Chutki Didi - 13 books and stories free download online pdf in Hindi

छुटकी दीदी - 13

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सब शीतकालीन अवकाश की प्रतीक्षा कर रहे थे। सलोनी ने सुकांत बाबू से मिलने के लिए टिकट बनवा ली। बाड़ी की रजिस्ट्री भी होनी थी। नानी से अधिक सुकांत बाबू सलोनी की प्रतीक्षा कर रहे थे।

आख़िर वह दिन भी आ गया और सलोनी ट्रेन में बैठकर कोलकाता चली गई। आधी से अधिक बाड़ी ख़ाली हो गई थी। सुकांत बाबू ने अपना फ़्लैट भी ख़ाली करा लिया था। यहाँ तो वे लोग इसलिए रहते थे कि उनके पिताजी का पास की मार्केट में व्यवसाय था। इसके अतिरिक्त यहाँ के लोगों से इतना प्यार हो गया था कि अपने फ़्लैट में जाने का मन ही नहीं करता था।

बीस वर्ष पूर्व नाना ने इस बाड़ी को ख़रीदा था। तब से नानी एक-एक सामान जोड़ रही थी। सामान से घर भर गया था। सलोनी लगभग एक मास बाद आई तो नानी ने लगभग आधा सामान पड़ोस में बाँट दिया। बाक़ी जो सामान बचा था, उसपर नानी ने विचार कर रखा था कि कौन-सा किसको देना है। अपने कपड़ों का बैग, चाँदी के बर्तन और आवश्यक सामान के साथ नानी दिल्ली जाने की सोच रही थी। इस बार तो नानी का मन विरक्त-सा हो गया था। वस्तुओं से मोह कम हो गया था। जब इतना बड़ा शहर, इतनी बाड़ी ही छूट रही है तो वस्तुओं से मोह क्यों पाला जाए।

जिन भाड़तियों के साथ नानी एक-एक रुपए के लिए झगड़ती थी, उनका किराया भी माफ़ कर दिया। उनको मुफ़्त में घर का सामान दे रही थी। नानी के व्यवहार से सब बाड़ी वाले आश्चर्यचकित थे।

चटर्जी बहुत पहुँच वाले व्यक्ति थे। इसलिए उन्होंने दो दिन में ही रजिस्ट्री के सब काग़ज़ात तैयार करवा लिए। नानी को तो एक दिन केवल दो घंटे के लिए तहसील में दस्तख़त करने जाना पड़ा। बाक़ी काम तो उन्होंने अपने आप ही करवा दिया था। रुपए देने के विषय में अग्रवाल अंकल से बात हो गई थी। सलोनी ने उनके पास भिजवाने के लिए कह दिया। उसी दिन सलोनी के साथ जाकर नानी ने  पाँच सौ एक रुपए का प्रसाद कालीमाई को भेंट किया। 

सलोनी ने साँझ के समय सुकांत बाबू के साथ विक्टोरिया गार्डन घूमने का मन बनाया। आज वह अंतिम बार अपने सपनों के शहर को हसरत भरी नज़रों से देख रही थी। सभी सुनहरी यादों को वह अपनी आँखों के ज़रिए मन में बसा लेना चाहती थी। सुकांत बाबू के साथ व्यतीत किए सुखद लम्हे, संजोए गए सपने, किए गए वायदे, उसकी स्मृतियों में तैर रहे थे।

जब वे विक्टोरिया गार्डन पहुँचे तो दिवाकर अस्ताचलगामी था। लोगों की खूब चहल-पहल थी। एक ख़ाली बेंच देखकर वे बैठ गए। सलोनी सुकांत बाबू के साथ सटकर बैठी थी, उसका सिर सुकांत बाबू के कंधे की ओर झुका हुआ था। दोनों मौन किन्तु दोनों के दिलों में अनेक भावनाएँ उमड़-घुमड़ रही थीं। इस चुप्पी को सलोनी ने ही तोड़ा, ‘सुकांत बाबू, कल हम अपनी नानी के साथ दिल्ली चले जाएँगे। शायद फिर यहाँ आना ही ना है!’

सुकांत बाबू कुछ नहीं बोले। मन भारी हो रहा था तो कुछ आवाज़ नहीं निकल रही थी। 

‘सुकांत बाबू, आप दिल्ली आओगे ना! … कुछ तो बोलो, … आज आप इतने चुप क्यों हैं?’

‘क्या बोलूँ सलोनी? लगता है, सारे शब्द, मन का सारा उल्लास, जीने का अर्थ, .. सब कुछ धूमिल हो रहा है!’

‘नहीं सुकांत बाबू, इतने कमजोर ना पड़ो … प्रत्येक पतझड़ के बाद बसंत खिलता है। … अपने जीवन में भी बसंत आएगा, हमें प्रतीक्षा करनी होगी।’

‘कब तक?’ सुकांत बाबू ने उदास स्वर में प्रश्न किया।

‘हो सकता है सात जन्म तक! … लेकिन निराश ना हों, हमारा मन कहता है कि बहुत शीघ्र ही आपकी नियुक्ति दिल्ली में हो जाएगी। … जब हमें आपकी याद सताती है तो हम अपने विद्यार्थियों में खो जाते हैं। आप भी एकांतवास छोड़कर अपनी चित्रकला में डूबने का प्रयास करो।’

‘प्रयास करूँगा, सम्भव तो नहीं लगता कि तुम्हें भूल जाऊँ। तुम पता नहीं, कैसे अपने दिल को लगा लेती हो!’

‘यही तो नारी की विशेषता और विवशता होती है। उसे केवल अपने लिए नहीं, सबके लिए जीना पड़ता है, सबका ख़्याल रखना पड़ता है।’

सलोनी फिर छोड़ आई अपने बचपन के प्यार को .. शायद हमेशा के लिए … बीच भँवर में, लेकिन उसे विश्वास है, एक दिन वह भँवर से बाहर निकल आएगी और उसके प्यार को किनारा मिल जाएगा।

मास का अंतिम दिवस होने के कारण सभी छात्रों का पूर्ण अवकाश हो चुका था। सभी शिक्षक अपने-अपने रजिस्टर को पूरा करके बीते मास का शेष काम पूरा कर रहे थे। सलोनी के पास कोई रजिस्टर नहीं था। इसलिए वह अपने कमरे में बैठी चित्रकारी कर रही थी।

‘लो भई सलोनी, हमारा काम तो पूरा हो गया, परन्तु तुम किसका चित्र बनाने में व्यस्त हो,’ कहते हुए बनर्जी मैम कैनवस पर लगे चित्र को देखने लगी। ‘सलोनी, यह कैसा चित्र बना रही हो! रेगिस्तान .. दूर तक बालू ही बालू … सूरज की चिलचिलाती धूप और कोने में थका-हारा प्यासा हिरण … टकटकी लगाए देख रहा है … और चित्र के ऊपर शीर्षक दिया है - मृगमरीचिका … वैसे तो शीर्षक बहुत सार्थक है , परन्तु कितना उदास … कितना वेदनापूर्ण … क्यों बनाती हो ऐसा निराशापूर्ण चित्र?’

सलोनी ने कैनवस पर ब्रश चलाना बंद कर दिया। गंभीर व उदासी में भीगा हुआ स्वर निकला, ‘दीदी, जैसा हमारा अन्तर्मन होता है, उसमें से वैसा ही चित्र निकलता है ..।’

‘कैसी कष्ट पूर्ण बात कह रही हो, सलोनी! कोलकाता से लौटने के बाद तो आज ही मिली हो। चलो, वहाँ की कुछ बातें बताओ।’

‘दीदी, कोलकाता तो अब छूट गया समझो … सपना-सा बनता जा रहा है … वहाँ का मिठास और बंगाली भाषा बोलने-सुनने का आनन्द हमसे दूर हो गया है।’

‘और सुकांत बाबू …?’

सलोनी कुछ नहीं बोली। बनर्जी मैम ने उसके गंभीर, गहरे समुद्र के तल में डूबे चेहरे को देखा तो पूछा, ‘सलोनी, सुकांत बाबू से मुलाक़ात हुई थी?’ सलोनी ने स्वीकृति में केवल गरदन हिला दी।

‘सलोनी, मैं समझ सकती हूँ तुम्हारी पीड़ा को। बचपन का पहला प्यार कहीं पीछे छूटने लगता है तो मन बहुत आहत होता है, परन्तु तुम दोनों ने कुछ तो विचार किया होगा? सलोनी, इसमें मैं तुम्हारी कोई सहायता कर सकती हूँ तो बताओ … बोलो सलोनी … मुझे अपनी बड़ी बहन ही समझो।’

सलोनी बोलने लगी तो उसकी आँखों से आँसू चू पड़े। गला भरभरा गया।बनर्जी मैम ने अपनी बोतल निकालकर उसे पानी पिलाया। कुछ संयत होकर सलोनी बोली, ‘दीदी, एक बार तो सब अस्त-व्यस्त हो गया है… कोलकाता तो छूट ही गया है … सुकांत बाबू बहुत प्रयत्न कर रहे हैं कि दिल्ली में या दिल्ली के आसपास ही उन्हें नौकरी मिल जाए … उम्मीद भी है …. आगे प्रभु की इच्छा!’

‘नहीं सलोनी, निराश ना हो। भगवान तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी करेंगे। फिर भी मुझसे कुछ भी बन पड़े तो बोलना। संकोच नहीं करना। मुझे बड़ी दीदी समझा है तो उसका अधिकार भी देना।’

‘धन्यवाद दीदी। आपसे बातें करके मन हल्का हो गया है।’

‘चलो, सब टीचर जा चुके हैं। हम भी अपना रजिस्टर ऑफिस में जमा कराकर घर चलते हैं,’ कुर्सी से उठते हुए बनर्जी मैम ने कहा तो सलोनी भी उठ गई।

…….

वार्षिक उत्सव के बाद बनर्जी मैम से गहरी मित्रता हो गई। उन्होंने बंगाली नृत्य तैयार किया तो सलोनी ने उसमें बहुत सहायता की। लंच में दोनों साथ-साथ खाना खातीं। घर की, परिवार की, कोलकाता की बातें करतीं और सुकांत बाबू के बारे में भी सलोनी ने उन्हें सब कुछ बता दिया था। 

वैसे तो बनर्जी मैम बाल बच्चों वाली थी, शायद सलोनी से पाँच वर्ष बड़ी हो, परन्तु दोनों अच्छी सहेलियाँ बन गईं तो एक-दूसरे से मन की बात कर लेतीं। कभी-कभी दोनों अपनी बंगाली भाषा में बात करतीं तो दूसरे अध्यापक उनके मुँह की ओर ताकते रहते। तब उन्हें अपनी बंगला पर गर्व होता।

शीतकालीन अवकाश में बनर्जी मैम सलोनी के साथ ही कोलकाता गई थी। उनका तीन साल का लड़का ट्रेन में बहुत मस्ती करता रहा। कोलकाता पहुँच कर एक दिन बनर्जी मैम ने सलोनी को अपने घर पर भी बुलाया था। अवकाश समाप्त होने पर दोनों फिर स्कूल लौट आई थीं।

सलोनी को लंच में गुमसुम बैठी देखकर बनर्जी मैम ने टोक दिया, ‘सुकांत बाबू की याद आ रही है क्या?’

‘नहीं दीदी, कुछ और समस्या है ..।’

‘परिवार में कुछ …?’

‘नहीं, …।’

‘तो फिर! वैसे तो मुझे बड़ी बहन मानती है, फिर भी कहने में संकोच …?’

‘पता नहीं, कुछ दिनों से हम अपने आप को अस्वस्थ अनुभव कर रहे हैं ..।’

‘कहो, क्या परेशानी है? लाओ, मैं चुटकी में ठीक कर देती हूँ।’

‘मेरी ब्रेस्ट में एक गाँठ सी बन गई है, उसमें हल्का-हल्का दर्द रहता है …।’

‘ज़रा तनिक दिखाओ।’

बनर्जी मैम ने उसकी जाँच की, ‘अरे सलोनी, यह कुछ नहीं, तुझे वहम हो गया है। मनुष्य के शरीर में अनेक गाँठें बनती और पिघलती रहती हैं। एक काम करना, प्रात: उठकर दस मिनट कपालभाती किया कर, सब ठीक हो जाएगा।’

सलोनी के चेहरे पर छाई चिंता की रेखाएँ मुस्कान में बदल गईं।

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