्यादा वेग और कहीं हो ही नहीं सकता. इसलिए हमें कोई परवाह नहीं, कहाँ क्या हो रहा है. हमारी धारा का वेग इतना है कि, उसके शांत होते-होते यह ट्रेन अगले हॉल्ट को ट्रैक चेंज करती हुई क्रॉस कर रही होगी.

लेकिन मेरा आकलन पूरी तरह गलत निकला. हम बहती धारा के मध्य में ही थे कि, स्पीड बड़ी तेज़ी से कम होती गई और एक झटके में गाड़ी प्लेट-फॉर्म पर खड़ी हो गई.

वह मंजिल तक बढ़ने के बजाय झटके से तट की ओर भागी, वहां किनारे बैठती हुई ठेठ अंदाज़ में बोली, 'ईका यही समय खड़ा होना था.'

मैं एकदम भन्ना कर ट्रेन को कई गालियां दे बैठा, इस पर उसने चिढ़ाते हुए, मेरे सीने पर प्यार भरा मुक्का मार कर कहा, 'काहे मन खराब कर रहे हो, दुइ मिनट मा गाड़ी चल देई, तब फिर खूब दंड-बईठक लगाए लेना. हम कहूँ भागे थोड़े जा रहेंन. अब कुछ खाए-पिए का देखो.'

मैंने जल्दी से कपड़े पहनते हुए कहा, 'जब-तक उतरूंगा तब-तक तो ट्रेन चल देगी.'

वह भी जल्दी-जल्दी कपड़े पहनती हुई बोली, ' पहले पूछ लेना किसी से कितनी देर को रुकेगी. तब उतरना.'

मैंने गेट खोलते हुए सोचा, भाई पैसे का मामला है. कितनी भी देर रुके, मैं बोगी से दस-पंद्रह कदम से आगे तो नहीं जाऊंगा. यहां भी इक्का-दुक्का लोग ही दिख रहे थे. ज्यादातर फाल्गुनी रंग में रंगे हुए, रंग में तरबतर.

पूरे नशे में चूर एक होरियार बीच प्लेट-फॉर्म पर, फुल वॉल्यूम में, भोजपुरी में होली का कोई लोक-गीत, चीख-चीख कर गाए जा रहा था. एक हाथ कान पर लगाए हुए था, तो दूसरा हाथ सीधा आगे बढ़ाए हुए था.

खाने-पीने के नाम पर, यहां भी सन्नाटा ही मिला. वही चाय-बिस्कुट, नमकीन, केला, संतरा. यही सब लेकर मैं अंदर आ गया. बोगी की सीढ़ी पर पैर रखते ही ट्रेन चलने लगी थी. चाय होने के कारण बड़ी मुश्किल हुई. लेकिन किसी तरह सुरक्षित मोहतरमा के सामने सब-कुछ रख दिया. बीच खेल में रंग में भंग होने से वह भी अकुलाई हुई थी.

सामान रख कर सबसे पहले मैंने जाकर दरवाजा बंद किया. उससे पूछा भी कि, कोई आया तो नहीं था? उसके नहीं कहने पर भी मेरा मन नहीं माना. मैं पूरी बोगी, एक नजर देख कर ही उसके पास बैठा. मेरे बैठते ही उसने कहा, 'हमारी बात पर यकीन नहीं था.'

'ऐसा नहीं है, हमें हमेशा अलर्ट रहना चाहिए. चलो पहले चाय पियो.'

बिस्कुट, नमकीन सब उसके सामने रखा था. अब-तक एक पैकेट खोल कर उसने बिस्कुट खाना शुरू कर दिया था. खाते हुए ही उसने पूछा, 'पूड़ी-सूड़ी नहीं मिली का?'

'इसके अलावा और कुछ भी नहीं था. मैं पूड़ी-सब्ज़ी ही लेना चाहता था, लेकिन हर तरफ सन्नाटा था.'

पूड़ी पर उसके जोर, बिस्कुट, नमकीन खाने की रफ्तार से मुझे लगा कि, यह बहुत ज्यादा भूखी है. एक तो बच्चे को दूध भी पिला रही है. ऐसे में जैसे भी हो इसे खाना चाहिए ही चाहिए. मैंने बिस्कुट, नमकीन का पूरा पैकेट खोल कर उसके सामने रखते हुए कहा, 'तुम यह सब खा कर चाय पियो. तुम्हें भूख लगी होगी. थोड़ी देर में केला, संतरा खा लेना. आगे जिस भी स्टेशन पर पूड़ी मिलेगी ले आऊंगा.'

'नहीं, इतना परेशान ना हो. इतने से काम हो जाई.'

'नहीं, इतने से तुम्हारा काम नहीं होगा. बच्चा दूध पी रहा है, तुम्हें खाना चाहिए ही चाहिए.'

वह मेरी बात पर मुस्कुरा कर बोली, 'बड़ा ध्यान है बच्चे के दूध की. वैसे सही भी है. उसके हिस्से का तो सारा दूध पी गए हो, तो इंतजाम तो करना ही पड़ेगा.'

यह कहते हुए वह हंस पड़ी. मैं भी मुस्कुरा कर रह गया.

असल में भूख मुझे भी लग रही थी, क्योंकि दोपहर अब झुकने लगी थी. वह बातें कभी भोजपुरी तो, कभी खड़ी बोली में करती. खड़ी बोली में भी भोजपुरी का गहरा पुट होता था. मैंने उसके इस मजाक पर कहा,'तुम्हें कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी.'

खाते-पीते, तमाम बातों के बीच करीब बीस मिनट निकल गए. इन बीस मिनट में वह मुख्यतः वक्ता थी, मैं श्रोता. उसने बड़े मजाकिया लहजे में जो-जो बातें कहीं, उसे ना तो किसी से कहा जा सकता है. ना बोल्ड से बोल्ड किसी कहानी, उपन्यास, फिल्म में लिया जा सकता है....

पूछने पर वकील साहब ने कुछ बातें बताईं, जिन्हें सुन कर मैंने कहा,'' वाक़ई यह तो अश्लीलता, फूहड़ता, निर्लज्ज़ता की पराकाष्ठा है.''

'' हाँ, किसी महिला के मुंह से ऐसी बातें मैं पहली बार सुन रहा था. लेकिन उससे बड़ा आश्चर्य यह कि, यह सब जानने के बाद भी, तब मुझ पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा था. मैं उसके साथ मस्ती में, मज़ा लेता उसे और कुरेद रहा था. अब सोचता हूँ तो बड़ा पछतावा होता है, शर्म महसूस होती है स्वयं पर.

उसने आगे बताया कि, उसकी एक शादी-सुदा बहन जब घर आती थी तो, अपने शौहर और तीन जेठानियों के बीच की हंसी-ठिठोली, रिश्तों की ऐसी तमाम बातें, सिर्फ़ उसे ही बताती थी, क्योंकि उन दोनों का बचपन से ही बाकी सबसे ज्यादा करीबी रिश्ता था. उसने और जो कुछ बताया उसे सुन कर मैंने कहा, ' तुम दोनों बहनें कुछ ज्यादा ही करीब हो गई थी, क्यों ?'

तो वह मुस्कुराती हुई बोली, ' जब कोई भी रातो-दिन एक ही कमरे में घुसा रहेगा तो करीबी बढ़ेगी या फिर दुश्मनी होगी. हम दोनों में दुश्मनी नहीं, करीबी बढ़ी, ये अच्छा नहीं हुआ क्या?'

' हाँ, बिलकुल अच्छा हुआ. लेकिन तुम्हारे घर में कभी किसी को शक नहीं हुआ कि, तुम दोनों ने ये दूसरी तरह की करीबी क्यों बना ली.'

' ऊँ.. ऊ..अम्मी जब कभी गुस्सा होतीं तो उनकी बातों से हम-दोनों को कभी-कभी ऐसा लगता कि, उनको हम-दोनों की करीबी पर शक है. लेकिन उनकी बातें सुनने के कुछ देर बाद ही हम-दोनों फिर अपनी करीबी में डूब जाते, और वो घर के बाक़ी जंजालों में. बड़ी गुस्सा आती हमें उनकी बातों पर.'

' तो तुम दोनों की यह करीबी अब भी बरकरार है ?'

' छोड़ो भी, अब और का बताएं.'

' फिर भी, कुछ तो?'

'अब वो अपनी ससुराल में, हम अपनी. करीबी का मौक़ा ही कहाँ रहा.'

'अरे जब कभी पूरा परिवार घर पर, किसी काम-काज में इकट्ठा होता होगा तब? तब तो मौक़ा मिलता ही होगा. फिर इस रिश्ते के लिए तो मौक़ा और दस्तूर की जरूरत होती है बस.'

' हाँ...कह तो सही रहे हो.'

इसके बाद उसने कुछ बातें तब की बताईं, जब उसकी वो बहन शादी के बाद पहली बार घर आई थी. वह सब सुन कर मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि, वह सब सही बता रही है या कि, मुझे भरमा रही है. बातें बड़ी ही असामान्य, और रिश्तों की किसी भी मर्यादा की सीमा से परे थीं.

खाने-पीने के बाद हमने थोड़ी फुर्ती महसूस की. मैं उसे लेकर आर.ए.सी. सीट पर बैठ गया. हमने खिड़कियाँ खोल दीं. हम आमने-सामने बैठे थे. गाड़ी की तरह हमारी बातें चल रही थीं. लेकिन उसके विपरीत पूरी तरह अनर्गल और अश्लील.

हम तेज़ी से गुजरते गांव-बस्तियों को देखते जा रहे थे. जहां भी जो लोग दिख रहे थे, रंगों में सराबोर थे. मैंने उससे संभल कर बैठने के लिए कहा कि, फिर से रंग या कीचड़ आ सकता है. तो उसने कहा, 'अब काहे की चिंता कर रहे हो. कपड़ा तो नीचे रखे हैं. बदन पर पड़ी, तो धो लिया जाएगा.'

असल में हम-दोनों बिना कपड़ों के ही बैठे थे. फगुनहट बयार का ऐसा नशा था हम पर कि, हम बिना भांग और किसी नशे के ही फुल मस्ती में थे. ट्रेन की स्पीड सौ के करीब रही होगी. हम जानते थे कि, इतनी स्पीड में बाहर से कोई हमें देख-समझ नहीं पाएगा. और अंदर तो पूरा राज अपना है.

अश्लील बातों के साथ ही वह अत्यधिक चंचल बालिका की तरह हंस-बोल रही थी, हरकतें कर रही थी. उसके कहने पर मैंने दोनों सीटें खोल कर बर्थ बना ली थी. वह बचपना करती हुई अचानक ही मेरी गोद में आकर बैठ गई. मैंने कहा, 'अरे वाह, तुम तो बिल्कुल स्कूली लड़की बन गई हो.'

इस पर उसने बड़ी घृणा भरी आवाज़ में कहा,

'यही तो बन नहीं पाई.'

वह जिस मदरसे में पढ़ती थी, वहां के स्टाफ को बड़ी सख्त बातें कहती हुई बोली, 'उन सभी की रोज-रोज की बेजा हरकतों के कारण, पढ़ाई बीच में ही बंद करा दी गई. अम्मीं ने कहा आबरू से ज्यादा जरूरी नहीं है पढाई.

हमने जिद की, कि हम और होशियारी से रहेंगे. आबरू पर हाथ न डालने देंगे. तो गुस्सा होकर बोलीं, जहां लड़कों की आबरू पर बट्टा लग रहा हो, वहां तुम लौंडियों की होशियारी कुछ काम न आएगी. तो उन लोगों के कुकर्मों ने हम लड़कियों को स्कूली लड़की बनने से पहले ही घर के अँधेरे कोने में धकेल दिया. तालीम का नूर क्या होता है, ये सब हम क्या जानें. बड़ा रोने-धोने पर आगे प्राइवेट पढ़ाई चली, लेकिन एक बार फेल हुई तो वह भी बंद करवा दी गई.'

इसके लिए उसने अपने अब्बू पर नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि, 'वो बच्चों की पढ़ाई-लिखाई को समय और पैसों की बर्बादी मानते थे. हद तो यह कि, कहते लड़कियां पढ़ने से बदचलन हो जाती हैं. अम्मी भी उनके ही जैसा बोलतीं.'

अचानक ही वह मां-बाप के लिए कठोर शब्द बोलने लगी तो, मैंने विषयांतर करने की गरज से बीच में ही कहा, 'खिड़की खोल कर ऐसे बैठी हो. बाहर लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे?'

उसने तुरंत जवाब दिया, ' तुम भी तो वैसे ही बैठे हो, जो तुम्हें कहेंगे, वही हमें कहेंगे.'

'अरे, लेकिन मैं मर्द हूं. मेरी तरफ किसी का ध्यान नहीं जाएगा. तुम औरत हो.'

'अच्छा! हम औरत हैं. तुम करो तो ठीक, हम करें तो गलत. ई कहां का इंसाफ है?'

'ओह्ह, इसमें इंसाफ नाइंसाफ की बात नहीं है. यह एक सामाजिक व्यवस्था है. नियम-कानून मूल्य-मान्यताओं की बात है. समाज की मानसिकता की बात है. अभी मर्द खाली लुंगी पहन कर कहीं भी चला जाए तो लोग उसे मुड़-मुड़ कर नहीं देखेंगे. उस पर अश्लीलता करने या फैलाने का आरोप नहीं लगेगा. इस आधार पर मुकदमा दर्ज नहीं होगा.

मुझे याद नहीं कि, भारत में इस आधार पर आज-तक एक भी मुकदमा दर्ज हुआ हो. वहीं कोई महिला कमर से ऊपर बिना कपड़ों के निकल जाए तो तुरंत ही मजमा लग जाएगा. तमाशा बन जाएगा. उस पर मुकदमा दर्ज होते देर नहीं लगेगी.'

वह मेरी गोद में बैठे-बैठे ही बाहर देखती हुई बोली, ' जब ट्रेन चलती है तो यह थोड़ी न देखती है कि, उस पर आदमी बैठा है या औरत बैठी है या बच्चा बैठा है. देख नहीं रहे हो गाड़ी बस चलती चली जा रही है. तो तुम्हारे नियम-कानून, मूल्य-मान्यताएं , समाज भी ऐसे ही काहे नहीं होते, गाड़ी की तरह सभी के लिए एक जैसे.'

'तुम सही कह रही हो. सारी बातें सबके लिए एक जैसी होनी ही चाहिए, लेकिन व्यावहारिकता में दुनिया भर में ऐसा कहीं कुछ नहीं होता. अपने मज़हब को ही देख लो, औरतों को मर्दों के बराबर अधिकार कहाँ दिए गए हैं. उन्हें मर्दों की खेती कहा गया है. तुम पढ़ना चाहती थी, लेकिन नहीं पढ़ाया गया.'

उसकी बातें, खुराफाती हाथ, दोनों एक साथ चल रही थीं. इसी बीच 'बड़ा गोपाल' स्टेशन करीब आ गया. ट्रेन की स्पीड कम होने लगी तो मैंने कहा, 'चलो अब कपड़े पहन कर इंसान बन जाएँ, ठीक से बैठें, स्टेशन करीब आ गया है.' यह सुनते ही उसने छूटते ही कहा,

'हमेशा उल्टी ही बात काहे करते हो.'

'अरे ये कहां से उल्टी बात हो गई. बदन को कपड़े से ढकना सीधी बात है, नियम है समाज का, कानून है.'

'सब फालतू बात है. मन मा, तन मा कुछ और भरा रहे, और ऊपर कपड़ा डाल के सच छिपाए रहो, यह उल्टी बात है कि नहीं. अरे जो मन, तन में है, उसे ही दिखने दो, वैसे ही रहो. ये सीधी बात हुई कि नहीं.'

उसकी बात पर हँसते हुए मैंने कहा, 'चलो पहले सीधा काम कर लें, कपड़े पहन लें. हो सकता है यहां पूड़ी वगैरह मिल जाए. पीने का पानी भी खत्म हो गया है. वह भी लेना है.'

इस बार वह मान गई. यह संयोग था कि, स्टेशन पर पूड़ी-सब्ज़ी, पानी सब कुछ मिल गया. मैंने एक बार फिर चाय भी ले ली. क्योंकि वह चाय, नमकीन की शौकीन लग रही थी.

लेकिन वापस आते ही मेरा दिल धक्क से हो गया....

'' क्यों ? ''

'' क्योंकि एक नव-दम्पत्ति, मेरी सीट से पहले वाली सीट पर बैठा हुआ था. मैंने मन ही मन कहा, अरे महा-मानवों, क्यों हम-दोनों के बीच में कंकड़-पत्थर बनने आ गए हो. आज भी सोच कर मैं आश्चर्य में पड़ जाता हूँ कि, मुझे क्या हो गया था. मैं एकदम गुस्से में आ गया. बिलकुल बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था.

जल्दी से सामान मोहतरमा के हवाले कर युवक के पास पहुंचा. बिना एक सेकेण्ड गंवाए बेहिचक कहा, 'आप मुझ पर एक बड़ा एहसान कर दें, आगे, पीछे किसी भी दूसरी बोगी में बैठ जाएं. हम-दोनों पति-पत्नी के बीच बड़ा तीखा झगड़ा चल रहा है. आपको बहुत मुश्किल होगी, मुझे भी. हम अपना मामला घर पहुंचने से पहले सुलटा लेना चाहते हैं.

यह हमारी दूसरी पत्नी है. मामला ना सुलटा तो हमारा जीवन बर्बाद हो जाएगा. मैं आपका सामान खुद ही पिछली बोगी तक छोड़ आता हूं. आपका यह एहसान कभी नहीं भूलूंगा.’

यह कहते हुए मैंने उसका सूटकेस तुरंत उठा लिया कि, ये तुरंत निकले यहां से, कहीं गाड़ी चल न दे.

मैंने यह सब इतना तेज़ किया कि, उसे कुछ सोचने-समझने का अवसर ही नहीं मिला. वह अरे सुनिए तो जब-तक इतना बोला, तब-तक मैं गेट से नीचे उतर गया. वह दोनों डर गए कि, कहीं मैं सूटकेस लेकर भाग ना जाऊं, इसलिए दौड़े-भागे पीछे-पीछे आ गए.

मैंने पिछली बोगी के पहले ही गेट पर उनका सूटकेस अंदर तक धकेल दिया कि, उन्हें अंदर तक चढ़ना ही पड़े. यह सब करते हुए, मैं बराबर कहता जा रहा था, 'जल्दी, जल्दी करिए, ट्रेन छूटने ही वाली है.'

मेरे इतने प्रेसर से दोनों हड़बड़ा कर जल्दी-जल्दी चढ़ गए. महिला चढ़ने लगी तो साड़ी के कारण थोड़ा लड़खड़ा गई. वह प्लेट-फॉर्म पर पीछे की तरफ सिर के बल गिर ही जाती, यदि मैंने उसे पीछे से संभाल कर भीतर न धकेल दिया होता.

वह दोनों कुछ बोले जा रहे थे, लेकिन मैंने उस पर बिलकुल ध्यान ही नहीं दिया. स्पष्ट था कि, वो नाराज ही हो रहे थे. मैं बस धन्यवाद, धन्यवाद कहता अपनी बोगी की तरफ भाग लिया.

गाड़ी चल चुकी थी, मुझे अपनी बोगी में चढ़ने के लिए सात-आठ कदम दौड़ लगानी पड़ी. अंदर पहुंचते ही मैंने एक सेकेंड गँवाए बिना दरवाजा बंद कर दिया, कि कहीं वह या कोई और भी पीछे-पीछे ना आ जाए.

इसके बाद मैं बहुत आराम से, शिंक में हाथ-मुंह धो कर मोहतरमा के पास पहुंचा. वह बच्चे को दूध पिला रही थीं. एक बार फिर शुरू की ही तरह दोनों स्तन खुले हुए थे. मुझे देखते ही बोली, 'सब-कुछ तो लाये रहो, फिर कहां भागे-भागे गए रहो.'

उसकी बगल में बैठ कर, मैंने उसके एक स्तन को दुलारते हुए कहा, 'दाल-भात में आ गए मूसर-चंद को भगाने गया था.'

मेरे हरकत करते हाथों को रोकते हुए उसने कहा, 'अरे अब अऊर कुछ न हो पाई , अऊर लोग आ गए हैं, देख के सबै चालू हो जाएंगे.'

अपनी हरकतें जारी रखते हुए मैंने कहा, 'कह तो रहा हूं, उन्हीं मूसर-चंद को दूसरी बोगी में बैठा कर, दरवाजा बंद करके आया हूँ. अब पहले की तरह हम-तुम हैं बस, और कोई नहीं.'

उसको सारी बातें बताई तो, वह हंसते-हंसते लोट-पोट हो गई. उसे अपनी दूसरी पत्नी बताया यह जान कर वह ठठाकर हंस पड़ी. बोली, 'साथे यहू तो बता देते कि, गाड़ी मा चले भर की बीवी बनाई है. 'मुताह निकाह' किया है.'