Chutki Didi - 1 in Hindi Fiction Stories by Madhukant books and stories PDF | छुटकी दीदी - 1

छुटकी दीदी - 1

(कैंसर जागरूकता पर केन्द्रित उपन्यास)

डॉ. मधुकांत

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पात्र परिचय -

सलोनी - छुटकी दीदी

भाग्या - बड़ी बहन 

ज्योत्सना - माँ

अमर - भाग्या का पति

देवी सहाय - नाना

शारदा देवी - नानी

सीताराम - माँ का चचेरा भाई

सुकांत बाबू - नायक

बिमला - सुकांत बाबू की माँ

सिमरन - छुटकी की सहेली

बबुआ, बेबी - भाग्या के जुड़वाँ बच्चे

अग्रवाल साहब व वीणा - ज्योत्सना के पड़ोसी

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- 1 -

प्रत्येक बार रविवार का दिन उबाऊ लगने लगा तो सलोनी अपनी चित्रकला में मस्त रहने लगी। इससे समय का सदुपयोग हो जाता और धीरे-धीरे उसके बनाए चित्रों का संग्रह होने लगा। 

आज उसकी प्राचार्या ने स्कूल की स्मारिका के लिए एक आवरण चित्र बनाने का दायित्व सौंपा तो उनकी बात सुनकर वह बहुत खुश हुई थी - ‘सलोनी, मैं सोचती हूँ कि इस बार विद्यालय की वार्षिक पत्रिका का आवरण तुम अपने हाथों से बनाओ। जब हमारे पास चित्रकला के इतने निपुण अध्यापक हैं तो बाहर से चित्र क्यों बनवाएँ।’

‘जी मैम, धन्यवाद। हम पत्रिका के लिए दो-तीन चित्र बनाकर आपको दिखा देंगे, उनमें से जो आपको अच्छा लगे, चुन लेना।’

‘सलोनी, धन्यवाद तो मुझे तुम्हारा करना चाहिए। वास्तव में, तुम एक श्रेष्ठ शिक्षिका हो। कोई और शिक्षिका होती तो नाक-भौंह सिकोड़ती …. यही तो एक सच्चे कलाकार में खूबी होती है। वह अपने कर्त्तव्य-बोध से कभी पीछे नहीं हटता।’

‘मैम, यह तो हमारी पसन्द का काम है। हम ख़ुशी-ख़ुशी इस काम को करेंगे। कल रविवार है, सम्भव है, हम कल ही चित्र बना लें।’

प्राचार्या के साथ हुए संवाद की मधुर स्मृति के साथ कैनवस लगाकर वह चित्र के विषय में चिंतन करने लगी ….।

बच्चों को टीचर बनकर उनकी नक़ल करना बहुत अच्छा लगता है। क्यों न एक बालक के हाथ में पुस्तक देकर उसकी नाक पर गांधी जी का गोल चश्मा चढ़ा दिया जाए! हाँ, यह तो बहुत अच्छा चित्र बनेगा।

बचपन में, हम भी मोहल्ले के सब बच्चों को एकत्रित करके उनकी टीचर बन जाते थे। हमारे क्रियाकलापों को देखकर नानी ख़ुशी से कहती - ‘सलोनी, तू तो बड़ी होकर मास्टरनी ही बनेगी।’ नानी की भविष्यवाणी सच निकली और हम कला अध्यापिका बन गए। उन्हीं दिनों नानी ने हमारी बातों से प्रभावित होकर एक कहानी लिखी थी - “बाल शिक्षक”। नानी कई बार हमें वह कहानी पढ़ने को देती। बचपन में वह कहानी पढ़ना हमें अच्छा लगता था, परन्तु बाद में हम कहानी में चित्रित अपने क्रियाकलापों को देखकर शरमाने लगे थे। आज हम सचमुच की अध्यापिका बन गए हैं। उस कहानी को देखकर हमारा तो मन आज भी शरमा जाता है। आज हम आपके सामने इस बालमन की कहानी को रखते हैं, जिसका शीर्षक है - “बाल शिक्षक”।

रविवार की छुट्टी का दिन। नाश्ता आदि करके अख़बार की सुर्ख़ियाँ देख रही थी। तभी मेरी नातिन ने पीछे से चुपके से आकर मेरी आँखों को अपने नन्हे-नन्हे कोमल हाथों से बंद कर दिया - ‘नानी, बताओ कौन?’ मैंने जानबूझकर बड़ी नातिन का नाम बोल दिया - ‘भाग्या-भाग्या….।’

वह खिलखिला कर हँसती हुई ताली बजाने लगी - ‘भाग्या नहीं, हम हैं छुटकी, नानी। आप हार गए, हम जीत गए …।’ जानबूझकर हारने का अभिनय करते हुए मैं हँसने लगी। अख़बार समेटकर मैंने एक ओर रख दिया।

‘चलो नानी, टीचर-टीचर खेलते हैं, बहुत मज़ा आएगा,’ बहुत विनम्रता से उसने प्रस्ताव रखा।

‘क्या तुम्हारा होमवर्क पूरा हो गया?’

‘अभी-अभी तो किया, कहो तो निकाल कर दिखाऊँ?’ उसके आत्मविश्वास को देखकर मुझे यक़ीन हो गया। मेरी चुप्पी को स्वीकृति मानकर वह खेलने लगी।

‘नानी, आज हम टीचर बनेंगे और तुम स्टूडेंट,’ कहकर वह स्वयं सोफ़े पर जा बैठी।

‘नहीं-नहीं, तुम हर बार टीचर बनती हो। आज मैं टीचर बनूँगी, क्योंकि बड़े टीचर बनते हैं और छोटे स्टूडेंट, और मैं पहले भी टीचर रही हूँ,’ कहते हुए मैंने उसकी बात का प्रतिरोध किया।

‘अरे नानी, यह तो झूठ-मूठ का खेल है। इसमें तो बच्चे ही टीचर बनते हैं, तभी मज़ा आता है….। लो, आज हम टीचर बन गए।’ 

उसने अपने बैग में से लकड़ी का रूल निकालकर हाथ में लिया और चार पुस्तकें निकालकर मेज पर साथ-साथ रखकर स्टूडेंट्स की संख्या बढ़ा दी। 

‘देखो, ये अरुण, वरुण, नमिता और कन्नू हैं….। तुम इनके साथ झगड़ा नहीं करना, ये बहुत अच्छे बच्चे हैं।’

‘ठीक है मैम,’ मैंने छात्र बनना स्वीकार कर लिया।

‘ठीक है, अब तुम खड़े हो जाओ। सबसे पहले मॉर्निंग असेम्बली होगी।’ 

वह तनिक कड़क आवाज़ में बोली, ‘जल्दी से खड़े हो जाओ, बूढ़ी हो गई हो क्या? …. आईज नहीं खोलना। दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थना करना, समझी?’

उसकी बाल सुलभ, मनमोहक क्रियाओं को देखकर मेरी हँसी छूट गई।

‘तुमको हँसी आ रही है? बहुत शरारती हो गई हो! प्रिंसिपल मैम से तुम्हारी शिकायत करनी पड़ेगी….। वो तुम्हें डंडे से मारेंगी तो नानी याद आ जाएगी।’ 

उसका क्रोधित चेहरा देखकर मेरी हँसी और तेज हो गई। बल्कि यह समझो कि मेरे लिए हँसी रोकना कठिन हो गया।

‘ठीक है बेटी, प्रेयर के बाद तुम्हें शर्मा मैम के पास ले जाना पड़ेगा, तब तुम्हारी अक़्ल ठिकाने आएगी। चलो, जल्दी से प्रार्थना करो…।’

‘मैम, प्रार्थना तो मुझे याद नहीं है।’

‘कोई बात नहीं। जैसा हम बोलते हैं, हमारे पीछे बोलते रहो …।’

‘ओम भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि धियो या नः प्रचोदयात् ….बोलो …।’

‘मैम, इतना बड़ा मंत्र? मैं नहीं बोल सकती।’

‘ठीक है, छोटा-छोटा बोलो - ‘ओम भूर्भुव: स्व:।’

‘ओम भूर्भुव: स्व:,’ मैं पीछे बोलने लगी।

‘तत्सवितुर्वरेण्यं।’

‘तत्सवितुर्वरेण्यं।’

‘भर्गो देवस्य धीमहि।’

‘भर्गो देवस्य धीमहि।’

‘धियो या नः प्रचोदयात्।’

‘धियो या नः प्रचोदयात्।’

‘ओम शांति।’

‘ओम शांति।’

मैं तुतलाती आवाज़ में उसके पीछे-पीछे उसी ट्यून में अनुसरण करती रही। हाथ जोड़े, आँखें बंद किए मैं एक आज्ञाकारी बालक की भाँति उसका कहना मानती रही।

‘आँखें खोलो, और हाँ, कल घर से प्रार्थना याद करके आना। चलो, अब तुम्हारी ड्रेस, नाखून और दांत चेक किए जाएँगे। मुँह खोलो, अपने दाँत दिखाओ।’

मैंने अपना मुँह खोल दिया।

‘कितने गंदे हैं दांत ? शर्म नहीं आती! डेली ब्रश नहीं करती …? तुम्हारी कॉपी पर नोट चढ़ाना पड़ेगा। अपनी मम्मी से कहना, हर रोज़ टूथब्रश कराकर स्कूल भेजें। अरे, तुम्हारा तो एक दांत भी ग़ायब है! चिड़िया ले गई क्या? अपने पापा से कहना, चुहिया की बिल में से दांत निकालकर तुम्हारे मुँह में ग़म से चिपका दें। समझी?’

‘जी, मैं बोल दूँगी।’

‘गुड गर्ल। चलो, सब बच्चे बैठ जाओ और अपनी इंग्लिश की नोटबुक निकालो।’

मैं आज्ञाकारी बालिका की भाँति बैठ गई। आठ वर्ष की सलोनी की इतनी भाव भंगिमा देखकर मैं आश्चर्यचकित और अभिभूत हो गई। यह सब देखकर मेरे अन्दर हँसी भी फूट रही थी।

‘कल वाला लैसन जो लर्न करने को दिया था, उसे सुनाओ,’ सलोनी ने आदेश दिया।

‘यस मैम।’ उसकी आज्ञा का पालन करते हुए मैं अपनी नोटबुक खोल लेती हूँ।

मेरी यह भी धारणा है कि इस प्रकार की क्रियाओं से बच्चे में आत्मविश्वास और हौसला बढ़ता है। मैं इस कार्य में उसका पूरा सहयोग देती हूँ।

‘मैम, आज मैं लैसन याद करके नहीं लाई।’

‘लैसन याद करके नहीं लाई…!’ वह मेरी नक़ल उतारती है और क्रोध से डाँटती है, ‘सारे दिन कक्षा में हँसती रहती हो, खेलती रहती हो, पाठ याद करने में तुम्हारी जान निकलती है? आज ही तुम्हारी शिकायत प्रिंसिपल मैम से करती हूँ। वह तुम्हारी मम्मी को स्कूल में बुलवाएँगी।’

‘मैम, मेरी मम्मी नहीं आ सकती।’

‘क्यों नहीं आ सकती? आना पड़ेगा।’

‘प्लीज़ मैम, सॉरी मैम, कल मैं अवश्य लैसन याद करके सुना दूँगी।’

‘नहीं,’ सलोनी अधिक क्रोध से चिल्लाई, ‘तुम्हारी मम्मी को तो बुलवाना ही पड़ेगा।’ 

उसने मेरी कमज़ोर नस को समझ लिया।

‘मैम, वह तो स्वर्ग में चली गई है।’

‘तो स्वर्ग से बुलवाना पड़ेगा।’

‘मैम, मेरा मतलब है कि वह मर गई है।’

‘तो तुम्हारे पापा को बुलवाना पड़ेगा ।’

‘मैम, वे भी मर चुके हैं।’

‘तुम झूठ बोलती हो …. चलो, आज का लैसन नंबर फ़ाइव निकालो।’

‘मैम, मुझे भूख लगी है,’ मैंने निवेदन किया।

‘अभी नहीं, पहले पाठ पढ़ लो।’

‘तो फिर मुझे आपके साथ यह खेल खेलना ही नहीं। आप तो मुझे मेरी पसन्द का कुछ भी नहीं करने देती हो,’ मैंने अपनी कॉपी को बंद करके विरोध प्रकट किया।

‘नहीं बेटी, तुम तो अच्छी बच्ची हो,’ उसका व्यवहार एकदम बदल गया, ‘बेटी, पहले काम करते हैं, फिर मज़े से खाना खाते हैं। आज मैं तुम्हें फ़ाइव स्टार दूँगी।’ 

वह नोटबुक उठाकर मेरे हाथ में थमा देती है। वह नहीं चाहती कि मैं उसके चंगुल से निकल जाऊँ। टीचर बनना बच्चों को बहुत अच्छा लगता है, क्योंकि वे कक्षा में कुंठित मन को कहीं-न-कहीं हल्का करना चाहते हैं। जिस प्रकार यह नन्ही बालिका अपनी मैम की पूरी नक़ल कर रही है, परन्तु हमने तो अपने जमाने में कभी किसी बच्चे को डाँटा नहीं।

‘लो, अब इस कॉपी में अच्छा-सा काम कर लो। गुड गर्ल। हम डिक्टेशन बोलते हैं।’

‘यस मैम,’ मैंने कॉपी खोली।

मेरी नज़र उसकी कॉपी पर पड़ी। कॉपी में सलोनी ने आशीर्वाद शब्द ग़लत लिखा था जिसे उसकी मैडम ने काटकर ठीक किया हुआ था, परन्तु मैडम ने भी आशीर्वाद शब्द ग़लत लिखा था। उसने ‘आशिर्वाद’ इस प्रकार लिखा था। मैंने उसे ठीक कर दिया, ‘मैम, आपकी नोटबुक में आशीर्वाद शब्द ग़लत लिखा हुआ है…।’

‘तो क्या हुआ, … मैडम ने काटकर ठीक तो कर दिया है।’

‘परन्तु आपकी मैडम ने ही ग़लत लिखा है।’

‘ज़्यादा मत बोलो,’ उसका क्रोध सातवें आसमान पर चढ़ गया, ‘अपने टीचर की ग़लतियाँ निकालती हो, शर्म नहीं आती। जानती हो, हमारी मैडम कभी ग़लत नहीं लिखती। तुम्हें तो कुछ लिखना-पढ़ना आता नहीं है! चलो, सीधे बैठकर डिक्टेशन लिखो।’

मैं जीवन भर स्कूल में हिन्दी पढ़ती-पढ़ाती रही, … हिन्दी आन्दोलन चलाती रही … और यह मेरी नातिन सलोनी आज मुझे ग़लत और अपनी मैडम को सत्य मानती है। …. दूसरी ओर मुझे यह सब अच्छा भी लगा। यही एक अध्यापक की गरिमा है। इसलिए वह राष्ट्र निर्माता है। छात्र अपने शिक्षक की गलती को भी नहीं स्वीकारता।

मैंने भी उसकी श्रद्धा और निष्ठा पर आघात करना ठीक नहीं समझा। पेंसिल से एक हल्का सा गोला ‘आशिर्वाद’ पर लगाकर नोटबुक को बंद कर दिया।

तभी किचन से उसकी मम्मी की आवाज़ सुनाई दी, ‘सलोनी, चलो, पहले खाना खा लो। नानी के साथ बाद में खेलना।’

‘जी मम्मी, अभी आई,’ कहकर वह मुझे बताने लगी, ‘ठीक है, अब तुम्हारा भी लंच हो गया। जाओ, अच्छे से वाशवेसिन में हाथ साफ़ करके लंच करना और कल अपना लैसन ठीक से याद करके आना,’ मुझे आदेश देते हुए मेरी बाल शिक्षिका किचन की ओर चली गई। 

बचपन की नटखट चंचल बातें याद करके आज भी हमें हँसी आ रही थी। कैनवस पर उभरी बाल आकृति पर जब हमने गांधी जी का गोल चश्मा चढ़ाया तो सचमुच में हम बचपन की बाल सलोनी बन गए । चित्र को देखकर हमें बहुत हँसी आई।

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Daksha Gala

Daksha Gala 6 months ago

Lajpat Rai Garg

Lajpat Rai Garg Matrubharti Verified 7 months ago

यह एक रोचक व प्रेरक कृति है। इसे सभी साहित्य रसिकों को पढ़ना चाहिए। डॉ मधुकांत जी को हार्दिक बधाई।